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लिपस्टिक का पूरा इतिहास, जब नेहरू को लिपस्टिक के चलते औरतों के गुस्से भरे खत आने लगे

लिपस्टिक कभी औरतों को वोट का हक़ दिलाने का जरिया बनी. तो कभी बना गुस्से के इजहार का कारण. जवाहरलाल नेहरू नाम के एक नेता, जो नए-नए प्रधानमंत्री बने थे- उन्हें लिपस्टिक के चलते औरतों के गुस्से भरे खत आने लगे थे. लिपस्टिक का इतिहास और उससे जुड़ी दिलचस्प कहानियां, आज जानिए.

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जवाहरलाल नेहरू लिपस्टिक की वजह से खासे परेशान हुए थे!
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सचेंद्र प्रताप सिंह
15 जून 2024 (Updated: 15 जून 2024, 04:51 PM IST)
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“मैं दो चीजों के बिना कभी अपने घर से नहीं निकलती. पहली चीज- एक स्विस आर्मी नाइफ और दूसरी- लिपस्टिक. एक औरत के लिए ये दो चीजें काफी हैं”- मेग रेगास और कैरेन कोज़लोव्स्की की किताब 'Read My Lips: A Cultural History of the Lipstick' में एक किरदार जब ये बात कहती है. तो उसके पीछे समर्थन में खड़ा होता है इतिहास. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान का एक किस्सा है. युद्ध के दौरान ब्रिटेन में महिलाओं को लिपस्टिक लगाने के लिए बढ़ावा दिया जाने लगा. बाकायदा ये नेशनल ड्यूटी समझा जाने लगा था. फाइटिंग रेड , पेट्रियट रेड, ग्रेनेडियर रेड- ये लिपस्टिक के रंगों के नाम हो गए थे. क्यों?

क्योंकि एडोल्फ हिटलर निजी तौर पर लिपस्टिक से नफरत करता था. नाजी जर्मनी में औरतों को लिपस्टिक लगाने पर मनाही थी.और पीछे जाएं तो ब्रिटेन के इतिहास में एक दौर ऐसा भी था, जब लिपस्टिक लगाने वाली औरतों को चुड़ैल बताकर जिन्दा जला दिया जाता था.

लिपस्टिक कभी औरतों को वोट का हक़ दिलाने का जरिया बनी. तो कभी बना गुस्से के इजहार का कारण. जवाहरलाल नेहरू नाम के एक नेता, जो नए-नए प्रधानमंत्री बने थे- उन्हें लिपस्टिक के चलते औरतों के गुस्से भरे खत आने लगे थे. लिपस्टिक का इतिहास और उससे जुड़ी ऐसी दिलचस्प कहानियां, जानेंगे.

होंठों से छू लो तुम

लिपस्टिक कहने को एक आधुनिक चीज लग सकती है. लेकिन होंठों को रंगने की प्रथा बहुत पुरानी है. ईसा से साढ़े ढाई हजार साल पहले मेसोपोटामिया में एक रानी हुईं. शुब-अद. 20 वीं सदी में शुब-अद की कब्र खोदी गई. पाया गया कि रानी के साथ कुछ मटके भी दफनाए गए थे. जिसमें सीसे यानी लेड और लाल पत्थर को पीस कर बनाया गया एक मिश्रण भरा गया था. रानी इस मिश्रण को अपने होंठों पर लगाती थी. मिस्र की रानी क्लियोपेट्रा को भी होंठ रंगने का शौक था. लाल रंग शक्ति का प्रतीक था. इसलिए झिंगुर और चीटियों को पीस कर एक मिश्रण बनाया जाता था, जिसे क्लियोपेट्रा अपने होंठों पर लगाती थी. इसके अलावा सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में भी ऐसे सबूत मिले हैं. जिससे पता चलता है कि तब लोग अपने होंठों को रंगा करते थे. ये पुरानी लिपस्टिक का रूप था.

आज की मॉडर्न लिपस्टिक, जो एक सॉलिड रोल की तरह दिखती है. इसका सबसे पुराना जिक्र मिलता है इस्लामी सभ्यता में. अल ज़हरावी के एक महशहूर चिकित्सक/हकीम हुए. जिन्होंने लोबान की बत्तियों को रोल कर पहली बार एक सॉलिड लिपस्टिक बनाई. लिपस्टिक लगाई क्यों जाती थी- जाहिर है - खुद को खूबसूरत दिखाने के लिए. सभी वर्ग के लोग इसे लगाते थे. लेकिन फिर तमाम चीजों की तरह लिपस्टिक भी वर्ग विभाजन का सिम्बल बन गई.

ग्रीस के साम्राज्य में सेक्स वर्क करने वाली महिलाओं ने लिपस्टिक लगाना शुरू किया. लेकिन जैसे ही ये हुआ. उच्च वर्ग के लोग लिपस्टिक को ओछी चीज मानने लगे. ये मान्यता शुरू हुई कि लिपस्टिक आर्टिफिशियल खूबसूरती को बढ़ावा देती है. लिपस्टिक निचले दर्ज़े की चीज समझी जाने लगी. बाकायदा जल्द ही लिपस्टिक पर क़ानून भी बना दिया गया. जिसके अनुसार सेक्स वर्क करने वाली महिलाओं का लिपस्टिक लगाना जरूरी था. ताकि उनमें और उच्च वर्ग की महिलाओं में अंतर किया जा सके. ग्रीस में लिपस्टिक निचले दर्ज़े एक सीमित थी लेकिन इस दौर में भी लिपस्टिक का लाल रंग सबसे पॉपुलर था. जिसे बनाने के लिए भेड़ का पसीना और मगरमच्छ का मल इस्तेमाल किया जाता था.

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ग्रीस के बाद बात करें रोमन साम्राज्य की. रोम में हिसाब उल्टा था. रोमन साम्राज्य में बाकायदा मर्द भी लिपस्टिक लगाते थे. लेकिन ख़ूबसूरती बढ़ाने का ये तरीका खतरे से खाली नहीं था. रोम में लिपस्टिक बनाने के लिए गेरू और एक प्रकार की काई का इस्तेमाल किया जाता था. रोम के लोग इस बात से अनजान थे कि काई जहरीली है.

इसलिए लिपस्टिक लगाने से कई बीमारियां होने लगी. इस वजह से लिपस्टिक को एक खास नाम भी मिला - ‘kiss of death’. लेकिन फिर भी लिपस्टिक लगाना जारी रहा. आगे चलकर हालांकि लिपस्टिक सिर्फ महिलाओं के काम की चीज बन गई. और यहीं से शुरू हुआ लिपस्टिक के इतिहास का एक नया अध्याय.

शौक़-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर

इंसानी आंख में दो प्रकार की कोशिकाएं होती हैं. रॉड और कोन. जो प्रकाश में रंगों को पहचानने के काम आती हैं. तमाम लोग इन्हीं के जरिए रंगों को देखते हैं. लेकिन आधुनिक समय में लिपस्टिक के इतने रंग हैं कि मर्द प्रजाति का एक मनुष्य होता है. जो रंग तो पहचान सकता है. लेकिन क्रिमसन रेड और स्कारलेट रेड में क्या अंतर होता है. ये नहीं बता सकता. लिपस्टिक का रंग काला कैसे हो सकता है - ये भी उसकी समझ से परे का सवाल है. लिपस्टिक का काला रंग भी हालांकि आधुनिक समय की देन है. इतिहास में लिपस्टिक का रंग कभी काला नहीं रहा. लेकिन इसकी भरपाई की उस काले अध्याय ने जो लिपस्टिक की वजह से महिलाओं ने देखा.

मध्य युग, 1500 ईस्वी से पहले यूरोप ने एक ऐसा दौर देखा, जब महिलाओं को लिपस्टिक लगाने के कारण शैतान कहा गया. ये बात सीधे चर्च की तरफ से कही गई थी. ईसाई धर्म में कन्फेशन नाम की एक प्रक्रिया होती है. जिसमें आप पादरी के पास जाकर अपने पापों का इज़हार करते हैं. और पादरी आपको माफ़ कर सकते हैं. औरतों से तब कहा जाता था कि अगर उन्होंने कभी लिपस्टिक लगाई हो तो उन्हें कन्फेशन करना चाहिए. ऐसे पोस्टर छापे गए जिनमें दिखाया गया था कि शैतान खुद औरतों के होंठों पर लिपस्टिक लगा रहा है. बाद में लिपस्टिक को काले जादू से भी जोड़ने की कोशिश हुई. कहा गया कि जो महिलाएं लिपस्टिक लगाती हैं. वो मर्दों को रिझाने के लिए काला जादू कर रही हैं.

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ऐसी औरतों को जला देना चाहिए. चर्च की चलती तो शायद ऐसा ही होता. लेकिन इसी दौरान एलिज़ाबेथ प्रथम ब्रिटेन की रानी बन गईं. एलिज़ाबेथ खुद लिपस्टिक लगाया करती थीं. चूंकि रानी को तो जेल में नहीं डाला जा सकता था. इसलिए लिपस्टिक पर कोई कानूनी बंदी नहीं लगी. एलिज़ाबेथ के बाद 1770 में ब्रिटिश संसद ने एक कानून बनाया, जिसके तहत लिपस्टिक बैन कर दी गई. और ये बैन क्वीन विक्टोरिया के समय में भी लागू रहा. लिपस्टिक के इतिहास में अगला बड़ा पड़ाव आया 20 वीं सदी में.

20 वीं सदी बदलाव का दौर था. दुनियाभर में महिलाएं अपने अधिकारों की मांग कर रही थीं. 1912 में अमेरिका में महिलाओं ने वोट के अधिकार के लिए एक बड़ा मूवमेंट शुरू किया. लाल गाढ़ी लिपस्टिक इस मूवमेंट की पहचान बनी. क्योंकि लिपस्टिक को लेकर सदियों से स्टिग्मा बना हुआ था. महिलाओं ने लिपस्टिक को आजादी का सिम्बल बनाया. Reading our Lips: The History of Lipstick Regulation in Western Seats of Power शीर्षक से एक आर्टिकल में सैरा शेफर लिखती है, “वोट का अधिकार मांगने के लिए महिलाएं जब रैली निकालती थीं. तो उन सभी ने गहरी लाल लिपस्टिक लगाई हुई थी. ये इत्तेफाक नहीं था. लिपस्टिक लगाना भी विद्रोह का तरीका था”. 

यहां से लिपस्टिक क्रान्ति की शरुआत हुई. महिलाओं में लिपस्टिक की मांग तेज़ी से बढ़ी. कंपनियों ने इस मांग को पहचाना. और लिपस्टिक एक कमोडिटी बन गई.

इस ट्रेंड को और तेज़ी मिली द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान. नाज़ी जर्मनी में लिपस्टिक बैन थी. नाजी विचारधारा के अनुसार लिपस्टिक लगाना, शुद्ध आर्यन रेस पर धब्बा लगाने जैसा था. हिटलर की इस मानसिकता के चलते ब्रिटेन में लिपस्टिक को खूब बढ़ावा मिला. सरकारी और सामाजिक दोनों रूप से. उस समय युद्ध में काम करने वाली नर्सों के लिए लाल लिपस्टिक लगाना प्रोटोकॉल का हिस्सा बना दिया गया. रेड क्रॉस में काम करने वाले महिलाएं भी नियमित रूप से लिपस्टिक लगाती थीं.

विश्व युद्ध ख़त्म हुआ. तब तक लिपस्टिक एक बहुत ही पॉपुलर सौंदर्य प्रसाधन बन चुकी थी. और बाद में इसकी पॉपुलैरिटी बढ़ती ही गई. एक दिलचस्प आंकड़ा बताते हैं आपको कि आज भी दुकानों से चुराई जाने वाली सबसे कॉमन चीज लिपस्टिक ही होती है. इकॉनमी के आंकड़े बताते हैं कि मंदी के दिनों में भी लिपस्टिक की बिक्री कम नहीं हुई. बल्कि 1930 में ग्रेट डिप्रेशन के बाद इसकी बिक्री में बढ़ोतरी देखी गई. और ऐसा ही कुछ अमेरिका में 9/11 हमलों के बाद हुआ. भारत की बात करें को आजादी के बाद की एक दिलचस्प कहानी है, जब लिपस्टिक के चलते प्रधानमंत्री नेहरू को महिलाओं का गुस्सा झेलना पड़ा था. क्या थी ये कहानी?

1951 की बात है. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सर तमाम दिक्कतें थीं. देश के पहले चुनाव होने थे, तमाम राज्यों में अलग-अलग मुद्दे सर उठा रहे थे. लेकिन इन दिक्कतों से कहीं बड़ी एक और दिक्क्त थी. फॉरेन रिजर्व यानी डॉलर की खासी कमी थी और एक-एक पैसा खर्च करने से पहले सौ बार सोचना पड़ता था. ऐसे में उस साल सरकार के पास एक रिपोर्ट आई. जिसमें लिखा था कि भारत की महिलाएं कॉस्मेटिक आयात करने पर खासा खर्च कर रही हैं.

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ये सभी विदेश से आयात होते थे, अतः इसमें बेशकीमती डॉलर खर्च करना पड़ता था. सरकार ने तुरंत कॉस्मेटिक्स के आयात पर बैन लगा दिया. फिर वो ही हुआ जो होना था. नेहरू के निजी सचिव MO मथाई अपनी किताब, माई डेज विद नेहरू में लिखते हैं कि सरकार के इस कदम से शहरों की महिलाओं में सरकार के प्रति काफी गुस्सा था. प्रधानमंत्री नेहरू के ऑफिस में टेलीग्राम्स की झड़ी लगने लगी. जिनमें लिखा होता कि सरकार को कॉस्मेटिक्स पर बैन तुरंत हटाना चाहिए.

नेहरू ऐसा नहीं कर सकते थे. लेकिन एक दूसरा विचार उनके दिमाग में आया. क्यों न भारत खुद अपना एक कॉस्मेटिक ब्रांड बनाए. नेहरू सोच ही रहे थे कि तभी उन्हें अपने दोस्त JRD टाटा(JRD Tata) की याद आई. उन्होंने टाटा से गुजारिश की कि वो ऐसे स्वेदशी ब्यूटी प्रोडक्ट बनाए, जो इंटरनेशनल ब्रांड्स को टक्कर दे सकें. इस एक विचार से शुरुआत हुई लैक्मे (Lakme) की.

लैक्मे का नाम लैक्मे कैसे पड़ा?

दरअसल उस दौर में पेरिस में एक ओपेरा चला करता था, जिसमें भारत की एक कहानी दिखाई जाती थी. कहानी एक लड़की की थी, उसका नाम था लक्ष्मी. लक्ष्मी के पिता नीलकंठ एक ब्राह्मण थे. एक रोज़ यूं हुआ कि लक्ष्मी और उसकी दोस्त मल्लिका जंगल में फूल चुनने के लिए गए. इस दौरान दो ब्रिटिश सैनिकों ने उन्हें देखा, और उनमें से एक, जेराल्ड, लक्ष्मी के इश्क़ में गिरफ्तार हो गया. नीलकंठ को जब इस बात का पता चला तो वो गुस्से से आग बबूला हो गए.

एक रोज़ दुर्गा पूजा के मौके पर नीलकंठ ने जेराल्ड के ऊपर सरेआम चाकू से हमला कर दिया. जेराल्ड बच निकला, लेकिन उसे गंभीर चोट आई. लक्ष्मी उसे जंगल में लेकर गई, उसकी देखभाल की और जेराल्ड ठीक होने लगा. एक रोज़ लक्ष्मी जब पानी भरने गई थी, जेराल्ड का दोस्त फ्रेडरिक उसके पास आया और मिलिट्री के प्रति उसकी ड्यूटी याद दिलाई. जेराल्ड उसके साथ चला गया. लक्ष्मी वापस लौटी और उसने देखा कि जेराल्ड वहां नहीं है तो उसने धतूरे का फूल खाकर अपनी जान दे दी.

इस ओपेरा की नायिका, जिसका नाम लक्ष्मी था, उसे फ्रेंच लोग लैक्मे कहकर बुलाते थे. और यही इस नाटक का नाम भी था. नीना कलरिच अपनी किताब स्किन कलर पॉलिटिक्स में लिखती हैं-

'पेरिस तब कॉस्मेटिक्स कैपिटल हुआ करता था. इसलिए टाटा ने कोस्मेटिस्क की जानकारी हासिल करने के लिए अपना एक डेलिगेशन पेरिस भेजा. डेलीगेशन लौटा, कॉस्मेटिक बनाने की तैयारी हुई. तब सवाल उठा कि नाम क्या रखा जाए. तब टाटा ने लैक्मे नाम चुना, क्योंकि ये नाम एक इम्पोर्टेड ब्रांड का अहसास दिलाता था, साथ ही लक्ष्मी नाम होने के चलते इसमें भारतीयता भी थी.'

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लैक्मे की शुरुआत हुई, पेडर रोड मुम्बई से. और जल्द ही लैक्मे ने लिपस्टिक, नेल पॉलिश, आय लाइनर, क्रीम आदि प्रोडक्ट्स बाज़ार में लॉन्च किए. ये सभी न सिर्फ क्वालिटी में फॉरेन ब्रांड्स को मैच करते थे, बल्कि सस्ते भी थे. 1961 में लैक्मे की कमान सिमोन टाटा ने संभाली. सिमोन, नवल टाटा की पत्नी और रतन टाटा की सौतेली मां थीं. उन्होंने लैक्मे को भारत के सबसे आइकोनिक और सबसे भरोसेमंद ब्रांड्स में से एक बनाया. 1996 में लैक्मे को हिंदुस्तान लीवर को बेच दिया गया और 21 वीं सदी में भी ये लगातार भारत के सबसे भरोसेमंद ब्रांड्स में एक बना हुआ है.

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