चीन से दोस्ती गांठने वाले के पी शर्मा ओली ने नेपाल में क्या खेल कर दिया है?
साथ में जानिए, नेपाल का राजनीतिक इतिहास.
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के पी शर्मा ओली ने क्या चाल चली कि सब हैरान रह गए.
हमारे पड़ोसी देश नेपाल में बहुत बड़ी गड़बड़ हुई है. वहां के प्रधानमंत्री थे, के पी शर्मा ओली. उन्होंने अपने देश के साथ चीटिंग की है. संविधान के साथ फ्रॉड करके वो बन गए हैं नेपाल के ऐब्सल्यूट लीडर. मतलब, ऐसा राष्ट्राध्यक्ष जिसके पास पद पर बने रहने का कोई लोकतांत्रिक और संवैधानिक आधार न हो. ओली की इस धोखेबाज़ी में उनकी पार्टनर ऑफ़ क्राइम कौन हैं, पता है? नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी. क्या कुछ हुआ है नेपाल में, विस्तार से बताते हैं आपको.शुरू से शुरू करते हैं. नेपाल एक राजशाही सिस्टम वाला देश था. कई छोटी-छोटी रियासतें थीं यहां. फिर 1768 में यहां आया शाह वंश. इसके राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल की पूर्वी और पश्चिमी रियासतों को जीतकर उनका एकीकरण किया. उनके बाद शाह वंश के राजा नेपाल पर हुकूमत करते रहे. ये स्थिति बदली 1846 में. इस बरस नेपाली राजशाही में एक तख़्तापलट हुआ. इसे अंजाम दिया था, सेना के एक जनरल जंग बहादुर राणा ने. वो बन गए नेपाल के प्रधानमंत्री. कहा कि जैसे राजा का बेटा राजा बनता है, ऐसे ही मेरे उत्तराधिकारी बनेंगे नेपाल के प्रधानमंत्री. अब गद्दी पर बैठते शाह वंश के लोग, मगर सत्ता चलाता राणा वंश. ये व्यवस्था 104 सालों तक चली.

राजा पृथ्वी नारायण शाह.
फिर 1951 में राणा वंश की छुट्टी हो गई. उन्हें हटाकर एकबार शाह वंश पावर में आ गया. नए राजाओं ने राणाओं द्वारा 1948 में लाए गए संविधान को हटाया और 1959 में नेपाल को दिया उसका दूसरा संविधान. तय हुआ कि अब देश में कॉन्स्टिट्यूशनल मोनार्की जैसा सिस्टम रहेगा. इसी के तहत 1959 में नेपाल के भीतर पहला आम चुनाव हुआ. इसमें नेपाली कांग्रेस पार्टी को बहुमत मिला. मगर इससे पहले कि ये व्यवस्था आगे बढ़ती, अगले ही साल राजा ने सभी पॉलिटिकल पार्टियों पर बैन लगा दिया. ये बैन ख़त्म हुआ 30 साल बाद, अप्रैल 1990 में. फिर से नेपाल में नया संविधान लाया गया. इसके तहत नेपाल को दोबारा कॉन्स्टिट्यूशनल मोनार्की बना दिया गया. यहां मल्टी-पार्टी डेमोक्रेसी की व्यवस्था लागू की गई.
कहने को ये सिस्टम डेमोक्रैटिक था. मगर अब भी असली पावर राजशाही के पास ही थी. इसी व्यवस्था के खिलाफ़ 1996 में शुरू हुआ नेपाली सिविल वॉर. इस गृह युद्ध को शुरू किया था, माओवादी लड़ाकों ने. उनके लीडर थे, पुष्प कमल दहल प्रचंड. एक जमाने में स्कूल के टीचर रहे प्रचंड ने माओवादियों गुरिल्लाओं की फ़ौज बनाई. ये गुरिल्ला दक्षिण एशिया के सबसे दुर्दांत बाग़ी गुटों में गिने जाने लगे.
क्या चाहते थे माओवादी?
उनका मकसद था, राजशाही का ख़ात्मा करके नेपाल को सिंगल-पार्टी राज वाला कम्युनिस्ट रिपब्लिक बनाना. करीब एक दशक तक चलती रही ये लड़ाई. इसी सिविल वॉर के बीच में आया 1 जून, 2001. इस रोज़ नेपाल के राजमहल में एक भीषण हत्याकांड हुआ. क्राउन प्रिंस दीपेंद्र ने अंधाधुंध गोली चलाकर अपने पिता राजा बीरेंद्र समेत परिवार के नौ सदस्यों को मार डाला. इसके बाद गद्दी मिली किंग बीरेंद्र के छोटे भाई ज्ञानेन्द्र को.

प्रिंस दीपेन्द्र ने परिवार के सदस्यों की हत्या करने के बाद ख़ुद को गोली मार ली.
नेपाल की जनता इस हत्याकांड से सदमे में थी. कई तरह की कहानियां उड़ने लगीं. कईयों को किंग ज्ञानेन्द्र की भूमिका भी संदिग्ध लग रही थी. ऐसे में फरवरी 2005 में जब किंग ज्ञानेन्द्र ने माओवादियों को कुचलने के नाम पर ख़ुद को अकूत पावर दे दी, तो लोग भड़क गए. राजा के खिलाफ़ ख़ूब प्रोटेस्ट हुए. इसके चलते अप्रैल 2006 में किंग ज्ञानेन्द्र को एब्सोल्यूट पावर तजनी पड़ी. गिरिजा प्रसाद कोईराला को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया. उन्होंने माओवादी बाग़ी धड़े को बातचीत के लिए आमंत्रित किया. और इसी बातचीत के रास्ते नवंबर 2006 में कोईराला और प्रचंड के बीच हुआ एक शांति समझौता. इसके साथ ही नेपाली सिविल वॉर का भी अंत हो गया.
अब प्रचंड और उनके साथी हथियार छोड़कर पॉलिटिक्स में आ गए. इन्होंने अप्रैल 2008 के आम चुनाव में हिस्सा लिया और सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे. प्रचंड बने नेपाल के प्रधानमंत्री. इसी साल नेपाल में राजशाही का भी अंत कर दिया गया. उसकी जगह लाया गया, एक लोकतांत्रिक सिस्टम. इसके बाद हुई घटनाओं का सार बताने के लिए कुछ शब्द काफी होंगे. मसलन, गठबंधन सरकारें. समर्थन वापसी से गिरती सरकारें. राजनैतिक अस्थिरता. एक-के-बाद एक बदलते गए प्रधानमंत्री, जिनमें से कोई अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया.
ये सब बताने के बाद हम आते हैं अपने मौजूदा संदर्भ पर. अभी क्या हुआ है नेपाल में? ये ताज़ा घटनाक्रम शुरू हुआ 15 दिसंबर को. इस रोज़ नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली एक ऑर्डिनेंस लेकर आए. इसका मकसद था, नेपाल के कॉन्स्टिट्यूशनल काउंसिल ऐक्ट में संशोधन करना. ये एक बहुत अहम संवैधानिक बॉडी है. इसे समझिए सरकार के काम-काज और फैसलों पर नज़र रखने वाली संस्था. इसमें कुल छह सदस्य होते हैं- प्रधानमंत्री, चीफ़ जस्टिस, स्पीकर, डेप्युटी स्पीकर, नैशनल असेंबली के मुखिया और मुख्य विपक्षी पार्टी के लीडर.

प्रचंड पहली बार 2008 के साल में नेपाल के पीएम बने थे.
इस ऐक्ट का गठन 2015 के नेपाली संविधान ने किया था. इस ऐक्ट के तहत, काउंसिल के कम-से-कम पांच सदस्यों की मौजूदगी में ही इसकी मीटिंग्स हो सकेंगी. ऑर्डिनेंस लाकर ओली ने ये नियम बदल दिया. अब प्रधानमंत्री समेत केवल तीन सदस्यों की मौजूदगी में भी ये काउंसिल फैसले ले सकेगी. चूंकि डेप्युटी स्पीकर का पद अभी खाली है, ऐसे में काउंसिल के भीतर पहले ही एक सदस्य की कमी थी. यानी, प्रधानमंत्री को मिलाकर जहां छह मेंबर्स होने चाहिए थे, वहां केवल पांच ही सदस्य थे. ऑर्डिनेंस के मुताबिक, इन पांचों में से भी केवल तीन के होने पर फैसले लिए जा सकेंगे. और अगर उन तीन में से भी कोई एक मौजूद नहीं रहता, तो काउंसिल की मीटिंग होगी ही नहीं.
ऐसा नहीं कि ओली पहली बार ये ऑर्डिनेंस लाए हों. आठ महीने पहले भी वो इसे लाए थे. तब काफी प्रोटेस्ट होने पर इसे वापस ले लिया गया था. ज़ाहिर था, ओली द्वारा वापस इस ऑर्डिनेंस को लाए जाने का भी काफी विरोध हुआ. लोगों ने कहा, ओली संवैधानिक फ्रॉड कर रहे हैं. तानाशाही चलाने की कोशिश कर रहे हैं.
सवाल है, ओली ने ऐसा किया क्यों? इसका जवाब है, डूबते को तिनके का सहारा. ओली जिस सरकार के मुखिया थे, वो एक गठबंधन व्यवस्था थी. ये गठबंधन बना था 2017 में. इसके दो मुख्य हिस्से थे. एक, यूनिफ़ाइड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट्स. शॉर्ट में, UML. इसके मुखिया थे ओली. गठबंधन की दूसरी पार्टी थी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल माओइस्ट सेंटर. इसके लीडर थे प्रचंड. दोनों बिल्कुल अलग बैकग्राउंड के लोग. प्रचंड माओवादी गुरिल्ला फाइटर थे, जिनका मानना था कि बंदूक के सहारे सत्ता हासिल की जा सकती है. वहीं ओली करीब तीन दशकों से मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स का हिस्सा थे. माओवादी स्ट्रगल के धुर विरोधी.

माओवादी नेता.
मगर राजनीति में कोई परमानेंट दुश्मन तो होता नहीं है. इसीलिए 2017 में ओली ने प्रचंड को गठबंधन बनाने का ऑफ़र दिया. इसकी वजह थी, सत्ता की महत्वाकांक्षा. ओली को लग रहा था कि अगर प्रचंड की पार्टी ने नेपाल के एक और राजनैतिक दल 'नेपाली कांग्रेस' से गठजोड़ कर लिया, तो शायद उन्हें सत्ता न मिले. इसीलिए उन्होंने प्रचंड से हाथ मिलाया.
इस गठबंधन को स्पष्ट जनादेश मिला. चुनाव बाद ओली और प्रचंड ने अपनी पार्टियों का मर्जर किया और मिलकर एक साझा फ्रंट बनाया. इसका नाम रखा गया- नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी. दोनों ने तय किया कि वो पांच साल के कार्यकाल को फिफ़्टी-फ़िफ्टी बांटेंगे. शुरुआत के ढाई साल ओली और बाकी बचे ढाई साल प्रचंड रहेंगे प्रधानमंत्री.
अगर आप 1990 में रिस्टोर हुए नेपाली लोकतंत्र के समय से देखें, तो पिछले ढाई दशकों में नेपाल के भीतर कभी किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. लगातार सरकारों के बनने और गिरने से लोग खीझ गए थे. ऐसे में उम्मीद बंधी कि शायद अब नेपाल में हालात सुधरेंगे. स्थिरता आएगी. मगर ऐसा हुआ नहीं.
ओली विकास के अपने वायदे पूरे नहीं कर पाए. इसके अलावा उनपर भ्रष्टाचार के भी गंभीर आरोप लगे. उनकी सरकार शुरू से ही लोकतांत्रिक ढर्रे पर नहीं थी. प्रेस और अभिव्यक्ति की आज़ादी कुचलना, नागरिक अधिकारों पर अंकुश लगाना, ये सब किया उन्होंने. इसके अलावा ओली इकॉनमी को भी दुरुस्त नहीं कर पाए. चीन के प्रति उनका ज़रूरत से ज़्यादा झुकाव, भारत के साथ बढ़ता तनाव, इन सबको लेकर भी उनसे नाराज़गी थी.
दो साल का कार्यकाल पूरा करते-करते ओली ने सत्ता साझा करने वाले करार से छिटकना शुरू किया. संकेत दिया कि वो प्रचंड को प्रधानमंत्री पद नहीं सौंपेंगे. इसके बाद से ही प्रचंड गुट के साथ उनका टकराव बढ़ता गया. प्रचंड और ओली, दोनों ही पार्टी के चेयरमैन थे. ये दोनों मीटिंग्स की टाइमिंग जैसे छोटे-छोटे मुद्दों पर आपस में लड़ने लगे.

ओली नेपाल में एकछत्र राज चलाने की फ़िराक़ में हैं.
इसको समझिए सेंट्रल सेक्रेटेरियट की मिसाल से. ये पार्टी की सबसे प्रमुख बॉडी है- इसमें नौ सदस्य हैं. इनको समझिए पार्टी की सबसे टॉप लीडरशिप. इनमें ओली और प्रचंड को हटाकर कुल सात लीडर बचते हैं. इन सात में से 4 हैं प्रचंड के साथ और 3 ओली के साथ. यानी, ओली यहां माइनॉरिटी में हैं. यही हाल स्टैंडिंग कमिटी और सेंट्रल कमिटी का है. पार्टी संगठन में हर जगह ओली माइनॉरिटी में आ गए. उन्हें अपने लिए असुरक्षा महसूस होने लगी. और इसी असुरक्षा से निपटने के लिए 15 दिसंबर को ओली लाए वो ऑर्डिनेंस. उनका मकसद साफ था, अपने खिलाफ पनप रही संवैधानिक चुनौतियों को दबाना और चेक्स ऐंड बैलेंसेज़ की व्यवस्था को ख़त्म करना.
इस ऑर्डिनेंस का काफी विरोध हुआ. इसपर ओली के अलावा राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी से भी काफी नाराज़गी थी. क्यों? क्योंकि राष्ट्रपति भंडारी ओली के गुट में मानी जाती हैं. उनपर राष्ट्रपति पद की गरिमा भूलकर पक्षपात करने का आरोप है. इल्ज़ाम है कि उन्होंने राष्ट्रपति भवन को दलगत राजनीति का अड्डा बना दिया है. राष्ट्रपति की मर्यादा भूलकर वो ओली के पक्ष में फैसले लेती हैं. इसके चलते विपक्ष बिद्या देवी भंडारी के खिलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव भी लाना चाहता था. इसके अलावा 20 दिसंबर को ओली के खिलाफ़ भी एक नो-कॉन्फ़िडेंस मोशन संसद में पेश होने वाला था. ओली और भंडारी, दोनों के पद जाने की आशंका थी.
मगर इससे पहले कि ये हो पाता, ओली ने दूसरा ही खेल कर दिया. 20 दिसंबर की सुबह 10 बजे उन्होंने कैबिनेट की एक इमरजेंसी मीटिंग बुलाई. इसमें उन्होंने संसद को भंग करने का प्रस्ताव दिया. जैसी कि उम्मीद थी, राष्ट्रपति ने भी इस प्रस्ताव को अपनी मंज़ूरी दे दी.

के पी शर्मा ओली का अध्यादेश बहुतों के लिए हैरानी भरा था.
मगर क्या ओली और राष्ट्रपति, दोनों में से किसी को संसद भंग करने का अधिकार है? जवाब है, नहीं. 2015 के नेपाली संविधान में पांच साल के पार्लियामेंट की व्यवस्था है. कार्यकाल पूरा होने से पहले संसद भंग किए जाने का प्रावधान ही नहीं संविधान में. बल्कि संविधान तो ये कहता है कि अगर चुनी हुई संसद का टर्म पूरा होने से पहले कोई सरकार गिर जाए, तो चुनाव करवाने की जगह उसी इलेक्टेड पार्लियामेंट के भीतर नई सरकार बनवाने की हर संभव कोशिश की जाए.
मगर राष्ट्रपति ने तो अपनी ये जिम्मेदारी निभाई नहीं. सत्ताधारी NCP के पास करीब दो-तिहाई बहुमत है. वो ओली को हटाकर नई सरकार बना सकते थे. मगर राष्ट्रपति ने अपने पद का दुरुपयोग करके ये सुनिश्चित किया कि किसी को भी सरकार बनाने का मौका न मिले. ऐसे में जानकार कह रहे हैं कि ओली द्वारा संसद भंग किया जाना अवैध और ग़ैर-संवैधानिक है. इसके अलावा संसद भंग किए जाने के बाद ओली को कार्यकारी प्रधानमंत्री भी घोषित नहीं किया गया. ऐसे में ओली के पास पद पर बने रहने का भी कोई संवैधानिक अधिकार नहीं बचा है.
ओली के इस फैसले को अदालत में चुनौती दी गई है. करीब एक दर्जन याचिकाएं दायर हुई हैं सुप्रीम कोर्ट में. याचिकाकर्ताओं में राजनैतिक दल और वकील, दोनों शामिल हैं. इनका कहना था कि कोर्ट संसद भंग करने पर अंतरिम फैसला सुनाए. मगर चीफ़ जस्टिस चोलेंद्र शमशेर राणा ने इससे इनकार कर दिया. उन्होंने ये याचिकाएं एक संवैधानिक बेंच को सौंप दी हैं. क्या उम्मीद है सुप्रीम कोर्ट से? जानकारों के मुताबिक, जूडिशरी ओली के साथ बड़ी फ्रेंडली है. ओली ने बाकी ज़रूरी संस्थाओं की तरह वहां भी अपने वफ़ादारों की भर्ती की हुई है. ऐसे में आशंका है कि शायद ओली को सुप्रीम कोर्ट से भी राहत मिल जाए. सत्ता जब लोकतांत्रिक संस्थानों को कॉम्प्रोमाइज़ करती है, तब यही होता है.

चीफ़ जस्टिस चोलेंद्र शमशेर राणा.
संसद भंग होने के बाद सत्ताधारी NCP में दो फाड़ हो गई है. प्रचंड वाले गुट ने ओली को पार्टी प्रमुख के पद से हटा दिया. उनकी जगह माधव नेपाल नए प्रमुख बनाए गए हैं. अब ओली और प्रचंड, दोनों ही गुट ख़ुद को असली NCP बता रहे हैं. दोनों ये साबित करने में लगे हैं कि पार्टी के बहुमत लोग उनकी तरफ हैं. इनमें से कौन असली NCP है , इसका फैसला चुनाव आयोग को करना है.
पार्टी पॉलिटिक्स समझने के बाद अब चलते हैं जनता पर. संविधान भंग किए जाने के खिलाफ़ नेपाल में बड़े स्तर पर प्रदर्शन हो रहे हैं. सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी समेत कई दलों के कार्यकर्ता सड़कों पर हैं. आशंका है कि कहीं फिर से नेपाल में हिंसा न भड़क जाए.
इस मामले में एक ऐंगल चीन से भी जुड़ा है. ओली चीन के फेवरेट हैं. अपने कार्यकाल में उन्होंने नेपाल को चीन की गोद में बिठा दिया है. चीन के नज़दीक जाने के चक्कर में वो भारत के साथ लगातार रिश्ते बिगाड़ते गए. चीन चाहता है कि नेपाल की सत्ता में ओली बने रहें. ताकि वहां सरकार के स्तर पर ऐंटी-इंडिया सेंटिमेंट बना रहे. उसे पता था कि अगर NCP में टूट हुई, तो ओली कमज़ोर होंगे. अगले चुनाव में वो शायद सत्ता न पा सकें. इसीलिए चीन NCP में काबिज़ ओली-विरोधी सेंटिमेंट को कंट्रोल करने की कोशिश कर रहा था.

के पी शर्मा ओली चीन के करीब माने जाते हैं.
पिछले एक साल में कई ऐसे मौके आए, जब NCP टूटने की कगार पर पहुंचा. मगर चीन ने सभी पक्षों को समझा-बुझाकर ये टूट नहीं होने दी. मगर पिछले कुछ महीनों से चीजें चीन के कंट्रोल से बाहर होती गईं. NCP में हुई हालिया टूट इसी की एक मिसाल है. मगर चीन ने अभी हार नहीं मानी है. 22 दिसंबर की शाम नेपाल में चीन की राजदूत होउ यानक़ी ने राष्ट्रपति भंडारी से मुलाकात की. ख़बरों के मुताबिक, चाइनीज़ ऐम्बेसडर अभी भी NCP का पैच-अप करवाने में जुटी हैं.
इस पूरी डिवेलपमेंट पर भारत की भी नज़र है. ओली के कार्यकाल में भारत और नेपाल के बीच काफी दूरियां आईं. भारत को उम्मीद है कि नेपाल के अगले चुनाव में ओली की जगह शायद किसी इंडिया-फ्रेंडली व्यक्ति को सत्ता मिले.