The Lallantop
Advertisement

भारत-म्यांमार सीमा पर इतना ख़र्च कर बाड़ लगेगी, फिर भी ये नुक़सान होगा!

बात बाड़ लगाने पर ख़त्म नहीं होती. वहां से तो शुरुआत है.

Advertisement
india myanmar fence
म्यांमार-भारत के बीच 1,643 किलोमीटर की ज़मीनी सीमा है और बंगाल की खाड़ी में समुद्री सीमा भी है.
font-size
Small
Medium
Large
5 फ़रवरी 2024 (Updated: 6 फ़रवरी 2024, 10:04 IST)
Updated: 6 फ़रवरी 2024 10:04 IST
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

9 महीने से भी ज़्यादा समय हो गया, मणिपुर में हिंसा थम नहीं रही. मुख्यमंत्री बिरेन सिंह लगातार शिकायत करते रहे कि माहौल बिगड़ने के पीछे विदेशी हाथ भी है. इसी आधार पर भारत और म्यांमार के बीच ‘फ़्री मूवमेंट रिजीम’ पर पुनर्विचार की मांग उठी. और, अब गृहमंत्री अमित शाह ने India-Myanmar border fence लगाने का फ़ैसला कर लिया है. बाड़ लग जाने पर दोनों देशों के बीच लोगों की मुक्त आवाजाही ख़त्म हो जाएगी.  

पक्षधरों का दावा है कि बाड़बंदी का काम एक राम-बाण इलाज होगा, जो पूर्वोत्तर में विदेशी ड्रग्स और उग्रवाद को ख़त्म कर देगा. हालांकि, विशेषज्ञों की राय है कि पहाड़ी इलाक़े में बाड़ लगाना (fencing) लगभग असंभव है और सरकार को इस फ़ैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए, क्योंकि इसमें लगने वाला ख़र्च और संभावित लाभ सम पर नहीं हैं. न सब जगह बाड़ लगाई जा सकती है, और बात बाड़ लगाने भर की ही नहीं है, इसकी निगरानी भी करनी होगी.

बाड़ लगाना क्यों ज़रूरी है?

म्यांमार और भारत के बीच 1,643 किलोमीटर की ज़मीनी सीमा है. भारत के चार राज्य - अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर और मिज़ोरम - म्यांमार से लगे हुए हैं.

दोनों देशों के बीच एक समझौता है, फ़्री मूवमेंट रिजीम (FMR). नरेंद्र मोदी सरकार की ‘ऐक्ट ईस्ट’ नीति के तहत साल 2018 में इसे लागू किया गया था. इसके तहत, दोनों देशों की जनजातियां बिना पासपोर्ट या वीज़ा के एक-दूसरे के क्षेत्रों में 16 किलोमीटर तक आ-जा सकती हैं.

FMR की ज़रूरत क्यों पड़ी?

साल 1826 में अंग्रेजों ने भारत और म्यांमार के बीच सीमांकन किया. लेकिन जैसी अंग्रेज़ी आदत, इस सीमांकन में उन लोगों से कोई गंभीर राय-मशविरा नहीं हुआ, जो सीमावर्ती इलाक़ों में रहते थे. ऐसे में जो सीमा अस्तित्व में आई, उसने एक ही जातीयता और संस्कृति के लोगों को दो देशों में बांट दिया. मिज़ो, नागा, चिन और कुकी सहित कई जातीय समुदाय के लोग रातों-रात देसी-विदेशी के खांचों में दर्ज हो गए. इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, मणिपुर के मोरेह इलाक़े में ऐसे कई गांव हैं, जिसके कुछ घर म्यांमार में हैं. नागालैंड के मोन ज़िले में सीमारेखा लोंगवा गांव के मुखिया के घर से होकर गुज़रती है. माने उनका घर दोनों देशों में है. तो लोगों के बीच संपर्क और आवाजाही को सुविधाजनक बनाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने फ़्री मूवमेंट लागू किया था. इससे स्थानीय व्यापार और व्यवसाय को भी प्रोत्साहन मिला.

FMR के खिलाफ आवाज़ क्यों उठी?

फिर फरवरी, 2021 में म्यांमार में सेना ने तख़्तापलट कर दिया. तब से सेना ही देश की सत्ता पर क़ाबिज़ है. नतीजा ये कि तब से 31,000 से ज़्यादा लोग पड़ोसी देश से जान बचाकर मिज़ोरम आ गए हैं. कइयों ने मणिपुर में भी शरण ली है. उग्रवादी समूहों के साथ झड़प और गोलीबारी की वजह से वहां के सैनिक भारत में शरण लेते रहते हैं. बीते साल, 29 दिसंबर को ही म्यांमार सेना के लगभग 151 जवान दक्षिणी मिज़ोरम में घुस आए थे. हथियारबंद सैनिकों को तो उनके देश भेज दिया जाता है. लेकिन आम रेफ्यूजी बड़ी संख्या में भारत में ही हैं, क्योंकि म्यांमार में हालात अस्थिर हैं.

ये भी पढ़ें - मणिपुर हिंसा के पीछे म्यांमार के आतंकी संगठनों का हाथ? NIA जांच में खुलासा

इसके अलावा मणिपुर में चल रहे संघर्ष पर भी असर हुआ. कथित तौर पर कुकी-चिन समुदाय के कुछ लोग म्यांमार से मणिपुर आए हैं. और, उनका 'अवैध प्रवास' संघर्ष के प्रमुख मुद्दों में से एक है. मैतेई लोगों का आरोप है कि अवैध प्रवासी ‘नार्को-टेररिज़म नेटवर्क’ का हिस्सा हैं, जो प्रदेश में अशांति फैलाने के इरादे से काम कर रहे हैं. नार्को टेररिज़म का मतलब हुआ ड्रग्स के व्यापार से आतंकवाद का पोषण करना.

वहीं, कुकियों ने मैतेई समुदाय और मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह पर प्रत्यारोप लगाया कि वो नार्को टेररिज़म की बात इसलिए कर रहे हैं कि 'जातीय नरसंहार' को सही ठहरा सकें.

इन वजहों के मद्देनज़र नरेंद्र मोदी सरकार ने 2 जनवरी, 2024 को ही घोषणा कर दी थी कि वो खुली आवाजाही पर रोक लगाएंगे. इसके बाद 20 जनवरी को गुवाहाटी में असम पुलिस कमांडो बटालियन के पहले बैच की पासिंग-आउट परेड को संबोधित करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने एलान किया,

"मोदी सरकार ने फ़ैसला किया है कि भारत-म्यांमार सीमा को कांटेदार बाड़ लगाकर सुरक्षित किया जाएगा. पूरी सीमा पर बाड़ लगाई जाएगी, जैसी हमने भारत-बांग्लादेश सीमा पर लगाई है."

बाड़ लगाने से क्या नफ़ा-नुक़सान?

वजहें तो सरकार ने गिना दीं, मगर कुछ विशेषज्ञों की राय है कि घने जंगलों से घिरे पहाड़ी इलाक़े में बाड़ लगाना लगभग असंभव है. और, ये योजना सीमाई इलाक़े के दशकों पुराने संतुलन को बिगाड़ सकती है, पड़ोसी देश के साथ तनाव भी बढ़ सकता है.

माने तीन चुनौतियां हैं: 

1. बाड़ लगाने में आने वाली व्यावहारिक समस्याएं 

2. सीमावर्ती इलाक़ों में रहने वाली जनजातियों के परस्पर संबंध

3. भारत-म्यांमार के बीच कूटनीतिक संबंध

पूर्व सेना प्रमुख जनरल एम एम नरवणे (रि.) ने बाड़ लगाने की क़ीमत पर ध्यान खींचा है. द प्रिंट में छपे लेख में वो लिखते हैं कि बाड़ लगाना एक जटिल काम है, ख़ासकर सीमा के पहाड़ी और जंगली इलाक़े में. सड़क छोड़िए, ज़्यादातर जगहों पर हर मौसम में जाया भी नहीं जा सकता. और, बाड़ लगाने का कोई ख़ास फ़ायदा नहीं अगर वहां नियमित गश्त न लगाई जा सके. अगर सीमा का उल्लंघन होता है और वहां तक पहुंचा ही नहीं जा सकता, तो तारबंदी का क्या मतलब?

भारत-म्यांमार के संबंध बहुत पुराने हैं. (फ़ोटो - सोशल मीडिया)
ख़र्च कितना आएगा? 

सरकार ने 4,000 किलोमीटर लंबी भारत-बांग्लादेश सीमा में से लगभग 3,326 किलोमीटर तक तारबंदी की मंज़ूरी दी थी. इसकी अनुमानित लागत क़रीब 4,393.69 करोड़ रुपये है. माने हर किलोमीटर बाड़ लगाने की लागत मोटा-माटी 2 करोड़ रुपये है. इस पैमाने पर इलाक़े और मौसम की कठिनाइयों को देखते हुए 1,643 किमी लंबी म्यांमार-भारत सीमा की तारबंदी में 3,200 करोड़ रुपये से ज़्यादा ही ख़र्च होंगे. और, केवल बना कर छोड़ नहीं सकते. साल-दर-साल मेनटेन करना होता है. अगर वहां सैनिकों की तैनाती होती है, तो और ख़र्चा.

म्यांमार भड़क तो नहीं जाएगा? 

म्यांमार 1958 में ब्रिटेन से आज़ाद हुआ था और तभी से दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध रहे हैं. 1951 में मित्रता संधि पर दस्तख़त हुए. इसने उनकी ‘स्थायी शांति और अटल मित्रता’ पुख़्ता की. 1987 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की म्यांमार यात्रा से दोनों देशों के रिश्ते और मज़बूत हुए. तब से देशों ने द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने के लिए कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं.

ये भी पढ़ें - म्यांमार में तख़्तापलट कर सेना ने गलती कर दी?

म्यांमार, भारत की ‘लुक ईस्ट नीति’ का हिस्सा रहा है. सैन्य तख़्तापलट से पहले दोनों देशों के बीच व्यापार करने की रणनीति काफ़ी हद तक कारगर रही. हालांकि, तख़्तापलट के बाद भी धंधा रुका नहीं. पश्चिमी देशों ने म्यांमार नीति का एकमात्र चश्मा लोकतंत्र को बनाया. लोकतंत्र नहीं, तो व्यापार नहीं. लेकिन भारत ने सैन्य शासन के साथ व्यापार किया. और, सैन्य शासन ने इसका सम्मान किया. ख़ुद से कहा कि वो पूर्वोत्तर के उग्रवादियों को पनाह नहीं देंगे.

इन ऐतिहासिक संबंधों के चलते ही मणिपुर से लगे लगभग 10 किलोमीटर के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर, म्यांमार के साथ सीमा खुली हुई ही है. अब अचानक बाड़ लगाने से इस बात का संशय तो है ही कि रिश्ते बिगड़ सकते हैं.

नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ़्यू रियो ने इस प्रस्ताव का विरोध किया है. उन्होंने कहा कि म्यांमार सीमा पर तारबंदी का निर्णय एकतरफ़ा नहीं लिया जा सकता है. सभी स्टेक-होल्डर्स के साथ चर्चा होनी चाहिए. जनरल नरवणे का भी मत है कि एक राष्ट्र के रूप में हमें बिलाशक अंतरराष्ट्रीय ख़तरों के ख़िलाफ़ अपनी तैयारी रखनी चाहिए. मगर स्थानीय समुदाय को अलग-थलग करने वाला कोई भी प्रस्ताव सीमावर्ती क्षेत्रों में क़ानून-व्यवस्था की स्थिति को और ख़राब कर देगा. सभी स्टेक-होल्डर्स को विश्वास में लेने से सरकार का काम आसान ही होगा.

thumbnail

Advertisement

election-iconचुनाव यात्रा
और देखे

लल्लनटॉप चुनाव यात्रा: कन्नौज के गुटखा मैन को किस नेता से शिकायत है?

लल्लनटॉप चुनाव यात्रा : कन्नौज के दलित लड़के ने अखिलेश यादव पर क्या इल्जाम लगा दिया?
लल्लनटॉप चुनाव यात्रा : कन्नौज में कबाड़ उठाए बच्चों को सांसद सुब्रत पाठक से क्या आश्वासन मिला है?
लल्लनटॉप चुनाव यात्रा : अमेठी में राहुल गांधी और स्मृति ईरानी के समर्थकों में भयंकर भिड़ंत हो गई!
लल्लनटॉप चुनाव यात्रा : बेरोजगारी पर झारखंड के लोगों ने पीएम मोदी और हेमंत सोरेन को जमकर सुनाया!
लल्लनटॉप चुनाव यात्रा : बिहार के समस्तीपुर में तांत्रिक ने तंत्र विद्या के राज खोले!

Advertisement

Advertisement

Advertisement