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पांच साल... दो सरकारें...तीन मुख्यमंत्री, कर्नाटक की पांच साल की राजनीति का लेखा जोखा

जब ढाई दिन के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा.

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2018 विधानसभा चुनाव में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था.
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5 मई 2023 (Updated: 11 मई 2023, 17:29 IST)
Updated: 11 मई 2023 17:29 IST
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नरेंद्र मोदी का मैगनेटिक चुनाव प्रचार. अमित शाह का सियासी अरिथमेटिक. और बीएस येदियुरप्पा का व्यापक जनाधार.

15 मई, 2018 की दोपहर आते-आते ये तीनों फैक्टर टीवी स्क्रीन पर लगातार बदलते नतीज़ों में नजर आने लगे थे. विधानसभा चुनाव के नतीजे आ रहे थे. बीजेपी 100 के पार जाती दिख रही थी. कांग्रेस और  सिद्धारमैया का बस्ता बंध चुका था. येदियुरप्पा एक बार फिर कर्नाटक में सबसे बड़े नेता के तौर पर उभरते नज़र आ रहे थे. लेकिन इस बार जनता ने ऐसा फैसला सुनाया था कि सरकार बनाना चाह रही किसी भी पार्टी को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ेगा.

नरेंद्र मोदी और येदियुरप्पा. (फाइल फोटो- इंडिया टुडे)

बीजेपी राज्य में सबसे बड़ी पार्टी तो बनी लेकिन बहुमत के आंकड़े से कुछ दूर पहले ही अटक गई. उसे 104 सीटें मिलीं. कांग्रेस को 78 और जेडीएस के खाते में आईं 37 सीटें. 224 सीट वाली विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 113 होता है. और नतीजों पर नज़र डालकर कोई नहीं कह सकता था कि विधानसभा में दाहिनी तरफ कौन बैठेगा ये अभी तय नहीं हुआ था. आप जानते ही हैं कि सत्ता पक्ष सदन में दाहिनी तरफ़ बैठता है. बहरहाल, ये जरूर तय हो गया था कि चुनाव भले ही पांच साल बाद हों, कर्नाटक की सियासत गर्म ही रहेगी. तो चुनाव से पहले के पांच साल में कर्नाटक की सियासत ने क्या क्या रंग देखे? सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लिए किस वजीर ने कुर्बानी दी, कौन सा प्यादा हलाल हुआ.

ढाई दिन के मुख्यमंत्री

नतीजे आ गए थे. 2018 के चुनाव ने कर्नाटक की राजनीति को एक नया मोड़ दे दिया था. कर्नाटक के इतिहास में बीजेपी दूसरी बार सबसे बड़ी पार्टी तो बनी लेकिन बहुमत का आंकड़ा पार करने के लिए 9 विधायकों की और जरूर थी. नतीजे आ ही रहे थे. मई की दोपहर जैसे जैसे ढल रही थी, सियासी पारा उतनी ही तेजी से बढ़ता जा रहा था.कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही अपने बलबूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थे. लेकिन सबसे कम सीट लाकर भी जनता दल (सेकुलर) सबसे सुकून में नजर आ रही थी. सीटें कम ज़रूर हुईं. राजनीतिक नुकसान भी हुआ. लेकिन एचडी कुमारास्वामी और उनके पिता एचडी देवेगौड़ा के माथे पर शिकन उतनी गहरी नहीं थीं, जितनी बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं में देखी जा रही थी.

जितनी हलचल बंगलौर में हो रही थी उतनी ही दिल्ली में भी. आलाकमान शब्द का महत्व एक बार फिर से बढ़ गया था. दिल्ली से कई फोन बेगलुरु गए. कुछ उठाए गए, कुछ होल्ड पर रख दिए गए. कौन सा फोन किसने किया, ये बताएंगे. लेकिन अगले 24 घंटे में कितनी तेजी से राजनीतिक घटनाक्रम बदला, इस पर पहले बात करना जरूरी है.

बीजेपी को ये मालूम था कि बहुमत के आंकड़ा न होने पर सरकार बनाने का दावा नहीं किया जा सकता. और कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए जेडीएस का पूरा समर्थन चाहिए. पत्रकार अपने आराम और नींद को किनारे रख, सूत्रों की शरण में थे. ये जानने के लिए पहली चाल कौन चलेगा. बीजेपी के येदियुरप्पा या कांग्रेस के सिद्धारमैया. लेकिन पहली चाल चली राजभवन ने. गवर्नर वजूभाई वाला ने बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते सरकार बनाने का न्योता दे दिया. और बहुमत सिद्ध करने के लिए पार्टी को 15 दिन का समय दे दिया.

वजुभाई वाला के साथ येदियुरप्पा. (फाइल फोटो-इंडिया टुडे)

बीजेपी को बहुमत सिद्ध करने के लिए 15 दिन मिलना, कांग्रेस की बौखलाहट की वाजिब वजह थी. अव्वल तो नंबर ना होने के बाद भी बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता मिल गया, उस पर भी जो 15 दिन अतिरिक्त मिले वो जोड़तोड़ की राजनीति के लिए पर्याप्त समय था. कांग्रेस के लिए सबसे जरूरी था अपने विधायकों को संभाल कर रखना और उससे भी ज्यादा जरूरी ये था कि कहीं जेडीए बीजेपी को समर्थन ना दे दे.

कांग्रेस के लिए ये बड़ा झटका था. दिल्ली से आदेश हुआ और कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं को कर्नाटक भेजा गया. सियासत के जादूगर कहे जाने वाले अशोक गहलोत और गुलाम नबी आज़ाद बेंगलुरू पहुंच चुके थे.

फाइल फोटो- (PTI)

लेकिन वो कहावत है ना कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है. कांग्रेस 2017 में गोवा में हुए सियासी घटनाक्रम से सबक ले चुकी थी. सीटें कम होने के बावजूद बीजेपी ने वहां सरकार बना ली थी. इस बार कांग्रेस ने सिर्फ अपनी ताकत पर भरोसा नहीं किया, बल्कि अदालत का सहारा लिया गया.

17 जून की रात 7 बजकर 56 मिनट पर बीजेपी विधायक सुरेश कुमार ने ट्वीट किया. लिखा – 

“राज्यपाल ने बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता दे दिया है.” और इसी के साथ शुरू हो गया था रात भर का सियासी ड्रामा. आधा घंटा बीता था और कर्नाटक बीजेपी के ट्विटर हैंडल से शपथ ग्रहण समारोह का भी ट्वीट आ गया था. ट्वीट में लिखा था वो पल आ गया है जिसका करोड़ों कन्नड़िगा इंतजार कर रहे थे.

इसके बाद कहीं कांग्रेस हरकत में आई. कांग्रेस की तरफ से पी चिदंबरम, कपिल सिब्बल और विवेक तन्खा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर राज्यपाल के फैसले पर खूब खरी-खोटी सुनाई. लेकिन इस सबसे कोई प्रभाव नहीं पड़ा. रात 9.30 बजे राज्यपाल वजू भाई वाला ने येदियुरप्पा को सबसे बड़ी पार्टी का नेता होने के नाते सरकार बनाने का औपचारिक न्योता भेज दिया. गवर्नर ने येदियुरप्पा से शपथ का समय बताने को कहा. साथ ही बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय भी दे दिया.

लेकिन इस बार कांग्रेस हाथ पर हाथ धरकर तमाशा देखने के मूड में नहीं थी. बाजी हाथ से जाती देख कांग्रेस साम, दाम, दंड, भेद सबकुछ अपनाने के मूड में आ गई थी. कांग्रेस ने रात साढ़े 11 बजे सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया. और गवर्नर के फैसले को चुनौती देने के लिए चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया से सुनवाई की दरख्वास्त की.

ड्रामा शुरू हो चुका था. टीवी चैनल्स ने अपने रिपोर्टर्स को अस्तबल से निकाल दिया था. उन्हें मालूम था आज की रात जाग कर ही स्याह होगी.

पिटीशन स्वीकार करने के बाद रात साढ़े 12 बजे सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार चीफ जस्टिस्ट दीपक मिश्रा के घर पहुंचे. मामला जानने के बाद सीजेआई ने रात 12 बजकर 45 मिनट पर तीन जजों की बेंच नियुक्त की. मामले की सुनवाई के लिए बेंच में थे जस्टिस एस ए बोबड़े, जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस अशोक भूषण.

रात डेढ़ बजे वकील सुप्रीम कोर्ट की कोर्ट नंबर 6 पहुंच गए. 1993 ब्लास्ट के दोषी याकूब मेमन और निठारी हत्या कांड वाले सुरेंद्र कोहली के बाद ये तीसरा मामला था जब देश का सर्वोच्च न्यायालय आधी रात के बाद खुला हो.

साढ़े तीन घंटे तक कांग्रेस, बीजेपी, गवर्नर और कांग्रेस-जेडीएस की तरफ से आए वकीलों ने बेंच के सामने अपनी दलीलें रखीं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण पर रोक लगाने से मना दिया. जब तक ये फ़ैसला आया सुबह के साढ़े पांच बज चुके थे.

येदियुरप्पा ने बिना समय गंवाए कुछ ही घंटों बाद मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली. वो तीसरी बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बन गए थे. हालांकि  2007 और 2011 का मलाल येदियुरप्पा कभी नहीं भुला सकते थे. 2007 में मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके हिस्से सिर्फ़ सात दिन के लिए आई. 2011 में खनन घोटाले में नाम आने के बाद उन्हें पद छोड़ना पड़ा था.

पार्टी हाईकमान से ज्यादा जल्दी येदियुरप्पा को थी. और इसीलिए इस बात पर ज्यादा जोर दिए बिना कि बहुमत के लिए बची हुई संख्या कहां से आएगी, येदियुरप्पा ने पहले मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. सुप्रीम कोर्ट ने येदियुरप्पा के शपथग्रहण पर तो रोक लगाने से मना दिया था, लेकिन बीजेपी को दिए 15 दिन के समय को भी कोर्ट में चुनौती दी गई थी. उसकी सुनवाई अभी बाकी थी. वो सुनवाई अगले दिन हुई. कांग्रेस की तरफ से एक बार फिर से अभिषेक मनु सिंघवी और कपिल सिब्बल दलीलें देने पहुंचे थे.

सुप्रीम कोर्ट ने गवर्नर के अधिकार क्षेत्र में तो दख़ल देने से गुरेज़ किया लेकिन बहुमत साबित करने के लिए बीजेपी को 15 दिन का समय दिया जाना उसे सही नहीं लगा. पूरे घटनाक्रम में ये पहला मौका था जब कांग्रेस फ्रंटफुट पर आ रही थी. सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि 24 घंटे के भीतर विधानसभा में फ्लोर टेस्ट कराया जाए और येदियुरप्पा बहुमत साबित करें.

येदियुरप्पा के माथे पर शिकन आना लाजमी था. अगले दिन शाम 4 बजे के बाद मुख्यमंत्री बने रहने के लिए पर्याप्त विधायकों को जुटाना ज़रूरी था. अब तक समर्थन की जितनी कवायदें की गईं थी, सब बेकार गईं थीं. बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व भी कुछ खास असर दिखा नहीं पा रहा था.

जैसे-जैसे घंटे बीत रहे थे. बीजेपी की मुश्किलें बढ़ रही थीं. कोई नेता, कोई सूत्र ये दावा नहीं कर पा रहा था कि बीजेपी ने विधायक जुटा लिए हैं. हालांकि बीजेपी हार मानने को तैयार नहीं थी. दिन चढ़ने के साथ जब ये साफ होने लगा कि बीजेपी विधायक नहीं जुटा पाई है तो येदियुरप्पा के इस्तीफे के कयास लगाए जाने लगे. कुछ खबरनवीसों ने ऐसे अंदाजे भी लगाए कि येदियुरप्पा विधानसभा जाने से पहले ही राज्यपाल को इस्तीफा दे सकते हैं. हालांकि ऐसा हुआ नहीं.

आखिरकार येदियुरप्पा अपने विधायकों के साथ विधानसभा पहुंचे. येदियुरप्पा ने अब तक इस्तीफा नहीं दिया था. लेकिन ये साफ हो चुका था कि बीजेपी के पास पर्याप्त विधायक नहीं हैं. सवाल सिर्फ इतना बचा था कि येदियुरप्पा फ्लोर टेस्ट फेस करेंगे या नहीं.

विधानसभा में येदियुरप्पा. (फाइल फोटो-PTI)

विधानसभा से लाइव टेलिकास्ट चल रहा था. मुख्यमंत्री येदियुरप्पा विधानसभा और कर्नाटक की जनता को संबोधित करने के लिए खड़े हुए. येदियुरप्पा ने कहा-

मैं बिना रुके पूरे प्रदेश की यात्रा करूंगा. हमें राज्य भर से जबरदस्त प्यार और समर्थन मिला है. मैं 2019 के लिए वादा करता हूं कि, हम सारी 28 लोकसभा सीटें जीतेंगे. मैं आराम नहीं करूंगा. मैं लड़ाई जारी रखूंगा. इसलिए मैं मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देता हूं. मैं कर्नाटक के लोगों को धन्यवाद देता हूं.

ढाई दिन के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा इस्तीफा दे चुके थे. सवाल एक बार फिर वही था. कर्नाटक का मुख्यमंत्री कौन बनेगा?

मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी

दरअसल ये तय तो तभी हो गया था जिस दिन राज्य में चुनाव के नतीजे घोषित हुए थे. उस दिन देवेगौड़ा के पास दिल्ली से एक फ़ोन आया. फ़ोन करने वाले ने त्रिशंकु विधानसभा की हालत में जो फॉर्मूला बताया उससे सरकार बनाने का इंतज़ाम लगभग तय हो गया था. किसने किया था ये फोन? क्या बात हुई थी कि कुर्सी तक पहुंचने के बाद भी बीजेपी को नीचे उतार दिया गया?

10 साल से ज़्यादा कर्नाटक की राजनीति को कवर कर रही पत्रकार स्वाति चंद्रशेखर बताती हैं कि – 

देवेगौड़ा को फ़ोन करने वाली सोनिया गांधी थीं .सोनिया गांधी ने देवेगौड़ा को सीधा सीएम की कुर्सी ऑफर कर दी. उन्होंने कहा कि आप बीजेपी को समर्थन मत दीजिए. जेडीएस और कांग्रेस मिलकर सरकार बनाएंगे. और मुख्यमंत्री आपकी ही पार्टी से होगा.

फोन पर देवेगौड़ा ने सोनिया को आश्वासन दे दिया था कि वो बीजेपी को समर्थन नहीं देंगे. स्वाति बताती हैं कि इसके बाद उसी दिन बीजेपी के कुछ बड़े नेताओं ने भी देवेगौड़ा को फोन किया. लेकिन बात या तो हो नहीं पाई. या बन नहीं पाई.

राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि चुनाव से पहले ही कांग्रेस और जेडीएस के नेताओं के बीच ये सधासधी हो गई थी कि बीजेपी को रोकने के लिए अगर जररूत पड़ी तो साथ आएंगे. अंत में हुआ भी कुछ ऐसा ही.

ये राजनीतिक गठजोड़ सबके लिए चौंकाने वाला था. क्योंकि कांग्रेस के मुक़ाबले लगभग आधी ही सीटें जेडीएस की झोली में आई थीं. फिर भी कांग्रेस ने जेडीएस को मुख्यमंत्री पद देने का फ़ैसला कर लिया था. ये भी दिलचस्प है कि दोनों पार्टियां दशकों तक एक दूसरे की राजनीतिक दुश्मन रहीं थीं. पर फ़िलहाल दोनों पार्टियों ने अपने तमाम मतभदों को भुलाकर गठबंधन का ऐलान कर दिया.

कुमारस्वमी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाते वजूभाई वाला. (इंडिया टुडे)

23 मई, 2018 को कुमारस्वामी दूसरी बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले लेते हैं. लेकिन यहीं से शुरू हो जाता है काउंटडाउन. आखिर कितने दिन टिक सकता था ये बेमेल जोड़. दो महीने भी नहीं बीते थे कि दरारें नज़र आने लगीं.

जुलाई के महीने में बेंगलुरु में मुख्यमंत्री कुमारस्वामी एक सभा को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने मंच से कहा- 

आप सभी यहां गुलदस्ते लेकर मुझे शुभकामनाएं देने के लिए खड़े हैं. आप सब खुश हैं कि आपका एक भाई राज्य का मुख्यमंत्री बना है. लेकिन मैं खुश नहीं हूं. मुझे गठबंधन का दर्द पता है. मैं विषकंठ बन गया हूं और इस सरकार के दर्द को निगल रहा हूं.

कुमारस्वामी जब ये बयान दे रहे थे तब वो एक गमछे से अपने आंसू भी पोछ रहे थे. अगले दिन अखबारों की सुर्खियों में कुमारास्वामी की रोते हुए तस्वीर चस्पां थी. और हेडिंग लगी- गठबंधन सरकार का दर्द बयां कर रोने लगे मुख्यमंत्री कुमारास्वामी.

शुरुआत हो चुकी थी. धीरे-धीरे कांग्रेस और जेडीएस के नेताओं में मनमुटाव भी शुरू हो गए थे. और सबसे पहली वजह बना नई सरकार का पहला बजट.

दरअसल कोई भी सरकार कार्यकाल पूरा होने के बरस में अपना आखिरी बजट जनवरी-फरवरी में पेश कर देती है. ये बजट अंतरिम बजट होता है. अगर वही पार्टी सत्ता में वापसी करती है तो थोड़े बहुत बदलाव के साथ लगभग वही बजट लागू कर दिया जाता है. लेकिन अगर सरकार बदल जाती है लाजमी है कि नई सरकार अपना अलग बजट पेश करेगी. पिछली सरकार में सिद्दारमैया इसी तरह बजट पेश कर चुके थे.

पत्रकार स्वाति चंद्रशेखर कहती हैं कि-  

कुमारास्वामी और सिद्दारमैया के बीच ठनाठनी का ये पहला मौका था. सिद्दा नहीं चाहते थे कि उनकी सरकार के बजट को बदला जाए. लेकिन कुमारास्वामी माने नहीं.

ये पहला मौका नहीं था जब गठबंधन सरकार के नेता रस्सी को अपनी-अपनी ओर खींच रहे थे. बीबीसी से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार इमरान कुरैशी कहते हैं कि - जब सरकार में मंत्री पद बांटने की बारी आई तब भी दोनों पार्टियों में अनबन हो गई.

ये अनबन तो ऊपर की थी. अंदर मामला और गंभीर था. दोनों पार्टियों के बड़े नेताओं ने ये तय कर लिया था कि साथ सरकार बनाएंगे. लेकिन अलग-अलग जिलों में दशकों से एक दूसरे को दुश्मन बताने वाले कार्यकर्ताओं को साथ आना हजम हो नहीं पा रहा था.

फिर बारी आई लोकसभा चुनाव की. कर्नाटक में कुल 28 लोकसभा सीटें हैं. राज्य में सरकार गठबंधन की थी. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और जेडीएस दोनों को सिर्फ एक -एक सीट मिली. एक निर्दलीय समर्थन के साथ बीजेपी प्लस के खाते में गईं कुल 26 सीट.

जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन के लिए ये दुखद स्थिति थी. और दोनों के लिए इससे भी दुखद ये था कि लोकल नेता हार के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे थे. इस चुनाव में एक चौंकाने वाला नतीजा ये भी आया कि कुमारास्वामी के बेटे निखिल भी अपनी सीट नहीं निकाल पाए.

लेकिन लोकसभा चुनाव के पहले जनवरी 2019 में एक ऐसा घटनाक्रम कर्नाटक में दिखा जिससे लगने लगा था कि सरकार गिर जाएगी. दरअसल जितनी अनबन कांग्रेस और जेडीए में चल रही थी उससे कहीं ज्यादा आतुरता येदियुरप्पा को एकबार फिर सीएम बनने की थी. इसके लिए येदियुरप्पा हर हथकंडा अपनाने को तैयार थे. बीजेपी ‘ऑपरेशन लोटस’ की फिराक में तब से थी जबसे कुमारास्वामी की सरकार बनी थी. बस उसे एक्टिव करना बाकी था.

जनवरी 2019 में बीजेपी ने अपने सारे विधायक गुरुग्राम के एक रिसॉर्ट में शिफ्ट कर दिए. ऑपरेशन लोटस के एक्टिव होने की खबर चलने लगी. खबर ये भी चलने लगी कि कांग्रेस के 5 विधायक लापता हो गए हैं.

कोशिशें तो खूब हुईं लेकिन बीजेपी इस बार कामयाब नहीं हो पाई. आखिरकार बीजेपी विधायकों को बेंगलुरु लौटना पड़ा. येदियुरप्पा निराश तो हुए लेकिन मन छोटा नहीं किया. क्योंकि येदियुरप्पा कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की कमजोर कड़ी पर नजर गड़ाए बैठे थे.

जैसा हर सरकार में होता कर्नाटक में था. कई विधायक ऐसे थे जो मंत्री बनने की लालसा लिए बैठे थे, लेकिन मौक नहीं मिला. येदियुरप्पा के निशाने पर ऐसे सारे विधायकों की गिनती थी. जनवरी में जो काम ना हो सका वो लोकसभा चुनाव के बाद ज्यादा आसान हो गया था.

येदियुरप्पा जो हल्की-हल्की चोट कर रहे थे, उसके निशान दिखने लगे थे. पर्दे के पीछे के डिनर, दावतों और मुलाकातों का दौर असर दिखाने लगा था. जिस बात का कुमारास्वामी को डर था वो चरितार्थ होती नजर आ रही थी. और आखिरकार 18 जुलाई, 2019 को कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन पर जानलेवा प्रहार हो गया. कांग्रेस और जेडीएस के कुल 16 विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया. इनमें 13 कांग्रेस के थे और 3 जेडीएस के.

सारे प्यादों ने अपनी-अपनी चाल सही तरीके से चली थी. इस बार ऑपरेशन लोटस के पीछे की तैयारी ज्यादा पुख्ता नजर आ रही थी. लोहा गरम था. बीजेपी ने चोट कर दी.

मुख्यमंत्री की कुर्सी पर फिर येदियुरप्पा

24 जुलाई 2018 को कर्नाटक विधानसभा में कुमारास्वामी सरकार का बहुमत परीक्षण हुआ. जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन को मिले 99 वोट. बीजेपी को मिले 105 वोट. और आखिरकार 14 महीने बाद जेडीएस-कांग्रेस की मिलीजुली सरकार गिर गई.

सदन की कार्यवाही के दौरान 20 विधायक विधानसभा में मौजूद नहीं थे. इनमें 15 बागी विधायक थे. 16 बागियों में से एक विधायक ने इस्तीफा वापस ले लिया था. इसके अलावा दो कांग्रेस विधायकों ने कहा तबीयत ठीक नहीं इसलिए विधानसभा नहीं पहुंच सकते. दो इन्डिपेंडेंट और बसपा का एक विधायक का भी फ्लोर टेस्ट में शामिल नहीं हुआ.

19 जून 2018 को जिस मलाल के साथ येदियुरप्पा ने विधानसभा में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था, बीजेपी ने उसका बदला ले लिया था. कहा जाता है आमतौर पर जब बीजेपी ऑपरेशन लोटस चलाती है तो उसमें अहम किरदार होते हैं. प्लानिंग दिल्ली से की जाती है. लेकिन कर्नाटक में पूरे सियासी उलटफेर को अकेले येदियुरप्पा ने अंजाम दिया था.

जिन विधायकों ने इस्तीफा दिया था, वो बाद में बीजेपी में शामिल हो गए. इसमें समुदाय की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही. क्योंकि लिंगायत येदियुरप्पा के समर्थन में कांग्रेस और जेडीएस से इस्तीफा देने वालों में से कई लिंगायत समुदाय से आते थे.

26 जुलाई 2019 को येदियुरप्पा ने चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. लेकिन इस बार उन्हें न तो बहुमत की चिंता थी और न गठबंधन टूटने का डर. नंबर बीजेपी के पास थे. इस बार इस बात की आशंका भी नहीं बची थी कि आने वाले समय में सरकार अल्पमत में आ सकती हो. येदियुरप्पा का स्वप्न पूरा हो चुका था. सत्ता की पाने की जिद का फल उन्हें मिल गया था.

लेकिन येदियुरप्पा और विवादों का नाता एकदम बेस्ट फ्रेंड की तरह रहा है.  सत्ता से बाहर रहने के कारण ब्यूरोक्रेसी पर पहले की तरह उनकी मज़बूत पकड़ नहीं रही. अगले ही बरस दुनिया भर में कोविड की महामारी फैल गई. कोरोना काल में खराब मैनेजमेंट होने के कारण येदियुरप्पा की भारी किरकिरी हुई.

बीबीसी से जुड़े इमरान कुरैशी बताते हैं- 

येदियुरप्पा अपने स्वास्थ्य मंत्री बी श्रीरामुलु के कामकाज से ख़ुश नहीं थे. उन्होंने श्रीरामुलु की जगह मेडिकल एजुकेशन मिनिस्टर डॉक्टर के सुधाकर से कोरोना महामारी पर राज्य सरकार का पक्ष रखने के लिए कहा था. लेकिन ऐसा करना उनके लिए और भी घातक हो गया. ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि श्रीरामुलु कोरोना संक्रमितों का एक आंकड़ा पेश करते, तो थोड़ी देर बाद  सुधाकर दूसरा आंकड़ा सामने रखते. इसके बाद येदियुरप्पा ने प्राइमरी और सेकेंडरी एजुकेशन मिनिस्टर एस सुरेश कुमार को कोरोना महामारी की स्थिति पर रोज़ाना होने वाली मीडिया ब्रीफिंग करने को कहा.

फिर श्रीरामुलु से स्वास्थ्य मंत्रालय का प्रभार वापस ले लिया गया और डी सुधाकर को स्वास्थ्य और मेडिकल एजुकेशन दोनों ही महकमे दे दिए गए. बताया जाता है कि डी सुधाकर के भारी मान मुनव्वल के बाद येदियुरप्पा ने ये फ़ैसला किया था.

जैसे-जैसे सरकार में येदियुरप्पा का समय आगे बढ़ रहा था, उनपर आरोप भी बढ़ते जा रहे. भ्रष्टाचार का आरोप. जो येदियुरप्पा पर पहले भी लग चुका था. येदियुरप्पा की सरकार को 30 परसेंट वाली सरकार कहा जाने लगा. माने कोई भी काम करवाना हो, 30 परसेंट कमीशन देना होगा. साल 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जेडीएस-कांग्रेस की गठबंधन सरकार को '10 परसेंट वाली सरकार' कहा था. लेकिन बीजेपी सरकार पर तीन गुना बड़ा आरोप लगने लगा था.

बात सिर्फ बाहर की नहीं थी. माहौल घर के अंदर भी खराब था. सरकार के कई मंत्री और पार्टी के कई नेता येदियुरप्पा से नाराज़ थे. वजह थी मुख्यमंत्री के दफ़्तर में उनके बेटों का दखल. दरअसल येदियुरप्पा पर सबसे बड़ा आरोप ये लगता था कि सरकार उनके बेटे राघवेंद्र और विजेंद्र चला रहे हैं. इस बारे में कुछ मंत्रियों ने खुलकर तो कुछ ने दबी जबान में अपना विरोध जताया.

बेटे विजयेंद्र के साथ येदियुरप्पा. (फाइल फोटो- PTI)

विरोध की आवाज़ दिल्ली तक पहुंच रही थी. येदियुरप्पा के पर कतरने का समय आ गया था. आखिरकार दिल्ली से बुलावा आ गया. 16 जुलाई, 2021 को एक तस्वीर सामने आई. हमेशा की तरह सफेद सफारी सूट में येदियुरप्पा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ वन टू वन मीटिंग करते नज़र आए. मीटिंग से निकलने के बाद पत्रकारों ने सवाल पूछे तो येदियुरप्पा ने कहा कि मुख्यमंत्री बदले जाने के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है.

दिल्ली में येदियुरप्पा की अमित शाह से भी मीटिंग हुई थी. ठीक 10 दिन बाद 26 जुलाई, 2021 को येदियुरप्पा सरकार के सत्ता में दो साल पूरे हो रहे थे. और तभी येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

बोम्मई ही क्यों?

बीजेपी की तरफ से कहा गया कि येदियुरप्पा की उम्र 78 हो गई है इसलिए उन्होंने पद छोड़ दिया. लेकिन जाहिर था वजह सिर्फ इतनी भर नहीं थी. येदियुरप्पा के सत्ता सुख का अंत हो चुका था. लेकिन इसबार स्थिति 2011 वाली नहीं थी. येदियुरप्पा की ताकत को बीजेपी भी बखूबी समझती है. यही वजह है कि अमित शाह मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई से ज्यादा येदियुरप्पा के घर जाते हैं.

बीजेपी 2011 में येदियुरप्पा को हटाकर वोक्कलिगा समुदाय के सदानंद गौड़ा को मुख्यमंत्री बनाने का नतीजा देख चुकी थी. इसीलिए येदियुरप्पा हटे तो लेकिन इस बार अगला मुख्यमंत्री उनकी पसंद का बना. येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया गया. बोम्मई भी लिंगायत समाज से आते हैं.

अमित शाह के साथ बीएस बोम्मई. (फाइल फोटो- PTI)

जुलाई 2021 से बोम्मई कर्नाटक के मुख्यमंत्री हैं. शांत रहते हैं. खबरों में भी आते हैं. अब चुनाव की गर्मी शिखर पर है मगर. येदियुरप्पा, येदियुरप्पा के बेटे, बीएसल संतोष, तेजस्वी सूर्या, जगदीश शेट्टार, सबकी चर्चा हो रही है. लेकिन इस चर्चा से मुख्यमंत्री बोम्मई नदारद हैं.

वीडियो: मास्टर क्लास: कर्नाटक चुनाव से पहले मुस्लिम 'छिना', CM बोम्मई ने ये वजह बताई

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