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नालंदा यूनिवर्सिटी, जिसके द्वारपाल भी विद्वान हुआ करते थे, उसे किसने जला दिया?

भारत की प्राचीन यूनिवर्सिटी, 19 जून 2024 के रोज़, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिसके नए परिसर का उद्घाटन किया है.

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pm modi inaugurated nalanda university new campus returning glory after 800 years know details
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नालंदा विश्वविद्यालय के नए परिसर का उद्घाटन किया है. (तस्वीर-सोशल मीडिया X)
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सचेंद्र प्रताप सिंह
19 जून 2024 (Published: 24:09 IST)
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आज किसी से पूछो कि पढ़ने का मौका मिले तो दुनिया के कौन से विश्विद्यालय में पढ़ेंगे? जवाब मिलेगा, ऑक्सफ़ोर्ड, हारवर्ड, कैम्ब्रिज. भारत से हजारों छात्र हर साल इन यूनिवर्सिटीज में पढ़ने जाते हैं. और लालायित रहते हैं. हालांकि आज से 800 साल पहले एक ऐसा दौर था, जब गंगा उल्टी नहीं सीधी बहती थी. दुनियाभर के लोग पढ़ने के लिए भारत की एक यूनिवर्सिटी तक आते थे. बाकायदा संस्कृत सीखते थे. दरवाजे पर खड़े रहते थे. लेकिन एडमिशन नहीं मिलता था. मिलता था तो सिर्फ 20% छात्रों को. एडमिशन के लिए दुनिया के सबसे होनहार छात्रों का इंटरव्यू होता था. और इंटरव्यू लेने वाला होता था एक द्वारपाल. इसके बाद भी दो लेवल और होते थे. ये सब पास कर गए तो आपको मौका मिलता था दुनिया की सबसे बड़ी लाइब्रेरी में. जिसमें माना जाता है, लाखों किताबें हुआ करती थीं. हम बात कर रहे हैं नालंदा की. 

भारत की प्राचीन यूनिवर्सिटी, 19 जून 2024 के रोज़, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिसके नए परिसर का उद्घाटन किया है. 

क्या है नालंदा का इतिहास?
किसने बनाया?
क्या पढ़ाया जाता था नालंदा में? कैसे?

#नालंदा की खोज

बशीर बद्र का शेर है, 
ख़ुदा हमको ऐसी ख़ुदाई न दे 
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे 

बशीर बद्र जिस खुदाई की बात कर रहे, उसका मतलब होता है - दुनिया. हालांकि एक और तरह की खुदाई भी होती है. जिसके बिना इतिहास दिखाई नहीं देता. हम बात कर रहे हैं आर्कियोलॉजी की. 

साल 1799 की बात है. मैसूर में टीपू सुल्तान की हार के बाद कंपनी बहादुर काफी ताकतवर हो चुकी थी. हालांकि पूरे हिंदुस्तान पर जीत अभी बाकी थी. और इस रास्ते पर चलने के लिए अंग्रेज़ों को जरूरत थी एक मैप की. टीपू की हार के बाद कम्पनी ने साउथ इंडिया में सर्वे का काम शुरू किया. यही कोशिश आगे चलकर भारत के नक़्शे के रूप में परिणित हुई. लेकिन नक़्शे की बात किसी और एपिसोड में. अभी बात एक नाम से शुरू करते हैं. फ्रांसिस बुकानन-हैमिल्टन. ये कौन थे?

मैसूर में सर्वे का जिम्मा जिस शख्स को मिला, उनका ही नाम था, फ्रांसिस बुकानन - हैमिल्टन. हैमिल्टन ने पहले मैसूर का सर्वे किया. इसके बाद 1807 में उन्हें बंगाल की जिम्मेदारी मिली. बंगाल में सर्वे के दौरान राजगृह से कुछ दूर बड़गांव नाम की जगह पर हैमिल्टन का ध्यान कुछ बौद्ध मूर्तियों की तरफ गया. मूर्तियां जहां मिलीं, वहां एक बड़ा साल टीला बना हुआ था. हैमिल्टन को अहसास हुआ कि इस जगह का भारत के इतिहास से एक तगड़ा संबंध है. लेकिन वो फिर भी इसे पहचान नहीं पाए. हालांकि जो देखा , हैमिल्टन ने उसे डायरी में नोट कर लिया. और आगे गंगा नदी में मिलने वाली मछलियों पर शोध करने चले गए. बंगाल में उन्होंने एक चिड़ियाघर का निर्माण भी कराया.

आगे चलकर हैमिल्टन की डायरी एक अंग्रेज़ फौजी अफसर के हाथ लगी. उन्होंने इसका मिलान किया ह्वेन सांग के यात्रा वृतांतों से. ह्वेनसांग एक बौद्ध भिक्षु का नाम था. जो सातवीं सदी में चीन से भारत आए थे. ह्वेन सांग के यात्रा वृतांतों को पढ़कर अंग्रेज़ अफसर को अहसास हुआ कि हैमिल्टन ने जो जगह खोजी थी वो असल में नालंदा था. जहां मौजूद था, भारत का प्राचीन विद्यालय, जो अपने समय में दुनिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी हुआ करता था. साल 1915 में नालंदा की खुदाई का काम शुरू हुआ. और 1937 तक चला. आजादी के बाद 1974 और 1982 में कई दौर की खुदाई और रेस्टोरेशन का काम हुआ. इस खुदाई में मिला क्या? ये जानने से पहले थोड़ा और पीछे चलते हैं. और जानते हैं नालंदा के बनने की कहानी

नालंदा किसने बनाया?

नालंदा का पूरा नाम है, नालंदा महाविहार. इसकी कहानी शुरू होती है, ईसा से 1200 साल पहले. खुदाई में मिले अवशेषों से पता चलता है कि नालंदा में बुद्ध और महावीर के समय से पहले भी इंसानी बसाहट हुआ करती थी. 

बौद्ध धर्म के ग्रन्थ बताते हैं कि महात्मा बुद्ध ने नालंदा में एक उपदेश दिया था. उनके एक शिष्य शारिपुत्र के नाम पर नालंदा में एक स्तूप भी बना हुआ है. नालंदा का एक संबंध जैन धर्म से भी है. जैन सोर्सेस के अनुसार भगवान महावीर ने भी कुछ वर्ष नालंदा में बिताए थे. नालंदा में यूनिवर्सिटी कब बनी?

इस सवाल का जवाब हमें मिलता है गुप्त काल में. जिसे भारत का गोल्डन पीरियड भी कहा जाता है. नालंदा की खुदाई में मिली एक सील से पता चलता है कि शक्रादित्य ने नालंदा में एक बौद्ध मठ का निर्माण कराया था. शक्रादित्य को हम गुप्त वंश के शासक कुमार गुप्त के नाम से जानते हैं. गुप्त काल के बाकी शासक, मसलन, बालादित्य, तथागतगुप्त आदि ने भी नालंदा में निर्माण कराया. और छठवीं शताब्दी आते-आते, ये एक बहुत बड़े शिक्षा केंद्र के रूप में डेवेलप हो गया. गुप्त काल के अवशेषों से पता चलता है कि नालंदा में तब हिन्दू, जैन, बुद्ध, तीन धर्मों का प्रभाव था. जो यहां की निर्माण शैली, वास्तुकला और मूर्तियों में दिखाई देता है. 

गुप्त काल के बाद कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने नालंदा को अनुदान दिया. उन्होंने यहां तीन मंदिरों का निर्माण कराया. आठवीं सदी के बाद बंगाल के पाल वंश ने नालंदा की देखरेख की. पाल वंश के राजाओं ने ही विक्रमशिला और ओदांतपुरी में भी मठों का निर्माण कराया. जो अपने आप में बड़ी यूनिवर्सिटीज हुआ करती थीं. हालांकि नालंदा का रुतबा सबसे ऊंचा था. कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, पर्शिया और तुर्की से लोग यहां पढ़ने आते थे. अब चूंकि ये यूनिवर्सिटी हुआ करती थी तो सबसे बड़ा सवाल यही आता है कि यहां पढ़ाई कैसे होती थी?

नालंदा में पढ़ाई कैसे होती थी? 

ब्रैड पिट की फिल्म ‘फाइट क्लब’ देखी है तो एक सीन याद होगा आपको. ब्रैड पिट के क्लब में शामिल होने के लिए उसके घर के बाहर लोगों की लाइन लगी है. जिन्हें बेइज्जत करते हुए वो कहता है, “लौट जाओ. तुम क्लब में शामिल होने के लायक नहीं.” नालंदा में ऐसी बेइज्जती शायद ही होती हो, लेकिन ये अपने कठिन एंट्रेंस टेस्ट के लिए जानी जाती थी.

चीनी यात्री ह्वेनसांग लिखते हैं, “नालंदा में दाखिला लेने वालों में सिर्फ 20 प्रतिशत छात्रों को एंट्री मिलती थी.” एंट्री के लिए सबसे पहला टेस्ट लेते थे द्वारपाल. द्वारपाल भी कतई विद्वान लोगों को बनाया जाता था. जो धर्म और दर्शन से जुड़े कठिन सवाल पूछते थे. यहां से पास हो गए तो आगे दो और लेवल पर टेस्ट देना पड़ता था. पास हो गए तो आपको दाखिला मिल जाता था. नालंदा में पढ़ाई के दौरान आपको रहना भी वहीं होता था. 

ह्वेनसांग ने नालंदा के बारे में लिखा है, “पूरा विहार ईंटों की एक दीवार से घिरा है. जिसका एक गेट सीधे शिक्षा केंद्र में खुलता है. शिक्षा केंद्र में आठ बड़े बड़े हॉल हैं. जिनमें पढ़ाई होती है.”

अन्य विवरणों के अनुसार, “नालंदा में मठों की एक कतार हुआ करती थी. साथ ही भव्य स्तूप और मंदिर बने हुए थे. नालंदा की खुदाई में जो कमरे मिले हैं उनकी बनावट देखकर पता चलता है कि हर कमरे में सोने के लिए पत्थर की एक चौकी होती थी. और दीपक, ढिबरी, रखने के लिए आले बने हुए थे.”

इनके अलावा यूनिवर्सिटी परिसर में बगीचों, प्रार्थना कक्ष और मंदिरों का जिक्र भी मिलता है. नालंदा अपनी विशाल लाइब्रेरी के लिए भी फेमस था. जिसका नाम धर्मगंज हुआ करता था. इस लाइब्रेरी में तीन विशाल कक्ष थे. जिनके नाम, रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक थे. एक-एक कक्षा नौ मंजिला हुआ करती थी. और इसमें हजारों किताबें और ग्रन्थ रखे हुए थे.

नालंदा में छात्र पढ़ते क्या थे?

यहां भारतीय षटदर्शन, ग्रामर, एस्ट्रोनॉमी, गणित जैसे तमाम विषयों की पढ़ाई हुआ करती थी. पढ़ाई का तरीका भी अनूठा हुआ करता था. बढ़े-बढ़े हॉल्स में छात्र आमने-सामने बैठ कर वाद विवाद करते थे. जिसके बाद शिक्षक उनकी गलतियों को सुधारता था. 

ह्वेन सांग के लिखे अनुसार नालंदा में एक वक्त में दस हजार छात्र पढ़ाई करते थे. और उन्हें पढ़ाने के लिए लगभग 1500 शिक्षक हुआ करते थे. इन सबके ऊपर एक चांसलर हुआ करता था. ह्वेनसांग ने नालंदा के एक चांसलर, शिलाभद्र का जिक्र किया है. जो ह्वेन सांग के अनुसार योग शास्त्र के सबसे बड़े शिक्षक थे. नालंदा के तमाम विवरणों से पता चलता है कि ये एक विशाल उपक्रम था. इसलिए सवाल ये कि इस यूनिवर्सिटी को चलाने के लिए पैसा कहां से आता था?

जैसा पहले बताया, नालंदा की स्थापना के लिए, गुप्त वंश के राजाओं, हर्षवर्धन और पाल राजाओं ने अनुदान दिया था. आगे काम चलता रहे, इसके लिए 100 गांव यूनिवर्सिटी के अधीन कर दिए जाते थे. हर गांव से बारी-बारी लगभग 200 परिवार हर महीने यूनिवर्सिटी की जिम्मेदारी उठाते थे. और यहीं से खाने-पीने, पढ़ने-लिखने का सामान आता था.

नालंदा में किस-किस ने पढ़ाई की?

चीनी यात्री ह्वेनसांग के लिखे में नालंदा का खूब जिक्र मिलता है. 637 ईस्वी के आसपास ह्वेनसांग नालंदा आए थे. और कुल मिलाकर पांच वर्ष यहीं बिताए. नालंदा में ह्वेनसांग को मोक्षदेव का नाम मिला. ह्वेन सांग के भारत आने का मुख्य उद्देश्य बौद्ध ग्रंथों की प्रतिलिपि हासिल करना था. जब वे लौटे तो नालंदा से 657 संस्कृत ग्रन्थ और बौद्ध धर्म से जुड़े 150 अवशेष अपने साथ वापिस ले गए. कहानी कहती है कि ये सब ले जाने में ह्वेन सांग को 20 घोड़ों की जरूरत पड़ी थी. 

ह्वेन सांग के जाने के बाद नालंदा की ख्याति इस कदर फ़ैली की अगले 30 सालों में चीन और कोरिया से 11 यात्री नालंदा आए. इनमें एक नाम था ’इत्सिंग’. इत्सिंग ने नालंदा में 10 साल गुजारे. और वो यहां से 400 ग्रन्थ लेकर चीन लौटे. ह्वेनसांग की ही तरह इत्सिंग ने भी अपने यात्रा वृतांतों में नालंदा का डिटेल में जिक्र किया है. एक जगह वो नालंदा में छात्रों की दिनचर्या के बारे में लिखते हैं, 

“एक घंटे की आवाज से सुबह सभी भिक्षु उठते हैं. परिसर में मौजूद दस तालाबों में उन्हें नहाना होता है. नहाने के बाद वो डेढ़ फुट चौड़ा और 5 फुट लम्बा कपड़ा अपनी कमर से लपेट लेते हैं. कोई भी भिक्षु खाना खाने के बाद नहीं नहाता.”

नालंदा के बारे में ये सारी डिटेल्स जानने के बाद सिर्फ एक सवाल बाकी रह जाता है?

नालंदा खो कैसे गया? 

इसे तोड़ा किसने?

नालंदा की खुदाई के दौरान ऊपरी लेयर में बहुत सी राख मिली थी. जिससे पता चलता है कि यहां एक बहुत बड़ी आग लगी थी. कहानी फेमस है कि बख्तियार खिलजी ने नालंदा को आग लगा दी थी. और जब नालंदा की लाइब्रेरी को जलाया गया, वो 6 महीने तक जलती रही. नालंदा विश्वविद्यालय इतिहास की गर्त में क्यों खो गया, इसकी कहानी हालांकि इतनी सिंपल नहीं है. 

इसके लिए हमें चलना होगा 12वीं सदी में. बख्तियार खिलजी के साथ-साथ, जिसकी अपनी कहानी शुरू होती है. अफ़ग़ानिस्तान में. खिलजी के वक्त के इतिहासकार मिन्हाज ने अपनी किताब 'तबकात-ए-नासिरी' में बख्तियार खिलजी की कहानी का जिक्र किया है. खिलजी तब मुहम्मद गोरी के दरबार में मुलाजिम हुआ करता था. साल 1192 में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद दिल्ली सल्तनत की शुरुआत होती है. और तब बख्तियार खिलजी को मिलता है एक बड़ा मौका. दिल्ली से खिलजी जाता है बदायूं. जहां एक तुर्क कमांडर के मातहत उसे मिलिट्री कमांडर की पदवी मिलती है. यहां से वो अवध जाता है. जहां उसे मिर्ज़ापुर जिले में एक जागीर दे दी जाती है. 

आगे बख्तियार खिलजी की नजर पड़ती है बंगाल और बिहार सूबे पर. जहां तब ‘लक्ष्मण सेन’ नाम के राजा हुआ करते थे. बंगाल तब भारत के सबसे अमीर इलाकों में एक था. बख्तियार खिलजी ने एक के बाद एक बंगाल पर कई हमले किए. और वहां से खूब सारी दौलत लूटकर ले गया. दिल्ली सल्तनत के सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक ने जब खिलजी के किस्से सुने तो उसे अपने दरबार में बुलाकर सम्मानित किया. मिन्हाज लिखता है, कि खिलजी की ऐसी आवभगत देखकर दिल्ली के अमीर जलभुन कर रह गए. बिहार पर हमलों के दौरान मिन्हाज बख्तियार खिलजी के एक हमले का जिक्र करता है. 

मिन्हाज लिखता है, “खिलजी ने 200 घुड़सवारों के साथ बिहार में एक किले पर आक्रमण किया. किले में बहुत से ब्राह्मण थे. जिन्होंने अपने सर मुंडाए हुए थे. उन सभी को मार डाला गया. किले से खिलजी को बहुत सारी किताबें मिलीं. जिन्हें पढ़कर पता चला कि असल में ये किला नहीं, एक विद्यालय था. और इसे विहार बोला जाता था.”

अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि मिन्हाज ने जिस विहार पर हमले का जिक्र किया है, वो ओदांतपुरी था. मिन्हाज के लिखे में नालंदा का जिक्र नहीं मिलता है. मिन्हाज के अलावा समसामयिक दस्तावेजों की बात करें तो धर्मस्वामिन के लिखे में नालंदा का जिक्र मिलता है. 

ये एक तिब्बती भिक्षु थे. और 1236 ईस्वी के आसपास इन्होंने नालंदा की यात्रा की थी. धर्मस्वामिन ने अपने वृतांतों में लिखा है कि तुर्क हमलावरों ने बिहार में बौद्ध मठों और विहारों को काफी नुकसान पहुंचाया. मठों को तोड़कर उनके पत्थर गंगा में फेंक दिए गए. किताबों और ग्रंथों का भी यही हाल हुआ. अपने वृतांतों में धर्मस्वामिन लिखते हैं कि 1235 ईस्वी में नालंदा वीरान हो गया था. धर्मस्वामिन ने अपने लिखे में नालंदा की विशाल लाइब्रेरी का जिक्र नहीं किया है. जिससे पता चलता है कि उसे पहले ही नष्ट कर दिया गया था. 

धर्मस्वामिन के अनुसार बख्तियार खिलजी की मौत के कई साल बाद नालंदा पर एक और आक्रमण हुआ था. जिसके बाद नालंदा लगभग पूरा खाली हो गया. तुर्क आक्रमणों के चलते बौद्ध भिक्षुओं में डर बैठ गया था. जिसके बाद ये इलाका खाली कर दिया गया. 

अभी तक आपने जो पढ़ा, वे बातें बख्तियार खिलजी के काल के नजदीक के सोर्स बताते हैं. हालांकि नालंदा के बारे में एक और सोर्स है, जो नालंदा के जलने की एक दूसरी कहानी बताता है. तिब्बती लामा, तारानाथ के लिखे अनुसार एक बार दो ब्राह्मण भिक्षुओं ने तंत्र सिद्धि हासिल कर नालंदा की लाइब्रेरी को जला दिया था. इसी तरह 'पग सम जोन ज़ैंग' नाम का एक तिब्बती सोर्स भी इसी तरह की एक कहानी बताता है.  

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साल 2014 में इंडियन एक्सप्रेस के एक कॉलम में इतिहासकार द्विजेन्द्र नारायण झा भी इन्हीं दोनों सोर्सेस को क्वोट करते हैं. उनका दावा है कि चूंकि दो सोर्स एक सी कहानी बताते हैं इसलिए ये वाली कहानी ज्यादा प्रामाणिक है. हालांकि एक सच ये भी है कि चाहे वो तारानाथ हों या और तिब्बती सोर्स, ये सब 17वीं-18वीं सदी के आसपास के हैं. यानी नालंदा के नष्ट होने के काफी बाद के. इसलिए इनकी प्रमाणिकता पर भी पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता. 

असलियत जो भी हो. इतना सच है कि 12वीं सदी के बाद नालंदा समय की गर्त में खोता चला गया और उसका नामोनिशान पूरी तरह गायब हो गया. इसके 600 साल बाद 19वीं सदी में अंग्रेज़ों के समय में नालंदा की खोज एक बार फिर हुई. आजादी के बाद 1951 में पुराने नालंदा के पास नव नालंदा महाविहार की नींव रखी गई. 2006 में इसे यूनिवर्सिटी का दर्जा मिला. हालांकि यहीं से कुछ विवादों की शुरुआत भी हुई. 

साल 2006 में बिहार सरकार की अगुवाई के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन को नालंदा मेंटर ग्रुप का अध्यक्ष बनाया. 2010 में नालंदा के नए परिसर के लिए 2000 करोड़ की रकम भी स्वीकृत हुई. 2012 में अमर्त्य सेन को नालंदा यूनिवर्सिटी का पहला चांसलर बनाया गया. सितंबर 2014 में यूनिवर्सिटी का पहला सत्र शुरू हुआ. लेकिन दो साल बाद ही अमृत्य सेन ने खुद को नालंदा गवर्निंग बोर्ड से अलग कर लिया. ये मामला तब काफी चर्चित हुआ था. अमृत्य सेन ने आरोप लगाया था कि बीजेपी की सरकार नहीं चाहती कि वे चांसलर रहें.

नालंदा के नए परिसर का जो प्रोजेक्ट पास हुआ था, उसके 2020 में पूरा हो जाने की उम्मीद थी. लेकिन कोविड के चलते निर्माण के काम में देरी हो गई. फिलहाल नए परिसर के निर्माण का काम पूरा हो चुका है. प्रधानमंत्री मोदी उद्घाटन कर चुके हैं. उम्मीद है ये विश्वविद्यालय एक बार फिर शिक्षा देने के मामले में उसी शिखर तक पहुंचेगा, जहां पुराना नालंदा हुआ करता था.

वीडियो: अरविंद केजरीवाल ने गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में क्यों हाथ जोड़ लिए?

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