'बेबी को बेस पसंद' 10 करोड़ से ज्यादा बार देखा गया और ये अच्छा संकेत नहीं
सब बेबीज़ जरूर पढ़ें.
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फोटो - thelallantop
'हिरोइन' शब्द का असल अर्थ है एक फीमेल हीरो. एक औरत जो कहानी का केंद्र हो. जिसके इर्द-गिर्द कहानी गढ़ी गई हो. जो रोल मॉडल हों. मगर हमारी 'हिरोइन' वो होती है जो सुनार की 'सुनारिन' होती है, 'पंडित' की 'पंडिताइन' होती है. यानी एक पुरुष चरित्र का पूरक. पूरक भी नहीं, सप्लीमेंट भर. जो 'हीरो' का चरित्र एस्टेब्लिश करने के लिए रची जाती है.बेबी, जिसे बेस पसंद है, हीरो को उसका फेस पसंद है. कहानी के साथ-साथ फिल्म देखने वाले सब दर्शकों का सिर्फ एक ही मकसद होता है कि हिरोइन किसी तरह हीरो की हो जाए. हम दोनों में मोहब्बत होते देखना चाहते हैं. लेकिन चूंकि हीरो, हीरो है और फिल्म हीरो की है, तो उसकी प्रेमिका का उससे 'पट' जाना उसकी जीत होगी. लेकिन उसकी मुख्य जीत नहीं. उसकी मुख्य जीत विलेन को हराना है. हो सकता है अपनी मां या बहन का बदला लेना हो. हो सकता है कई सताए हुए लोगों का बदला लेना हो. हिरोइन उसके जीवन का हिस्सा रहेगी. उसके जीवन के तमाम पड़ावों के बीच एक पड़ाव.
हम बात कर रहे हैं एक ख़ास किस्म की फिल्मों की. ये खास किस्म की फिल्में जो हीरो का 'माचिज्मो' गढ़ती हैं. जो हमें बताती हैं कि आदर्श पुरुष कैसा होना चाहिए. पुरुष का पौरुष कैसा होना चाहिए. ये पुरुष जो शोषित (गरीब, औरतों, बूढ़े, बच्चों) के लिए लड़ता है. उन्हें ताकतवर विलेन (भ्रष्टाचारी मंत्री, रेपिस्टों, पुलिस वालों और ब्यूरोक्रेसी) से मुक्त कराता है.70, 80 और 90 के शुरुआती दशक का सिनेमा ऐसा ही रहा. फिर सिनेमा डॉमेस्टिक हो गया. प्रेमिका अब हीरो के जीवन का एक पड़ाव नहीं, बल्कि उसके जीवन का मकसद बन गई. लव ट्रायंगल बने, शादियां हुईं, मगर फिल्मों का केंद्र नहीं बदला. हीरो के 'बदले' से केंद्र अब हीरो के 'इश्क' पर शिफ्ट हो गया. मगर केंद्र हीरो ही रहा.https://www.youtube.com/watch?v=TPopE3_ycjM&list=RDTPopE3_ycjM हिरोइनों की फिल्मों में अहम भूमिका रहती है. क्योंकि वो हीरो का चरित्र गढ़ने में मदद करती हैं. उनका होना ये दिखाता है कि हीरो प्रेम भी कर सकता है. वो बाल-बच्चों, परिवार वाला आदमी है. एक परिवार वाला आदमी होना उसे एक नैतिक ऊंचाई देता है. वो दिखाता है कि जो असली पुरुष होता है वो न सिर्फ बीवी और बच्चों की हर छोटी-बड़ी जरूरत का ख़याल रखता है, बल्कि समाज और देश के लिए जान भी दे सकता है. यही तो आदर्श पुरुष होता है, बाहर से सख्त, अंदर से नर्म. जो दुनिया से लड़ जाता है, मगर अपने परिवार की बात पर कमजोर पड़ जाता है. फिल्म की जो हिरोइन होती है वो पति का सपोर्ट सिस्टम होती है. नौकरी नहीं करती, घर पर बच्चों का ख़याल रखती है. एक थके हुए दिन के बाद पति को खाना परोसती है. पति समाज के लिए काम कर सके, इसलिए तमाम बलिदान, तमाम समझौते करती है. हिरोइन हमें आदर्श औरत, आदर्श पत्नी बनना सिखाती है.
बेबी को बेस पसंद है एक उदाहरण है उन तमाम गीतों का जो हीरो के जीवन के एक विशेष फेज में आते हैं. ये हीरो का शुरुआती फेज होता है, लड़कपन का. हीरो का माचिज्मो गढ़ने में जिस एक जरूरी बात का ध्यान रखा जाता है वो ये कि वो 'देसी' होता है. एक देहाती, दिमाग से भोला मगर दिल का सच्चा, अंग्रेजी न जानने वाला पुरुष होता है.

छोरी छोरी हिट सै फायर सैसब लड़कों की डिजायर सैयो चलता फिरता फैसन सो बेबी बिजली की नंगी वायर सैबेबी को बेस पसंद है और लोगों को बेबी. क्योंकि वो बताती है औरत कैसी हो. कैसी दिखे. कैसे कपड़े पहने, कैसे नाचे. किस तरह तेज-तर्रार भी हो और बलिदानी भी. किस तरह प्रेम करे. और जब उसका पति उससे माफ़ी मांगे, तो उसे माफ़ कर दे. पति कितना भी बुरा या अकड़ू हो, उसके ह्रदय परिवर्तन का इंतजार करे. जब तक हमारी एक्ट्रेस 'बेबी' हैं, तब तक 'हिरोइनें' रहेंगी. जिस दिन 'बेबी' होना बंद कर देंगी उस दिन 'हीरो' बन जाएंगी. और फिर कोई करण जौहर ये नहीं कहेगा कि कोई करीना किसी शाहरुख के बराबर पैसे मांग रही थी, इसलिए उसे फिल्म नहीं दी गई.