इन झगड़ों ने बॉलीवुड को बंबई की सड़कों पर पैदल घुमाया है
सन 1986 के उस दिन की रोशनी में पाइरेसी और सेंसर बोर्ड के बीच बंधी रस्सी को देखो. बॉलीवुड 'अभिव्यक्ति की आजादी कानून' के सहारे उस पर डोल रहा है.
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फोटो - thelallantop
उस दौर को 30 साल होने वाले हैं. इतने सालों में कुछ खास नहीं बदला है. फिल्मी पंडित उस दौर को बॉलीवुड फिल्मों का काला इतिहास कहते हैं. क्योंकि एक तो नोटिस करने लायक फिल्में नहीं बन रही थीं. मसाला फिल्मों पर जोर था. जो बनती भी थीं उनकी वीडियो कैसेट दन्न से मार्केट में आ जाती थी. जैसे आज के जमाने में किसी के पास थोड़ी सी स्क्रू ड्राइवर पकड़ने की समझ और थोड़ा पैसा आता है. तो वह मोबाइल और कंप्यूटर रिपेयरिंग की दुकान खोलता है. तब के जमाने में वही हाल वीडियो कैसेट बनाने वालों का था. जिसके पास ठीकठाक पैसा आ जाता था. वो सस्ती चाइनीज तकनीक वाला वीडियो कॉपी मशीन मंगा लेता था. और धकापेल कैसेट तैयार होने लगती थी. हालांकि लोवर और लोवर मिडिल क्लास के लिए वो कैसेट और कैसेट प्लेयर खरीदना भी एक सपने सरीखा ही होता था. लेकिन जो फिल्म देखने हॉल तक जा सकते थे उनको वो कैसेट में मिल जाता था. और वो बैठके पूरी फैमिली के साथ घर में ही एंजॉय करते थे.यूपी बिहार के गांव देहात में शादी ब्याह मुंडन में या तो नौटंकी होती थी. या वीसीआर चलता था. पुरानी पीढ़ी नौटंकी की शौकीन थी. नए लोग वीसीआर पर रात भर फिल्म देखना पसंद करते थे. हमारे बड़े भाई साहब थे. वो रात में सूसू करने उठते. ढाई किलोमीटर दूर से भी वीसीआर चलने की आवाज आती तो साइकिल उठाके निकल जाते थे. ये जलवा था उस जमाने में पाइरेसी का. देखने वालों को पता भी नहीं था इसका नाम. तब सिर्फ पाइरेसी थी. अब सेंसर बोर्ड भी है. हर तरह के लोगों की भावनाएं हैं जो आहत हो सकती हैं. ये समझो कि बहुत ऊंचे पर बंधी एक रस्सी है. जिस पर बॉलीवुड चल रहा है. उसके हाथ में बैलेंस बनाने के लिए एक बांस है. 'अभिव्यक्ति की आजादी कानून' नाम का. उसका बैलेंस जहां बिगड़ता है. फिल्म डब्बे में चली जाती है. फिल्मकार सड़क पर आ जाता है.