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गवर्नर या मुख्यमंत्री, किसके पास है ज्यादा शक्ति?

संविधान ने गवर्नर को राज्य का संविधानिक हेड बनाया है. माने जैसे देश में राष्ट्रपति देश के संविधानिक हेड होते हैं वैसे ही राज्यों के लेवल पर ये पद गवर्नर को मिला है.

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k ponmudy tamil nadu
गवर्नर या मुख्यमंत्री (फोटो- इंडिया टुडे)
8 अप्रैल 2024 (Updated: 8 अप्रैल 2024, 20:37 IST)
Updated: 8 अप्रैल 2024 20:37 IST
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जनता द्वारा चुना गया एक मुख्यमंत्री, एक MLA को अपनी कैबिनेट का हिस्सा बनाना चाहता है. लेकिन बना नहीं पा रहा. और उससे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है. ऐसा क्यों? क्योंकि उस राज्य के गवर्नर ने MLA को मंत्री बनाने से इंकार कर दिया. ये सब हो रहा है तमिल नाडु में. ये कोई पहला किस्सा नहीं है जब तमिल नाडु में मुख्य मंत्री और गवर्नर के बीच कोई डिस्प्यूट है.  और सिर्फ तमिल नाडु ही नहीं, दूसरे कई राज्यों में सरकार और गवर्नर के बीच तनातनी देखने को मिली है. सवाल उठता है कि क्या गवर्नर ऐसा कर सकते हैं? क्या वो सरकार के किसी फैसले को रोक सकते हैं?   
तो समझते हैं कि-
-संविधान ने गवर्नर को कौन सी शक्तियां दी हैं?  
-गवर्नर और मुख्यमंत्री के बीच शक्ति का बंटवारा कैसे होता है? 
-क्या किसी पॉलिटिकल पार्टी से तालुक रखे वाला व्यक्ति गवर्नर बन सकता है?

शुरुआत एक कांसेप्ट से. फेडरलिज्म. एक सोच जो अमेरिका से उठी. कई लोकतांत्रिक देशों ने इससे अपनाने की कोशिश की. क्या है ये फेडरलिज्म? एक ऐसी व्यवस्था जहां केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच ताकत का बटवारा हो. और दोनों एक दूसरे के काम में दखल न दें. कट टू साल - 1949. दिल्ली. इस मुद्दे पर संविधान सभा में विचार विमर्श चल रहा था. भारत में इसे कैसे जोड़ना है. इसी में बात आयी गवर्नर के पद की. गवर्नर का पद देश में आज़ादी से पहले भी था. तब वायसररॉय अपनी प्रसाशनिक सहूलियत के अलग अलग प्रांतों में गवर्नर नियुक्त करते थे. लेकिन अब भारत लोकतंत्र बनाने वाला था. इस लोकतंत्र में गवर्नर की जगह होगी या नहीं और अगर होगी तो गवर्नर के पास कौन सी ताकतें होनी चाहिए इसपर बात हो रही थी. अंततः संविधान ने गवर्नर को राज्य का संविधानिक हेड बनाया है. माने जैसे देश में राष्ट्रपति देश के संविधानिक हेड होते हैं वैसे ही राज्यों के लेवल पर ये पद गवर्नर को मिला है. हालांकि देश में ये पद आज़ादी के पहले भी था. लेकिन आजादी के बाद इसके पीछे एक उदेश्य ये भी था कि अगर कोई भी राज्य सरकार अपनी ज़िम्मेदारी न निभाए तो केंद्र उसके ऊपर एक अंकुश लगा सके. इसलिए किसी राज्य सरकार के बर्खास्त होने में गवर्नर की एक बड़ी भूमिका होती है.यहां उठते हैं दो सवाल
-किसे गवर्नर बनाया जा सकता है ? 
-गवर्नर पद के लिए चुनाव क्यों नहीं होता?
 

गवर्नर बनाने की क्वालिफिकेशन 

संविधान ने आर्टिकल 157 में गवर्नर बनने के लिए 2 क्वालिफिकेशन बताई हैं.

-व्यक्ति भारत का नागरिक होना चाहिए 
-व्यक्ति की उम्र 35 साल से ऊपर होनी चाहिए

लेकिन शुरू से ही गवर्नर की नियुक्ति में 2 रीतियां भी चलती आ रहीं हैं. ये रीतियां संविधान में या किसी कानून में नहीं लिखी हैं. इसके पीछे उदेश्य सिर्फ इतना हैं कि राज्यों में सिस्टम सही तरीके से चले. पहली अगर किसी राज्य के लिए गवर्नर नियुक्त किया जा रहा है तो एक बात का ध्यान रखा जाता है. ये व्यक्ति उस राज्य के बाहर का निवासी हो. जिससे उसके पॉलिटिकल इन्वोल्वेमनेट की गुंजाइश कम हो जाये.
दूसरी बात. राष्ट्रपति गवर्नर की नियुक्ति से पहले उस राज्य के मुख्यमंत्री से सलाह लेते हैं.  ये कन्वेंशन है यानी परंपरा लेकिन ऐसे ऐसा भी कई बार हुआ है जब ये रीतियां फॉलो नहीं की गयी हैं. 
 

गवर्नर का चुनाव नहीं नियुक्ति 

राष्ट्रपति प्रधान मंत्री की सलाह पर राज्यों के गवर्नर को नियुक्त हैं. लेकिन अभी हमने आपको बताया कि जैसे देश के संविधानिक हेड राष्ट्रपति हैं वैसे ही राज्य के संविधानिक हेड गवर्नर है. जब राष्ट्रपति का चुनाव किया जाता है तो फिर गवर्नर का चुनाव क्यों नहीं होता? इसके बारे में भी संविधान सभा में काफी चर्चा हुई. इसके पीछे एक बड़ा कारण था. चलिए समझते हैं. 
चुनाव दो प्रकार के होते हैं. डायरेक्ट और इनडायरेक्ट. डायरेक्ट चुनाव जैसे विधानसभा  और लोकसभा का चुनाव, जिसमें जनता सीधे अपने प्रतिनिधियों को चुनती है. इनडायरेक्ट चुनाव वो होता है जिसमें जनता के चुने हुए प्रतिनिधि वोट करते हैं. जैसे राष्ट्रपति या राज्य सभा का चुनाव. 
संविधान की बहस के दौरान तय हुआ कि गवर्नर पद के लिए इनडायरेक्ट या डायरेक्ट, दोनों तरीके से चुनाव नहीं हो सकता.  क्योंकि अगर गवर्नर जनता द्वारा सीधे चुने जाएंगे, तब मुख्यमंत्री और गवर्नर के बीच वर्चस्व की लड़ाई हो सकती है. और पार्लियामेंट्री सिस्टम या संसदीय प्रणाली में ये तरीका संभव भी नही है. 
रही बात इनडायरेक्ट चुनाव की तो ये स्वाभाविक है. अगर गवर्नर को इनडायरेक्ट तरीके से चुना जायेगा तो उस राज्य के चुने हुए लोग ही वोट डालेंगे. ऐसे में राज्य में जिस पार्टी के पास बहुमत होगा उसकी मर्जी का व्यक्ति गवर्नर बनेगा. ऐसी सिचुएशन में गवर्नर के ऊपर केंद्र का कंट्रोल कम हो जायेगा.

इन कारणों के चलते संविधान सभा ने ये निर्णय लिया कि गवर्नर का चुनाव नहीं होगा. इसके साथ ही गवर्नर को एक फिक्स्ड टेन्योर या कार्यकाल भी नहीं दिया गया. जैसे सरकार, राष्ट्रपति अदि का 5 साल का एक फिक्स्ड टेन्योर होता है. उसके पहले भी वो सरकार गिर सकती है या राष्ट्रपति इस्तीफा दे सकते हैं. लेकिन ये स्पेशल केसेस में होता है. वैसे ही गवर्नर को भी मैक्सिमम 5 साल का कार्यकाल दिया जाता है लेकिन राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के सुझाव पर कभी भी गवर्नर बदले जा सकते हैं.  

राज्यपाल की शक्तियां 

सरल शब्दों में कहें तो जो शक्ति केंद्र के लेवल पर राष्ट्रपति के पास होती है. वही राज्य के लेवल पर राज्यपाल के पास होती हैं.  संसद से पास हुए बिल पर जब तक राष्ट्रपति मोहर नहीं लगाते तब तक वो बिल कानून नहीं बनता है. वैसे ही विधान सभा से पास हुए बिल पर जब तक गवर्नर मोहर न लगाएं तब तक वो बिल कानून नहीं बनता. शक्ति के अलावा राज्यपाल के ऊपर कुछ जिम्मेदारियां भी होती हैं  संविधान का आर्टिकल 163 कहता है-
-एक काउंसिल ऑफ मिनिस्टर्स होंगी यानी मंत्रिमंडल जिसका नेतृत्व मुख्यमंत्री करेंगे. 
-मंत्रिमंडल गवर्नर को अलग-अलग मुद्दों पर सलाह देगा. 
-इस सलाह के हिसाब से राज्य में काम होगा.  
-इसमें एक अपवाद है. गवर्नर चाहें तो मंत्रीमंडल की सलाह न माने और अपने विवेक से भी काम कर सकते है.


शक्ति का संतुलन

राज्यपाल क्या कर सकते हैं. इसे समझने के लिए हमें राष्ट्रपति की शक्ति से तुलना करनी होगी. भारतीय संविधान जब बना था तब केंद्रीय  मंत्रिमंडल राष्ट्रपति को जो सलाह देता था, वो उसे मानने के लिए बाध्य नहीं थे. फिर संविधान में 42वां संशोधन हुआ. जिसके तहत मंत्रीमंडल की सलाह राष्ट्रपति के लिए बाध्य हो गयी. हालांकि गवर्नर के साथ ऐसा कोई प्रावधान नहीं है. यानी संविधान के तहत गवर्नर मंत्रीमंडल की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं हैं.  दूसरी बात ये है कि गवर्नर किन मामलों में अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकते हैं,  इसका उल्लेख भी संविधान में नहीं है. राज्यपाल अपने विवेक से फैसला ले सकते हैं. लेकिन इस फैसले के दायरे में क्या क्या आता है, संविधान में इसका उल्लेख जरूर हैं.

इसमें मुख्यतः 2 चीज़े हैं.
गवर्नर किसी भी बिल को खुद रखने की बजाय उस बिल को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं. राष्ट्रपति उसपर विचार करते हैं, और राष्ट्रपति चाहे तो मोहर लगाए या बिल को रिजेक्ट कर दें. दूसरी और बड़ी ताकत है, राष्ट्रपति शासन लगवाने की ताकत. गवर्नर चाहें तो राष्ट्रपति कोप्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगवाने की सलाह भी दे सकते हैं. यानी एक तरीके से राज्य सरकार का जीवन गवर्नर के हाथ में होता है.

गवर्नर के पास एक और ताकत है. जिसकी जरुरत यूं कम पड़ती है. लेकिन ये शक्ति होती है गवर्नर के पास ही. ये शक्ति है - मुख्यमंत्री का चयन. 
आम तौर पर जिस पार्टी को बहुमत मिलती है. उस पार्टी के नेता मुख्यमंत्री बनते हैं. लेकिन कभी कभी पेंच फंस  जाता है. जब किसी को बहुमत नहीं मिलती. तब ये फैसला गवर्नर के हाथ में होता है कि वो किसको सरकार बनाने का मौका देंगे या फिर बहुमत न होने पर विधान सभा डिसॉल्व कर देंगे. इसके अलावा गवर्नर के पास एक और शक्ति भी है. वो विधान सभा से पास हुए बिल को नकार सकते हैं या उसे पास ही रख सकते हैं.  

आपने देखा कि संविधान के तहत राज्यपाल को क्या शक्तियां दी गई हैं. इसी के चलते इतिहास कई बार मुख्यमंत्री और गवर्नर के बीच तनाव पैदा हुआ है. और कई  मामले तो ऐसे भी देखे गए जब गवर्नर ने अपनी शक्तियों का इस्तेमाक केंद्र में बैठी सरकार को फायदा पहुंचने के लिए किया. कैसे इसको भी समझते हैं 
 

1. S.R. बोम्मई केस 

पहला केस है S.R. बोम्मई केस.  साल था 1989. SR बोम्मई उस वक्त कर्नाटक के मुख्य मंत्री थे. प्रदेश में जनता दल की सरकार थी. कुछ ऐसे हालात बने कि अप्रैल 1989 में कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. वजह क्या थी? सरकार को इस बात पर बर्खास्त किया गया कि उनके पास सदन में बहुमत नहीं था.  SR बोम्मई ने तत्कालीन गवर्नर को संकल्प पत्र सौंपा. जिसे अनुसार उनके पास सदन में बहुत हासिल करने को पर्याप्त विधायक थे. लेकिन गवर्नर ने उन्हें सदन में बहुमत सिद्ध करने का मौका नहीं दिया. बल्कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया
ये इकलौता मौका नहीं है. 1966 से लेकर 1977 तक केंद्र में बैठी इंदिरा सरकार ने अलग अलग राज्यों में कुछ 39 बार राष्ट्रपति शासन लगाया था. विपक्षी राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने का एक साफ़ पैटर्न लम्बे समय तक भारतीय राजनीति में नज़र आया. इस रीति में बदलाव आया साल 1994 में.  सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संविधानिक बेंच ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया. जिसके बाद से राष्ट्रपति शासन लगाने के मामलों में बहुत कमी आई.

 क्या था फैसले में?

सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि अब राष्ट्रपति शासन सिर्फ तब लगाया जा सकता है, जब ये संसद के दोनों सदनों से पारित हो. जब तक ये प्रस्ताव दोनों सदनों से पारित नहीं होता तब तक विधान सभा को बर्खास्त नहीं सिर्फ सस्पेंड किया जाएगा. अगर 2 महीने के भीतर ये प्रस्ताव संसद से पारित नहीं हुआ तो राज्य सरकार का सस्पेंशन हटा दिया जाएगा.

2.सरकार बनाने में रोल

साल 2019, महाराष्ट्र में चुनाव हुए. चुनाव के नतीजे आने के बाद बीजेपी और शिव सेना का गठबंधन टूट गया. विधान सभा में किसी के पास बहुमत नहीं थी. शिवसेना, NCP और कांग्रेस के साथ गठबंधन करके सरकार बनाना चाहती थी. लेकिन सुबह 5:30 बजे तत्कालीन गवर्नर ने देवेंद्र फडणवीस को CM पद और अजीत पंवार को डेप्युटी CM की शपथ दिलवा दी. शिवसेना, NCP और कांग्रेस इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए. उनका कहना था कि बहुमत उनके पास है. बाद में कोर्ट का फैसला आया जिसमें जल्द से जल्द फ्लोर of the house पर बहुमत सिद्ध करने की बात हुई. लेकिन बहुमत सिद्ध करने से पहले देवेंद्र फडणवीस ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया.

3. बिल पर मोहर न लगाना

विपक्षी पार्टियां की जिन राज्यों में सरकार है. वहां एक चीज बार बार देखने को मिल रही है. उन राज्यों के गवर्नर कई बिल पर मोहर नहीं लगा रहे हैं. पंजाब, तमिल नाडु, केरल जैसे राज्यों से ये खबरें आती रहती हैं. केरल के गवर्नर ने पिछले साल 7 बिल राष्ट्रपति को रेफेर कर दिए हैं. तमिल नाडु में भी कुछ बिल गवर्नर के पास मोहर लगने का इंतजार कर रहे हैं. पंजाब में भी राज्य सरकार को इसी समस्या का सामना करना पड़  रहा था. जिसके लिए पंजाब की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. 
स्टेट ऑफ़ पंजाब vs प्रिंसिपल सेक्रेटरी टू द गवर्नर केस, 2023. CJI DY चंद्रचूड़ की अध्यक्षता की बेंच ने कुछ सख्त टिप्पणियां की और इस केस के ऐतिहासिक फैसले ने इस डिस्प्यूट को काफी हद तक सॉल्व कर दिया. इसमें मोटा मोटी बात ये हुई कि सुप्रीम कोर्ट ने ये एक क्लियर आदेश दिया. गवर्नर की शक्तियां चुनी हुई सरकार से ऊपर नहीं हैं. या तो गवर्नर बिल पर मोहर लगाएं या फिर इस विधान सभा वापस भेज दें. यू बिल को लम्बे समय तक रोकना जायज नहीं है. 
 

4. हालिया डिस्प्यूट 


K पोनमुडी तमिलनाडु सरकार में दिसम्बर 2023 तक उच्च शिक्षा मंत्री थे. पहले भी अपनी एक टिप्पणी जिसमें उन्होंने पानी-पूरी बेचने वालों का मज़ाक उड़ाया था, उसकी वजह से भी चर्चा में रहे. पोनमुडी पर एक केस चल रहा था, आय से अधिक संपत्ति का. ईडी ने उनके ठिकानों पर छापा मारकर 41.9 करोड़ की संपत्ति भी जब्त कर ली थी.  दिसम्बर 2023 में मद्रास हाई कोर्ट ने उनके मामले में सुनवाई करते हुए फैसला सुनाया और निचली अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें उन्हें बरी किया गया था. हाई कोर्ट ने पोनमुडी को चार साल की सज़ा सुनाई. अब चूंकि सज़ा दो साल से अधिक थी इसलिए पोनमुडी की विधायकी भी चली गई. फिर 11 मार्च 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने पोनमुडी की चार साल की सज़ा पर रोक लगा दी. यानी पोनमुडी अब वापस से विधायक होने वाले थे. 13 मार्च को पोनमुडी की सदस्यता बहाल कर दी गई. 
चूंकि पोनमुडी पहले मंत्री रहे थे. लिहाजा मुख्यमंत्री एम के स्टालिन उन्हें वापिस कैबिनेट में शामिल करना चाहते थे. लेकिन यहीं पर एक पेंच फंस गया.  तमिल नाडु के गवर्नर आरएन रवि  ये कहकर मना कर दिया कि पोनमुडी की सजा बस निलंबित की गयी है, रद्द नहीं. इसलिए   वो को पोनमुडी को मंत्री पद की शपथ नहीं दिला सकते. इस मामले को लेकर तमिल नाडु सरकार अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है.

इस पूरी बहस में हमें जो एक बात समझ में आती है कि संविधान ने राज्यपाल को पर्याप्त शक्तियां दी हैं. इसी कारण राज्यपाल कई बार अपने विवेक से निर्णय लेते हैं. इसी के चलते विवाद पैदा होता है. लोकतंत्र का मूल मन्त्र है कि चुनी हुई सरकार के पास ज्यादा ताकत होनी चाहिए. किसे मंत्रिमंडल का हिस्सा बनाना है. कौन सा बिल पास करना है. इसकी ताकत और जिम्मेदारी चुने हुए प्रतिनिधियों के पास है. सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में बार बार ये बात दोहराई जाती है. फिर भी राजनीति अपना काम करती है. इसलिए जैसा तमिल नाडु में हो रहा है. ऐसे मामले बार बार देखने को मिलते हैं. 

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