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वो पहला चाइनीज, जो बिना इजाजत इंडिया आया

'नक्शेबाज़' सीरीज की दूसरी किस्त में आज जानिए चाइनीज ट्रैवलर ह्वेनसांग के बारे में:

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लल्लनटॉप
10 अगस्त 2016 (Updated: 10 अगस्त 2016, 10:28 AM IST) कॉमेंट्स
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पारुल
पारुल

घूमने का शौक तो रखते हैं, लेकिन आह ये बहाना. आह वो बहाना. पर मालूम है दुनिया के टॉपम टॉप जो ट्रैवलर्स हुए, उनने दुनिया की घुमाई कैसे की थी? नहीं मालूम क्या? उफ्फ. इसी प्रॉब्लम के खात्मे के लिए 'दी लल्लनटॉप' आपके लिए लाया है एक नई सीरीज नक्शेबाज़. इस सीरीज को लिखा है पारुल ने. नक्शेबाज़ में आपको दुनिया के टॉप क्लास, जाबड़ ट्रैवलर्स के बारे में बताएंगे. वो कब कहां से किस रास्ते निकले. जेब में कित्ते धेले थे. फैमिली बैकग्राउंड क्या था? पेश है इस सीरीज की दूजी किस्त.


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ह्वेनसांग

ये भी चाइना के बौद्ध साधु थे. 7वीं सेंचुरी में घूमने निकल गए थे.

ड्राइविंग फ़ोर्स:

इन्हें बचपन से ही पढ़ना बहुत पसंद था. घर में एरिस्टोक्रेटिक माहौल होने के बाद भी उनका मन बौद्ध संन्यास में ज्यादा लगता था. 20 साल की उम्र में ह्वेनसांग बौद्ध साधु बन चुके थे. काफी किताबें भी पढ़ ली थीं, लेकिन भारत आ कर बुद्धिस्ट किताबों और उपदेशों को अच्छे से पढ़ना-समझना चाहते थे. इसीलिए घूमने निकल पड़े.

फैमिली बैकग्राउंड:

ह्वेनसांग बचपन से इंटेलेक्चुअल लोगों के बीच पले-बढ़े थे. उनके परदादा शाही दरबार में मंत्री थे. दादाजी प्रोफेसर थे. पढ़ने-लिखने का माहौल था, और रुपये-पैसे की भी कमी नहीं थी. मतलब अपर मिडिल क्लास या अपर क्लास परिवार से रहे होंगे.

ट्रेवल रूट/जगहें:  

चाइना से चुपके से खिसक लेने के बाद ह्वेनसांग गोबी रेगिस्तान से होते हुए ताशकंद पहुंचे. चुपके से इसलिए क्योंकि चाइना की फॉरेन पॉलिसी तब भी बड़ी स्ट्रिक्ट थी. ताशकंद यानी आज के उज्बेकिस्तान की राजधानी. फिर रेगिस्तान पार कर के समरकंद पहुंचे. फाइनली अफ़ग़ानिस्तान होते हुए भारत आए. इस पूरे रास्ते वो बौद्ध मठों में ठहरते थे. वहां के बौद्ध साधुओं से मिलते थे. ह्वेनसांग पेशावर, गंधार, तक्षशिला, सब जगह घूम आए थे. फिर उसके बारे में लिखा भी था.
ह्वेनसांग भारत आकर खूब घूमे. लाहौर, लुधियाना, मथुरा, अयोध्या, कौशाम्बी, श्रावस्ती, लुंबिनी, बनारस, कपिलवस्तु, नालंदा, सब जगह. कन्नौज भी पहुंचे, जहां वो हर्षवर्धन से भी मिले. हर्षवर्धन उस वक़्त के सबसे बड़े राजा थे. जिनकी राजधानी कन्नौज थी.

मुश्किलें:

ह्वेनसांग के सामने सबसे पहली मुश्किल तो सफ़र शुरू करने से पहले ही आ गई थी. उस वक्त के चाइना के राजा किसी को मुल्क से बाहर नहीं जाने देते थे. ह्वेनसांग को भी भारत जाने की इजाजत नहीं थी.  इसीलिए उन्हें चुपके से भारत के लिए निकलना पड़ा. वापस लौटते वक़्त उन्होंने चाइना के राजा को चिट्ठी लिख के बताया कि घूम-घूम कर उन्होंने क्या-क्या सीखा. फिर तो राजा ने उन्हें वापस चाइना आने दिया. और उतना ही नहीं, उन्हें अपना एडवाइजर भी बना लिया.

आउटपुट:

ह्वेनसांग ने अपना ट्रेवल अकाउंट लिखा. जिसका नाम था 'ग्रेट टैंग रिकार्ड्स ऑन द वेस्टर्न रीजन्स'. इस किताब का इस्तेमाल भारत और सेंट्रल एशिया की उस वक़्त की हिस्ट्री जानने-समझने के लिए की जाती हैं. पूरे रास्ते की जियोग्राफी के साथ-साथ बौद्ध साधुओं और मठों के बारे में भी लिखा है इस किताब में. इसके अलावा काफी सारी किताबें लिखी गईं ह्वेनसांग के बारे में.


नक्शेबाज़ की पहली किस्त पढ़ें:

फाह्यान: वो ट्रैवलर, जो चीन से पैदल इंडिया आ गया

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