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लोग कोरोना की वैक्सीन लेने से परहेज़ क्यों कर रहे हैं?

जानिए 'वैक्सीन' की शुरुआत का क़िस्सा.

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भारत में जल्द ही वैक्सीनेशन की प्रक्रिया शुरू होने वाली है. इसके लिए खासतौर पर cowin नाम प्लेटफॉर्म तैयार किया गया.
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स्वाति
23 दिसंबर 2020 (Updated: 23 दिसंबर 2020, 01:26 PM IST) कॉमेंट्स
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कोरोना, पैनडैमिक, लॉकडाउन. इस बरस हमारा अस्तित्व इन्हीं शब्दों के इर्द-गिर्द घूमता रहा. कोविड के चलते दुनिया में 17 लाख से ज़्यादा लोग मारे गए. आठ करोड़ लोग संक्रमित हुए. इस वैश्विक बर्बादी को रोकने के लिए हम सबकी इंद्रियां एक ही शब्द जप रही हैं- वैक्सीन, वैक्सीन.
लेकिन हमारे बीच कई ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें वैक्सीन नहीं चाहिए. इनमें से कुछ को लगता है कि वैक्सीन लगवाना पाप है. कुछ को वैक्सीन में इस्तेमाल किए गए कुछ प्रॉडक्ट्स पर धार्मिक आपत्ति है. कुछ ऐसे हैं, जिनको बीमारी ईश्वर की देन लगती है. कई ऐसे भी हैं, जिन्हें वैक्सीन में साज़िश नज़र आती है. इन लोगों के चलते कोरोना के खिलाफ़ चल रही ग्लोबल फाइट के प्रभावित होने का अंदेशा है. इसीलिए कई सरकारें धार्मिक संगठनों को भरोसे में लेने की कोशिश कर रही हैं. ये क्या मामला है, विस्तार से बताते हैं आपको.
'वैक्सीन' का इतिहास क्या है?
शुरुआत करते हैं एक पुराने क़िस्से से. ये बात है सितंबर 1798 की. इस बरस ब्रिटेन में 75 पन्नों की एक क़िताब छपी. इसका नाम था- ऐन इन्क्वॉयरी इनटू द काउपॉक्स. इसे लिखा था, एडवर्ड जेनर नाम के एक अंग्रेज़ डॉक्टर ने. ये क़िताब मेडिकल इतिहास की सबसे महान उपलब्धियों में गिनी जाती है. क्यों? क्योंकि इसमें एडवर्ड ने एक कुख़्यात बीमारी से बचाव का तरीका बताया था. ये बीमारी थी- चेचक. एडवर्ड ने बताया कि अगर इंसान गायों में होने वाले काउपॉक्स से ख़ुद को संक्रमित कर ले, उसके विषाणुओं से इन्फ़ेक्ट हो जाए, तो वो चेचक से बच सकता है.
एडवर्ड जेनर की किताब.
एडवर्ड जेनर की किताब.


एडवर्ड की बताई इसी राह से दुनिया को मिला चेचक का टीका. ये दुनिया का पहला टीका था. इसका फॉर्म्यूला गाय को होने वाली बीमारी से जुड़ा था. लैटिन भाषा में गाय को कहते हैं- वाक्का. वाक्का को होने वाली काउपॉक्स बीमारी कहलाई वैसिनिया. और उससे इनॉक्यूलेट करके इम्यूनिटी पैदा करने की प्रक्रिया कहलाई, वैक्सिनेशन. और वैक्सिनेशन का ज़रिया कहलाया वैक्सीन.
एडवर्ड ने दुनिया को एक बड़ा तोहफ़ा दिया था. करीब 10 हज़ार ईसा पूर्व से तबाही मचा रहे स्मॉलपॉक्स को हरा दिया था उन्होंने. पता है, ये बीमारी कितनी जानलेवा थी? 18वीं सदी के यूरोप में हर साल तकरीबन चार लाख लोग इस संक्रमण से मरते थे. जो बचते थे, उनमें से एक तिहाई अंधे हो जाते थे. चेहरा बिगड़ जाता था लोगों का. ये सब सुनकर आपको लग रहा होगा कि जनता ने तो एडवर्ड को पलकों पर बिठा लिया होगा? नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ. साल 1858 में प्रिंस अल्बर्ट ने एडवर्ड को सम्मानित करने के लिए लंदन के ट्रफलगर स्क्वैयर पर उनकी एक मूर्ति लगवाई. इसपर इतना हंगामा हुआ कि दो साल बाद ही स्टैचू को वहां से हटाना पड़ा.
चर्च की आपत्तियां
इस हंगामे के पीछे था चर्च. उसके मुताबिक, चेचक ईश्वर की देन था. ये जीवन और मृत्यु तय करने, इंसानों को उनके किए पाप की सज़ा देने का ईश्वरीय तरीका था. इसे किसी टीके से रोकना ईश्वर की मर्ज़ी को पलटने की कोशिश मानी गई. चर्च ने कहा, एडवर्ड ने ईशनिंदा की है. संभ्रांतों को भी एडवर्ड से दिक्कत थी. उनको लगता था, चेचक ज़्यादातर गरीबों को मारता है इसलिए अच्छा है. अगर चेचक न हो, तो लोअर क्लास की संख्या बढ़ जाएगी. टीके से एक आपत्ति ये भी थी कि इसमें एक संक्रमित जानवर का विषाणु इंसान में डाला जाता था. ये आपत्ति रखने वाले इसे इंसानी गरिमा के लिए घृणित मानते थे. उनको लगता था कि टीका लगवाने से खून में ज़हर फैल जाएगा. इंसान पागल हो जाएगा.
चर्च के विरोध के कारण एडवर्ड जेनर की प्रतिमा को हटाना पड़ा.
चर्च के विरोध के कारण एडवर्ड जेनर की प्रतिमा को हटाना पड़ा.


कइयों ने वैक्सीन को स्कैम माना. वैक्सीन का इतना विरोध था कि मांएं अपने बच्चों को साथ लेकर डूब जाती थीं, ताकि बच्चे को टीका न लगवाना पड़े. ऐसे में इंग्लैंड को एक वैक्सिनेशन ऐक्ट लाना पड़ा. इसके तहत, बच्चों को टीका न लगवाने वालों को सज़ा मिलती. इस क़ानून के विरोध में इंग्लैंड में ख़ूब दंगे हुए. जो क़ानून तोड़ते, उन्हें पब्लिक सिलेब्रिटी बना देती.
200 साल बाद भी...
इस बात को 200 साल से ज़्यादा हो चुके हैं. मगर वैक्सीन के शैतानीकरण की वो मानसिकता आज भी कायम है. वैक्सीन विरोधी खेमे में कई तरह के गुट शामिल हैं. इनमें से कुछ प्रमुख श्रेणियां हम ब्रीफ में आपको बता देते हैं-
1. धार्मिक- इस कैटगरी में मुख्यतौर पर तीन धर्मों के मानने वाले हैं. ईसाई, यहूदी और मुस्लिम. 2. राजनैतिक- कई दक्षिणपंथी पार्टियां वैक्सीन को अपने शुद्धतावादी अजेंडे के खिलाफ़ मानती हैं. 3. मनोवैज्ञानिक- इस श्रेणी के लोग वैक्सीन को सरकार और दवा उत्पादक कंपनियों द्वारा तैयार की गई जन-विरोधी साज़िश मानते हैं. मसलन, अमेरिकन ब्लैक कम्यूनिटी के कई लोग. इनके मुताबिक, वैक्सीन के बहाने उनपर कोई ख़ौफनाक प्रयोग किया जा रहा है.
अब इस वैक्सीन विरोधी मानसिकता को कोरोना के संदर्भ में समझते हैं. इसके लिए यूरोप की मिसाल उठाते हैं. यूरोप आमतौर पर सबसे ज़्यादा प्रगतिशील कॉन्टिनेंट माना जाता है. फ़ाइज़र और बायोऐनटेक की जिस कोरोना वैक्सीन को सबसे पहले अप्रवूल मिला, वो भी यूरोप के बेल्ज़ियम में ही बनी. ये वैक्सीन सुरक्षित है, इसकी पुष्टि के लिए कई टेस्ट भी हुए. इसके बावजूद यूरोप की एक बड़ी आबादी वैक्सीन पर भरोसा नहीं कर रही.
Ipsos MORI के सर्वे में चौंकाने वाले नतीजे सामने आए हैं.
Ipsos MORI के सर्वे में चौंकाने वाले नतीजे सामने आए हैं.


लंदन की एक रिसर्च कंपनी है- इप्सोस मोरी. इसके एक हालिया सर्वे के मुताबिक, फ्रांस के करीब 46 पर्सेंट लोगों ने कहा कि वो कोरोना की वैक्सीन नहीं लेंगे. पोलैंड और हंगरी जैसे देशों में भी 40 फीसदी से ज़्यादा जनता ने यही जवाब दिया. यूरोप के ज़्यादातर देशों में इस तरह के वैक्सीन-डाउटर्स की बड़ी संख्या है. अमेरिका का भी यही हाल है. इन देशों में ऐंटी-वैक्सिनेशन कैंप पब्लिक और पॉलिसी, दोनों स्तरों पर काफी मज़बूत है. और इसकी वजह से पूरे अमेरिका और यूरोप की पब्लिक हेल्थ पॉलिसी डैमेज हो रही है.
वैक्सिनेशन न होने से क्या नुकसान हो रहा है?
वैक्सिनेशन की दर सालोसाल गिरती चली जा रही है. खसरा जैसी बीमारियां, जो वैक्सीन के सहारे बड़ी आसानी से काबू की जा सकती हैं, वो पिछले दो दशकों के मुकाबले सबसे ऊंचे स्तर पर हैं. सोचिए, साल 2000 में अमेरिका ने अपने यहां खसरा को पूरी तरह ख़त्म करने का ऐलान किया था. मगर वैक्सीन को लेकर चल रही कन्सपिरेसी थिअरीज़ के चलते इसी अमेरिका के अख़बार 2019 में मीज़ल्स आउटब्रेक की ख़बरों से पटे रहे. इटली जैसे देश, जो अपनी वैक्सिनेशन पॉलिसी के लिए मॉडल माने जाते थे, वहां टीकाकरण करवाने वाले लोगों की संख्या घाना जैसे गरीब देशों से कम हो गई है.
आप पूछ सकते हैं कि हम आज क्यों बता रहे हैं ये सब? क्योंकि 22 दिसंबर को वैटिकन सिटी की तरफ से एक बयान जारी हुआ. इसमें वैटिकन ने कोरोना वैक्सीन को हरी झंडी दिखाई. कहा कि कोरोना वैक्सीन अधार्मिक नहीं है. दुनियाभर के कैथलिक ईसाई बिना डरे ये वैक्सीन लगवा सकते हैं. वैटिकन के इस बयान का बैकग्राउंड जुड़ा है, कोरोना वैक्सीन तैयार करने की प्रक्रिया से.
वेटिकन ने कोरोना वैक्सीन को हरी झंडी दे दी है. पर, इसे लोगों की इच्छा पर छोड़ दिया है.
वेटिकन ने कोरोना वैक्सीन को हरी झंडी दे दी है. पर, इसे लोगों की इच्छा पर छोड़ दिया है.


ख़बरों के मुताबिक, ये वैक्सीन विकसित करने के लिए कुछ शोधकर्ताओं ने कुछ ख़ास तरह की कोशिकाओं का इस्तेमाल किया. इन कोशिकाओं को दशकों पहले गर्भपात करवाए गए भ्रूणों से निकाला गया. चूंकि कैथलिक्स गर्भपात को पाप मानते हैं, ऐसे में वैक्सीन के धार्मिक या अधार्मिक होने का संशय खड़ा हुआ. वैटिकन ने इस संशय पर विचार करके अपना फैसला सुनाया. कहा कि वैक्सीन बनाने के लिए तो गर्भपात नहीं करवाया गया. माने, वैक्सीन और गर्भपात का सीधा कोई कनेक्शन नहीं है. इसीलिए वैक्सीन अधार्मिक नहीं है. मगर ये कहने के साथ ही वैटिकन ने 'धार्मिक चॉइस' वाली बात भी घुसेड़ दी. क्या कहा वैटिकन ने, ब्रीफ में बताता हूं-
कोरोना की वैक्सीन नैतिक तौर पर स्वीकार्य है. हालांकि वैक्सीन लगवाना ऐच्छिक होना चाहिए. इस महामारी को रोकने का फिलहाल कोई और तरीका नहीं मिला है. ऐसे में जनहित के लिए वैक्सिनेशन को रेकमेंड किया जा सकता है. जो वैक्सीन न लगवाना चाहें, उन्हें बहुत सावधानी बरतनी चाहिए कि वो इस संक्रमण को आगे फैलाने का ज़रिया न बनें.
आप कहेंगे, वैटिकन के इस बयान को तवज्जो क्यों मिलनी चाहिए? जवाब है, दुनिया में करोड़ों ईसाई जीने-मरने के सवाल में भी धर्म की बात सुनते हैं. उनका स्टैंड, उनकी मर्ज़ी कोरोना से चल रही ग्लोबल फाइट को प्रभावित कर रहा है. ऐसे में वैटिकन का ये बयान बिल्कुल मायने रखता है.
वैक्सीन से दूरी क्यों?
ऐसा नहीं कि बस ईसाई धर्मावलंबियों को वैक्सीन से आपत्ति हो. इस श्रेणी में यहूदी और मुसलमान भी शामिल हैं. उनकी आपत्ति का आधार है, सुअर. कैसे, बताते हैं. वैक्सीन विकसित करना इकलौती चुनौती नहीं होती. इसका सुरक्षित स्टोरेज़ और ट्रांसपोर्टेशन भी बड़ा ज़रूरी है. इसके लिए स्टेबलाइज़र की ज़रूरत पड़ती है. इन स्टेबलाइज़र्स को बनाने के लिए जेलेटिन का इस्तेमाल किया जाता है.
वैक्सीन को लेकर उपजी धार्मिक धारणाएं भारी पड़ने लगी हैं.
वैक्सीन को लेकर उपजी धार्मिक धारणाएं भारी पड़ने लगी हैं.


जेलेटिन एक तरह का प्रोटीन है. ये प्रोटीन मिलता है गाय और सुअर जैसे जानवरों की चमड़ी और उनकी हड्डियों से. दवा कंपनियां ज़्यादातर सुअर से मिलने वाले जेलेटिन का इस्तेमाल करती हैं. चूंकि यहूदी और मुसलमान, दोनों ही सुअर को धार्मिक तौर पर गंदा समझते हैं, ऐसे में उन्हें वैक्सीन में लगने वाले पोर्क प्रॉडक्ट से भी आपत्ति है.
फ़ाइज़र और मॉडर्ना, इन दोनों कंपनियों का कहना है कि उन्होंने कोविड-19 की अपनी वैक्सीन में सुअर के उत्पादों का इस्तेमाल नहीं किया है. मगर वैक्सीन बना रही सभी कंपनियों के साथ ऐसा नहीं है. इसीलिए यहूदी और इस्लामिक स्कॉलर्स के बीच इन वैक्सीन्स के इस्तेमाल पर लंबी-चौड़ी बहस चल रही है. कुछ कह रहे हैं कि लंबी-चौड़ी रासायनिक प्रक्रिया के बाद सुअर से जेलेटिन तैयार होता है. इसके इस्तेमाल वाली वैक्सीन तो शरीर में इंजेक्ट की जाएगी. सीधे-सीधे मुंह के रास्ते तो खिलाया नहीं जाएगा. ऐसे में इनके इस्तेमाल वाली वैक्सीन लेना हराम नहीं है. ऐसे लोगों का ये भी कहना है कि व्यापक हित की सोचकर वैक्सीन लेना अधार्मिक नहीं माना जाना चाहिए. वहीं एक धड़ा ये भी कह रहा है कि पोर्क तो हर हाल में हराम ही रहेगा.
इंडोनेशिया का झगड़ा
इस्लामिक देशों में भी वैक्सीन का ये मसला काफी बड़ा बन गया है. मसलन, इंडोनेशिया की मिसाल लीजिए. वो मुस्लिमों की आबादी वाला सबसे बड़ा देश है. वहां एक संस्था है- इंडोनेशियन उलेमा काउंसिल. ये काउंसिल बताती है कि कोई उत्पाद हलाल है कि हराम. पोर्क जेलेटिन पर इस काउंसिल को काफी समय से आपत्ति रही है. 2018 में इसी आधार पर इस काउंसिल ने मीज़ल्स और रुबेला वैक्सीन को हराम बता दिया था. इसके बाद इंडोनेशियन उलेमा और धार्मिक नेता लोगों से अपील करने लगे कि वो अपने बच्चों को ये टीके न लगवाएं. नतीजा क्या हुआ? मीज़ल्स प्रभावित देशों में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश बन गया इंडोनेशिया.
मुस्लिमों में भी कोरोना वैक्सीन को लेकर असमंजस बना हुआ है.
मुस्लिमों में भी कोरोना वैक्सीन को लेकर असमंजस बना हुआ है.


इसीलिए कोरोना के टाइम इंडोनेशियन सरकार ने धार्मिक आपत्तियों पर पहले से ही ध्यान दिया. कहा कि कोविड वैक्सीन की खरीद और सर्टिफ़िकेशन प्रक्रिया में इस्लामिक संगठनों को भी शामिल किया जाएगा. इंडोनेशियन सरकार चीन से वैक्सीन खरीद रही है. इस खरीद पर उलेमाओं की मंज़ूरी लेने के लिए सरकार उन्हें भी चीन ले गई. यहां उलेमाओं ने वैक्सीन बना रही कंपनी का इंस्पेक्शन किया. वैक्सीन के ट्रायल का भी मुआयना किया.
हम सोच रहे थे कि कोरोना वैक्सीन आए, तो जान छूटे. मगर यहां तो वैक्सीन आने के बाद भी सौ दर्द हैं. आनंद बख़्शी ने सही लिखा था- दुनिया में कितना ग़म है, मेरा ग़म कितना कम है. सोचिए, वैक्सीन से जुड़ी इन्हीं आपत्तियों के चलते हर साल कितने सारे बच्चे पोलियो का शिकार होते हैं. डफ़थेरिया, मीज़ल्स, टिटनस, काली खांसी जैसी बीमारियां, जिन्हें वैक्सीन लगवाकर आसानी से रोका जा सकता है, अब भी लोगों को शिकार बना रही हैं.
ऐसा नहीं कि बस अशिक्षा और जागरूकता की कमी के चलते वैक्सीन से परहेज हो लोगों को. रिपोर्ट्स बताती हैं कि ऐंटी-वैक्सीन ग्रुप में पढ़े-लिखे लोगों की भी बड़ी संख्या है. आपको याद है, कुछ महीनों पहले सोशल मीडिया पर बिल गेट्स से जुड़ी एक अफ़वाह चली थी. इसके मुताबिक, कोरोना के पीछे बिल गेट्स का हाथ है. ताकि वैक्सीन के बहाने लोगों के भीतर माइक्रोचिप फिट की जा सके. इन अफ़वाहों पर यकीन करने वाले पढ़े-लिखे लोग ही तो थे. आपको सोशल मीडिया पर और भी कई कन्सपिरेसी थिअरीज़ मिल जाएंगी. कुछ कहेंगे कि वैक्सीन बच्चों का मानसिक विकास रोककर उन्हें मंदबुद्धि बना देते हैं. कुछ कहेंगे कि ये एक ख़ास तबके के पुरुषों में मर्दानगी कम कर देता है. कितना बताएं, ऐंटी-वैक्सीन धड़े के पास अंतहीन बेवकूफ़ियां हैं.
जाते-जाते एक क़िस्सा
अब आख़िर में एक और क़िस्सा सुनाता हूं. हमको 'इकॉनमिस्ट' के एक आर्टिकल में एक दिलचस्प कहानी मिली. ये तब की बात है, जब भारत अंग्रेज़ों का ग़ुलाम था. तब अंग्रेज़ यहां भी वैक्सिनेशन प्रोग्राम चलाते थे. इनमें से कई वैक्सीन्स में गाय से लिए गए उत्पादों का इस्तेमाल होता था. इस वजह से धार्मिक हिंदू इन टीकों का विरोध करते थे. ऐसे में एक रोज़ ख़बर आई कि एक पुराना संस्कृत ग्रंथ मिला है. जिसमें लिखा है कि हिंदू चिकित्सकों ने तो सदियों पहले ही टीकाकरण का फॉर्म्यूला खोज लिया था.
ये प्राचीन भारतीय ऐंगल निकलने के बाद लोगों के बीच वैक्सीन का विरोध कम हुआ. बाद में पता चला कि वो जो संस्कृत ग्रंथ मिला था, वो दरअसल मद्रास के एक होटल में तैयार किया गया था. और इसे तैयार किया था ब्रिटिश म्यूज़ियम के एक संस्कृत एक्सपर्ट ने. मतलब समझे. वैक्सीन से जुड़ी हिंदुओं की धार्मिक चिंता मिटाने के लिए अंग्रेज़ों ने प्राचीन ग्रंथ के नाम का फ्रॉड किया था.

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