The Lallantop
Advertisement

ये सितमगर कौन था जो ग़ालिब के पीछे ख़ंजर लिए पड़ा रहता था?

हरिशंकर परसाई गालिब के बहुत बड़े फैन थे क्योंकि वो उनका नाम अपनी गजलों में लेते थे.

Advertisement
Img The Lallantop
फोटो - thelallantop
pic
लल्लनटॉप
27 दिसंबर 2020 (Updated: 26 दिसंबर 2020, 05:23 AM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

हरिशंकर परसाई. हिंदी व्यंग्य के वट वृक्ष. ये भारी भारी शब्द लिखते देख लेते परसाई तो हमको कंटाप मार देते. सीधे पॉइंट पर आने वाले आदमी को जब टहलाने लगोगे तो मारेगा नहीं? तो गालिब पर भी परसाई ने लिखा है. आज चचा के बड्डे पर पढ़ो क्या लिख गए हैं.

तमाम दूबों, चौबों, तिवारियों, वर्माओं, श्रीवास्तवों, मिश्रों को चुनौती है -बता दे कोई, अगर ग़ालिब के पूरे दीवान में कहीं किसी का जिक्र हो. कबीरदास ने अलबत्ता हमारे पड़ोसी पाण्डेय जी का नाम लिखा है -"साधो पांडे निपट कुचालि." इससे पांडे जी कबीर से बहुत नाराज है. मगर ग़ालिब ने लगातार दो शेरो में परसाईजी को याद किया है. मुलाहजा हो-

पए -नज्रे करम तोहफा है शर्मे न रसाई काब- खूं -गल्तीदा - ए सद - रंग दावा पारसाई का

न हो हुस्ने तमाशा दोस्त रुस्वा बेवफाई काबमुहरे सद नजर साबित है दावा पारसाई का

मेरा दावा इन शेरो से साबित होता जाता है. कहता हूं सच कि झूठ की आदत नहीं मुझे.

ग़ालिब ने मेरे लिए इतना किया है कि खुदा और प्रेमिका के बाद परसाई को याद किया है. मेरा भी उनके प्रति कुछ फर्ज हो जाता है. मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं की उनकी याद में जलसा कामयाब हो. इस साल टोटल 17215 समारोह ग़ालिब की याद में होंगे. इतने समारोहों के उद्घाटन के लिए इतने साधारण विद्वान नहीं मिलेंगे. पर देश में पंचायती विद्वानो की कमी नहीं है. कल ही एक पंचायती विद्वान का भाषण सुन रहा था. वे कह रहे थे -ग़ालिब? अहा! ग़ालिब महान कवि थे! अहा! ग़ालिब महान शायर थे. अहा! मिर्जा ग़ालिब के क्या कहना है, अहा!'

मैं पंचायती विद्वान की तकलीफ देख बहुत दुखी हुआ. तय किया कि इस तकलीफ को दूर करूंगा. मैं सारे पंचायती विद्वानों के लिए एक नमूने का भाषण लिख रहा हूं जिससे उनकी तकलीफ दूर हो जायेगी, ग़ालिब के समारोह सफल होंगे और ग़ालिब के प्रति मेरा फर्ज भी निभ जाएगा - हक़ तो ये है कि हक़ अदा न हुआ.

जो वेद नहीं पढ़े वे भी वैदिक धर्म को मानते है. जो शास्त्र नहीं पढ़े, शास्त्रों में विश्वास रखते है. जो ग़ालिब को समझते, वही ग़ालिब को समझा सकते है. ग़ालिब ने खुद कहा है.

जो ग़ालिब को नहीं समझे वही उसे सही समझे

अगर ग़ालिब इस उम्दा शेर को अपने गले डालने से इंकार करे तो यह मीर को दे दिया जाए. अगर मीर भी इसका जोखिम न उठाना चाहे तो इसे मेरा ही मान लिया जाए.

इस बुनियाद पर अब भाषण खड़ा होता है.

भाइयों और बहनों

बड़ी ख़ुशी की बात है कि सौ साल पहले ग़ालिब की मृत्यु हो गयी थी. अगर वे सौ साल पहले नहीं मरते, तो आज हमें यहां समारोह करने का सुनहरा अवसर न मिलता. हम ग़ालिब के आभारी है कि उन्होंने हमें ये चांस दिया.

आप पूछेंगे कि ग़ालिब कौन है? यह प्रश्न ग़ालिब के समय में भी लोग पूछते थे. ग़ालिब प्रचार से दूर रहते थे. कोई नहीं जानता था कि ग़ालिब कौन है. ग़ालिब खुद भी नहीं जानते थे कि वे ग़ालिब है. एक दिन एक आदमी ग़ालिब के घर आया था और उसने नौकर से पूछा - क्यों जी यह तो बताओ. ग़ालिब कौन है? नौकर पड़ोसियों के पास जाकर बोला -

पूछते हैं वे कि ग़ालिब कौन हैकोई बतलाओ कि हम बतलाएं क्या?

पड़ोसियों को भी नहीं मालूम था. नौकर ने उस आदमी से कहा- यहां कोई ग़ालिब फालिब नहीं रहता. उधर लकड़ी के ताल पर पूछो. ऐसे थे ग़ालिब. और आज के इन कवियों को देखो जो खुद अपना ढोल पीटते फिरते हैं.

मैं आज आपको एक रहस्य की बात बताता हूं. ग़ालिब शायर थे. शायर ही नहीं, कवि भी थे. मुसलमान जिसे शायर कहते है, हिन्दू उसे कवि कहते है. बात एक ही है - राम कहो चाहे रहीम. मैं तो हिन्दू मुस्लिम भाई भाई का सिद्धांत मानता हूं. हमारे महात्मा गांधी कहा करते थे-

एक साथ मिलकर गाओप्यारा भारत देश हमाराझंडा ऊंचा रहे हमारा.

भाइयों, ग़ालिब विश्व के महान कवि थे. वे विश्व के ही नहीं, भारत के भी महान कवि थे. सिर्फ भारत के ही क्यों उर्दू के भी महान कवि थे. मैं तो उन्हें हिंदी का कवि भी मानता हूं. हिंदी उर्दू में कोई भेद नहीं है. हिन्दू लोग जिसे हिंदी कहते है, मुसलमान उसे उर्दू कहते हैं. सच पूछा जाए तो ग़ालिब महान भारतीय परम्परा के कवि थे, क्यूंकि वे जुआ खेलते थे. हमारे यहां जुआ खेलने वाले को धर्मराज कहते है. ग़ालिब कलयुग के धर्मराज थे.

अब मैं गालिब की शायरी पर प्रकाश डालूंगा. गालिब ग़ज़ल लिखते थे. वे गजल ही नहीं, शेर भी लिखते थे. शेर लिखना बड़ा खतरनाक काम है. ग़ालिब खानदानी सिपाही थे, इसलिए शेर से डरते नहीं थे और उसे लिख देते थे. दुनिया में सिकन्दर सरीखे बहादुर हो गये पर शेर एक भी ना लिख सके. यह तो गालिब का ही दम था. और आज के ये कवि कुत्ते से डर जातें हैं. ये कायर क्या शेर लिखेंगे.

भाइयों, गालिब ने बहुत दुख भोगे. एक कोई गुण्डा तो खंजर लेकर उनके पीछे ही पडा रहता था. उसका नाम 'सितमगर' था. सितमगर नाम का यह गुंडा ग़ालिब को ज़िन्दगी -भर तंग करता रहा. दिल्ली की पुलिस उनसे मिली हुई थी, और उस पर कोई कार्यवाही नहीं करती थी. धिक्कार है चौहान साहब की पुलिस को.

ग़ालिब को पुलिस तंग करती थी. एक दिन वे थककर सड़क पर बैठ गये पुलिस वाला आया और उन्हें उठाने लगा. गालिब ने बडी लाचारी से कहा - 'बैठे हैं रहगुज़र पे हम कोई हमें उठाये क्यों?' पुलिसवाले ने उन्हें घसीटकर किनारे कर दिया. गालिब रोने लगे. किसी राहगीर ने पूछा -"अरे भाई, रो क्यों रहे हो?

ग़ालिब ने जवाब दिया -"रोयेंगे हम हजार बार कोई हमें सताए क्यों?" यानी अगर पुलिसवाला हमें सताएगा, तो हम क्यों नही रोयेंगे!

दिल्ली में दूसरे शायर ग़ालिब को द्वेष कारण तंग करत थे. वे ग़ालिब की बदनामी के लिए कविताएं लिखत थे और उन्हें फैलाते थे. एक शायर कहता था कि दिल्ली में गालिब की आबरू ही नहीं है. वह लिखता हैं -

बना है शह का मुसाहिब फिरे है इतरायावगरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है

जरा सुनिए, ये बदमाश कैसी कैसी बाते उस महान कवि के बारे में करते थे

काबा किस मुंह से जाओगे गालिबशर्म तुमको मगर नहीं आती

ये दिल जले कवि सम्मेलनों में ग़ालिब को अपने लोगो से हूट करवाते थे. परेशान हो कर ग़ालिब कलकत्ता के कवि सम्मेलन में चले गए. वहां भी स्थानीय प्रतिभाओं ने उन्हें हूट किया. कलकत्ता में भी वे उखड गए.

ये ऐसे नीच लोग थे कि जब ग़ालिब मर गए प्रशंसक रोने लगे, तो इन्हें बुरा लगा. ग़ालिब के लिए इतने लोग रोये! कलेजे पर सांप लोट गया. कहने लगे-

गालिबे-खस्ता के बगैर कौन से काम बन्द हैंरोइए जार जार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों

आखिर गालिब ने भी इन दुष्टों से निपटने का निश्चय कर लिया. उन्होंने कहा-

कोई दिन गर जिन्दगानी और हैहमने जी में अपने ठानी और है

यानी हमने ठान ली है कि जितनी जिन्दगी बची है, उसमें इन दुष्टों से गिन-गिनकर बदला लेना है.

भाइयों, गालिब के कष्टों का अन्त नहीं था. उन्हें दिल की बीमारी भी थी. उनके हार्ट में हमेशा दर्द होता रहता था और वे इतने परेशान थे कि जो मिलता उसी से पूछते- आखिर इस दर्द की दवा क्या है?' दिल्ली में उन दिनों कोई अच्छा हार्ट-स्पेशलिस्ट नहीं था. उन्होंने कलकत्ता में जांच करायी, दवा भी ली, पर कोई फायदा नहीं हुआ. आखिर निराश होकर उन्होंने कह दिया- 'मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों?"

धिक्कार है हेल्थ मिनिस्टर को! इतने बड़े कवि के इलाज का इंतजाम नहीं कर सके. संसद में इस बात पर किसी को प्रश्न उठाना चाहिए. दिल की ही नहीं, गालिब को पेट की बीमारी भी थी. उनके पेट में दर्द होता रहता था. दिल्ली के एक हकीम से उन्होंने दवा ली थी. एक दिन हकीम पांणी चौक में मिल गये. पूछा -ग़ालिब साहिब, पेट का दर्द कैसा है? गालिब ने जवाब दिया-

दर्द मिन्नतकशे-दवा न हुआमैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

यानी तबीयत में कोई फर्क नहीं है. दर्द जैसा-का-तैसा है. उर्दू साहित्य के एक विद्वान ने खोज की हे कि गालिब के पेट के दर्द का कारण शराब थी. हाय डाक्टर बनर्जी साहब उस वक्त दिल्ली में होते, तो गालिब को अच्छा कर देते. कवि का दुर्भाग्य देखिए कि डाक्टर बनर्जी उनके मरने के बाद पैदा हुए. इसी को विधि की विडम्बना कहते हें.

अब मैं आप को बताता हूं कि मैं गालिब को बड़ा कवि क्यों मानता हूं. दुनिया के किसी कवि ने मरने के बाद कविता नहीं लिखी. गालिब एकमात्र कवि है जिन्होंने मरने के बाद भी कविता लिखी. गेटे, शेक्सपियर, कालिदास, रवीन्द्रनाथ किसी ने भी मरने के बाद एक लाइन नहीं लिखी. पर ग़ालिब मरने के बाद भी लिखते रहे. उन्होंने मरने के बाद अपनी लाश के बारे में यह लिखा-

यह लाश बेकफ़न असद-ख़स्ता जां की हैहक़ मगफरत करे अजब आजाद मर्द था

इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी बता दिया कि वे परदेश में मरे थे, बल्कि मारे गए थे. इस शेर को देखिये-

मुझको दयार ऐ-गैर में मारा वतन से दूररख ली मेरे खुदा ने मेरी बेकसी की शर्म

शासन क्या सो रहा है. वह पता क्यों नहीं लगाता कि परदेश में ले जाकर किसने गालिब को मारा.

भाइयों, अब मैं अत्यन्त भरे हृदय से गालिब का एक संस्मरण सुनाता हूं. शाम उतर रही थी. दिल्ली में हलकी सर्दी पडने लगी थी. मैं चौक में घूम रहा था. मैंने देखा, फर्गुशन साहब की दूकान से गालिब शराब खरीद रहे हैं. मैं उनके पास गया मैंने कहा- 'गालिब साहब, तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता.' गालिब थोडा झेप गये. बोले-' इधर कैसे?" मैंने कहा- 'घंटे वाले हलवाई के बगल की दूकान पर भांग पीने जा रहा हूं. चलिए, आपको भी पिलाऊं.' गालिब मेरे साथ हो लिये. मैंने उन्हें बढिया केसरिया भंग पिलवायी. बाद में उन्होंने कहा भांग तो शराब से भी ज्यादा मजा देती है.' मैंने कहा- यही तो भारतीय संस्कृति का मजा है यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी. इसके बाद मैं जबलपुर आकर रहने लगा. सोचता हूं, यदि मैं दिल्ली में ही रहता तो गालिब की शराब पीने की आदत छुड़ा देता. मगर होता है वही, जो मंजूरे-खुदा होता है.

भाइयों, ऐसे थे गालिब जिनकी शताब्दी आज हम मना रहे हैं.


ये भी पढ़ें:

ग़ालिब हम शर्मिंदा हैं, ग़ज़ल के क़ातिल ज़िंदा हैं

"मेरे प्रेम को समझ नहीं पाई. छोटी जात की थी न. और ये छोटी जात किसी की सगी नहीं होती."

लिख के दे सकता हूं, इस साल का कोहरा हमेशा याद रखा जाएगा

गरीबी को ददवा ने अपने चापट से बोटी-बोटी कर छांट दिया था

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement