जगदीप धनखड़: कभी राजीव गांधी के बेहद करीबी थे, BJP ने कैसे उपराष्ट्रपति बना दिया?
लोकदल से राजनीति की शुरुआत करने वाले जगदीप धनखड़ कांग्रेस में गए. धनखड़ कभी राजीव गांधी के करीबी माने जाते थे. फिर बीजेपी में आए. बीजेपी ने उन्हें पहले पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाया और अंत में उपराष्ट्रपति का पद भी दिया.

जगदीप धनखड़ ने उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया है. उन्होंने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए अपना पद छोड़ा है. जगदीप धनखड़ ने 11 अगस्त, 2022 को उपराष्ट्रपति का पद संभाला था. 2027 में उनका कार्यकाल पूरा हो रहा था. लेकिन इससे दो साल पहले ही उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया.
विज्ञान छोड़ वकील बनेजगदीप धनखड़ मूलत: राजस्थान के रहने वाले हैं. उनका जन्म सन 1951 में झुंझुनू के किठाना गांव में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही सरकारी स्कूल में हुई. उसके बाद उनका सेलेक्शन सैनिक स्कूल में हुआ. छठवीं से 12वीं तक की पढ़ाई चित्तौड़गढ़ के सैनिक स्कूल में. फिर राजस्थान यूनिवर्सिटी से फिज़िक्स में ग्रैजुएशन किया. हालांकि, इसके बाद उन्होंने विज्ञान की पढ़ाई छोड़ वकालत को चुना. 1978-79 में धनखड़ ने राजस्थान यूनिवर्सिटी से ही LLB की.
साल 1979 में धनखड़ ने राजस्थान बार काउंसिल में रजिस्ट्रेशन करा लिया और वकालत शुरू कर दी, जो राजनीति के अलावा उनका मुख्य पेशा बना और पश्चिम बंगाल के गर्वनर बनने तक जारी रहा. हालांकि जगदीप धनखड़ के साले प्रवीण बलवदा कहते हैं कि सैनिक स्कूल से 12वीं की पढ़ाई के बाद धनखड़ का NDA (नेशनल डिफेंस एकेडमी) में सेलेक्शन हो गया था. लेकिन परिवार के पूर्वाग्रहों ने धनखड़ को सेना में अफसर नहीं बनने दिया और वो वकील बन गए.
जगदीप धनखड़ राजस्थान हाई कोर्ट में वकालत कर रहे थे. 10 साल की एडवोकेट प्रैक्टिस के बाद बार काउंसिल किसी भी वकील को सीनियर एडवोकेट का पद देता है. 1990 में जगदीप धनखड़ को सीनियर वकील बनाया गया. लेकिन यही वो दौर था जब राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी थी. इसी दौर में देश की राजनीति करवट ले रही थी. कभी राजीव गांधी के आंख कान माने जाने वाले वीपी सिंह ने उनके ही खिलाफ विरोध का बिगुल फूंक दिया था.
राजनीति में एंट्रीजगदीप धनखड़ को करीब से जानने वाले बताते हैं कि वो चौधरी देवी लाल की राजनीति से प्रभावित थे. और देवी लाल ही उन्हें राजनीति में लेकर आए. साल 1989. देवी लाल उस साल अपना 75वां जन्मदिन मना रहे थे. बताया जाता है कि जगदीप धनखड़ देवीलाल का जन्मदिन मनाने राजस्थान से 75 गाड़ियां लेकर दिल्ली पहुंचे थे.

खैर, साल के अंत में लोकसभा चुनाव हुए. और जगदीप धनखड़ को इसका इनाम भी मिला. वीपी सिंह के जनता दल ने धनखड़ को उनके घर झुंझुनू से टिकट दे दिया. सरकार भी वीपी सिंह की बनी. देवी लाल डिप्टी पीएम बने. और राजनीति में एंट्री के साथ ही जगदीप धनखड़ को डिप्टी मिनिस्टर का पद मिला.
अभी सत्ता में वीपी सिंह के कुछ ही महीने बीते थे कि राम मंदिर को लेकर नेशनल फ्रंट गर्वमेंट में बीजेपी की टसल चरम पर पहुंच गई थी. आखिरकार पार्टी ने सरकार से हाथ खींच लिया. वीपी सिंह की सरकार गिर गई.
इसके बाद सरकार आई चंद्रशेखर की. उनको कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया. कहा जाता है राजनीति में आए हुए जगदीप धनखड़ को अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता था. लेकिन कांग्रेस का समर्थन लाने में उनकी भूमिका भी अहम रही. और यहीं से धनखड़ राजीव गांधी के करीब आते गए. लेकिन बावजूद इसके धनखड़ चंद्रशेखर सरकार में मंत्री नहीं बने.
इसके पीछे एक कहानी बताई जाती है. कहा जाता है चंद्रशेखर सरकार में राजस्थान के कोटे से दो मंत्री बनाए जा चुके थे. दौलत राम सारन और कल्याण सिंह कालवी को कैबिनेट मिनिस्टर का दर्जा दिया गया. जबकि पिछली सरकार में मंत्री रहे जगदीप धनखड़ को एक बार फिर डिप्टी मिनिस्टर का पद दिया जा रहा था. धनखड़ इस बात से नाराज़ हुए. आकाशवाणी और दूरदर्शन से चंद्रशेखर सरकार के मंत्रियों की लिस्ट में जगदीप धनखड़ का नाम भी बताया गया. लेकिन उन्होंने मंत्री बनने से ही मना कर दिया.
राजीव गांधी से दोस्तीकुछ महीने बीते और चंद्रशेखर की सरकार गिर गई. और राजीव गांधी से नज़दीकी धनखड़ को कांग्रेस में ले आई. 1991 में चुनाव हुए. 1989 के लोकसभा चुनाव में झुंझुनू से धनखड़ के सामने कांग्रेस के कैप्टन अयूब ने चुनाव लड़ा था. राजीव गांधी नहीं चाहते थे कि कैप्टन अयूब से टिकट लेकर धनखड़ को दिया जाए. इसके पीछे अल्पसंख्यकों को साधने की कवायद बताई जाती है. प्रवीण बलवदा बताते हैं कि राजीव गांधी ने जगदीप धनखड़ के सामने प्रस्ताव रखा,
'झुंझुनू से अयूब को लड़ने दो और आप इसके अलावा राजस्थान की जिस सीट से लड़ना चाहो टिकट ले लो.'
धनखड़ ने सारे फैक्टर्स को ध्यान में रखते हुए अजमेर सीट चुनी. जहां जाट, गुज्जर और मुस्लिम वोट मिलाकर करीब 50 प्रतिशत जनसंख्या बन रही थी. मुस्लिम वोटों के लिए कांग्रेस की सेक्युलर छवि का दावा, जाट धनखड़ खुद थे. गुज्जर वोटों के लिए राजीव गांधी ने राजेश पायलट को लगाया. लेकिन यहां एक पेच था. पायलट को धनखड़ की राजीव से नज़दीकी रास नहीं आ रही थी. बताया जाता है कि राजीव ने पायलट को 2 बार हेलिकॉप्टर दिया कि अजमेर जाकर धनखड़ के लिए प्रचार करो. पायलट गए भी, लेकिन गुज्जर बहुल इलाके में नहीं. जहां उनकी जरूरत थी.
इसके अलावा दावा ये भी किया जाता है कि अजमेर की गुर्जर बहुल विधानसभा नसीराबाद के विधायक गोविंद सिंह गुर्जर ने धनखड़ के खिलाफ प्रचार किया.
प्रवीण दावा करते हैं कि राजीव उस चुनाव में अपनी सीट अमेठी में प्रचार के लिए थोड़ी देर के लिए गए, लेकिन अजमेर में उन्होंने जगदीप धनखड़ के लिए जमकर प्रचार किया. उन्होंने अजमेर में 10 घंटे से ज्यादा बिताए और देर रात तक प्रचार किया.
प्रवीण कहते हैं,
"मैं उस दिन राजीव जी के साथ ही था. लोग राजीव गांधी से हाथ मिलाने के लिए आतुर थे. राजीव मना नहीं कर रहे थे. लोगों के नाखून राजीव को लग रहे थे. और उनके हाथ से खून तक आने लगा था."
लेकिन राजीव गांधी की मेहनत पर राजेश पायलट की तिकड़म भारी पड़ी. वे अजमेर से चुनाव हार गए. राजस्थान की राजनीति को नज़दीक से देखने वाले कहते हैं कि अजमेर में जाट नेता ही लगातार जीतते आ रहे थे. और धनखड़ भी जाट थे. अजमेर में जाटों की जनसंख्या हार जीत तय कर सकती थी. बावजूद इसके धनखड़ हार गए.
इस चुनाव के कुछ दिन बाद राजीव गांधी की हत्या कर दी गई. उसके बाद जगदीप धनखड़ का गांधी परिवार से रिश्ता ना के बराबर रह गया.
लोकसभा में हार के बाद धनखड़ विधानसभा गए. 1993 में अजमेर की किशनगढ़ सीट से चुने गए. 5 साल विधायक रहे. कांग्रेस विपक्ष में थी. धनखड़ का समर्थन करने वाले ये दावा करते हैं कि वे राजस्थान में बड़े नेता के तौर पर उभर रहे थे और अशोक गहलोत अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि में धनखड़ को खतरे के तौर पर देख रहे थे.
साल 1998 में लोकसभा के चुनाव थे. उस दौरान की राजनीति को करीब से देख रहे लोग कहते हैं कि गहलोत ने माधव राव सिंधिया से कहा कि जगदीप धनखड़ को झुंझुनू से चुनाव लड़वाओ. सिंधिया से धनखड़ को मनाया. धनखड़ नहीं चाहते थे कि वो इस बार झुंझुनू से चुनाव लड़ें. लेकिन सिंधिया की बात टाली नहीं. धनखड़ ने कहा कि चुनाव लड़ लेंगे लेकिन सोनिया गांधी झुंझुनू प्रचार करने आएं. सोनिया 50 किलोमीटर दूर चुरू तो गईं, लेकिन झुंझुनू नहीं. कारण जो भी रहे हों जगदीप धनखड़ चुनाव हार गए.
यहां गहलोत पर अगर एक उंगली उठती है तो चार धनखड़ पर भी. जिस झुंझुनू में वो पैदा हुए, बड़े हुए. जहां से वो पहली बार सांसद बने. वहां कैसे हार सकते हैं. कहा ये भी जाता है कि धनखड़ ये जान गए थे कि अब झुंझुनू से जीतना उनके बस की बात नहीं है. इसलिए वो इस सीट से लड़ना ही नहीं चाहते थे. उसकी बड़ी वजह थे शीशराम ओला.
राजस्थान की राजनीति को कई सालों से कवर कर रहे इंडिया टुडे के पत्रकार आनंद चौधरी कहते हैं कि झुंझुनू में धनखड़ शीशराम ओला के आगे कहीं नहीं टिकते थे. साल 1995 में कांग्रेस के बड़े नेता एनडी तिवारी ने पार्टी छोड़ अपना अलग दल बनाया था जिसका नाम था ऑल इंडिया इंदिरा कांग्रेस (तिवारी). शीशराम ओला ने एनडी तिवारी की पार्टी ज्वाइन कर ली. 1998 के चुनाव में झुंझुनू से जगदीप धनखड़ के सामने ओला थे. धनखड़, ओला के सामने टिक नहीं सके. बाद में शीशराम ओला कांग्रेस में वापस आए. 2004 में मनमोहन सिंह की UPA सरकार में उन्हें माइन्स मिनिस्ट्री का जिम्मा दिया गया.
हालांकि गहलोत से सियासी खींचतान का एक और पहलू है. भले ही धनखड़ समर्थक ये कहें कि गहलोत उन्हें पसंद नहीं करते थे, लेकिन एक सच ये भी है कि उनके भाई रणदीप धनखड़ को गहलोत का करीबी माना जाता है. गहलोत सरकार में रणदीप धनखड़ को राजस्थान टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन का चेयरमैन बनाया गया.
जब बीजेपी ने धनखड़ को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था, तब लल्लनटॉप से बात करते हुए रणदीप धनखड़ ने कहा था,
"भले ही मैं कांग्रेस में हूं और जगदीप जी बीजेपी में. लेकिन हम कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं. मुझे बहुत खुशी है कि बीजेपी ने उन्हें उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है."
इधर, अब बारी आई विधानसभा चुनावों की. कांग्रेस ने कह दिया था कि जो लोकसभा में हार गए हैं, उन्हें विधानसभा में टिकट नहीं दिया जाएगा. धनखड़ का भी नाम इस लिस्ट में था. और इसी के साथ धनखड़ की कांग्रेस के साथ पारी का अंत भी हो गया.
धनखड़ ने थामा बीजेपी का दामन1999 में शरद पवार ने कांग्रेस छोड़ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) बनाई. जगदीप धनखड़ ने कांग्रेस छोड़ शरद पवार की पार्टी ज्वाइन कर ली. हालांकि NCP में वो ज्यादा दिन टिके नहीं. साल 2000 में धनखड़ ने बीजेपी का दामन थाम लिया.
लेकिन बीजेपी में आकर जगदीप धनखड़ को कुछ खास मिला नहीं. उन्होंने जब पार्टी ज्वाइन की तब वो वसुंधरा राजे के करीबी माने जाते थे. लेकिन माना जाता है कि समय के साथ ये करीबी दूरी में तब्दील हुई और बीजेपी में धनखड़ की रेस पर लगाम लगाने में वसुंधरा राजे का अहम रोल रहा. दूसरी तरफ अटल बिहारी गुट के नेता भी धनखड़ को खासा पसंद नहीं करते थे.
1998 के बाद से ही धनखड़ जितना राजनीति को सीरियस लेते थे उससे ज्यादा वो वकालत के पेशे को समय देते थे. 1987 में वे राजस्थान बार काउंसिल के अध्यक्ष भी रहे. धनखड़ अब तक राजनीति से ज्यादा वकालत के पेशे में सफल माने जाते थे. राजस्थान हाई कोर्ट के अलावा उन्हें सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकीलों में भी गिना जाता रहा है. धनखड़ ने कई राज्यों के कई बड़े केस लड़े. लेकिन जिस एक केस का जिक्र जरूरी है वो था सलमान खान का काला हिरण मामला. काले हिरण केस में सलमान को बेल दिलाने वाले वकीलों की टीम में जगदीप धनखड़ भी शामिल थे.
बंगाल के गवर्नर बनेनरेंद्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी में जगदीप धनखड़ के दिन बहुरे. सालों तक राजनीतिक अज्ञातवास के बाद साल 2019 में धनखड़ को बीजेपी ने पश्चिम बंगाल का गवर्नर बना दिया. और इसके बाद धनखड़, टीवी और अखबारों की सुर्खियों पर काबिज हो गए. दिल्ली के पूर्व LG अनिल बैजल और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की टसल ने जितनी हेडलाइन्स बटोरीं उतनी ही पश्चिम बंगाल के गर्वनर जगदीप धनखड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के संघर्ष ने भी.
धनखड़ के राजभवन पहुंचने के साथ ही ममता बनर्जी से उनका टकराव दिखने लगा. ममता सरकार ने आरोप लगाया कि राज्यपाल धनखड़ ‘बीजेपी के एजेंट’ की तरह काम कर रहे हैं. दी इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक उस समय पश्चिम बंगाल विधानसभा के स्पीकर बिमान बनर्जी ने तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से राज्यपाल धनखड़ की शिकायत भी की थी. स्पीकर ने आरोप लगाए कि राज्यपाल सरकार के कामकाज में दखलंदाजी कर रहे हैं. बदले में राज्यपाल धनखड़ ने स्पीकर पर आरोप लगाए कि उनके अभिभाषण के दौरान स्पीकर ने वीडियो कवरेज रोक दी. राज्यपाल ने ये भी आरोप लगाया कि स्पीकर ने सदन में उनकी एंट्री रोक दी थी.
इसके अलावा ममता सरकार और राज्यपाल के बीच इस साल एक और बड़ा विवाद देखा गया जब सरकार ने राज्य की कई यूनिवर्सिटी के चांसलर के पद से राज्यपाल को हटा कर मुख्यमंत्री को चांसलर बनाने का बिल पारित कर दिया. ये बिल विधानसभा से पास हो चुका है लेकिन अब भी राजभवन से हस्ताक्षर की प्रतीक्षा में है.
इसके अलावा मुख्यमंत्री और राज्यपाल की लड़ाई में इस साल एक दौर वो भी आया जब सीएम ममता बनर्जी ने गवर्नर जगदीप धनखड़ को ट्विटर पर ब्लॉक कर दिया.
कैसे बने उपराष्ट्रपति?जगदीप धनखड़ के उपराष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचने की भी कई कहानियां हैं. बीजेपी में शामिल होने के बाद धनखड़ पार्टी से ज्यादा RSS के नज़दीक हो गए. RSS के अधिवक्ता एसोसिएशन के गठन में भी धनखड़ का अहम रोल रहा है. उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के एलान से करीब 10 दिन पहले धनखड़ अपनी पत्नी के साथ जयपुर एक शादी समारोह में शामिल होने आए थे. इसी दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत राजस्थान के दौरे पर थे. उन्हें झुंझुनू भी जाना था. शादी समारोह में शामिल होने के बाद धनखड़ तो कोलकाता राजभवन लौट गए, लेकिन उनकी पत्नी झुंझुनू गईं. मोहन भागवत धनखड़ के घर गए. धनखड़ की पत्नी ने उनकी आवभगत की.
19 जुलाई, 2022 को दी लल्लनटॉप से बातचीत में जगदीप धनखड़ की पत्नी सुदेश धनखड़ कहती हैं कि उस दिन मोहन भागवत से उपराष्ट्रपति चुनाव के बारे में कोई बात नहीं हुई. उन्होंने बताया था,
"इस बारे में पहले हमें भी जानकारी नहीं थी. 16 जुलाई की सुबह 9 बजे प्रधानमंत्री मोदी ने फोन किया. उन्होंने कहा था कि 'हम कोशिश कर रहे हैं.' और शाम को उपराष्ट्रपति पद का एलान हो गया."
6 अगस्त को धनखड़ ने कांग्रेस उम्मीदवार मार्गरेट अल्वा को हराकर उपराष्ट्रपति पद का चुनाव जीता. 11 अगस्त को उन्होंने पद की शपथ ली. कार्यकाल के तीन साल पूरा होने में अभी 20 दिन बाकी हैं. जगदीप धनखड़ ने उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया है.
वीडियो: संसद में जगदीप धनखड़ से जया बच्चन क्यों भिड़ गईं?