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नए साल में दुनिया में क्या-क्या बदलने जा रहा है?

इन घटनाों पर रहेंगी सबकी नज़र.

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साल 2021 में दुनिया की निगाह कहां टिकी होंगी?
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स्वाति
31 दिसंबर 2020 (Updated: 4 जनवरी 2021, 07:15 AM IST) कॉमेंट्स
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आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु, विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः.
माने, हर ओर से हमारे पास अच्छे विचार पहुंचते रहें. निराशा रहित, नई जानकारियों से लबरेज़, कल्याणकारी विचार लगातार हमारे पास आते रहें.
ये ऋग्वेद के स्वस्ति सूक्त का एक मंत्र है. स्वस्ति माने कल्याण. आज 31 दिसंबर है. निराशा से भरे 2020 का आख़िरी दिन. नए साल, नए शुरुआत की पूर्व संध्या. विज्ञान के हिसाब से देखिए, तो साल की शुरुआत और अंत का कोई आधार नहीं. बस इतना सा हिसाब है कि जिस ग्रह पर हम रहते हैं, वो सूर्य की एक परिक्रमा में 365 दिन का समय लेता है. ये एक सनातन खगोलीय प्रक्रिया है. फिर भी हम सब परिक्रमा के इस चक्र को त्योहार की तरह मनाते हैं. मानते हैं कि नया साल 1 जनवरी को शुरू होता है और 365 दिन, पांच घंटे, 49 मिनट और 12 सेकेंड बाद वो साल ख़त्म हो जाता है.
अमूमन सभी संस्कृतियां नए साल को नई शुरुआत मानती हैं. ये शुरुआत अच्छी हो, ये सुनिश्चित करने के लिए सबकी अलग-अलग रवायतें हैं. मसलन, स्पेन. वहां 1 जनवरी की आधी रात जब घड़ी का घंटा बजता है, तो लोग 12 अंगूर खाते हैं. ताकि अगले 12 महीने शुभ-शुभ बीतें. कोलंबिया में लोग 31 दिसंबर की रात अपने बिस्तर पर तीन आलू रखते हैं. एक छिला, एक बिना छिला और एक आधा छिला. फिर आधी रात को वो बिना देखे एक आलू पर हाथ रखते हैं. जो भी आलू हाथ लगे, मानते हैं उसी के हिसाब से साल बीतेगा. छिला आलू, मतलब दिक्कतें. बिना छिला, माने संपन्नता. और आधा छिला माने, मिला-जुला साल.
रोमानिया में नए साल के मौके पर लोग भालू वाली पोशाक पहनकर घूमते हैं.
रोमानिया में नए साल के मौके पर लोग भालू वाली पोशाक पहनकर घूमते हैं.


समंदर किनारे बसे ब्राजील के लोग नए साल पर सफ़ेद कपड़े पहनकर समंदर में सफ़ेद फूल डालते हैं. ताकि समंदर ख़ुश रहे, शांत रहे. लैटिन अमेरिका में कई जगहों पर 1 जनवरी की आधी रात अनार के दाने खाने का रिवाज़ है. डेनमार्क में लोग अपने दरवाज़े पर कोई पुरानी प्लेट फोड़ते हैं. रोमानिया में भालू जैसे कपड़े पहनते हैं, ताकि बुरी शक्तियां दूर रहें. जापान और साउथ कोरिया में घंटी बजाकर नए साल का स्वागत किया जाता है. कुछ जगहों पर नए साल के दिन खाली सूटकेस लेकर सड़क पर चलने की परंपरा है. ताकि अगला साल ख़ूब सारा अच्छा रोमांच लाए.
तो इसी नोट पर हम लाए हैं एक लिस्टिकल. ऐसी कुछ बड़ी अंतरराष्ट्रीय घटनाएं और डिवेलपमेंट्स, जो अगले साल दुनिया पर असर डालेंगी.
1. कोरोना
2020 का पूरा साल इसी की भेंट चढ़ा. साल बीतते-बीतते वैक्सीन्स भी आईं. मगर तब भी कोरोना ख़त्म होने में अभी लंबी राह बाकी है. सबसे पहली चुनौती तो ये है कि वैक्सीन की पर्याप्त डोज़ का उत्पादन हो. ये सभी देशों को उपलब्ध हो सके. अगर ये चुनौती पार भी हो गई, तब भी वैक्सीनेशन का काम पूरा करने में महीनों लगेंगे.
दुनिया को पटरी पर लौटाने के लिए कोरोना की वैक्सीन ही एकमात्र सहारा है.
दुनिया को पटरी पर लौटाने के लिए कोरोना की वैक्सीन ही एकमात्र सहारा है.


मसलन, ब्रिटेन का उदाहरण लीजिए. वहां लोगों को वैक्सीन लगाने की जिम्मेदारी मुख्यतौर पर GP, यानी जनरल प्रैक्टीशनर्स को सौंपी गई है. GP माने ऐसा कम्युनिटी डॉक्टर, जो छोटी बीमारियों में लोगों का इलाज करता है. ब्रिटेन में तकरीबन 61 हज़ार लाइसेंसी GP हैं. एक GP औसतन 9,000 मरीज़ों की जिम्मेदारी संभालता है. एक वैक्सीन लगाने में तकरीबन 10 मिनट लगते हैं. हर आदमी को वैक्सीन के दो शॉट्स दिए जाते हैं. इस हिसाब से अगर हर GP बिना छुट्टी लिए हर रोज़ आठ घंटे की अपनी शिफ़्ट पूरी करे, तो भी अपना टारगेटेड वैक्सिनेशन पूरा करने में उसे कम-से-कम एक साल लगेगा.
इसे देखते हुए ब्रिटेन हेल्थकेयर से जुड़े और भी लोगों को इस प्रक्रिया में शामिल करने की सोच रहा है. इसके अलावा आम जनता को भी वैक्सीन लगाने की ट्रेनिंग देने पर विचार हो रहा है. ताकि वैक्सीनेशन का काम तेज़ी से पूरा हो सके. इस पूरी एक्सरसाइज़ से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वैक्सीन मिलने से आगे की राह भी कितनी मुश्किल होने वाली है. दुनिया इस प्रक्रिया में कितनी चुस्ती दिखाती है, ये बात 2021 की सबसे बड़ी हाईलाइट होगी.
2. वाइट हाउस
20 जनवरी, 2021. इस रोज़ अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन अपना कार्यभार संभालेंगे. अमेरिकन प्रेज़िडेंसी में होने वाला ये बदलाव पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा. चीन, मिडिलईस्ट, अफ़गानिस्तान इन सबपर बाइडन की पॉलिसी ट्रंप से अलग होने की उम्मीद है. मसलन, ट्रंप ने जिस ईरान डील को ख़त्म किया, बाइडन उसे वापस ज़िंदा करने की कह चुके हैं. ट्रंप ने अफ़गानिस्तान से निकलने की जल्दी में जिस तरह तालिबान के साथ समझौता किया, उम्मीद है कि बाइडन उसपर भी पुनर्विचार करें.
जो बाइडन ऐतिहासिक जीत दर्ज़ कर वाइट हाउस पहुंच रहे हैं. उनसे ऐतिहासिक फ़ैसलों की उम्मीद लगाई जा रही है.
जो बाइडन ऐतिहासिक जीत दर्ज़ कर वाइट हाउस पहुंच रहे हैं. उनसे ऐतिहासिक फ़ैसलों की उम्मीद लगाई जा रही है.


चीन के साथ तनाव घटाने के इच्छुक बाइडन हॉन्ग कॉन्ग पर क्या स्टैंड लेंगे? क्या वो ईस्ट चाइना सी और साउथ चाइना सी में चीनी दादागिरी को काउंटर करेंगे? क्या चीन द्वारा बढ़ाई गई आक्रामकता के मद्देनज़र बाइडन प्रशासन ताइवान के लिए अपना सपोर्ट बढ़ाएगा? क्या चीन को काउंटर करने के लिए वो भारत जैसे पार्टनर्स के साथ सुरक्षा सहयोग बढ़ाएंगे? ट्रंप के दौर में यूरोप के साथ कमज़ोर हुए संबंधों को बाइडन कैसे रीवाइव करेंगे? WHO जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की भूमिका पर उनका क्या रुख होगा? ये वो ज़रूरी मसले हैं, जिनपर बाइडन का रुख हम सबको प्रभावित करेगा.
3. प्रस्तावित फ्रेंच क़ानून
पूरे यूरोप में सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी फ्रांस में हैं. यहां मुस्लिमों से जुड़ी कोई भी घटना पूरे यूरोप के मिजाज़ पर असर डालती है. 2020 का साल इस लिहाज़ से काफी संवेदनशील रहा. इस बरस 2015 में शार्ली ऐब्दो पर हुए आतंकी हमले का ट्रायल शुरू हुआ. इस मौके पर मैगज़ीन ने इस्लाम से जुड़े अपने विवादित कार्टून दोबारा छापे. इसके बाद फ्रांस में तीन आतंकी घटनाएं हुईं. एक टीचर का सिर काट दिया गया. चर्च में घुसकर तीन लोगों की जान ले ली गई. सड़क पर रैंडम चाकूबाज़ी हुई.
आतंकी हमलों के बाद फ़्रांसीसी सरकार मुस्लिम कट्टरपंथियों पर नकेल कसने की तैयारी कर रही है.
आतंकी हमलों के बाद फ़्रांसीसी सरकार मुस्लिम कट्टरपंथियों पर नकेल कसने की तैयारी कर रही है.


इन घटनाओं के चलते फिर से वेस्ट वर्सेज़ इस्लाम का माहौल बना. राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने इन हमलों को इस्लामिक अलगाववाद का नाम दिया. मुस्लिम देशों ने फ्रांस का बायकॉट किया. मैक्रों इस्लामिक कट्टरपंथ से निपटने के लिए नए क़ानून का ड्राफ़्ट लाए. जनवरी 2021 में ये बिल फ्रांस की नैशनल असेंबली में पेश होगा. इस प्रस्तावित क़ानून को लेकर काफी विवाद है. कुछ इसे फ्रेंच सेकुलर सिस्टम और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ज़रूरी बता रहे हैं. कुछ कह रहे हैं, ये इस्लामोफ़ोबिक है. ऐसे में ये क़ानून किस स्वरूप में पास होता है, इसे किस तरह लागू किया जाता है, मुस्लिम इसपर क्या सोचते हैं, इन चीजों से न केवल फ्रांस, बल्कि पूरी वेस्टर्न दुनिया के इस्लाम के साथ रिश्तों पर असर पड़ सकता है.
4. रशिया वर्सेज़ वेस्ट
2021 में सोवियत संघ के विघटन को 30 साल हो जाएंगे. 1991 में सोवियत संघ के टूटने पर कोल्ड वॉर ख़त्म हुआ था. मगर पुतिन के दो दशक लंबे कार्यकाल में कोल्ड वॉर 2.0 का माहौल बना है. रशियन एजेंट्स द्वारा होने वाले केमिकल अटैक हों. या, अफ़गानिस्तान में तैनात अमेरिकी सैनिकों को मरवाने के लिए मिलिटेंट्स को दी गई सुपारी. या फिर वेस्टर्न एजेंसियों पर होने वाले साइबर अटैक और विदेशी चुनावों में दखलंदाज़ी के आरोप. रूस और वेस्ट के बीच तनाव चरम पर है.
पुतिन अपने ऊपर लगे आरोपों का सामना कैसे करते हैं, देखना दिलचस्प होगा!
पुतिन अपने ऊपर लगे आरोपों का सामना कैसे करते हैं, देखना दिलचस्प होगा!


वेस्ट से चल रहे इस तनाव के बीच घरेलू फ्रंट पर भी पुतिन घिरे हुए हैं. रूस की इकॉनमी बदहाल है. पुतिन की अपनी अप्रूवल रेटिंग सबसे लो लेवल पर है. उनके राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी अलेक्सी नवल्नी पर हुआ हमला और इसमें क्रेमलिन की सीधी भूमिका के सबूत ने भी पुतिन की भद्द पिटवाई है. सितंबर 2020 में रूस के लोकल इलेक्शन्स हुए थे. इसमें नवल्नी की पार्टी ने साइबेरिया सिटी काउंसिल की सीटें निकालीं. ये जीत इसलिए भी अहम थी क्योंकि अगस्त 2020 में इसी इलाके में प्रचार करते हुए नवल्नी पर जानलेवा हमला हुआ था. 2021 में रशियन पार्लियामेंट के चुनाव हैं. नवल्नी इसमें पुतिन को कड़ी टक्कर दे सकते हैं. ऐसा हुआ, तो 2036 तक सत्ता में बने रहने का इंतज़ाम करके भी पुतिन राष्ट्रीय स्तर पर कमज़ोर होंगे. उनकी घटती राजनैतिक वैधता वेस्ट से उनकी लड़ाई में भी उन्हें कमज़ोर करेगी.
5. ईरान का राष्ट्रपति चुनाव
जून 2021 में ईरान का प्रेज़िडेंशल चुनाव होना है. मौजूदा राष्ट्रपति हसन रूहानी दो कार्यकाल पूरे कर लेंगे. नियम के मुताबिक, अब वो फिर से चुनाव नहीं लड़ सकते हैं. रूहानी की नीतियां भले उग्र लगती हों, मगर वो ईरान में मॉडरेट ग्रुप का हिस्सा माने जाते हैं. न्यूक्लियर डील के पीछे इसी धड़े का हाथ था. सोचा गया था कि डील होने पर सेंक्शन हटेंगे, इकॉनमी सुधरेगी. इंटरनैशनल कम्युनिटी के साथ रिश्ते बेहतर होंगे.
मगर ट्रंप ने डील तोड़कर ईरान पर फिर से सेंक्शन्स लाद दिए. कोरोना ने उसकी पस्त इकॉनमी को और बदहाल कर दिया. इसके अलावा पिछले कुछ महीनों में कथित तौर पर इज़रायल द्वारा किए गए एक-के-बाद एक हमले. कभी न्यूक्लियर सेंटर पर आगजनी, कभी चीफ़ न्यूक्लियर साइंटिस्ट की हत्या. इन सब कारणों से ईरान में मॉडरेट ग्रुप के प्रति नाराज़गी है.
ईरान के न्युक्लियर साइंटिस्ट की हत्या ऑटोमैटिक हथियारों से की गई थी.
ईरान के न्युक्लियर साइंटिस्ट की हत्या ऑटोमैटिक हथियारों से की गई थी.


आशंका है कि 2021 के चुनाव में हार्ड लाइनर्स को बढ़त मिल सकती है. एक आशंका ये भी है कि शायद अगला राष्ट्रपति सेना से हो. इस पद के सबसे संभावित दावेदार हैं ब्रिगेडियर जनरल हुसैन देहग़ान. वो ईरान के सबसे पावरफुल सैन्य अधिकारी हैं. बाकी के दो संभावित उम्मीदवार, परवेज़ फ़तह और सईद मुहम्मद भी IRGC, यानी इस्लामिक रेवॉल्यूशनरी गार्ड कोर से हैं. अगर इनमें से कोई भी राष्ट्रपति बनता है, तो सेना पर जो थोड़ा-बहुत अंकुश है, वो भी ख़त्म हो जाएगा. इस डिवेलपमेंट का असर पूरे मिडिल-ईस्ट पर पड़ेगा.
IRGC को अमेरिका आतंकवादी संगठन मानता है. इसके कई टॉप कमांडर्स पर अमेरिका ने सेंक्शन्स लगाया हुआ है. ऐसे में ईरान और अमेरिका के रिश्ते और बिगड़ सकते हैं. हार्ड लाइनर्स को मिली ये राजनैतिक बढ़त ईरान से रिश्ते सुधारने के हिमायती जो बाइडन के भी हाथ बांध सकती है.
6. हॉन्ग कॉन्ग चुनाव
सितंबर 2021 में हॉन्ग कॉन्ग की लेजिस्लेटिव काउंसिल के लिए चुनाव होना है. ये इलेक्शन सितंबर 2020 में होना था. मगर कोरोना के बहाने चीन ने इसकी तारीख़ एक साल बढ़ा दी. ताकि उसे प्रो-डेमोक्रेसी धड़े को कुचलने का और समय मिल जाए. 2019 के जिला काउंसिल इलेक्शन में लोकतांत्रिक धड़े को बड़ी बढ़त मिली थी. अगर निष्पक्ष चुनाव हों, तो अब भी यही धड़ा जीतेगा. मगर दिक्क़त यही है कि हॉन्ग कॉन्ग में अब कुछ भी रूलबुक से नहीं हो रहा है.
कोरोना का हवाला देकर चीन ने हॉन्ग कॉन्ग चुनाव को एक साल के लिए बढ़ा दिया. इसकी आड़ में लोकतांत्रिक प्रदर्शनों पर नकेल कसी जा रही है.
कोरोना का हवाला देकर चीन ने हॉन्ग कॉन्ग चुनाव को एक साल के लिए बढ़ा दिया. इसकी आड़ में लोकतांत्रिक प्रदर्शनों पर नकेल कसी जा रही है.


चीन ने हॉन्ग कॉन्ग लेजेस्लेटिव काउंसिल में प्रो-डेमोक्रैटिक मेंबर्स का पूरी तरह सफ़ाया कर दिया है. अपने मौजूदा स्वरूप में ये संस्था चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी का अजेंडा चलाने का अड्डा बन गई है. चीन ने ऐसी व्यवस्था की है कि 2021 के चुनाव में प्रो-डेमोक्रैटिक कैंडिडेट्स चुनाव भी नहीं लड़ सकेंगे. अगर इंटरनैशनल कम्युनिटी चीन पर दबाव बनाकर इस चुनाव की निष्पक्षता सुनिश्चित कर सके, तभी हॉन्ग कॉन्ग की उम्मीदें बच सकेंगी.
7. पैरिस क्लाइमेट डील
क्लाइमेट चेंज किसी एक देश की चिंता नहीं है. इससे पूरी इंसानी बिरादरी का भविष्य जुड़ा है. इसीलिए 2015 में दुनिया के 184 देशों ने इस क्लाइमेट चेंज के खिलाफ़ मिलकर एक रणनीति बनाई. इसे कहा गया, पैरिस क्लाइमेट डील. तय हुआ कि सब मिलकर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटाएंगे. ताकि इस सदी के आख़िर तक ग्लोबल तापमान की वृद्धि डेढ़ डिग्री सेल्सियस के नीचे रखी जा सके.
पैरिस क्लाइमेट डील से अमेरिका के हटने के बाद क्या बदलेगा?
पैरिस क्लाइमेट डील से अमेरिका के हटने के बाद क्या बदलेगा?


मगर ट्रंप ने इस डील से अमेरिका को अलग कर लिया. दुनिया की सबसे बड़ी इकॉनमी का इस मसौदे से हटना, बड़ा झटका था. इसके अलावा ज़्यादातर देशों ने टारगेट्स पूरे करने में गंभीरता नहीं दिखाई. मगर अच्छी ख़बर ये है कि एकबार फिर इस डील को लेकर बातें हो रही हैं. उम्मीद है कि 2021 में इस डील पर नए सिरे से काम शुरू हो.

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