भारतीय सम्राट ललितादित्य की कहानी, जिसने चीन तक को जीत लिया था
कश्मीर का सिकंदर कहे जाने वाले सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ (Lalitaditya Muktapida) की कहानी? कैसे जीता चीन? और उनके बनाए मार्तंड मंदिर को फिर किसने तोड़ा था? जानिए पूरी कहानी.
कश्मीर में अनंतनाग के पास बना ये मार्तंड मंदिर 1300 साल पहले बना था. आज इसकी हालत एक खंडहर जैसी है. कुछ डेढ़ सौ साल पहले एक ब्रिटिश लेखक ने मार्तंड मंदिर का ये स्केच बनाया था. जिसे देखकर पता लगता है कि ये मंदिर कितना भव्य रहा होगा. हालांकि इससे भी दिलचस्प है उस राजा की कहानी जिसने ये मंदिर बनाया था. एक राजा जिसने दक्षिण से लेकर पूर्वी भारत तक सैन्य अभियान चलाए थे. उसने चीन के एक हिस्से को भी जीत लिया था. इसी कारण इस राजा को उपाधि मिली, 'एलेग्जेंडर ऑफ कश्मीर'. या कश्मीर का सिकंदर. हम बात कर रहे हैं कश्मीर में सबसे ताकतवर सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ (Lalitaditya Muktapida) की.
ललितादित्य कौन थे?शुरू से शुरुआत करते हैं. कश्मीर के राजाओं की कहानी हमें मिलती है राजतरंगिनी में. ये इकलौती किताब है, जिसमें कश्मीर का हजार साल का इतिहास दर्ज़ है. राजतरंगिनी को लिखा था कल्हड़ नाम के कश्मीरी इतिहासकार ने. इसे 12वीं शताब्दी में लिखा गया था, उस समय कल्हड़ के पिता लोहार राजवंश के आख़िरी राजा हर्षदेव के दरबार में मंत्री हुआ करते थे. राजतरंगिनी में कल्हण ने कश्मीर के बहुत से राजा रानियों का जिक्र किया है. कल्हण के अनुसार इनमें सबसे महान थे राजा ललितादित्य. जो कश्मीर के कार्कोट वंश से ताल्लुक रखते थे.
कार्कोट वंश की स्थापना 625 ईस्वी में हुई थी. ललितादित्य इस वंश के पांचवे राजा बने. कल्हण के अनुसार उनका शासन काल, 724 से 761 ईस्वीं के बीच रहा. इस काल को कश्मीर का गोल्डन पीरियड भी कहा जाता है. गोल्डन पीरियड क्यों? उस समय भारतीय महाद्वीप का हाल देखिए - सातवीं सदी आते-आते गुप्त वंश का अंत हो गया था. पूरा महाद्वीप छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया. ऐसे में ललितादित्य को एक अच्छा मौका मिला. अपने राज्य की सीमा का विस्तार करने का. ललितादित्य ने अपने सैन्य अभियानों की शुरुआत की. और 14 साल तक ये अभियान चलता रहा. इस दौरान ललितादित्य ने उत्तर से लेकर दक्षिण तक कई जीतें हासिल कीं.
कन्नौज से कावेरी तक-पहला अभियान था कन्नौज का. जहां राजा यशोवर्मन का राज़ हुआ करता था. कल्हण के अनुसार ललितादित्य और यशोवर्मन के बीच कई दौर की लड़ाइयों के बाद दोनों एक शांति समझौते के लिए तैयार हुए. जिसे नाम दिया गया - यशोवर्मन-ललितादित्य संधि. संधि की शर्तें दोनों राजाओं को मंजूर थीं, लेकिन एक जगह गरारी अटक गई. ललितादित्य के एक मंत्री ने संधि पत्र में यशोवर्मन का नाम ललितादित्य से पहले आने पर ऐतराज किया. ललितादित्य ने अपने मंत्री की बात सुनते हुए संधि कैंसल कर दी. युद्ध दोबारा चालू हो गया. कल्हण के अनुसार इस युद्ध में ललितादित्य की जीत हुई.
- इसके बाद ललितादित्य ने पंजाब, अफ़ग़ानिस्तान सहित कई इलाकों में सैन्य अभियान चलाए. और एक के बाद एक जीत हासिल करते रहे. जर्मन इतिहासकार हरमन गेट्ज़ के अनुसार 735 ईस्वीं के आसपास ललितादित्य ने बिहार, बंगाल और उड़ीसा पर जीत हासिल की. इसके बाद उनका दक्षिण अभियान शुरू हुआ.
- प्राचीन भारत में तब दो मुख्य रास्ते हुआ करते थे, जिनसे ट्रेड आदि होते थे. दक्षिणापथ और उत्तरापथ. उत्तरापथ पंजाब से बंगाल तक जाता था. वहीं दक्षिणापथ वाराणसी से होकर दक्षिण में चोल राज्य की सीमाओं तक जाता था.
- कल्हण के अनुसार कर्नाटक की एक रानी रत्ता ने ललितादित्य की मदद की थी. जिसके चलते कश्मीर की सेनाएं कावेरी तक पहुंची. दक्षिण में युद्धों के बारे में ज्यादा तो नहीं पता चलता. लेकिन कल्हण के अनुसार इस अभियान के बाद ललितादित्य ढेर सारी धन दौलत लेकर कश्मीर लौटे थे. 14 वर्ष लम्बे इस अभियान के चलते ही ललितादित्य को कश्मीर के सिकंदर की उपाधि मिली. सिकंदर का अभियान 11 साल तक चला था. भारतीय उपमहाद्वीप के सफल अभियानों के बाद ललितादित्य की नजर पड़ी चीन पर.
चीन पर जीतयूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कॉन्सिन में प्रोफ़ेसर, आंद्रे विंक, अपनी किताब अल- हिन्द में लिखते हैं कि सातवीं सदी में अरब आक्रमण से पर्शिया का ससनिद वंश कमजोर हो चला था. सेन्ट्रल एशिया के तमाम राज्यों के हालात ख़राब थे. ऐसे में मौके का फायदा उठाते हुए, ललितादित्य ने सेन्ट्रल एशिया के कई शहरों पर जीत हासिल की. और वर्तमान चीन के शिनजियांग प्रान्त का भी बड़ा हिस्सा जीत लिया था. चीन पर ललियादित्य की जीत को लेकर इतिहासकारों में कुछ मतभेद भी हैं. लेकिन माना जाता है कि सेन्ट्रल एशिया पर ललितादित्य का निश्चित प्रभाव था.
ललितादित्य की सेना इतनी ताकतवर कैसे बनी?कश्मीरी इतिहासकार PNK बमजई अपनी किताब 'Culture and Political History of Kashmir' में बताते हैं कि ललितादित्य ने अपनी सेना में चीन और तुर्क सैनिकों को भर्ती किया था. चीन के पास युद्ध की बेहतर टेक्नोलॉजी थी. जिसे उन्होंने अपनी आर्मरी में शामिल किया. उनके एक सेना पति का नाम कानकुन्य था. जो संभवतः एक चीनी व्यक्ति थे. क्योंकि मैंडरिन भाषा में आर्मी जनरल को कैन-किउन कहा जाता है. चीन के साथ ललितादित्य का एक और दिलचस्प प्रसंग है. जिसका जिक्र चीन के ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में मिलता है.
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अगर आप सातवीं सदी का नक्शा देखें तो उस दौर में चीन में टैंग नाम का साम्राज्य दिखेगा. इसके अलावा तिब्बत भी एक साम्राज्य हुआ करता था. जो चीन से भी ज्यादा ताकतवर था. दोनों में दुश्मनी थी. टैंग वंश के ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि दोनों साम्राज्यों के बीच शांति समझौते के लिए एक शादी का सहारा लिया गया. 12 साल की एक टैंग राजकुमारी की शादी तिब्बती राजपरिवार में कर दी गई. लेकिन वहां राजकुमारी इतनी परेशान हो गई कि उन्होंने वहां से भागने का फैसला किया. राजकुमारी ने इसके लिए कश्मीर से मदद मांगी. और तब कश्मीर के राजा की तरफ से जवाब में एक खत भेजा गया. जिसमें लिखा था,
“राजकुमारी आपका कश्मीर में स्वागत है.”
इस घटना से हमें पता चलता है कि तिब्बत और कश्मीर के बीच तनातनी थी. तिब्बत ताकतवर था. और वे अपने साम्राज्य को फैलाते जा रहे थे. इस मुसीबत से निपटने के लिए ललितादित्य ने चीन के टैंग साम्राज्य के साथ गठजोड़ करने का फैसला किया. कश्मीर और टैंग साम्राज्य के बीच राजनयिक संबंध स्थापित हो गए.
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ललितादित्य ने टैंग राजमहल में एक खत भी भिजवाया. जिसमें उन्होंने लिखा था कि कैसे उनकी सेना तिब्बतियों को कई बार खदेड़ चुकी है. उन्होंने तिब्बत का प्रभाव कम करने के लिए टैंग वंश को मदद की पेशकश की. और 2 लाख सैनिकों की एक सेना देने का वादा किया. इसके बाद तिब्बत और कश्मीर के बीच कई लड़ाईयां लड़ी गईं. तीन असफल अभियानों के बाद 747 ईस्वीं में ललितादित्य तिब्बत को हराने में सफल रहे.
इन तमाम अभियानों के अलावा कल्हण ने लिखा है कि ललितादित्य ने एक ऐसे राज्य पर जीत हासिल की थी जिस पर स्त्रियां राज करती थीं. और जिसे सोने की खान कहा जाता था. माना जाता है कि कल्हण का आशय वर्तमान बाल्टिस्तान से था.
मार्तंड मंदिरकिसी राजा के महान होने का मतलब सिर्फ सैन्य अभियानों से नहीं होता. असली सवाल ये है कि उसने जनता के लिए कितना और क्या किया. ललितादित्य को महान कहे जाने के पीछे एक बड़ा कारण उनके बनाए पुल, मठ मंदिर और नहरें थीं. कल्हण के अनुसार झेलम जहां कश्मीर को पानी देती थी. वहीं झेलम में आने वाली बाढ़ हर साल आपदा लाती थी. ललितादित्य ने नदी का सिल्ट साफ़ कर नहरें बनवाई. ताकि बाढ़ पर काबू पाया जा सके. और दूर के इलाकों को पानी मिल पाए. कल्हण ने लिखा है कि ललितादित्य ने एक विशाल पनचक्की का भी निर्माण कराया था.
ललितादित्य के काल में कश्मीर में कई नए शहर भी बसाए गए. इनमें से एक परिहासपुर था. श्रीनगर से लगभग 20 किलोमीटर दूर, इस जगह को 21 वीं सदी में पारसपुर के नाम से जाना जाता है. यहां सम्राट ने कई मंदिर भी बनवाए और बौद्ध मठों स्तूपों का भी निर्माण करवाया. ललितादित्य की बनाई मूर्तियों का जिक्र हमने शुरुआत में किया था. इनके अलावा कल्हण के अनुसार ललितादित्य ने नरहरी की एक विशाल प्रतिमा बनाई थी. जो चुम्बकों की मदद से हवा में तैरती थी. एक विष्णु स्तम्भ का जिक्र भी कल्हण ने किया है. जो 54 हाथ बराबर लम्बी थी. और उसके ऊपर गरुण की प्रतिमा बनी हुई थी.
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इन सब के अलावा भव्य मार्तंड मंदिर का निर्माण भी ललितादित्य ने ही कराया था. जिसके अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं. मार्तंड मंदिर की खास बात ये कि इसे एक ऐसे स्थान पर बनाया गया था. जहां से पूरी कश्मीर घाटी और पीर पंजाल की चोटियों को देखा जा सकता है.
मंदिर की जर्जर हालत हुई कैसे?कश्मीरी इतिहासकार जोनराजा के अनुसार 15वीं सदी में कश्मीर के सुल्तान, सिकंदर शाह मीरी ने मार्तंड मंदिर में तोड़फोड़ की थी. और ये काम एक सूफी संत सय्यद मुहम्मद हमदानी की सलाह पर हुआ था. आने वाली सदियों में इस इलाके में आए भूकम्पों के चलते इस मंदिर को और नुकसान हुआ. और इसकी हालत जर्जर होती चली गई.
इसे बनाने वाले सम्राट ललितादित्य का क्या हुआ?ललितादित्य की मृत्यु को लेकर अलग-अलग कहानियां है. एक सोर्स के अनुसार एक मिलिट्री अभियान के दौरान बर्फ में दबने के कारण उनकी मौत हो गई थी. जबकि एक दूसरी कहानी के अनुसार एक युद्ध में हार के चलते वे अपने मंत्रियों के साथ आग में कूद गए थे. सच्चाई जो हो, ये तय है कि ललितादित्य का कश्मीर के इतिहास में एक बड़ा जरूरी और उल्लेखनीय योगदान रहा है. जिसके बारे में सबको पता होना चाहिए.
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