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बम ब्लास्ट में मरे रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या की पूरी कहानी

क्या जेल में बंद एक तांत्रिक ने रेल मंत्री का कत्ल करवा दिया था?

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ललित नारायण मिश्र अपनी हत्या के इतने बरस बाद भी बिहार की राजनीति के सबसे चर्चित चेहरों में शुमार हैं. जिस तरह से उनका अंत हुआ, शायद वो ट्रेजडी उनकी विरासत का सबसे बड़ा हिस्सा है. इतने साल बीत गए, लेकिन हत्या से जुड़े अभी भी ज्यों के त्यों मुंह बाए खड़े हैं.
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स्वाति
3 जनवरी 2021 (Updated: 2 जनवरी 2021, 05:26 AM IST) कॉमेंट्स
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ललित नारायण मिश्र. आजाद भारत के पहले कैबिनेट मंत्री, जिनकी हत्या की गई. उनके मौत की तारीख थी 3 जनवरी, 1975. उन पर एक दिन पहले 2 जनवरी को बम फेंका गया था. जगह थी समस्तीपुर रेलवे स्टेशन का प्लेटफॉर्म नंबर तीन (घटना के समय ये दो नंबर प्लेटफॉर्म था) जहां अब उनकी समाधि बनी है. बिहार को अगर एक आम समझिए, तो इसकी एक फांक है मिथिला. यहीं पैदा हुए थे ललित नारायण मिश्र. सहरसा जिले के बलुआ बाजार में. मिथिला में ललित नारायण मिश्र अपने पूरे नाम से नहीं पुकारे जाते. वहां आज भी उनका जिक्र 'ललित बाबू' कहकर ही होता है. लोग कहते हैं, ललित बाबू बेवक्त न मरे होते, तो बिहार आज बहुत आगे होता. इस लाइन में बड़ी चूक है. मरे न होते की जगह मारे न गए होते पढ़िएगा. मिथिला के लोग मैथिल कहलाते हैं. ललित बाबू का मारा जाना मैथिलों का 'कलेक्टिव' अफसोस है. अगली पांत का इतना बड़ा नेता मिथिला को फिर कभी नहीं मिला. ललित नारायण मिश्र की जब हत्या हुई, तब वो रेलमंत्री थे. उनकी सोची कई परियोजनाएं अब जाकर शुरू हो सकी हैं. अफसोस तो लाजमी है. फिर एक और बात है. लोग कहते हैं, वो जिंदा होते तो प्रधानमंत्री बन जाते. कि इंदिरा गांधी भी उन्हें PM बनने से रोक नहीं पातीं. कहते तो ये भी हैं कि अगर ललित बाबू जिंदा होते, तो जेपी कभी इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन शुरू ही न करते. हत्या हुई यानी साजिश रची गई. उनकी मौत के समय से जो बातें शुरू हुईं, वो कभी ठंडी नहीं हुईं. कई बातें हैं. कई अफवाहें हैं.


ये ललित नारायण मिश्र का शव है. तस्वीर 3 जनवरी, 1975 को ली गई थी. दानापुर रेलवे अस्पताल में हुई उनकी मौत के बाद ली गई थी.
ये ललित नारायण मिश्र का शव है. तस्वीर 3 जनवरी, 1975 को ली गई थी. दानापुर रेलवे अस्पताल में हुई उनकी मौत के बाद ली गई थी.

हम हिंदी फिल्मों की खुराक पर पलने वाले लोग हैं. बचपन में दूध पिया कि नहीं, पक्का नहीं. मगर फिल्में खूब देखी हैं. सो आज की ये कहानी बॉलीवुड स्टाइल फ्लैशबैक में चलेगी. सबसे बाद में जो हुआ, उससे शुरू करके उल्टे पांव पीछे की ओर चलेंगे. फ्लैशबैक पर जाने से पहले एक छोटा सा नोट पढ़ते जाइए:

2 जनवरी, 1975. समस्तीपुर में एक कार्यक्रम तय था. उसमें शरीक होने के लिए ललित नारायण मिश्र दिल्ली से पटना के लिए रवाना हुए. सरकारी विमान में बैठकर. विमान पटना के आसमान पर पहुंचकर चक्कर काटने लगा. सर्दी का मौसम था. धुंध बड़ी आम चीज है. उस दिन भी घना कोहरा था. पायलट को लगा कि इस धुंध में विमान की लैंडिंग मुश्किल है. उसने कहा, दिल्ली लौट चलते हैं. मगर ललित बाबू नहीं माने. कहा, लोग इंतजार करेंगे. न जाऊं, ये हो नहीं सकता. पायलट के बार-बार कहने के बाद भी उन्होंने जोर देकर लैंडिंग कराई. वक्त का पाबंद होना उस दिन उनके लिए जानलेवा बन गया. उन्होंने पायलट की बात मानी होती, तो शायद वो जिंदा होते. और जब मरे, तो आज की राजनीति के हिसाब से जवान ही थे. कुल 52 साल की उम्र. आज राहुल गांधी की उम्र से बस पांच साल बड़े.

फ्लैशबैक

तारीख: 3 जनवरी, 1975 दिन: शुक्रवार जगह: दानापुर रेलवे अस्पताल

डॉक्टरों की एक भरी-पूरी टीम ललित बाबू को बचाने में जुटी थी. जब रेल के रास्ते उनको अस्पताल लाया गया था, तब हालत इतनी बुरी नहीं दिख रही थी. बाहर से देखो, तो लगता नहीं था कि ये इंसान बम ब्लास्ट झेलकर आया है. उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र की हालत ज्यादा खराब दिखती थी. बम के छर्रे दोनों पैर में घुसे हुए थे. खूब खून निकला था. मगर ललित बाबू देखने में स्थिर लगते थे. दिक्कत उसमें थी, जिसको जान कहते हैं. लाख हाथ-पैर मारने के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका. उनकी मौत के अलावा दो और लोग इस हादसे के नाम हो गए. एक थे MLC सूर्य नारायण झा. दूसरे थे रेलवे विभाग में क्लर्क राम किशोर प्रसाद. एक दिन पहले समस्तीपुर रेलवे पुलिस ने जो FIR दर्ज की थी, उसके बाद जांच का जिम्मा CID को सौंप दिया गया. फिर बिहार सरकार ने नया नोटिफिकेशन जारी किया. केस की जांच CBI के सुपुर्द कर दी गई. CBI ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसे जांच बिहार से बाहर ले जाने की इजाजत दी जाए. ये परमिशन मिलने में लंबा वक्त लग गया. 17 दिसंबर, 1979 को सुप्रीम कोर्ट ने हरी झंडी दी. 22 मई, 1980 को ये केस दिल्ली सेशन कोर्ट में ट्रायल के लिए भेजा गया.


जवाहर लाल नेहरू के साथ ललित नारायण मिश्र. ललित बाबू को राजनीति में लेकर आए थे बिहार के पहले मुख्यमंत्री कृष्ण सिंह.
जवाहर लाल नेहरू के साथ ललित नारायण मिश्र. ललित बाबू को राजनीति में लेकर आए थे बिहार के पहले मुख्यमंत्री कृष्ण सिंह. ललित बाबू के बाद तो इस परिवार के ज्यादातर बेटे-भतीजे राजनीति में आते रहे.

तारीख: 2 जनवरी, 1975 दिन: गुरुवार जगह: समस्तीपुर रेलवे स्टेशन इंदिरा गांधी सरकार के रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे. कार्यक्रम पहले से तय था. कई महीनों से तैयारी चल रही थी. उन्हें समस्तीपुर से मुजफ्फरपुर के बीच बड़ी लाइन का उद्घाटन करना था. इसके लिए शाम का वक्त चुना गया था. पूरे लाव-लश्कर के साथ ललित बाबू वहां पहुंचे. मंच पर चढ़े. उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र भी उनके साथ थे. कांग्रेस के कुछ और नेता भी साथ थे. ललित बाबू ने भाषण पूरा किया और मंच से नीचे उतरने लगे. ठीक इसी समय वहां मौजूद दर्शकों की भीड़ में से किसी शख्स ने मंच की ओर हथगोला उछाला. हथगोला फटा. अफरा-तफरी मच गई. 11 लोग बुरी तरह से घायल हुए. उन्हें जानलेवा चोट आई थी. इसके अलावा 18 लोगों को गंभीर चोट आई. घायलों में सबसे बड़ा नाम था ललित नारायण मिश्र का. बहुत हाई-प्रोफाइल केस था ये. GRP समस्तीपुर ने आनन-फानन में केस दर्ज कर लिया. उस समय न इतने फोन थे, न चौबीस घंटे वाले न्यूज चैनल. लोग रेडियो पर खबर सुनकर देश-दुनिया का हाल जाना करते थे. सो उस दिन रात को जब ऑल इंडिया रेडियो का बुलेटिन आया, तो पूरे बिहार में सनसनी मच गई.


ललित बाबू बड़े दबंग किस्म के नेता थे. जयप्रकाश नारायण के साथ बड़े करीबी ताल्लुकात थे उनके. कहते हैं कि वो इंदिरा और जेपी के बीच पसरी चुप्पी को पाटने की कोशिश करते थे.
ललित बाबू बड़े दबंग किस्म के नेता थे. जयप्रकाश नारायण के साथ बड़े करीबी ताल्लुकात थे उनके. कहते हैं कि वो इंदिरा और जेपी के बीच पसरी चुप्पी को पाटने की कोशिश करते थे.

30 किलोमीटर दूर बैठा एक नवाब शायद बचा लेता ललित बाबू को

समस्तीपुर रेलवे स्टेशन से 40 किलोमीटर दूर है दरभंगा मेडिकल कॉलेज. शॉर्ट में DMCH. वहां पहुंचना मिनटों का काम था, मगर DMCH में डॉक्टरों की हड़ताल थी. क्या इतनी बड़ी इमर्जेंसी में भी डॉक्टर ललित बाबू का इलाज नहीं करते? ये बात हजम करने लायक नहीं. खैर. इस जमाने में दरभंगा के अंदर एक बड़े मशहूर सर्जन थे. डॉक्टर सैयद नवाब. पटना के नवाब परिवार का लड़का. दरभंगा में अल्लपट्टी नाम का एक मुहल्ला है. वहीं था उनका क्लीनिक. उनके बारे में मशहूर था कि उनके हाथों इलाज करवाने वाले ज्यादातर मरीज भले-चंगे हो जाते हैं. डॉक्टर नवाब तो गुजर चुके हैं, मगर उनके बेटे अब भी उस क्लीनिक को चलाते हैं. जूनियर नवाब के नाम से पूरे दरभंगा में मशहूर हैं. उनकी पत्नी हैं नसरीन नवाब. लखनऊ के नवाब खानदान से ताल्लुक रखती हैं. वो स्कूल चलाती हैं दरभंगा में. वुडबाइन मॉर्डन स्कूल. खैर, लौटते हैं 1975 के जिक्र पर. ब्लास्ट में घायल हुए कई लोगों को इलाज के लिए डॉक्टर नवाब के पास दरभंगा भेज दिया गया. मगर, ललित बाबू को दूर पटना भेजने का फैसला हुआ.


ये डॉक्टर सैयद नवाब के नाम पर क्लिनिक है, जिसे अब उनके बेटे चलाते हैं.
ये डॉक्टर सैयद नवाब के नाम पर क्लिनिक है, जिसे अब उनके बेटे चलाते हैं.

ललित बाबू को पटना ले जा रही ट्रेन इतनी लेट क्यों हुई? इस फैसले का न उस समय कोई तुक नजर आया था, न अब कोई तुक नजर आता है. ललित बाबू और जगन्ननाथ मिश्र के साथ कुछ लोगों को एक ट्रेन में पटना के लिए रवाना किया गया. जाना था दानापुर रेलवे स्टेशन. रेल से करीब 132 किलोमीटर की दूरी. 1975 में इस दूरी को पाटने के लिए 6-7 घंटे काफी होने चाहिए. आज 4-5 घंटे लगते हैं. मगर ललित बाबू को लेकर रवाना हुई ट्रेन 14 घंटे से ज्यादा वक्त लगाकर दानापुर पहुंची. 14 घंटे नोट करके रख लीजिए. ये इस हत्याकांड से जुड़े सबसे अहम सवालों में से एक था. ट्रेन को यार्ड में खड़ा रखा गया. शंटिग की गई. समर्थकों ने कहा कि जानकर देर की गई.


ललित नारायण मिश्र के छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र आगे चलकर बिहार के मुख्यमंत्री भी बने. हादसे वाले दिन वो भी ललित बाबू के साथ थे. उनके दोनों पैर में बम के छर्रे लगे थे. काफी खून बह रहा था. अस्पताल के रास्ते में ललित बाबू बार-बार लोगों से कह रहे थे कि जगन्नाथ को देखो, उसकी हालत खराब लग रही है बहुत.
ललित नारायण मिश्र के छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र आगे चलकर बिहार के मुख्यमंत्री भी बने. हादसे वाले दिन वो भी ललित बाबू के साथ थे. उनके दोनों पैर में बम के छर्रे लगे थे. काफी खून बह रहा था. अस्पताल के रास्ते में ललित बाबू बार-बार लोगों से कह रहे थे कि जगन्नाथ को देखो, उसकी हालत खराब लग रही है बहुत.

ललित बाबू के परिवार को भी लगता है - साजिश हुई हमने नीतीश मिश्र से बात की. वो ललित बाबू के भतीजे यानी जगन्नाथ मिश्र के बेटे हैं. जब ये घटना हुई, तब दो साल के थे. ललित बाबू से जुड़ी कोई बात फर्स्ट हैंड तो याद नहीं, मगर सुनी हुई कई यादें हैं उनके पास. बात करते हुए उन्होंने बताया कि ललित नारायण मिश्र का परिवार आज भी ये मानता है कि इस हत्या के पीछे कोई बड़ी साजिश थी, जो अब तक छुपी हुई है. ललित बाबू के बेटे विजय कुमार मिश्र तो CBI की जांच और अदालत के फैसले, सबसे अहमति जता चुके हैं. उन्होंने तो कभी भी CBI की जांच को सही नहीं माना. शुरुआत से ही कहते रहे कि ये जांच ठीक नहीं हो रही. असली साजिश कुछ और है, जो छुपी रह गई. या कहें कि कोई उस असलियत को छुपाए रखने में कामयाब रहा.

अब आगे बढ़ते हैं. इससे पहले कि CBI जांच का जिक्र करें, एक तांत्रिक बाबा का जिक्र जरूरी है. पहले इसे जानिए.


70 के दशक में पी आर सरकार का नाम दो बड़े मामलों में सुनने को मिला. ललित नारायण मर्डर केस के अलावा एयर इंडिया के विमान एंपरर अशोका के क्रैश के बाद भी लोगों ने आनंदमार्गियों का नाम लिया. अफवाह थी कि पी आर सरकार को छुड़वाने के लिए क्रैश करवाया गया.
70 के दशक में पी आर सरकार का नाम दो बड़े मामलों में सुनने को मिला. ललित नारायण मर्डर केस के अलावा एयर इंडिया के विमान एंपरर अशोका के क्रैश के बाद भी लोगों ने आनंदमार्गियों का नाम लिया. अफवाह थी कि पी आर सरकार को छुड़वाने के लिए क्रैश करवाया गया.

तारीख: 9 जनवरी, 1955 दिन: रविवार जगह: जमालपुर, बिहार जमालपुर में पूर्वी रेलवे का एक वर्कशॉप था. इसके कर्मचारियों में एक नाम था प्रभात रंजन सरकार का. शॉर्ट में, पी आर सरकार. लोकप्रिय नाम, आनंद मूर्ति बाबा. जिस तारीख का जिक्र किया, वो तारीख पी आर सरकार के आनंद मूर्ति बाबा बनने की बड़ी सीढ़ी थी. इसी दिन पी आर सरकार ने आनंद मार्ग प्रचारक संघ की नींव रखी. इसको मानने वाले इसे शिव और कृष्ण का अवतार मानते थे. भारत के सातवें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने पी आर सरकार को 'भारत के सबसे महान आधुनिक दार्शनिकों' में से एक बताया था. ये शख्स लोगों को 'आनंद मार्ग' पर चलने का ज्ञान देता था. ये ज्ञान कॉम्बो पैक था. थोड़ा वैदिक शिक्षा, थोड़ा तंत्र-मंत्र. इसे मानने वाले सिर पर भगवा साफा पहनते थे. आनंद मार्ग का मकसद था एक 'सदविप्र राज' कायम करना. एक ऐसी सरकार, जिसमें सारे सदाचारी रहें. सदाचारी माने, नैतिक शिक्षा में डिस्टिंक्शन पाए लोग. इस सरकार को बनाने का सपना साकार करने के लिए पी आर सरकार ने कार्यकर्ताओं की एक सेना टाइप बनाई. इन्हें 'अवधूत' नाम दिया गया. इनको हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी दी गई. 'आनंद मूर्ति बाबा' सोचते थे कि जरूरत पड़ी, तो सदविप्र राज कायम करने के लिए जोर-जबर्दस्ती से भी परहेज नहीं किया जाना चाहिए.

तारीख: 29 दिसंबर, 1971 दिन: बुधवार जगह: पटना

पटना पुलिस ने पी आर सरकार को गिरफ्तार कर लिया. इल्जाम था कि उसने 'आनंद प्रचारक संघ' को छोड़कर गए लोगों को मारने की साजिश रची. उसके संगठन के कुछ और लोग भी इल्जाम में भागीदार थे. सबके ऊपर हत्या और साजिश रचने का आरोप था. पटना सेशन कोर्ट में ट्रायल शुरू हुआ. बड़ी कोशिश की पी आर सरकार ने, मगर जमानत नहीं मिली. जेल भेज दिया गया. जेल के अंदर से उसने अपने साथ बदसलूकी किए जाने का आरोप भी लगाया. मगर रिहा नहीं हो पाया. जेल के बाहर उसके समर्थक हंगामा कर रहे थे. 1973 में उसके एक समर्थक ने पटना में आत्मदाह कर लिया. एक ने दिल्ली में आत्मदाह कर लिया. पी आर सरकार ने जेल के अंदर से संदेश भिजवाया था. जब तक सरकार मुझे रिहा न करे, तुम लोग (समर्थक-भक्त) चैन न लेना. उसने कहा, बहादुरी दिखाओ. जब तक 'दुश्मनों' को मार न डालो, तब तक शांति से बैठना मत. इस 'शांत से न बैठना' का नाता आगे चलकर ललित नारायण मिश्र की हत्या के साथ जुड़ गया.


ललित नारायण मिश्र की हत्या के बाद उनके नाम का विशेष डाक टिकट भी जारी किया गया.
ललित नारायण मिश्र की हत्या के बाद उनके नाम का विशेष डाक टिकट भी जारी किया गया.

तारीख: जुलाई 1973 जगह: पटना CBI ने जो चार्जशीट दाखिल की, उसमें कुछ लोगों को इस हत्या का आरोपी बनाया गया था. कुछ नाम थे इसमें- विनयानंद, संतोषानंद, विश्वेश्वरानंद. CBI के मुताबिक, आनंद मूर्ति के समर्थकों ने उसे रिहा करवाने के बड़े जतन किए. जब कोई राह काम न आई, तो उन्होंने खास इस काम के लिए एक गैंग बनाया. जिन लोगों का नाम ऊपर लिया, वो सब इसमें शामिल थे. अपनी पहचान छुपाने के लिए इन लोगों ने भगवा साफा उतारा. बाल कटवा दिए और दाढ़ी हटा दी. विनयानंद और विश्वेश्वरानंद ने तो फर्जी नाम भी रख लिया- विजय और जगदीश. इनके साथ संतोषानंद, सुदेवानंद, अर्तेशानंद और आचार्य राम कुमार सिंह भी जुड़ गए. भागलपुर जिले के त्रिमोहन गांव में एक गुप्त सभा हुई. इस सभा में पी आर सरकार, उर्फ आनंद मूर्ति के दुश्मनों की लिस्ट तैयार की गई. CBI के मुताबिक, इस लिस्ट में ये नाम थे:

दुश्मन नंबर 1- माधवानंद दुश्मन नंबर 2- ललित नारायण मिश्र दुश्मन नंबर 3- अब्दुल गफूर (उस समय बिहार के CM थे)

कौन किस 'दुश्मन' की हत्या करेगा, ये काम बांटा गया CBI की चार्जशीट के मुताबिक त्रिमोहन गांव की उस सभा में जिम्मेदारियां भी तय हुईं. फैसला हुआ कि विनयानंद उर्फ जगदीश माधवानंद (दुश्मन नंबर एक) का मर्डर करेगा. विश्वेश्वरानंद उर्फ विजय बिहार के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर का कत्ल करेगा. रंजन द्विवेदी, संतोषानंद और सुदेवानंद के जिम्मे ललित बाबू की हत्या का जिम्मा आया. राम आश्रय प्रसाद नाम के एक शख्स ने पांच बमों का इंतजाम किया. विनयानंद और संतोषानंद ने हथियारों का बंदोबस्त किया. ये सारे हथियार गोपाल जी नाम के एक शख्स के सुपुर्द कर दिए गए.

दो जनवरी, 1975 की उस तारीख पर एक बार फिर वापस लौटते हैं


समस्तीपुर जंक्शन के प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर आप ललित नारायण मिश्र की समाधि देख सकते हैं. जब की ये घटना है, तब वो दो नंबर प्लेटफॉर्म हुआ करता था. बाद में जंक्शन फैला, बड़ा हुआ. तो नंबर बांटने का काम फिर से किया गया. दो नंबर प्लेटफॉर्म तीन नंबर प्लेटफॉर्म बन गया. वहां से गुजरने वालों को उस मूर्ति की आदत पड़ गई है. ऐसे ही जैसे बिहार को ललित बाबू की हत्या का जिक्र करने की आदत पड़ी हुई है. आखिरकार आखिरी फैसला अभी भी बाकी है.
समस्तीपुर जंक्शन के प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर आप ललित नारायण मिश्र की समाधि देख सकते हैं. जब की ये घटना है, तब वो दो नंबर प्लेटफॉर्म हुआ करता था. बाद में जंक्शन फैला, बड़ा हुआ. तो नंबर बांटने का काम फिर से किया गया. दो नंबर प्लेटफॉर्म तीन नंबर प्लेटफॉर्म बन गया. वहां से गुजरने वालों को उस मूर्ति की आदत पड़ गई है. ये इस जंक्शन का लैंडमार्क है.

जगह: समस्तीपुर रेलवे स्टेशन, प्लेटफॉर्म नंबर तीन (CBI के मुताबिक)

ललित नारायण मिश्र को लाल रंग का फीता काटकर समस्तीपुर-मुजफ्फरपुर बड़ी लाइन का उद्घाटन करना था. सारा कार्यक्रम प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर होना था. कार्यक्रम में शामिल होने के लिए पास, बैच या फिर इनविटेशन कार्ड चाहिए था. रंजन द्विवेदी एक जनवरी, 1975 को ही एक बस में बैठकर समस्तीपुर पहुंच गया था. संतोषानंद और सुदेवानंद उसके साथ थे. एक और आरोपी विक्रम भी वहां पहुंच चुका था. रंजन ने बड़ी मशक्कत से चार पास जुटाए. अगले दिन चारों स्टेशन पहुंच गए. अपने साथ कपड़ों के अंदर छुपाकर हथगोला भी लाए थे. फिर जैसा कि कार्यक्रम तय था, ललित बाबू और उनका लाव-लश्कर भी वहां पहुंचा. खूब जोरदार भाषण दिया उन्होंने. भीड़ उनकी बात-बात पर तालियां बजा रही थी. तालियों की इसी गड़गड़ाहट के बीच ललित बाबू का भाषण खत्म हुआ और वो मंच से नीचे उतरने लगे. ठीक इसी समय संतोषानंद ने उनकी ओर एक हथगोला उछाला. जोरदार धमाका हुआ. बम से निकले छर्रे वहां मौजूद लोगों के शरीर में जा धंसे. अफरा-तफरी मच गई. आरोपी भी वहां से भागे. भागते-भागते विक्रम ने अपना हथगोला वहां गिरा दिया. इस बम को बाद में 10 साल के एक बच्चे राजेंद्र साहू ने उठा लिया. उसका चचेरा भाई महादेव साहू वहीं रेलवे कर्मचारी था. पूरा परिवार वहीं पास में बनी रेलवे कॉलोनी में रहता था. राजेंद्र उस बम को गेंद समझकर घर ले गया. गलती से वो बम फट गया. राजेंद्र और महादेव, दोनों जख्मी हो गए.


ललित बाबू की हत्या के एक साल बाद दरभंगा में उनके नाम पर एक यूनिवर्सिटी की नींव डली. इसे मिथिला यूनिवर्सिटी में मिलाने की कोशिश भी हुई, मगर बिहार के अंदर ललित नारायण मिश्र का जो कद है उसकी वजह से ये कोशिश कामयाब नहीं हुई. मुजफ्फरनगर में भी उनके नाम पर एक मैनेजमेंट कॉलेज है. पटना हाई कोर्ट के पास भी एक कॉलेज है ललित बाबू की याद में.
ललित बाबू की हत्या के एक साल बाद दरभंगा में उनके नाम पर एक यूनिवर्सिटी की नींव पड़ी. बाद में इसे मिथिला यूनिवर्सिटी में मिलाने की कोशिश भी हुई, मगर बिहार के अंदर ललित बाबू का जो कद है, उसकी वजह से ये कोशिश कामयाब नहीं हुई. मुजफ्फरनगर में भी उनके नाम पर एक मैनेजमेंट कॉलेज है. पटना हाई कोर्ट के पास भी एक कॉलेज है ललित बाबू की याद में.

तारीख: 3 जनवरी, 1975 दिन: शुक्रवार जगह: UNI का दफ्तर, पटना न्यूज एजेंसी UNI के दफ्तर में एक चिट्ठी पहुंची. किसी 'सशस्त्र क्रांतिकारी छात्र संघ' ने भेजी थी. हाथ की लिखावट थी उसमें. साथ में एक प्रिटेंड पर्चा भी था. इसमें लिखा था कि समस्तीपुर रेलवे स्टेशन में हुआ बम धमाका, जिसमें ललित नारायण मिश्र की जान गई, क्रांति के दौर की शुरुआत है. सरकार को भी धमकाया गया था कि उसका 'जुल्म' और तमाम दांव बेकार रह जाएंगे. उस वक्त UNI, पटना ब्यूरो में पत्रकार रहे फरजंद अहमद ने ये पर्चा ब्यूरो चीफ धैर्यनंद झा को दिया. उन्होंने उसे CBI के सुपुर्द किया. फरजंद और धैर्यनंद झा CBI की ओर से बाद में इस केस के गवाह भी बने.


इंदिरा गांधी और संजय गांधी, दोनों के काफी करीबी माने जाते थे ललित नारायण मिश्र. फिर जब इनकी हत्या हुई, तो अफवाह चली कि इसके पीछे इंदिरा का हाथ है. किस्मत देखिए. इन तीनों ही लोगों की अप्राकृतिक मौत हुई. इंदिरा और ललित बाबू की हत्या हुई, जबकि संजय गांधी विमान हादसे में मारे गए.
इंदिरा गांधी और संजय गांधी, दोनों के काफी करीबी माने जाते थे ललित नारायण मिश्र. फिर जब इनकी हत्या हुई, तो अफवाह चली कि इसके पीछे इंदिरा का हाथ है. किस्मत देखिए. इन तीनों ही लोगों की अप्राकृतिक मौत हुई. इंदिरा और ललित बाबू की हत्या हुई, जबकि संजय गांधी की मौत विमान हादसे में हुई.

क्या किसी बड़े और ताकतवर इंसान ने करवाई हत्या? 11 हजार पन्नों के दस्तावेज वाला ये भारी-भरकम केस बड़ा अजूबा मामला है. केस की सुनवाई के दौरान करीब 24 जज आए-गए. इतने लंबे समय तक चलने की वजह से बीच में ही कई वकील भी गुजर गए. हाई-प्रोफाइल होने के बावजूद फैसला आने में 40 साल लग गए. बिहार सरकार और केंद्र सरकार के बीच इसे लेकर बड़ी माथापच्ची भी रही. 1977 में जब कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने एक जांच भी बिठाई. इसका जिम्मा दिया एम ताराकुंडे को. ताराकुंडे ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि CBI ने जिन लोगों को आरोपी बनाया है, वो बेगुनाह हैं. मामले में सरकारी गवाह बने कुछ लोगों ने भी कहा कि CBI ने उन्हें उसके मन-मुताबिक बयान देने के लिए मजबूर किया. शुरुआत में जब बिहार CID केस की जांच कर रही थी, तब लग रहा था कि हत्या के पीछे किसी बड़े और ताकतवर इंसान का हाथ है. CBI के पास केस जाते ही जांच की पूरी दिशा बदल गई.

40 साल बाद आया कोर्ट का फैसला, मगर इंतजार खत्म नहीं हुआ CBI की आनंदमार्गियों वाली स्टोरी पर कई लोगों ने शक किया. कहा, एजेंसी ने असली दोषियों को बचाने के लिए मनगढ़ंत कहानी बनाई है. मई, 1977 में ललित बाबू की पत्नी कामेश्वरी देवी ने तत्कालीन गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह को एक खत भेजा. मांग की कि हत्याकांड की नए सिरे से जांच शुरू कराई जाए. ये भी लिखा कि पुलिस ने आनंद मार्ग के जिन लोगों को गिरफ्तार किया है, वो निर्दोष हैं. उन्हें रिहा कर दिया जाए. जगन्नाथ मिश्र (भाई) और विजय कुमार मिश्र (बेटे) ने भी गवाही के दौरान कहा कि आनंदमार्गियों की ललित बाबू से कोई दुश्मनी नहीं थी. मृतक के परिवार को CBI की बातों पर कभी भरोसा नहीं हुआ. नवंबर, 2014 में सेशन कोर्ट ने रंजन द्विवेदी, संतोषानंद, सुदेवानंद और गोपाल जी को उम्रकैद सुनाई. इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील हुई. 2015 में आरोपी जमानत पर छूट गए. ललित बाबू के परिवार ने बार-बार कहा कि जिन्हें सजा हुई है, वो निर्दोष हैं. कि असली गुनहगारों को फंसाया जा रहा है.


लोगों के मुंह से जो अफवाहें निकलती हैं, वो किस्से-कहानियों की शक्ल ले लेती हैं. ऐसे ही किस्से हैं कि इंदिरा को ललित नारायण मिश्र की बढ़ती लोकप्रियता से खतरा महसूस हो रहा था. वो भी ऐसे समय में जबकि इंदिरा के राजनैतिक हालात ठीक नहीं थे. सो उन्होंने हत्या की साजिश रची. पहले ही कह चुके हैं कि उड़ी-उड़ाई बात है.
लोगों के मुंह से जो अफवाहें निकलती हैं, वो किस्से-कहानियों की शक्ल ले लेती हैं. ऐसे ही किस्से हैं कि इंदिरा को ललित नारायण मिश्र की बढ़ती लोकप्रियता से खतरा महसूस हो रहा था. वो भी ऐसे समय में जबकि इंदिरा के राजनैतिक हालात ठीक नहीं थे. सो उन्होंने हत्या की साजिश रची. पहले ही कह चुके हैं कि उड़ी-उड़ाई बात है.

इंदिरा गांधी को ललित नारायण मिश्र से खतरा था? ये अफवाह सबसे ज्यादा लोकप्रिय है. लोग कहते हैं कि ललित बाबू की लोकप्रियता और उनके बढ़ते कद से इंदिरा घबरा गई थीं. उन्हें लगा कि ये शख्स शायद उनके सिंहासन के लिए चुनौती बन सकता है. वैसे भी वो वक्त इंदिरा के लिए थोड़ा मुश्किल था. चीजें धीरे-धीरे उनके हाथ से निकलने लगी थीं. 'आयरन लेडी' की चुनौती बढ़ रही थी. लोगों की बतकही में जिक्र होता है कि ललित बाबू को और किसी ने नहीं, इंदिरा ने मरवाया था. ताकि उनका रास्ता साफ हो जाए.

ललित बाबू जिंदा रहते, तो जेपी और इंदिरा गांधी में फासले न होते ललित नारायण मिश्र इंदिरा गांधी और संजय गांधी के करीबी थे. उनकी जयप्रकाश नारायण से भी काफी नजदीकी थी. पिछले कुछ अरसे से इंदिरा और जेपी के बीच दूरियां बढ़ती जा रही थीं. इंदिरा के कामकाज के तरीके से जेपी नाखुश थे. मतभेद इतने बढ़ गए थे कि पाटना मुश्किल लग रहा था. इससे पहले भी कुछ मौकों पर ऐसा हो चुका था. कहते हैं कि ऐसे तमाम मौकों पर ललित बाबू उन दोनों के बीच की संवादहीनता को पाटने में बड़ी भूमिका निभाते थे. बोलने वाले बोलते हैं कि जब ललित बाबू की हत्या कराई गई, तब भी वो इंदिरा और जेपी के बीच चीजें ठीक कराने की कोशिशों में जुटे थे. कुछ दिन बाद उनकी जेपी से मुलाकात होने वाली थी. ये भी कहा जाता है कि अगर ये मुलाकात हो जाती, तो जेपी और इंदिरा की तल्खियां कम हो जातीं और जेपी आंदोलन न शुरू करते. मगर ललित बाबू की हत्या के कारण ये सब नहीं हो सका. 'ऐसा न होता तो क्या होता, वैसा न होता तो क्या होता,' ये सोचने पर किसी का बस नहीं. खासकर ऐसी चीजों में जो मुकम्मल नहीं हैं. जिनका अंत स्वाभाविक नहीं हुआ. जो अपने आप नहीं रुकीं, बल्कि रोक दी गईं. ललित बाबू जिंदा होते, तो यकीनन उनसे जुड़ी अलग कहानी होती. तब उनका जिक्र अलग ढंग से हुआ करता. फिलहाल जो है, वो एक कॉमा है. जो उनकी कहानी के आगे लगा है. फुलस्टॉप इसलिए नहीं लगा क्योंकि इस कहानी का आखिरी भाग 'उपसंहार' अभी लिखा नहीं गया.



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