जब एक तानाशाह की नफरत से सेकंडों के अंदर हजारों अल्पसंख्यक घिसट-घिसटकर मर गए
हेलबजा में लाशों की गिनती का अनुमान 5000 है. जिम्मेदार का नाम सद्दाम हुसैन.
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दाहिनी तरफ जिस इंसान का चेहरा है, उसकी मौत 1988 में हुए हेलबजा केमिकल अटैक में हुई. मिनटों में हजारों लोग मारे गए. इराक के तानाशाह सद्दाम हुसैन का भाई था अली. इस नरसंहार के पीछे इन्हीं दोनों का दिमाग था.
16 मार्च, 1988. कुर्द इस दिन को 'ब्लडी फ्राइडे' कहते हैं. खूनी शुक्रवार.सुबह के तकरीबन 11 बजे का वक्त.
पिछले दो दिनों से शहर के ऊपर कलपुर्जों से बनी हवाई चिंदियां उड़ रही थीं. लड़ाकू विमान लगातार बम गिरा रहे थे. ऐसा लगता था कि शहर में कोई घर साबुत नहीं बचा. सबमें जख्म है. कोई पूरा ढह गया. किसी की छत गिर गई. किसी की दीवारें. खिड़कियां और दरवाजे तो सबके जाते रहे थे. सुबह के 11 बजे आप क्या करते हैं? शायद दफ्तर में होते होंगे. या फिर काम पर. खेतों में. या फिर घर से काम निपटाते/निपटाती होंगी. लेकिन ये सारी सामान्य चीजें हैं. अगर आपके शहर में जंग छिड़ी हो, तो? हेलबजा भी एक भयंकर लड़ाई का मैदान बना हुआ था. इराक की सीमा पर बसे इस शहर का मानो अहाता ईरान से छूता हो. और इराक और ईरान की लड़ाई छिड़ी हुई थी. 1980 से. आठ साल हो चुके थे इस जंग को. चूंकि पिछले दो दिनों से लगातार बमबारी हो रही थी, सो लोग घरों में थे. कुछ घर के अंदर, कुछ घर के नीचे अंडरग्राउंड जगहों में.

तस्वीर में दिख रहे हैं लुकमान मुहम्मद. ये हेलबजा केमिकल अटैक के पीड़ितों की मदद के लिए बनाए गए एक संगठन के प्रमुख हैं. फोटो में जो घर दिख रहा है, उसको देखकर समझिए. कि इराक ने किस तरह रासायनिक हमला करने से पहले लगातार दो दिनों तक बमबारी की. ताकि घर डैमेज हों. और लोग खिड़की-दरवाजे बंद कर जान न बचा सकें.
चुटकी बजाने से भी कम वक्त में मर गए आसमान में बौखलाए घूम रहे इराकी विमानों ने हमला करना शुरू किया. लेकिन ये हमला बाकी दिनों से अलग था. विमान से कुछ खास चीजें नीचे गिराई गईं. और उनके नीचे आते ही लगा कि जैसे पूरे शहर का दम घुट गया हो. जैसे जोंक पर नमक डालते ही वो गल सा जाता है, मानो वैसा ही हाल लोगों का हुआ. लोग सेकंडों में मर गए. कुछ तो ऐसे भी मरे कि खाने का निवाला मुंह में डाला. और उसे चबाने के लिए मुंह चलाना शुरू किया. जबड़े दाईं ओर घूमे. और इससे पहले कि बाईं ओर आ पाते, इंसान मर चुका था. कुछ ऐसे भी मरे कि किसी हंसने की बात पर मुंह खोला. और इससे पहले कि कंठ के भीतर से हंसी की आवाज निकलती, इंसान मर चुका था. वो आवाज कंठ के मुहाने पर पहुंची ही थी कि जान निकल गई. अभी जिंदगी थी. अभी जिंदगी निकल गई. उस दिन वो पूरा शहर लाशों से पट गया. इधर-उधर, जिधर देखो उधर, सब जगह लाशें. बेतरतीब बिखरी हुईं. कई ऐसे भी थे, जो मरते-मरते नहीं मरे. वो घिसटते-घिसटते शहर से बाहर भागे. और रास्ते में मरते चले गए.

तस्वीर में तीन लोग हैं. एक औरत, जो जिंदा है. और दो बच्चे, जो फ्रेम में बंद हैं. वो दोनों बच्चे इस हमले का शिकार हुए थे. ये औरत उनकी मां है.
सबसे क्रूर हमलों में से एक ये तारीख हमारे इतिहास की सबसे स्याह तारीखों में गिनी जाती है. आधुनिक दौर के सबसे क्रूर हमलों में से एक. ये केमिकल अटैक था. रासायनिक हमला. विज्ञान की जैसी प्रयोगशालाओं ने हैजा और प्लेग की दवाएं बनाईं, वैसी ही प्रयोगशालाओं में बने केमिकल हथियार थे ये. इराकी सेना ने बेहद खतरनाक मस्टर्ड गैस को उस शहर की हवा में घोल दिया था. मस्टर्ड गैस भारी होती है. हवा से भारी. तो वो ऊपर नहीं उठ पाती. नीचे बैठ जाती है. ऐसे बैठती है कि जमीन में, पानी में सब जगह जम जाती है. रिस-रिसकर जमीन की अंदरूनी परतों में चली जाती है. लेकिन हमले के लिए बस इस जहरीले केमिकल का इस्तेमाल नहीं हुआ. बेहद मारक और जानलेवा सरीन नर्व एजेंट का भी इस्तेमाल किया गया था. ईरान-इराक युद्ध के दौरान कई केमिकल अटैक हुए. उन सबमें सबसे भीषण ये हेलबजा नरसंहार था.

फरहांज अब्दी, जिन्होंने बुर्का पहना हुआ है. उनके पति नादिर बिस्तर पर लेटे हैं. ईरान-इराक युद्ध के दौरान हुए एक केमिकल हमले का शिकार हुए थे ये. उसका असर अब तक नहीं गया. इन्हें अक्सर सांस लेने में परेशानी होती है. ये ऑक्सिजन सिलेंडर उनकी जान बचाता है. नादिर अकेले ऐसे पीड़ित नहीं हैं. सैकड़ों हैं उनके जैसे.
साइनाइड की बारिश हुई हो जैसे आपने शायद इन दोनों का नाम नहीं सुना होगा. लेकिन साइनाइड तो जानते होंगे. तो उस दिन इराकी सेना ने हेलबजा शहर में साइनाइड भी बरसाया था. जिन लोगों पर ये अटैक हुआ, वो आम नागरिक थे. निहत्थे. उनके पास लड़ने को या अपनी हिफाजत करने को कुछ नहीं था. शायद बंद खिड़कियां और दरवाजे उन्हें बचा लेते. ये ही सोचकर इराकी सेना ने पहले दो दिन तक जमकर बमबारी की थी. ताकि सारी खिड़कियां चटक जाएं. ताकि सारे दरवाजे टूट जाएं. कोई कवच ऐसा न बचे निर्दोष लोगों के पास, जिसकी आड़ लेकर वो जान बचा सकें.

ये उन कई कब्रिस्तानों में से एक है, जिसमें हेलबजा केमिकल अटैक के पीड़ितों को दफनाया गया. ईरान-इराक युद्ध के दौरान कई बार रासायनकि हमले किए गए थे.
कोई नहीं जानता, ठीक-ठीक कितने लोग मरे उस दिन उस शहर में कितने लोग कत्ल हुए, इसका कोई ठीक-ठीक जवाब नहीं. हो भी नहीं सकता. क्योंकि उनकी गिनती करने के लिए मोहलत बहुत कम थी. ईरान ने कुछ विदेशी पत्रकारों को यहां पहुंचाया. ताकि वो देख सकें कि उसके दुश्मन इराक ने कितना जघन्य युद्ध अपराध किया है. पत्रकार पहुंचे तो. लेकिन इराकी सेना उनके आने से खुश नहीं थी. उसने पत्रकारों के विमान को निशाना बनाने की भी कोशिश की थी. आशंका थी कि उसके विमान किसी भी पल दोबारा हमला करने को लौटते होंगे. पत्रकारों के पास काम बहुत था, मोहलत कम थी. उन्होंने अनुमान लगाया कि शहर भर में बिछी लाशें 5,000 के करीब होंगी.

ये हैं मेहदी असगरी. ईरान-इराक युद्ध के दौरान हुए एक रासायनकि हमले की चपेट में आ गए थे. इतने साल बाद भी उनके शरीर से उस हमले का असर नहीं गया. केमिकल के कारण बस लोगों की मौत नहीं हुई. कैंसर जैसी कई तरह की जानलेवा बीमारियां हुईं लोगों को.
जो मरे वो मर गए, जो बचे उनका शरीर बीमारियों की फैक्ट्री बन गया लेकिन ये अनुमान था. संख्याएं इससे ज्यादा हो सकती हैं, कम तो कतई नहीं होंगी. इसके अलावा शहर के बाहर भी लाशें बिछी थीं. मगर उनको गिनने का टाइम नहीं था. इसके अलावा करीब 10,000 लोग ऐसे थे जो इस हमले के बाद भी जिंदा बच गए थे. उनके लिए अंग्रेजी वाले इंजर्ड शब्द का इस्तेमाल करते हैं. इंजर्ड, माने घायल. लेकिन हम उन्हें घायल नहीं कहेंगे. क्योंकि इस हमले से बच जाने के बाद उनके शरीर में जो हुआ था, वो कोई छोटा जख्म नहीं था. केमिकल का जहर उनके अंदर घुस गया था. जीन तक. कैंसर, विकलांगता जैसी तमाम बीमारियों की शक्ल में. ये सब वो अकेले नहीं भुगतने वाले थे. आगे पैदा होने वाली उनकी पीढ़ियां भी इन बीमारियों से अछूती नहीं रहने वाली थीं. बाकी मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक नुकसान को तौलने वाला तराजू मिले कहीं, तो उसका भी हिसाब लगा लीजिएगा. हां, मरने वालों में से करीब 75 फीसद औरतें और बच्चे थे.

इनका पूरा परिवार हेलाबजा हमले में मारा गया था. उस अटैक का असर अब पैदा हो रही पीढ़ियों में भी दिखता है. केमिकल अटैक का असर दशकों तक बना रहता है. ये जीन्स के अंदर घुसकर अनुवांशिक में पैठ जाता है.
किसने करवाया था ये नरसंहार? एक नाम था सद्दाम हुसैन. इराक का तानाशाह. दूसरा नाम था अली हसन अल-माजिद. अलियास- केमिकल अली. सद्दाम का चचेरा भाई. इराकी सेना का जनरल. इराक की कुर्द आबादी इस अली को अली-अनफाल कहकर बुलाती थी. इस शब्द का एक खास मायना है. इसके बारे में आपको आगे बताएंगे. सद्दाम और अली कुर्दों का सफाया करना चाहते थे. पूरी कुर्दिश आवाम का. हेलबजा जैसे खास कुर्दिश इलाकों में इस तरह का नरसंहार मुमकिन था. क्योंकि इसके शिकार बस कुर्द होने वाले थे. इसी मंशा से हमले के लिए केमिकल हथियारों को चुना गया था.
अल-अनफल: इराक का 'हॉलोकास्ट' हिटलर तानाशाह था. उसको यहूदियों से घृणा थी. उसने यहूदियों को मरवाया. सद्दाम हुसैन तानाशाह था. उसे कुर्दों से घृणा थी. वो उनका सफाया करना चाहता था. 'अल-अनफल' इसी नस्लीय सफाये का प्रॉजेक्ट था. कहते हैं कि 1987-88 के दो सालों में ही सद्दाम ने करीब 3,000 कुर्दिश गांवों को निशाना बनाया. डेढ़ से पौने दो लाख कुर्दों की हत्या कराई.

इराक युद्ध के बाद सद्दाम और उसके सहयोगियों को पकड़ लिया गया. उनके ऊपर मुकदमा चला. उसे मानवता के खिलाफ अपराध करने का दोषी पाया गया. ये उसके खिलाफ चल रही अदालती कार्यवाही के दौरान ली गई एक चर्चित तस्वीर है.
इस केमिकल अटैक का बैकग्राउंड क्या था? 22 सितंबर, 1980 को इराक ने ईरान पर हमला किया. ये लड़ाई आठ साल तक चली. इस समय इराक में सद्दाम हुसैन की सत्ता थी. ईरान में थे अयातुल्लाह खोमैनी. ये दो देशों की लड़ाई से ज्यादा धार्मिक लड़ाई बन गई थी. सद्दाम सुन्नी था. ईरान शिया. कुर्दों की आबादी सद्दाम के शासन से नाखुश थी. उन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा था. तो जब ईरान की फौज इराक में घुस आई, तो इस हेलबजा शहर के कुर्दों ने उनका स्वागत किया था. उनकी बढ़त पर खुशी जताई थी. सद्दाम इस शहर को मजा चखाकर तमाम कुर्दों को संदेश देना चाहता था. कि बगावत का अंजाम कितना बुरा हो सकता है. ईरान-इराक की इस लड़ाई में दस लाख से ज्यादा लोग मारे गए. ढाई लाख के करीब इराकी मरे. ईरान को जान-माल का ज्यादा नुकसान हुआ. सद्दाम की क्रूरता बस ईरानियों और कुर्दों के साथ नहीं थी. जो इराकी सैनिक मुश्किल की घड़ी में जान बचाने के लिए अपनी पॉजिशन छोड़कर भागते, उन्हें खुलेआम गोली मार दी जाती. फांसी पर लटका दिया जाता.
ईरान-इराक युद्ध धर्मयुद्ध था! ईरान और इराक की ये लड़ाई बहुत हद तक पहले विश्व युद्ध जैसी थी. नुकसान बहुत ज्यादा हुआ, लेकिन दोनों पक्षों को हासिल कुछ नहीं हुआ. इराक के मुकाबले ईरान काफी कमजोर था. इस्लामिक क्रांति के बाद पश्चिमी देशों के साथ ईरान के संबंध अच्छे नहीं थे. उसके पास हथियारों की भी कमी थी. जबकि इराक की पीठ पर पश्चिमी देश थे. अमेरिका को लग रहा था कि ईरान पर नकेल कसने के लिए इराक का साथ देना जरूरी है. कहते हैं कि इराक ने ये लड़ाई संसाधनों की बदौलत लड़ी. और ईरान ने ये लड़ाई धार्मिक मंसूबों की मदद से लड़ी. उन्होंने इसे धर्मयुद्ध की तरह लिया. धर्मयुद्ध में शामिल होने वाले खुद को जिहादी हो मानते हैं. शहीद कहलाते हैं. ईरान न केवल अपनी जमीन बचाने के लिए लड़ रहा था, बल्कि अपने धार्मिक विश्वासों की हिफाजत के लिए भी लड़ रहा था. ये लड़ाई अगस्त 1988 में जाकर खत्म हुई. जब संयुक्त राष्ट्र ने दोनों देशों के बीच संघर्ष विराम कराया. वैसे ईरान इस युद्ध को अपना 'होली डिफेंस' कहता है. माने, पवित्र बचाव. धार्मिक बचाव.

युद्ध के दौरान इराकी सेना द्वारा इस्तेमाल किए गए एक तोप के साथ तस्वीरें खिंचवाती ईरानी महिलाएं. ईरान इस जंग को अपना 'होली डिफेंस' कहता है. यानी ऐसी लड़ाई, जो धर्म की हिफाजत के लिए लड़ी गई थी.
अमेरिका और ब्रिटेन से पूछो, तब कहां थे? अगर ये शोध किया जाए कि दुनिया के कौन से देश सबसे ज्यादा 'मानवाधिकार' शब्द इस्तेमाल करते हैं, तो शायद जबाव होगा अमेरिका और ब्रिटेन. लेकिन दूसरे देशों, दूसरी आबादियों के मानवाधिकार संभालने में दोनों देशों का रिकॉर्ड बहुत खराब है. ऐसा ही एक उदाहरण इस ईरान-इराक युद्ध का भी है. पश्चिमी देश बखूबी जानते थे कि सद्दाम हुसैन की सत्ता किस तरह नरसंहार करवा रही है. कुर्दों के ऊपर हो रहे जुल्मों की भी उनको पूरी खबर थी. लेकिन उस वक्त उन्हें मानवाधिकार से ज्यादा ईरान पर काबू करने की चिंता थी. इसीलिए ये देश सद्दाम हुसैन की मदद कर रहे थे. अमेरिका जैसे देशों को ये भी पता था कि इराक केमिकल हथियारों का इस्तेमाल कर रहा है. लेकिन उन्होंने इसे नजरंदाज किया. अमेरिका में तब रोनाल्ड रीगन राष्ट्रपति थे. रीगन प्रशासन कतई नहीं चाहता था कि ईरान ये लड़ाई जीते. इसीलिए उसने इराक की जमकर मदद की. न केवल पैसे और हथियार दिए, बल्कि खास ट्रेनिंग भी दी. खुफिया जानकारियां मुहैया कराईं. सैटेलाइट की मदद से ईरानी फौज की मूवमेंट इराक को बताते थे. बाद में इसी अमेरिका और ब्रिटेन ने सद्दाम हुसैन को खत्म करने के लिए इराक पर हमला भी किया. तब ऐसा करने में उन्हें फायदा दिखा. और आगे चलकर इसी इराक में इस्लामिक स्टेट (ISIS) से लड़ने को अमेरिका ने कुर्दों की मदद ली.

1988 में हुए इस बेहद क्रूर केमिकल अटैक में मारे गए लोगों की याद में बना स्मारक. ईरान-इराक युद्ध के दौरान कुर्दों के ऊपर खूब जुल्म हुए. हजारों कुर्द गांव उजड़ गए. मारे गए. ये एक भीषण नरसंहार था.
इस नरसंहार को नरसंहार मानने में दुनिया को सालों लग गए कुर्द लगातार मांग करते रहे. कि हेलबजा केमिकल अटैक को नरसंहार घोषित किया जाए. कि इसकी बरसी को 'अंतरराष्ट्रीय केमिकल हथियार विरोधी दिवस' के तौर पर मनाया जाए. कनाडा, नॉर्वे और नीदरलैंड्स जैसे देशों ने इसे जेनोसाइड माना भी. इराकी हाई क्रिमिनल कोर्ट ने 2010 में आकर हेलबजा को नरसंहार मान लिया. ब्रिटिश संसद ने 2013 में आकर इसे नरसंहार का नाम दिया. यूरोपियन संसद ने भी इसे जेनोसाइड माना. मगर अमेरिका ने अब तक ऐसा नहीं किया.

बासिज लड़ाका फौज के सदस्य इराक के साथ युद्ध में मारे गए लोगों के एक स्मारक की ओर जाते हुए. बासिज शिया लड़ाके थे. इराक के साथ लड़ाई में इन्होंने भी हिस्सा लिया था. ईरान के लोग अपने कैलेंडर के आखिरी हफ्ते में अपने 'शहीदों' को याद करते हैं. लोग मिलकर उन जगहों पर जाते हैं, जहां दोनों पक्षों के बीच की सबसे बड़ी लड़ाइयां लड़ी गईं.
अब भी जमीन में बंद जहरीली गैस बाहर निकल आती है हेलबजा केमिकल अटैक को 30 साल हो गए हैं. लेकिन उस हमले का असर नहीं गया. नए पैदा होने वाले बच्चों के शरीर में भी इसका असर दिखता है. कई बार ऐसा होता है कि कोई नई इमारत बनाते समय लोग नींव खोद रहे होते हैं. और जमीन की परतों के अंदर दबी मस्टर्ड गैस निकल आती है. उसका असर अब भी महसूस होता है.

हेलबजा म्यूजियम की एक तस्वीर.
...ताकि सनद रहे यहां नरसंहार और उसमें जान गंवाने, भुगतने वाले लोगों की याद में एक स्मारक है. हेलबजा मेमोरियल. इसके ऊपर करीब 100 फुट ऊंचे दो हाथ बने हुए हैं. ऐसे, जैसे अपने लिए उम्मीदें जमा कर रहे हों. कि शायद कोई आसमानी कृपा ही बरस जाएगी. और इस कौम का संघर्ष खत्म होगा. एक म्यूजियम भी है यहां. इसमें वो दस्तावेज भी है, जिसमें मरनेवाले लोगों का नाम दर्ज है. ये जगह आपको महसूस कराती है. कि रासायनिक हथियार इंसानियत पर कलंक हैं. इन्हें खत्म कर दिया जाना चाहिए. किसी भी तरह की जंग जीतने के लिए इन हथियारों को इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. हालांकि ये अपील मंजूर नहीं हुई. पड़ोस में सीरिया है. वहां भी केमिकल अटैक हुए हैं. हो रहे हैं. शायद आगे भी होते रहेंगे. लगता नहीं कि नरसंहारों के अतीत से कोई सबक लेगा.

अपने बेटे की तस्वीर लेकर कब्रिस्तान में बैठे एक बुजुर्ग. इनका बेटा 16 मार्च, 1988 को हुए इसी केमिकल अटैक में मारा गया था.
कुर्दिश प्रांतीय सरकार (KRG) ईरान-इराक युद्ध और खासतौर पर इस हेलबजा केमिकल अटैक के कारण बना KRG. 1992 में. सद्दाम हुसैन के ऊपर अंतरराष्ट्रीय दबाव था. उत्तरी इराक के कुछ कुर्दिश-बहुल इलाकों को मिलाकर बनी कुर्दिश रीजनल गवर्नमेंट. इराक के अंदर कुर्दों की स्वायत्त सरकार. इराकी कुर्दिस्तान. कुछ अधिकार इनके पास थे. कुछ इराकी सरकार के पास. लेकिन फिर सितंबर 2017 में यहां एक जनमत संग्रह हुआ. अलग कुर्दिस्तान देश की मांग में. इराकी सरकार ने इसे अवैध बताते हुए खारिज कर दिया. विवाद बढ़ा. इराकी फौज ने किरयुक प्रांत पर हमला कर दिया. KRG पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए. इसके ऊपर का हवाई इलाका सील कर दिया. सीमाएं सील कर दीं. बजट घटा दिया गया. मतलब कुर्दों को घुटनों पर लाने की हर मुमकिन कोशिश ली. जबकि कुर्दिश आबादी शुरू से कह रही थी. कि वो हिंसा नहीं, बातचीत से हल निकालना चाहते हैं.

सद्दाम हुसैन की मौत का सर्टिफिकेट. ये हेलबजा स्मारक में रखा हुआ है.
फांसी का दिन 30 दिसंबर, 2006. वो दिन, जब सद्दाम को फांसी दी गई. उसने बंदूक की गोली खाकर मरने की ख्वाहिश जताई थी. लेकिन उसकी बात नहीं मानी गई. उस फांसी की विडियो रिकॉर्डिंग आपको अब भी इंटरनेट पर मिल जाएगी. उसके इर्द-गिर्द लोगों की भीड़ है. सारे शिया. ये लोग अरबी में उसे कोस रहे हैं. तालियां बजा रहे हैं. नारे लगा रहे हैं. सबके चेहरे खुशी से दमक रहे हैं जैसे. और उनके बीच फांसी के तख्ते पर खड़ा है सद्दाम. मरने की घड़ी पास है. और उसके मुंह के कुरान की आयतें निकल रही हैं. वो तेजी-तेजी अपनी प्रार्थना पूरी कर रहा है. जिस घड़ी रस्सी खींची गई, उस घड़ी उसके मुंह से पैगंबर मुहम्मद का नाम निकला था. फिर उसकी सांसें रुक गईं. कुछ चटकने की आवाज आई. उसके गले की हड्डी टूटी थी. कुछ मिनट यूं ही बीत गए. डॉक्टरों ने उसके दिल पर आला रखा. वहां खामोशी थी. धड़कनों का शोर नहीं था. पक्का हो गया कि सद्दाम मर चुका है. फिर फंदे की रस्सी काटी गई. लाश उतारी गई. उसे ताबूत में लिटा दिया गया. मरने से करीब दो घंटे पहले उसने जो मुर्गा-भात खाया था. इससे पहले कि भात के दाने उसकी आंतों में पहुंचते, सद्दाम दुनिया से जा चुका था.
ये दिन अमेरिका की सहूलियत थी. पहले शह दो. मदद करो. और फिर सालों बाद अपना फायदा देखकर नींद से जग जाओ. याद करो कि मानवाधिकार नाम की कोई चीज होती है. और फिर अपने ही बनाए दानव का खात्मा कर छाती चौड़ी करो. कि हमने दुनिया बचाई है. हमने मानवाधिकार बचाया है.
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