The Lallantop
Advertisement

उड़ता पंजाब: फिल्म जो पंजाब में 'तख्तापलट कर सकती है

इस फिल्म का इशारा समझ लेगी पब्लिक. आप चाहें तो 'करण-अर्जुन' के डायलॉग को थोड़ा बदलकर कह सकते हैं, 'बादल तू तो गियो.'

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
लल्लनटॉप
19 जून 2016 (Updated: 19 जून 2016, 03:47 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
संदीप सिंह
संदीप सिंह

'उड़ता पंजाब' वहीं  मारती है, जहां पंजाब की राजनीति को सबसे ज्यादा दर्द होता है. यह बात संदीप सिंह कह रहे हैं. संदीप को आप पहले भी 'दी लल्लनटॉप' पर पढ़ चुके हैं. देश में स्टूडेंट पॉलिटिक्स का चर्चित चेहरा रहे. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और जेएनयू से पढ़े हैं. जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के प्रेसिडेंट रहे, फिर आइसा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी. सिनेमा, साहित्य और सामाजिक आंदोलनों पर लगातार लिखते बोलते रहे. इससे पहले उन्होंने मराठी फिल्म 'सैराट' पर लिखा था
. अब 'उड़ता पंजाब' के पंजाब पॉलिटिक्स पर संभावित असर की पड़ताल कर रहे हैं. पढ़िए.



यह 23 सितम्बर 2014 की शाम थी. पंजाब के फरीदकोट शहर में बाबा फरीद आगमन पर्व मनाया जा रहा था. कल्चरल शाम सजी हुई थी और उभरते पंजाबी गायक रंजीत बावा से श्रोता बार-बार एक खास गीत ‘चिट्टा’ (स्मैक) गाने की मांग कर रहे थे. यह गीत पंजाब की ड्रग्स-समस्या को लेकर था जो ड्रग्स के लिए सीधे पंजाब सरकार और प्रशासन को जिम्मेवार ठहराता था. गीत के बोल थे ‘सरकारां ही बिकाऊं दियां ने चिट्टा, टन ही टन सरेआम बिकदा’.
https://www.youtube.com/watch?v=y01htcU278c
'बॉर्डर नी टप्पदा चिट्टा’ गीत शुरू होते ही आनन-फानन में पुलिस से भरी कई लारियां मौके पर पहुंच गईं और कार्यक्रम पूरा होने से पहले ही ख़त्म करा दिया गया. इस कार्यक्रम की अध्यक्षता पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह ‘बादल’ को करनी थी पर उन्होंने अपना आना रद्द कर दिया! रंजीत बावा गिने-चुने कलाकारों में से हैं जो पंजाब की ड्रग्स समस्या पर खुलकर बोलने की हिम्मत रखते हैं और राजनेताओं की नशे के इस धंधे में मिलीभगत को उजागर करते हैं.
अदालत की हरी झंडी के साथ अभिषेक चौबे निर्देशित ‘उड़ता पंजाब’
रिलीज होने के बाद AAP नेता और पंजाब चुनावों की तैयारी में लगे लोकप्रिय कवि डॉ कुमार विश्वास ने रंजीत बावा के इस गाने को फेसबुक पर शेयर किया और लिखा ‘मैंने कहा था न बेशर्म बादलों, पंजाब की नसों में नशा फैलाने के तुम्हारे कुकर्मों के ख़िलाफ़ पहला नग़मा मैं गाऊंगा और उसकी गूंज हर गले से निकल कर तुम्हारे कान के पर्दे फाड़ देगी! सुनो ये पंजाब के एक बेटे की आवाज़ और अपने बाक़ी बचे महीने गिनो..! मुझ पर 21 मुक़द्दमे किये हैं न अब इन सब पर करो मुक़दमे!’
https://www.youtube.com/watch?v=Ifsm5aZGh3Q

अच्छा! तो इसीलिए असहज थे 'चमचे'

'उड़ता पंजाब' देखने के बाद सबसे पहले जो बात समझ में आती है वह कि पंजाब की राजनीति के लिए यह फिल्म किसी सिनेमाई तख्तापलट से कम साबित नहीं होगी. साफ़ समझ में आ जाता है कि अपने आपको पंथ-प्रधान नरेन्द्र मोदी का 'चमचा' कहने वाले सेंसर बोर्ड के निदेशक पहलाज निहलानी इस फिल्म को क्यों रिलीज नहीं होने देना चाहते थे. जिन्हें भी पंजाब की मौजूदा राजनीति और समाज की कसमसाहटों और आसन्न चुनाव की जानकारी है, वे अकाली दल, उसकी सहयोगी बीजेपी और सत्ता के पिट्ठू बन चुके सेंसर बोर्ड की इस फिल्म से असहजता को आसानी से समझ सकते हैं. गाली-गलौज, पंजाब का गलत तरीके से चित्रण जैसे आरोपों के साथ-साथ अगर बीजेपी समर्थकों ने इस फिल्म को ‘पॉलिटिकली फंडेड’ भी बताया तो अब आप समझ सकते हैं इशारा किसकी तरफ था!
सिनेमा के प्रतिमानों पर पास हो या फेल, पर 'उड़ता पंजाब' राजनीति के मैदान में अव्वल पास हुई है. पंजाब के थिएटरों में उमड़ी भीड़ की अखबारी खबरें अगर सही हैं तो फिल्म करन-अर्जुन से एक डायलाग उधार लेते हुए ‘सेफली’ कहा जा सकता है 'बादल, तू तो गियो!'
जहां तक फिल्म की बात है वह कहीं बोर नहीं करती. दर्शक एक बार आराम से इसे देख सकता है, पर लगता है पंजाबी दर्शक बार-बार देखेंगे. स्मैक की डोर से बंधी चार अलग-अलग कहानियां फिल्म के अंत में एक बिंदु पर खड़ी हो जाती हैं और सत्ता के पैर में कांटों सी चुभती हैं जिसकी टीस टीवी चैनलों तक सुनाई देती है. फिल्म का अंत एक तरह से नई शुरुआत है जिसका हश्र किसी को नहीं पता. सवा दो घंटे की उड़ता पंजाब ‘बदलाव’ का बिगुल बजाकर ख़त्म हो जाती है. पर पंजाब की राजनीति में यह बिगुल ‘अगले साल’ तक बजता रहेगा. कारण राजनीतिक हो या कोई व्यवसायिक ट्रिक (!) पर बहुत कम फिल्में इतनी सटीक टाइमिंग के साथ रिलीज होती हैं.

आप अभिषेक चौबे का इशारा समझ रहे हैं?

अभिषेक चौबे इस बात के लिए मुबारकवाद के पात्र हैं कि वे फैसलाकुन होने से बचे हैं. सच्चाई दिखाकर बाकी काम उन्होंने पंजाब की जनता के लिए छोड़ दिया है. पूरी फिल्म में यह ध्वनि सुनाई देती रहती है कि ड्रग्स का कारोबार बड़े राजनेताओं और सरकार के संरक्षण में चल रहा है पर यह अभिषेक की परिपक्वता का सबूत है कि वे मुख्य ‘विलेन’ को अमूमन सामने लाते ही नहीं. वह सिर्फ सन्दर्भों और तस्वीरों में आता हैं और टीवी पर ‘ड्रग्स’ के खिलाफ भाषण देते हुए दिखता है. ड्रग्स के कारोबार के शिखर पर बैठा हुआ वह राजनेता खुद कोई कदम उठाने के बजाय वह पंजाब के युवाओं से कहता है ‘नौजवानों आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं’. वाह अभिषेक चौबे! दर्शक आपका इशारा समझ रहे हैं.

और थोड़ा अफीम का कल और आज

फिल्म की दूसरी खासियत है कि वह ड्रग्स की समस्या की गहरी पड़ताल भी करती है. उसकी पेचीदा प्रक्रियाओं और कार्यप्रणाली को भी उजागर करती है. आम तौर से हिन्दी सिनेमा समस्या को बहुत सतही तरीके से प्रस्तुत करता है. 'उड़ता पंजाब' इस मामले में एक सुखद शुरुआत है कि मुद्दा आधारित शोधपरक फिल्में भी बनाई जा सकती हैं. आइये थोड़ा अफीम के इतिहास और इससे बनने वाले नशे की मौजूदा प्रक्रिया की बात कर लें.
अफीम भारत में सदियों से पैदा हो रहा है. 18वीं और 19वीं सदी में भारत सहित एशिया के कमोबेश सभी मुल्कों में अंग्रेज अफीम का कारोबार करते थे. उस जमाने में इसकी सबसे ज्यादा खपत चीन में होती थी और सबसे बड़ा उत्पादक ब्रिटिश भारत था. बम्बई के पारसियों की एक पूरी पीढ़ी अफीम बेचकर ही मालामाल हुई. मुनाफ़े की भूख इस कारोबार को अफीम युद्ध तक ले गई जिसने उत्तर-पूर्व एशिया का नक्शा ही बदल दिया. यह सब अगर विस्तार से जानना हो तो पीटर वार्ड फे की किताब ‘द ओपियम वॉर’ या अमिताव घोष की उपन्यासत्रयी ‘अफीफ सागर, नशे का दरिया और अग्निवर्षा’ पढ़ें.
खैर, आधुनिक समय में अफीम का सबसे बड़ा केंद्र बर्मा है जहां से यह नशा भारत सहित बहुत मुल्कों में जाता है. इस रूट से आने वाली अफीम का ज्यादा असर नार्थ-ईस्ट पर है. सोवियत रूस से लड़ाई के दौरान अफगानी जिहादियों ने अमेरिकी के संरक्षण में बड़े पैमाने पर अफीम उगाना शुरू किया. तब से अफीम वहां ‘विदेशी मुद्रा’ और हथियारों की खरीददारी का मुख्य स्रोत बनी हुई है. तो भारत के पश्चिम में अफगान अफीम वाया पाकिस्तान होकर आती है. इसका सबसे ज्यादा असर पंजाब में है. दिल्ली में भी आने वाला ज्यादातर नशा इसी रूट से आता है.
कुछ दशकों पहले छत्तीसगढ़ में बड़े पैमाने पर गैर-कानूनी अफीम उगाई जाती थी पर अब यह सब काफी कम हो गया है. इसलिए सीमापार से या लाइसेंस प्राप्त दवा कंपनियों को दर्द-निवारक बनाने के लिए मिलने वाली अफीम ही एक मात्र चारा बचती है.
मसला यह है कि आजकल अफीमची कम बचे हैं. यह पुराने ढंग का नशा माना जाने लगा है. जाहिर है इसमें बाजार की मौजूदा संस्कृति का भी हाथ है. स्मैक, हेरोइन जैसे ताकतवर नशों की मांग ज्यादा बढ़ गई है. इन सारे नशों को बनाने में अफीम लगती है, साथ ही लगते हैं कुछ ऐसे केमिकल्स जो सिर्फ मान्यताप्राप्त लाइसेंस वाली दवा कंपनियों को मिलते हैं. खुले बाजार में इन केमिकल्स का मिलना लगभग नामुमकिन है.

सरकार को चालाकी से घेरती है, नशेड़ियों पर नैतिक नहीं होती फिल्म

अभिषेक चौबे की फिल्म 'उड़ता पंजाब' इस बारीकी को पकड़ती है. फिल्म में डॉक्टर का रोल निभा रही करीना एएसआई की भूमिका में दलजीत दोसांझ को यह सब समझाती है और नशे की फैक्ट्री में उसके साथ जाती है. बहुत चालाकी से फिल्म दर्शक के हाथ में यह सूत्र छोड़ देती है कि नशा बनाने का यह खेल बिना सरकारी संरक्षण के चल ही नहीं सकता. जो इस पूरे मामले का सबसे क्रूर सच है.
फिल्म नशे के खिलाफ जंग के सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों पहलुओं को उजागर करती है. यह लड़ाई इतनी आसान नहीं होने वाली. ‘तलब’ लगने पर अपनी मां तक को मार देने वाली पीढ़ी को यह जंग लड़ने में वक़्त लगेगा. पर अच्छा यह है कि अभिषेक चौबे की फिल्म नशेड़ियों पर कोई नैतिक फैसला नहीं देती.
हरित क्रांति से समृद्ध (?) हुए पंजाब में ‘ड्रग्स महामारी’ फैलने के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कारणों की पड़ताल में न जाना इस फिल्म की कमजोरी है. कलाकारों ने बढ़िया अदाकारी की है. शाहिद अपने रोल में पूरा डूब गए हैं. करीना और दलजीत उम्मीदों पर खरे उतरते हैं. आलिया भट्ट ने बहुत मेहनत करके अदाकारी अच्छी की है पर वह ‘बिहारिन’ की रोल में डूब न सकी हैं. भ्रष्ट पुलिस अफसर की भूमिका में मानव विज शानदार हैं. अलबत्ता, ऐसे फैसले बड़े आत्मगत होते हैं. फिल्म का संगीत पसंद किया जायेगा.
फिल्म के एक बहुत इंटेंस दृश्य में दारुण आलिया भट्ट अपनी दुर्दशा बयान करते हुए कहती हैं ‘सोचे थे अच्छा टाइम आ जायेगा. बस हो गईं न चुतिआपा! धरा गयनी साला!’ कहीं यह बात ‘अच्छे दिन’ आएंगे के नारे को सच मानकर ‘धरा गए’ लोग भी सोचने लगे तो? खासकर पंजाब में!


ये भी पढ़ें

'उड़ता पंजाब' रिव्यू: इसका अंधेरा सामने रखा आईना है

'उड़ता पंजाब' के राइटर सुदीप शर्मा की ज़ुबानी, फिल्म के सब सच

पंजाब में तो परांठों में भी नशा मिलाया जाने लगा है

'उड़ता पंजाब उड़ता ही रहेगा, कोई बादल उसे रोक नहीं पाएंगे'

उड़ चला 'उड़ता पंजाब', धम्म गिरा पहलाज

'दुनिया में हुई उथल-पुथल के लिए महापुरुष नहीं, चमचे जिम्मेदार हैं'

हां मैं अपराधी हूं, कि मैंने सच कहा है : 'उड़ता पंजाब' के लेखक की कलम से

 

इस पोस्ट से जुड़े हुए हैशटैग्स

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement