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कोई कहता नन्हीं को हीरामंडी में देखा, किसी ने फ़ारस रोड पर, किसी ने सोनागाछी में

'इस्मत आपा वाला हफ्ता' में आज पढ़िए कहानी 'नन्हीं की नानी'

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11 अगस्त 2016 (Updated: 11 अगस्त 2016, 10:12 AM IST) कॉमेंट्स
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sorry mummy101 साल पहले, इस्मत आपा का जन्म हुआ था. बदायूं में. उत्तरप्रदेश में पड़ती है ये जगह. अभी जन्मदिन आने को है. मुल्क आजाद हुआ था. उससे ठीक 32 साल पहले पैदा हुईं थीं. तारीख वही 15 अगस्त. उर्दू की सबसे कंट्रोवर्शिअल और सबसे फेमस राइटर हुई हैं, हमने तय किया कि जन्मदिन के मौके पर उनकी कहानियां पढ़ाएंगे. हिंदी में. पूरे हफ्ते. क्योंकि इस्मत आपा वाला हफ्ता है ये. आज बारी तीसरी कहानी की. आज की कहानी नन्ही की नानी है. ये कहानियां हम आपको वाणी प्रकाशन के सौजन्य से पढ़ा पा रहे हैं. सहयोग उनका है. उनने उपलब्ध कराई हैं. किताब मंगानी हो तो डीटेल्स ये रहीं. Book: Sorry Mummy Format: Hard Bound ISBN: 81-8143-366-1 Pages: 72 MRP:Rs.95/-
नन्ही की नानी के मां-बाप ने नाम तो अल्लाह जाने क्या रखा था? लोगों ने उन्हें कभी उस नाम से याद न किया. जब छोटी-सी गलियों में नाक सुड़सुड़ाती फिरती थीं तो वफ़ातन की लौंडिया के नाम से पुकारी गयीं. फिर कुछ दिन बशीरे की बहू कहलायीं. फिर बिस्मिल्ला की मां के सम्बोधन से याद की जाने लगीं और जब बिस्मिल्ला जापे के अन्दर ही नन्ही को छोड़कर चल बसीं तो वह नन्ही की नानी के नाम से आखि़री दम तक पहचानी गईं.
दुनिया का कोई ऐसा पेशा न था जो ज़िन्दगी में नन्ही की नानी ने अख़्तियार न किया हो. कटोरा गिलास पकड़ने की उम्र से वह घर में दो वक़्त की रोटी और पुराने कपड़ों के एवज़ में ऊपर के काम करने पर धर ली गयीं. यह ऊपर का काम कितना नीचा होता है. यह कुछ खेलने-कूदने की उम्र से काम पर जोत दिये जाने वाले ही जानते हैं. नन्हे मियां के आगे झुनझुना बजाने की ग़ैर दिलचस्प ड्यूटी से लेकर बड़े सरकार के सर की मालिश तक ऊपर के काम की फ़ेहरिस्त में आ जाती है.
ज़िन्दगी की दौड़ भाग में कुछ भुनौना-भुलसना भी आ गया और ज़िन्दगी के कुछ साल मामागिरी में बीत गये. पर जब दाल में छिपकली बधार दी और रोटियों में मक्खियां पिरोने लगीं तो मजबूरन रिटायर होना पड़ा. इसके बाद तो नन्ही की नानी बस लगायी-बुझाई करने इधर की बात उधर पहुंचाने के सिवा और किसी करम की न रहीं. यह लगायी-बुझाई का पेशा भी काफ़ी मुनाफा बख़्श होता है. मुहल्ले में खटपट चलती रहती है. मुख़ालिफ़ कैम्प में जाकर अगर होशियारी से मुख़बिरी की जाये तो खूब-खूब ख़ातिर मुदारात1 होती है. लेकिन यह पेशा कै दिन चलता? नानी लत्तरी कहलाने लगीं और दाल डालते न देखकर नानी ने आखि़री मुफीद़ तरीन2 पेशा यानी मुहज्ज़ब3 तरीक़े पर भीख मांगना शुरू कर दिया.
खाने के वक़्त नानी नाक फुलाकर सूंघतीं कि किस घर में क्या पक रहा है. बेहतरीन ख़ुशबू की डोर पकड़कर वह घर में आन बैठतीं. “ऐ बीवी घुइयां डाली हैं गोश्त में?” वह बेतकल्लुफ़ीसे पूछतीं. “नहीं बुआ, घुइएं निगोड़ी आजकल गलती कहां हैं? आलू डाले हैं.” “ऐ सुब्हान अल्लाह, क्या ख़ुशबू है. अल्लाह रक्खे, बिस्मिल्ला के बाबा को आलुओं से इश्क़ था. रोज़ यही कि बिस्मिल्लाह की मां आलू गोश्त जो आंखों से भी देख जावे...ऐ बीवी कोथमीर छोड़ दिया...” वह एकदम फ़िक्रमन्द हो जातीं. “नहीं बुआ कोथमीर निगोड़ा सब मारा गया. मुआ सक्क़े का कुत्ता क्यारी में लोट गया.” “है...है...बग़ैर कोथमीर के आलू गोश्त क्या खाक़ मज़ा देगा. हकीम जी के यहां मनों लगा है.” “ऐ नहीं नानी, हकीम जी के लौंडे ने कल शीन मियां की पतंग में कटकी लगा दी. इस पर मैंने कहा ख़बरदार जो छज्जे पे क़दम रखा तो...” “ऐ मैं कोई तुमाए नाम से थोड़ी मांगूंगी.” और नानी बुकर्श संभाल स्लीपर सटपटाती हकीम साहब के यहां जा पहुंचीं. धूप खाने के बहाने खिसकती घिसटती क्यारी के पास मुंडेर तक पहुंच जातीं. पहले एक पत्ती तोड़कर सूंघने के बहाने चुटकी में मसलतीं. हकीम जी की बहू की आंख बची और नानी ने कोथमीर बकटा. कोथमीर मुहैया करने के बाद ज़ाहिर है दो निवाले की हक़दार हो ही जातीं."
नानी अपनी हाथ की सफ़ाई के लिए सारे मुहल्ले में मशहूर थीं. खाने-पीने की चीज़ देखी और लुक्मा मार गयीं. बच्चे के दूध की पतीली मुंह से लगायी, दो घूंट गट कर लिए. शकर की फंकी मार ली. गुड़ की डली तालू से चिपका ली. मज़े से धूप में बैठी चूस रही हैं. डली उठाई नेफ़े में उड़स ली. दो चपातियां लीं और आधी नेफ़े के इधर आधी उधर. ऊपर से मोटा कुर्ता आहिस्ता-आहिस्ता हस्बेमामूल कराहती कोंकती खिसक गयीं. सब जानते थे पर किसी की मुंह खोलने की हिम्मत न थी. क्योंकि नानी के बूढ़े हाथों में बिजली की सी तेज़ी थी और बेचबाए निगल जाने में वह कोई ऐब न समझती थीं. दूसरे, ज़रा से शुबहे पर ही फ़ैल मचाने पर तुल जातीं और इतनी क़समें खाती थीं. र्कुआन उठवाकर अपनी क़ब्र में भी कीड़े पड़वाए? लत्तरी, चोर और चकमाबाज़ होने के अलावा नानी परले दर्जे की झूठी भी थीं. सबसे बड़ा झूठ तो उनका वह बुरक़ा था जो हरदम उन पर सवार रहता था. कभी उस बुरक़े में नक़ाब भी थी. पर जूं-जूं मुहल्ले के बड़े-बूढ़े चल बसे या उन्हें कम दिखने लगा तो नानी ने नकशब को ख़ैरबाद कह दिया. मगर गनगौरोंदार फ़ैशनेबल बुरक़ा की टोपी उनकी खोपड़ी पर चमकती रहती. आगे चाहे महीन कुर्ते के नीचे बनियान न हो पर पीछे बुरक़ा बादशाहों की झोल की तरह लहराता रहता और यह बुरक़ा सिर्फ़ सर ढंकने के लिए ही नहीं था बल्कि दुनिया का हर मुमकिन और नामुमकिन काम इसी से लिया जाता था. ओढ़ने-बिछाने और गुड़ी-मुड़ी करके तकिया बनाने के अलावा और जब नानी कभी ख़ैर से नहातीं तो इसे तौलिया के तौर पर इस्तेमाल करतीं. पंज वक़्ता4 नमाज़ के लिए जाये-नमाज़ और जब मुहल्ले के कुत्ते दांत निकोसें तो उनसे बचाव के लिए अच्छी-खासी ढाल. कुत्ता पिंडली पर लपका और नानी के बुरक़े का घेरा उसके मुंह पर फुंकारा. नानी को बुरक़ा बहुत प्यारा था. फ़ुरसत में बैठकर हसरत से उसके बुढ़ापे पे बिसूरा करतीं. जहां कोई चिन्दी कत्तर मिली और एहतियातन पैबन्द चिपकाया. वह उस दिन के ख़याल से ही कांप उठती थीं जब यह बुरक़ा भी चल बसेगा. आठ गज़ लट्ठा कफ़न को जुड़ जावे, यही बहुत जानो!
नानी का कोई मुस्तक़िल क्वार्टर नहीं. सिपाही जैसी ज़िन्दगी है. आज इसके दालान में तो कल उसकी सेहनची में, जहां जगह मिली, पड़ाव डाल दिया. जब दुत्कार पड़ी, कूच करके आगे चल पड़ीं. आधा बुरक़ा ओढ़ा, आधा बिछाया, लम्बी तान ली.
मगर बुरक़े से भी ज़्यादा वह जिसकी फ़िक्र में घुलती थीं वह थी उनकी इकलौती नवासी नन्ही. कुड़क़ मुर्ग़ी की तरह नानी पर फैलाये उसे पोटे तले दाबे रहतीं. क्या मजाल जो नज़र से ओझल हो जाये मगर जब हाथ-पैरों ने जवाब दे दिया और मुहल्ले वाले चौकन्ने हो गये. उनकी जूतियों की घिस-घिस सुनकर ही चाक़-चौबन्द होकर मोर्चे पर डट जाते. ढिठाई से नानी के इशारे किनाए से मांगने को सुना-अनसुना कर जाते तो नानी को इसके सिवा कोई चारा न रहा कि नन्ही को उसके ख़ानदानी पेशे यानी ऊपर के काम पर लगा दें. बड़े सोच-विचार के बाद उन्होंने उसे डिप्टी साहब के यहां रोटी-कपड़ा और डेढ़ रुपया महीने पर छोड़ ही दिया. पर वह हरदम साये की तरह लगी रहतीं. नन्ही नज़र से ओझल हुई और वह बलबलाईं. पर नसीब का लिखा कहीं बूढ़े हाथों से मिटा है. दोपहर का वक़्त था. डिप्टाइन अपने भाई के घर बेटे का पैग़ाम लेकर गयी हुई थी. सरकार ख़शख़ाने में कैलूला5 फ़रमा रहे थे. नन्ही पंखे की डोरी थामे ऊंघ रही थी. पंखा रुक गया. और सरकार की नींद टूट गयी. शैतान जाग उठा, और नन्ही की क़िस्मत सो गयी. कहते हैं बुढ़ापे के आसेब6 से बचने के लिए तरह-तरह के रोग़नों और अरक़ों के साथ हकीम-वैद्य चूज़ों का शोरबा भी तज्वीज़ फ़रमाते हैं. नौ बरस की नन्ही चूज़ा ही जो थी. मगर जब नन्ही की नानी की आंख खुली तो नन्ही ग़ायब. मुहल्ला छान मारा, कोई सुराग़ न मिला. मगर रात को जब नानी थकी-मांदी कोठरी को लौटीं तो कोने में दीवार से टिकी हुई नन्ही ज़ख़्मी चिड़िया की तरह अपनी फीकी-फीकी आंखों से घूर रही थी. नानी की घिग्घी बंध गयी और अपनी कमज़ोरी को छुपाने के लिए वह उसे गालियां देने लगीं. “मालज़ादी अच्छा छका. हियां आन कर मरी है. ढूंढ़ते-ढूंढ़ते पिंडलियां सूज गयीं. ठहर तो जा. सरकार कैसी चार-चोट की मार लगवाती हूं.”
मगर नन्ही की चोट ज़्यादा देर तक न छुप सकी. नानी सर पर दोहत्थड़ मार-मार कर चिंघाड़ने लगीं. पड़ोसन ने सुना तो सर पकड़कर रह गयीं. अगर साहबजशदे की फिसलन होती तो शायद कुछ डांट-डपट हो जाती. मगर डिप्टी साहब...मुहल्ले के मुखिया, तीन नवासों के नाना, पंज वक़्ता नमाज़ी. अभी पिछले दिनों मस्जिद में चढ़ाइयां और लोटे रखवाए. मुंह से फूटने वाली बात नहीं. लोगों के रहमोकरम की आदी नानी ने आंसू पीकर नन्ही की कमर सेंकी. आटे-गुड़ का हलवा खिलाया और जान को सब्र करके बैठ रही. दो-चार दिन लोट-पीट कर नन्ही उठ खड़ी हुई और चन्द दिनों ही में सब कुछ भूल-भाल गयी. मगर मुहल्ले की शरीफ़ज़ादियां न भूलीं. छुप-छुप कर नन्ही को बुलातीं.
“नयीं...नानी मारेगी.” नन्ही टालती. “ले ये चूड़ियां पहन लीजो. नानी को क्या ख़बर होगी.” बीवियां बेक़रार होकर फुसलातीं. “क्या हुआ? कैसे हुआ?” की तफ़सील पूछी जाती. नन्ही कच्ची-कच्ची मासूम तफ़सीलें देती. बीवियां नाकों पर दुपट्टे रख के खिलखिलातीं. नन्ही भूल गयी मगर कुदरत न भूल सकी. कच्ची कली वक़्त से पहले खिलाने की वजह से पंखुड़ियां झड़ जाती हैं...ठूंठ रह जाती है. नन्ही के चेहरे पर से भी न जाने कितनी मासूम पंखुड़ियां झड़ गयीं. चेहरे पर फिटकार और रोड़ापन. नन्ही बच्चे से लड़की नहीं बल्कि छलांग मार एकदम औरत बन गयी. वह कुदरत के मश्शाक़7 हाथों की संवारी भरपूर औरत नहीं बल्कि टेढ़ी-मेढ़ी मूरत जिस पर किसी देव8 ने दो गज़ लम्बा पांव रख दिया हो. ठिगनी मोटी कचूरा सी जैसे कच्ची मिट्टी का खिलौना कुम्हार के घुटने तले दब गया हो. मैली साफ़ी से कोई नाक पोंछे चाहे कूल्हे, कौन पूछता है? राह चलते इसके चुटकियां भरते. मिठाई के दोने पकड़ाते. नन्ही की आंखों में शैतान थिड़क उठता...मगर मैली साफ़ी की धूल भी न झड़ती. जानो रबड़ की गेंद. टप्पा खाया और उछल गयी. चन्द साल ही में नन्ही की चौमखी से मुहल्ला कांप उठा. सुना कि डिप्टी साहब और साहबज़ादे में कुछ तन गयी. फिर सुना मस्जिद के मुल्ला जी को रजुआ कुम्हार ने मारते-मारते छोड़ा. फिर सुना सिद्दीक़ पहलवान का भांजा मुस्तकिश्ल हो गया. आये दिन नन्ही की नाक कटते-कटते बचती और गलियों में लठ-पौंगा होता. और फिर नन्ही के तलवे जलने लगे. पैर तक रत्ती भर जगह न रही. सिद्दीक़ पहलवान के भांजे की पहलवानी और नन्ही की जवानी ने मुहल्ले वालों को बोलना बन्द कर दिया. सुनते हैं दिल्ली, बम्बई में इस माल की थोक में खपत है. शायद दोनों वहीं चले गये. जिस दिन नन्ही भागी उस दिन नानी के फ़रिश्तों को भी शुबहा न हुआ. वह तीन दिन से निगोड़ी चुपचुप सी थी. नानी से बात भी न की. चुपचाप आप ही आप बैठी हवा में घूरा करती.
“ऐ नन्ही रोटी खा ले.” नानी कहती. “नानी बी भूख नहीं!” “ऐ नन्ही अब देर हो गयी. सो जा.” “नानी बी नींद नहीं आती.” रात को नानी के पैर दबाने लगी. “नानी बी, ऐ नानी बी. सुब्हान अल्ला, सुन लो याद है कि नहीं.” नानी से सुना, “फ़र फ़रयाद!” “जा बेटी अब सो जा.” नानी ने करवट ली. “अरी मरी मरती क्यों नहीं.” नानी ने थोड़ी देर बाद उसे सेहन में खटपट करते सुनकर कहा. “समझी, ख़ानगी ने अब आंगन भी पलीद करना शुरू कर दिया. कौन हरामी है जिसे आज घर में घुसा लायी है?”
फिर सेहन में घूर-घूर कर देखने पर नानी सहमकर रह गयी. नन्ही इशा की नमाज़ पढ़ रही थी और नन्ही ग़ायब हो गयी. कभी कोई दूर देस से आता है तो ख़बर आ जाती है. कोई कहता है, नन्ही को एक बड़े नवाब ने डाल लिया है. टमटम है, मानो सोना है. बेग़मों की तरह रहती है.
कोई कहता है, हीरामंडी में देखा था. कोई कहता है, फ़ारस रोड पर, किसी ने उसे सोनागाछी में देखा. मगर नानी कहती है. नन्ही को हैज़ा हुआ था. चार घड़ी लोट-पोट कर मर गयी. नन्ही का सोग मनाने के बाद नानी कुछ ख़ब्तन भी हो गयीं. लोग राह चलते छेड़खानी करते. “ऐ नानी निकाह कर लो...” भाभीजान छेड़तीं. “किससे कल्लूं? ला अपने ख़सम से करा दे.” नानी बिगड़तीं. “ऐ नानी मुल्ला जी से कर लो. अल्लाह क़सम तुम पर जान देते हैं.” और नानी की गालियां शुरू हो जातीं. वो-वो पैंतरे गालियों में निकालतीं कि लोग भौचक्के रह जाते. “मिल तो जाये भड़वा...दाढ़ी न उखाड़ लूं तो कहना.” मगर जब मुल्ला जी कभी गली के नुक्कड़ पर मिल जाते तो नानी सचमुच शरमा-सी जातीं.
अलावा मुहल्ले के लड़कों-बालों के नानी के अज़्मी दुश्मन तो मूए निगोड़े बन्दर थे जो पीढ़ियों से इसी मुहल्ले में पलते-बढ़ते आये थे. जो हर आदमी का कच्चा चिट्ठा जानते थे. मर्द ख़तरनाक होते हैं. और बच्चे बदज़ात. औरतें तो सिर्फ़ डरपोक होती हैं. पर नानी भी इन्हीं बन्दरों में पलकर बुढ़ियाई थीं. उन्होंने बन्दरों को डराने के लिए किसी बच्चे की गुलेल हथिया ली थी. और सर पर बुरक़े का पग्गड़ बांधकर वह गुलेल तान कर जब उचकतीं तो बन्दर थोड़ी देर को ठिठककर ज़रूर रह जाते और फिर बेतवज्जही से टहलने लगतीं. और बन्दरों से आये दिन उनकी बासी टुकड़ों पर चख चलती रहती. मुहल्ले में जहां कहीं शादी-ब्याह चला, चालीसवां होता, नानी जूठे टुकड़ों का ठेका ले लेतीं. लंगर खैरात बंटती तो भी चार-चार मर्तबा चकना दे देकर हिस्सा लेतीं. मानो खाना बटोर लेने के बाद वह उसे हसरत से तकतीं! काश उनके पेट में भी अल्लाह पाक ने कुछ ऊंट जैसा इन्तज़ाम किया होता तो कितने मज़े रहते. मज़े से चार दिन की खुराक मैदे में भर लेतीं. छुट्टी रहतीं. मगर अल्लाह पाक ने रिज़्क का इतना ऊट-पटांग इन्तज़ाम करने के बाद पेट की मशीन क्यों इस क़दर आधी-अधूरी बना डाली कि एक-दो वक़्त के खाने से ज़्यादा ज़ख़ीरा जमा करने का ठौर ठिकाना नहीं. इसलिए नानी टाट के बिस्तरों पर जूठे टुकड़े फैलाकर सुखातीं. फिर उन्हें मटकों में भर लेतीं. जब भूख लगी जश्रा से सूखे टुकड़े चुमर किये पानी का छींटा दिया. चुकटी भर लौंन-मिर्च भुरका और लज़ीज़ पकवान तैयार. लेकिन गर्मियों और बरसात के दिनों में बार-बार यह नुस्ख़ा उन पर हैज़ा तारी कर चुका था. इसीलिए बच जाने पर मन मार कर उन टुकड़ों को औने-पौने बेच डालतीं. ताकि लोग अपने कुत्तों और बकरियों वग़ैरह को खिला दें. मगर अमूमन कुत्तों और बकरियों के मैदे नानी के ढीठ मैदे का मुक़ाबला न कर पाते और लोग मोल तो क्या तोहफ़े के तौर पर भी इन सड़ी-गली चीज़ों को क़बूलने पर तैयार न होते. वही जान से ज़्यादा अज़ीज़ जूठे टुकड़े जिन्हें बटोरने के लिए नानी को हज़ारों सलावतें9 और ठोकरें सहना पड़तीं और जिन्हें धूप में सुखाने के लिए पूरी बन्दर जाति से जिहाद मोल लेना पड़ता. जहां टुकड़े फैलाये गये और बन्दरों के क़बीले को बेतार बर्क़ी ख़बर पहुंची. अब क्या है ग़ोल-दर-ग़ोल दीवारों पर डटे बैठे हैं. खपरैलों पर धमाचौकड़ी मचा रहे हैं. छेड़, खसोट रहे हैं और आते-जाते ये खोखिया रहे हैं. नानी भी इस वक़्त मर्द मैदान बनी सर पर बुरक़े का ढाटा बांधे, हाथ में गुलेल लिए मोर्चे पर डट जातीं. सार दिन ‘लगे-लगे’ करके शाम को बचा-खुचा कूड़ा बटोर बन्दरों की जान को कोसती नानी अपनी कोठरी में थककर सो रहतीं. बन्दरों को उनसे कुछ जशती अनबन हो गयी थी. अगर यह बात न होती तो क्यों जहान भर की नैमतों को छोड़कर सिर्फ़ नानी के टुकड़ों पर ही हमलावर होते और क्यों बदज़ात लाल पिछाए वाला उनका जान से प्यारा तकिया ले भागता. वह तकिया जो नन्ही के बाद नानी का अकेला अज़ीज़ और प्यारा दुनिया में रह गया था. वह तकिया जो बुरक़े के साथ उनकी जान पर हमेशा सवार रहता था. जिसकी सीवनों को वह हर वक़्त पक्का टांका मारती रहती थीं. बार-बार नानी किसी कोने खदरे में बैठी तकिये से ऐसा खेला करतीं जैसे वह नन्ही सी बच्ची हों और वह तकिया उनकी गुड़िया, वह अपने सारे दुःख उस तकिये से कहकर जी हलका कर लिया करती थीं. जितना-जितना उन्हें तकिये पर लाड़ आता, वह उसके टांके पक्के करती जातीं. क़िस्मत के खेल देखिये! नानी मुंडेर से लगी बुरक़े की आड़ में नेफ़े से जुएं चुन रही थीं कि बन्दर धम से कूदा और तकिया ले ये जा, वो जा. ऐसा मालूम हुआ कि कोई नानी का कलेजा नोच कर ले गया. वह दहाड़ीं और चिल्लाईं कि सारा मुहल्ला इकट्ठा हो गया.
बन्दरों का क़ायदा है कि आंख बची और कटोरा गिलास ले भागे और छज्जे पर बैठे दोनों हाथों से कटोरा दीवार पर घिस रहे हैं. कटोरे का मालिक नीचे खड़ा चुमकार रहा है. प्याज दे, रोटी दे, जब बन्दर मियां का पेट भर गया, कटोरा फेंक अपनी राह ली. नानी के मटकी भर टुकड़े लुटा देने पर हरामी बन्दर ने न तकिया छोड़ना था, न छोड़ा. सौ जतन किये गये मगर उसका जी न पिघला. और उसने मज़े से तकिये के गिलाफ़ प्याज के छिलके की तरह उतारने शुरू किये. यही गिलाफ़ जिन्हें नानी ने चुंधी आंखों से घूर-घूर कर पक्के टांकों से गूंथा था. जूं-जूं गिलाफ़ उतरते जाते नानी की बदहवासी और बलबलाहट में ज़्यादती होती जाती और आखि़री गिलाफ़ भी उतर गया. और बन्दर ने एक-एक करके छज्जे पर से टपकाना शुरू किये. रोटी के गाले नहीं बल्कि शबन की फ़तोही. बन्नू सक़्के का अंगोछा. हसीना बी की अंगिया, मन्नी बी की गुड़िया का ग़रारा, रहमत की ओढ़नी और खै़राती का कछना.... खै़रन के लौंडे का तमंचा...मुंशी जी का मफ़लर और इब्राहीम की कमीज़ की आस्तीन मय कफ़!...
सिद्दीक़ की तहमद का टुकड़ा, उनामना बी की सुरमादानी और वफ़ातन की कजलौटी. सकीना बी की अफ़शां की डिबिया...मुल्ला जी की तस्बीह का इमाम और बाक़र मियां की सजदागाह.... बिस्मिल्लाह का सूखा हुआ नाल और कलाव में बंधी हुई नन्ही की पहली सालगिरह की हल्दी की गांठ, दूब और चांदी का छल्ला. और बशीर का गिलट का तमग़ा जो उसे जंग से ज़िन्दा लौट आने पर सरकारे आलिया से मिला था. मगर किसी ने इन चीज़ों को न देखा. बस देखा तो उस चोरी के माल को जिसे सालहा साल की छापामारी के बाद नानी ने लखलौट जोड़ा था. “चोर...बेईमान...कमीनी...” “निकालो बुढ़िया को मुहल्ले से...” “पुलिस में दे दो.” “अरे इसकी तोशक भी खोलो. इसमें न जाने क्या-क्या होगा?” ग़रज़ जो जिसके मुंह में आया, कह दिया. नानी की चीख़ें एकदम रुक गयीं. आंसू खुश्क. सर नीचा और ज़बान गुंग. काटो तो ख़ून नहीं. रात भी जूं की तूं. दोनों घुटने मुट्ठियों में दाबे हिलहिल कर सूखी हिचकियां लेती रहीं. कभी अपने मां-बाप का नाम ले-लेकर, कभी मियां को याद करके, कभी बिस्मिल्लाह और नन्ही को पुकार के बैन करतीं...दम भर को ऊंघ जातीं. फिर जैसे पुराने नासूरों में चीटें चटकने लगते और वह बलबला कर चौंक उठतीं. कभी चहकी-पहकी रोतीं, कभी खुद से बातें करने लगतीं. फिर आप ही आप मुस्कुरा उठतीं और फिर तारीकी में से कोई पुरानी याद का भाला खैंच मारता और वह बीमार कुत्ते की तरह नीम इनसानी आवाज़ से सारे मुहल्ले को चौंका देतीं. दो दिन इसी हालत में बीत गये. मुहल्ले वालों को आहिस्ता-आहिस्ता एहसासे-नदामत10 शुरू हुआ. किसी को भी तो इन चीज़ों की तनिक भी ज़रूरत न थी बरसों की खोई चीज़ों को कभी का रो-पीट कर भूल चुके थे. वे बेचारे खुद कौन-से लखपति थे. तिनके जितना बोझ भी ऐसे मौक़े पर इनसान को शहतीर की तरह लगता है. लोग इन चीज़ों के बैग़र ज़िन्दा थे. शबन की फतोही अब सर्दियों से धींगामुश्ती करने के क़ाबिल कहां थी? यह उसके मिलने के इन्तज़ार में अपनी बढ़वार थोड़ी रोके बैठा था. हसीना बी ने अंगिया चोली की अहमियत को बेकार समझकर उसे ख़ैरबाद11 कह दिया था. मिट्टी की गुड़िया का ग़रारा किस मसरफ़ का, वह तो कभी की गुड़ियों की उम्र से गुज़र कर हंडकुलियों की उम्र को पहुंच चुकी थी. मुहल्ले वालों को नानी की जान लेना थोड़ी मंज़ूर थी.
पुराने ज़माने में एक देव12 था. उस देव की जान थी एक भौंरे में. सात समन्दर पार एक ग़ार में एक सन्दूक था. इस सन्दूक में एक और सन्दूक. इस सन्दूक में एक डिबिया थी जिसमें एक भौंरा था. एक बहादुर शहज़ादा आया...और उसने भौंरे की एक टांग तोड़ दी. उधर देव की एक टांग जादू के ज़ोर से टूट गयी. फिर उसने दूसरी टांग तोड़ी और देव की दूसरी टांग भी टूट गयी फिर उसने भौंरे को मसल डाला और देव मर गया.
नानी की जान भी तकिये में थी और बन्दर ने वह जादू का तकिया दांतों से चीर डाला और नानी के सीने में गर्म सलाख़ उतर गयी. दुनिया का कोई दुःख, कोई ज़िल्लत, कोई बदनामी ऐसी न थी जो नसीब ने नानी को न बख़्शी हो. जब सुहाग की चूड़ियों पर पत्थर गिरा था तो समझी थीं अब कोई दिन की मेहमान हैं पर जब बिस्मिल्लाह को कफ़न पहनाने लगीं तो यक़ीन हो गया कि ऊंट की पीठ पर यह आखि़री तिनका है और जब नन्ही मुंह पर कालिख़ लगा गयी तो नानी समझीं बस यह आखि़री घाव है.
ज़माने भर की बीमारियां पैदाइश के वक़्त से झेलीं. सात बार तो चेचक ने उनकी सूरत पर झाड़ई फेरी. हर बार तीज-त्योहार के मौक़े पर हैजे का हमला होता.
तेरा-मेरा गू-मूत धोते-धोते उंगलियों के पोरे सड़ गये. बर्तन-मांजते हथेलियां छलनी हो गयीं. हर साल अंधेरे-उजाले ऊंची-नीची सीढ़ियों से लुढ़क पड़तीं. दो-चार लोट-पीट कर फिर घिसटने लगतीं. पिछले जनम में नानी...रही होंगी. जभी तो इतनी सख़्त जान थीं. मौत का क्या वास्ता जो उनके करीब फटक जाये. बसरियां लगाये फिरेंगी मगर मुर्दे का कपड़ा तन से न छू जाये. कहीं मरने वाला सलवटों में मौत न छुपा गया हो जो नाज़ों की पाली नानी को आन दबोचे! मगर यूं आक़बत बन्दरों के हाथों लुटेगी इसकी किसको ख़बर थी? सुबह-सवेरे भिश्ती मश्क डालने गया तो देखा नानी खपरैल की सीढ़ियों पर उकड़ंई बैठी हैं. मुंह खुला है. मक्खियां अधखुली आंखों में घुस रही हैं. यूं नानी को सोता देखकर लोग उन्हें मुर्दा समझकर डर जाया करते थे. मगर नानी हमेशा बड़बड़ाकर बलगम थूकतीं जाग पड़तीं और हंसने वाले को हज़ार गालियां सुना डालती थीं. मगर उस दिन सीढ़ियों पर उकड़ंई बैठी हुई नानी दुनिया को एक मुस्तक़िल गाली देकर चल बसीं. ज़िन्दगी में कोई कल सीधी न थी. करवट-करवट कांटे थे. मरने के बाद कफ़न में भी नानी उकड़ंई लिटाई गयीं. हज़ार खैंचतान पर भी अकड़ा हुआ जिस्म सीधा न हुआ.
कठिन शब्दों के मतलब 1. आतिथ्य, 2. फ़ायदेमन्द, 3. सभ्य, 4. पांच वक़्त की, 5. दोपहर को खाना खाने के बाद आराम, 6. प्रेतछाया, 7. अभ्यासी, 8. राक्षस, 9. गालियां, 10. लज्जा का एहसास, 11. त्यागना, छोड़ देना, 12. दैत्य.

'इस्मत आपा वाला हफ्ता' शुरू हो गया, पहली कहानी पढ़िए लिहाफ

एक जवान लड़के और लड़की का यूं दिन-रात मिलना उन्हें न सुहाता था

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