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'बेबी को बेस पसंद' 10 करोड़ से ज्यादा बार देखा गया और ये अच्छा संकेत नहीं

सब बेबीज़ जरूर पढ़ें.

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प्रतीक्षा पीपी
28 जनवरी 2017 (Updated: 28 जनवरी 2017, 11:47 AM IST) कॉमेंट्स
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'बेबी को बेस पसंद है' - इस गाने को यूट्यूब पर 10 करोड़ से ज्यादा बार देखा जा चुका है. यूट्यूब पर सिर्फ सुनने नहीं, देखने की सुविधा भी होती है. यानी गाने को सिर्फ 10 करोड़ बार सुना ही नहीं, देखा भी गया है. लोगों ने इसे पसंद किया है. लोगों ने ऐसे नाचना चाहा है, ऐसा होना चाहा है. लड़कों ने अनुष्का सी प्रेमिका चाही है, लड़कों ने सलमान से प्रेमी चाहे हैं. https://www.youtube.com/watch?v=aWMTj-rejvc हम लोगों ने अपनी फिल्मों से एक अजीब सा रिश्ता स्थापित किया हुआ है. हमारी अधिकतर फ़िल्में हमारी तरह बिल्कुल नहीं होतीं. जब हम फ़िल्में देखने जाते हैं तो हमें मालूम होता है कि हम फिल्म देख रहे हैं. हम फिल्मों से कुछ बड़ा चाहते हैं. कुछ ऐसा जो हम रियल लाइफ में नहीं कर पाते. फ़िल्में हमारे लिए सबसे बड़ा 'एस्केप' होती हैं. मगर एस्केप होते हुए भी हमारे कल्चर और भाषा में गुंथी हुई हैं. इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण हैं हमारे 'हीरो'. हम फिल्मों के हीरो को 'हीरो' बुलाते हैं. यानी वो जो एक्टर हैं, हमारे लिए हीरो होते हैं. हम जिनके जैसा बनना चाहते हैं. हमारे हीरो का कद इतना बड़ा होता है कि हीरो के प्रेम के पात्र को हिरोइन कहा जाता है.
'हिरोइन' शब्द का असल अर्थ है एक फीमेल हीरो. एक औरत जो कहानी का केंद्र हो. जिसके इर्द-गिर्द कहानी गढ़ी गई हो. जो रोल मॉडल हों. मगर हमारी 'हिरोइन' वो होती है जो सुनार की 'सुनारिन' होती है, 'पंडित' की 'पंडिताइन' होती है. यानी एक पुरुष चरित्र का पूरक. पूरक भी नहीं, सप्लीमेंट भर. जो 'हीरो' का चरित्र एस्टेब्लिश करने के लिए रची जाती है.
बेबी, जिसे बेस पसंद है, हीरो को उसका फेस पसंद है. कहानी के साथ-साथ फिल्म देखने वाले सब दर्शकों का सिर्फ एक ही मकसद होता है कि हिरोइन किसी तरह हीरो की हो जाए. हम दोनों में मोहब्बत होते देखना चाहते हैं. लेकिन चूंकि हीरो, हीरो है और फिल्म हीरो की है, तो उसकी प्रेमिका का उससे 'पट' जाना उसकी जीत होगी. लेकिन उसकी मुख्य जीत नहीं. उसकी मुख्य जीत विलेन को हराना है. हो सकता है अपनी मां या बहन का बदला लेना हो. हो सकता है कई सताए हुए लोगों का बदला लेना हो. हिरोइन उसके जीवन का हिस्सा रहेगी. उसके जीवन के तमाम पड़ावों के बीच एक पड़ाव.
हम बात कर रहे हैं एक ख़ास किस्म की फिल्मों की. ये खास किस्म की फिल्में जो हीरो का 'माचिज्मो' गढ़ती हैं. जो हमें बताती हैं कि आदर्श पुरुष कैसा होना चाहिए. पुरुष का पौरुष कैसा होना चाहिए. ये पुरुष जो शोषित (गरीब, औरतों, बूढ़े, बच्चों) के लिए लड़ता है. उन्हें ताकतवर विलेन (भ्रष्टाचारी मंत्री, रेपिस्टों, पुलिस वालों और ब्यूरोक्रेसी) से मुक्त कराता है.70, 80 और 90 के शुरुआती दशक का सिनेमा ऐसा ही रहा. फिर सिनेमा डॉमेस्टिक हो गया. प्रेमिका अब हीरो के जीवन का एक पड़ाव नहीं, बल्कि उसके जीवन का मकसद बन गई. लव ट्रायंगल बने, शादियां हुईं, मगर फिल्मों का केंद्र नहीं बदला. हीरो के 'बदले' से केंद्र अब हीरो के 'इश्क' पर शिफ्ट हो गया. मगर केंद्र हीरो ही रहा.
https://www.youtube.com/watch?v=TPopE3_ycjM&list=RDTPopE3_ycjM हिरोइनों की फिल्मों में अहम भूमिका रहती है. क्योंकि वो हीरो का चरित्र गढ़ने में मदद करती हैं. उनका होना ये दिखाता है कि हीरो प्रेम भी कर सकता है. वो बाल-बच्चों, परिवार वाला आदमी है. एक परिवार वाला आदमी होना उसे एक नैतिक ऊंचाई देता है. वो दिखाता है कि जो असली पुरुष होता है वो न सिर्फ बीवी और बच्चों की हर छोटी-बड़ी जरूरत का ख़याल रखता है, बल्कि समाज और देश के लिए जान भी दे सकता है. यही तो आदर्श पुरुष होता है, बाहर से सख्त, अंदर से नर्म. जो दुनिया से लड़ जाता है, मगर अपने परिवार की बात पर कमजोर पड़ जाता है. फिल्म की जो हिरोइन होती है वो पति का सपोर्ट सिस्टम होती है. नौकरी नहीं करती, घर पर बच्चों का ख़याल रखती है. एक थके हुए दिन के बाद पति को खाना परोसती है. पति समाज के लिए काम कर सके, इसलिए तमाम बलिदान, तमाम समझौते करती है. हिरोइन हमें आदर्श औरत, आदर्श पत्नी बनना सिखाती है.
बेबी को बेस पसंद है एक उदाहरण है उन तमाम गीतों का जो हीरो के जीवन के एक विशेष फेज में आते हैं. ये हीरो का शुरुआती फेज होता है, लड़कपन का. हीरो का माचिज्मो गढ़ने में जिस एक जरूरी बात का ध्यान रखा जाता है वो ये कि वो 'देसी' होता है. एक देहाती, दिमाग से भोला मगर दिल का सच्चा, अंग्रेजी न जानने वाला पुरुष होता है.
हिरोइन तेज-तर्रार, मॉडर्न लड़की है. हीरो का पूरा मकसद उसे इम्प्रेस कर, उसके मुंह से 'हां' कहलवा कर उसे अपने जैसा बनाना होता है. हिरोइन का सफ़र 'नाक पे गुस्सा, होठों पे गाली' से लेकर 'सुशील, कामकाजी, सरल' पत्नी तक होता है. https://www.youtube.com/watch?v=FaS7soRx9kQ हीरो को ये मालूम होता है कि हिरोइन को उससे प्यार है. बस वो कहना नहीं चाहती. वो लड़की है इसलिए शर्माती है. और चूंकि वो लड़की है, प्रेम की पहल लड़के को ही करनी होगी. https://www.youtube.com/watch?v=L5Zy5fiE3Qc हीरो हिरोइन का पीछा कर सकता है, उसके छू सकता है, उसकी कलाई मरोड़ सकता है, कमर में हाथ डाल सकता है. मगर उसकी इस तरह की हरकतें हैरेसमेंट की श्रेणी में नहीं आतीं क्योंकि हमें ये विश्वास दिलाया जाता है कि असल में उसकी नीयत साफ है. हिरोइन भी मुस्कुराकर, हल्की नोक-झोंक से हीरो के हैरेसमेंट को क्यूट बना देती है. मगर असल जिंदगी में किसी लड़की को किसी शादी में लड़का पहली बार मिले और उसका हाथ पकड़ ले, तो शायद इसे हैरेसमेंट कि श्रेणी में गिना जाएगा. https://www.youtube.com/watch?v=A7qQBGfL3i0 कभी-कभी हमें फिल्मों में हिरोइन का कोई बैकग्राउंड मिलता ही नहीं है. क्योंकि फिल्म बनने वालों को उसकी कोई जरूरत ही नहीं लगती. https://www.youtube.com/watch?v=lpdRqn6xwiM मगर इन पुरुष-प्रधान फिल्मों की हिरोइनों के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती. क्योंकि इससे हीरो का चरित्र आधा हो जाता है. हीरो को प्रेम, आंसू, हर तरह की भावनाओं और उसके जीवन के पोलेपन को किसी महिला चरित्र के बिना नहीं दिखाया जा सकता. पौरुष को एस्टेब्लिश करने के लिए जरूरी है उसके विपरीत खड़े स्त्रीत्व को एस्टेब्लिश करना. एक ऐसा सेफ्टी वॉल्व बनाना जहां से हीरो की संवेदनाएं निकल सकें. हमारा हीरो के एक अच्छा व्यक्ति होने पर विश्वास बना रहे. चूंकि बात 'बेबी' की है तो इस बात को देखा जाए कि फिल्म 'सुल्तान' में हिरोइन के किरदार का सफ़र कैसा था? एक स्टेट लेवल रेसलर जो पति की आंखों में आने वाले बच्चे की खुशी देखती है और अपना करियर छोड़ देती है. पति से अलग होने के बाद भी करियर पर वापस नहीं आती है, जब तक पति नहीं चाहता कि वो वापस आए. फिल्म में आरफा त्याग की मूर्ति है. मगर प्रेम करने के पहले की आरफा ऐसी थी:
छोरी छोरी हिट सै फायर सैसब लड़कों की डिजायर सैयो चलता फिरता फैसन सो बेबी बिजली की नंगी वायर सै
बेबी को बेस पसंद है और लोगों को बेबी. क्योंकि वो बताती है औरत कैसी हो. कैसी दिखे. कैसे कपड़े पहने, कैसे नाचे. किस तरह तेज-तर्रार भी हो और बलिदानी भी. किस तरह प्रेम करे. और जब उसका पति उससे माफ़ी मांगे, तो उसे माफ़ कर दे. पति कितना भी बुरा या अकड़ू हो, उसके ह्रदय परिवर्तन का इंतजार करे. जब तक हमारी एक्ट्रेस 'बेबी' हैं, तब तक 'हिरोइनें' रहेंगी. जिस दिन 'बेबी' होना बंद कर देंगी उस दिन 'हीरो' बन जाएंगी. और फिर कोई करण जौहर ये नहीं कहेगा कि कोई करीना किसी शाहरुख के बराबर पैसे मांग रही थी, इसलिए उसे फिल्म नहीं दी गई.

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