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जॉर्ज फर्नांडिस का निधन: वो मजदूर नेता, जिसने इंदिरा गांधी को लोहे के चने चबवाए थे

तीस हजारी कोर्ट के बाहर नारा लग रहा था, "जेल के दरवाजे तोड़ दो, जॉर्ज फर्नांडिस को छोड़ दो."

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विनय सुल्तान
29 जनवरी 2019 (Updated: 28 जनवरी 2019, 04:13 AM IST) कॉमेंट्स
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जॉर्ज फर्नांडिस का निधन हो गया. वो 88 साल के थे. उनकी जीवन यात्रा लोकतंत्र की किताब में एक मुकम्मल पाठ है. हम उसे तीन किस्तों में समेटने की कोशिश कर रहे हैं. दूसरी किस्त आप यहां क्लिक करके
और तीसरी किस्त आप यहां क्लिक करके
पढ़ सकते हैं.


फरवरी 1967 में चौथी लोकसभा के चुनाव होने वाले थे. बॉम्बे साऊथ की सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार थे सदाशिव कानोजी पाटिल. एसके पाटिल का रुतबा बाल ठाकरे जैसा हुआ करता था. उन्हें बॉम्बे का बेताज बादशाह कहा जाता था. वो चार बार बॉम्बे के मेयर रह चुके थे. नेहरू और शास्त्री सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुके थे. उनकी जीत लगभग तय मानी जा रही थी.
सोशलिस्ट पार्टी टूट कर राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में नया दल बना था, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी. 37 साल का एक नौजवान कांग्रेस के इस कद्दावर नेता के खिलाफ चुनाव लड़ रहा था. नतीजे आए और इस नौजवान ने 48.5 फीसदी वोट हासिल कर कांग्रेस के भारी-भरकम पहलवान को धूल चटा दी. यहां से उसे नया नाम मिला, "जॉर्ज दी जाइंट किलर."
पादरी बनने आए थे और...
1967 के चुनाव के बाद जॉर्ज फर्नांडिस की कहानी राजनीतिक इतिहास के पन्नों पर दर्ज है. 3 जून 1930 को मैंगलोर में पैदा हुए जॉर्ज अपने 6 भाइयों में सबसे बड़े थे. 16 साल की उम्र में उन्हें कैथलिक पादरी बनने के लिए बैंगलोर की सेमिनरी में भेजा गया. यहां वो दो साल तक रहे और मुल्क आजाद होने के साथ ही वो भी इस धार्मिक संस्थान से भाग निकले. ईटीवी को दिए इंटरव्यू में जॉर्ज कहते हैं-
"सेमिनरी से मेरा मन उचट गया था. मैं देखता कि पादरी की कथनी और करनी में बहुत फर्क है. यह सिर्फ एक धर्म के साथ नहीं है. दुनियां के तमाम धर्मों में ऐसा देखा जा सकता है."

जॉर्ज फर्नांडिस
जॉर्ज फर्नांडिस

1949 की ठंड में जॉर्ज ने खुद को बॉम्बे की सड़कों पर काम की तलाश में भटकते पाया. वो रात बिताने के लिए चौपाटी के किनारे किसी बेंच पर सो जाते और अक्सर पुलिस कांस्टेबल बीच रात उन्हें वहां से खदेड़ देता. इसके बाद वो कुछ दूर चल कर दूसरी खाली बेंच पर लेट जाते. वही क्रम दोहराया जाता. 19 साल के जॉर्ज को आखिरकार प्रूफ रीडर का काम मिल गया और उन्हें इस झंझट से मुक्ति मिली. बॉम्बे में रहने के दौरान ही वो समाजवादी मजदूर आंदोलन और राम मनोहर लोहिया के संपर्क में आए. 60 के दशक के अंत तक उन्हें बॉम्बे की टैक्सी यूनियन के सबसे बड़े नेता के रूप में पहचान मिल चुकी थी.
1974 की रेल हड़ताल
आजादी के बाद तीन वेतन आयोग आ चुके थे, लेकिन रेल कर्मचारियों के वेतन में कोई दर्ज करने लायक बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी.जॉर्ज नवंबर 1973 को आल इंडिया रेलवे मैन्स फेडरेशन के अध्यक्ष बने. यह तय किया गया कि वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर हड़ताल की जाए. इसके लिए नेशनल कोऑर्डिनेशन कमिटी बनी. 8 मई 1974 को बॉम्बे में हड़ताल शुरू हुई.
ये जॉर्ज का की कामाला था कि टैक्सी ड्राइवर, इलेक्ट्रिसिटी यूनियन और ट्रांसपोर्ट यूनियन भी इसमें शामिल हो गईं. मद्रास की कोच फैक्ट्री के दस हजार मजदूर भी हड़ताल के समर्थन में सड़क पर आ गए. गया में रेल कर्मचारियों ने अपने परिवारों के साथ पटरियों पर कब्ज़ा कर लिया. एक बार के लिए पूरा देश रुक गया.
 
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बोट क्लब मीटिंग में मजदूरों संबोधित करते हुए जॉर्ज

 
सरकार की तरफ से हड़ताल के प्रति सख्त रुख अपनाया गया. कई जगह रेलवे ट्रेक खुलवाने के लिए सेना को तैनात किया गया. एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक हड़ताल तोड़ने के लिए 30,000 से ज्यादा मजदूर नेताओं को जेल में डाल दिया गया. तीन सप्ताह बाद 27 मई को बिना कोई कारण बताए कोऑर्डिनेशन कमिटी ने हड़ताल वापिस लेने का एलान कर दिया. इस तरह देश की सबसे सफल रेल हड़ताल का अंत हुआ.
बाद के दौर में इस बारे में कहा कि हड़ताल में शामिल लोगों अगल-अलग राग अलापने लगे. ऐसे में आंदोलन को आगे ले जाना मुश्किल हो गया था. इस हड़ताल ने दो बड़े बदलाव किए. पहला जॉर्ज देश में फायरब्रांड मजदूर नेता के तौर पर स्थापित हो गए और दूसरा इस हड़ताल ने इंदिरा गांधी को आपातकाल लागू करने के लिए जरूरी तर्क मुहैय्या करवा दिया.
आपातकाल का सरदार खुशवंत सिंह
ये 25 जून 1975 की शाम थी. 45 साल के जॉर्ज फर्नांडिस उड़ीसा के समुद्र तट से लगे मछुवारों के गांव गोपालपुर में थे. वो यहां अपने रिश्तेदारों से मिलने आए हुए थे. उन्हें आपातकाल लगने की सूचना मिली. अपनी पत्नी लैला कबीर के लिए एक चिठ्ठी छोड़ी और बिना देरी किए स्थानीय मछुवारे की तरह एक लुंगी लपेटी और वहां से फरार हो गए. इसके बाद वो लगातार फरार रहे और तमाम जांच एजंसियों के लिए पहेली बने रहे.
अदालत में पेशी के दौरान
अदालत में पेशी के दौरान

 
एक साल की फरारी के दौरान जॉर्ज की दाढ़ी और बाल बढ़ चुके थे. उन्होंने इसका फायदा भी उठाया और वो यात्रा के दौरान सिख का भेष बना लेते थे. जब उनसे नाम पूछा जाता तो वो प्रसिद्द लेखक के नाम पर अपना नाम खुशवंत सिंह बताते. कई बार वो जोगी के भेष में रेल में सफ़र करते. फरारी के दौरान बैंगलोर की जिस होटल में ठहरे हुए थे वहां पर छापा पड़ गया. जॉर्ज उस समय अपनी टेबल पर बैठे थे और चाय टोस्ट ले रहे थे. अफरातफरी के माहौल में उन्होंने आराम से चाय खत्म की और हाथ फोंछ्ते हुए होटल से बाहर निकल गए.

बड़ौदा में डायनामाइट

आपातकाल के दौरान गुजरात इंदिरा विरोधियों के लिए सबसे सुरक्षित ठिकाना हुआ करता था. यहां उस समय जनता फ्रंट की सरकार थी और बाबू भाई पटेल यहां के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. जुलाई 1975 में फरारी के दौरान जॉर्ज बड़ौदा पहुंचे. यहां उनकी मुलाकात दो लोगों से हुई पहले कीर्ति भट्ट से हुई जो उस समय बड़ौदा यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के अध्यक्ष हुआ करते थे. दूसरे थे टाइम्स ऑफ इंडिया के स्टाफ रिपोर्टर विक्रम राव. यहां यह तय हुआ कि आपातकाल की फासीवादी सरकार के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध से कुछ नहीं होगा, हिंसक प्रतिरोध का रास्ता अख्तियार करने का वक्त आ गया है.
विक्रम राव के जरिए जॉर्ज की मुलाकात विरेन जे. शाह से हुई. वो स्थानीय कारोबारी थे. उन्होंने ने वायदा किया किया कि वो डायनामाइट की व्यवस्था करवा देंगे. योजना यह थी कि इंदिरा गांधी की सभा के दौरान पास ही की सरकारी इमारत के टॉयलेट में धमाका किया जाए और अफरातफरी का माहौल बनाया जाए. इस योजना का सबसे महत्वपूर्ण भाग था कि किसी भी आदमी की जान इस धमाके में नहीं जानी चाहिए.
फरारी के दौरान ही जॉर्ज पटना पहुंचे. यहां बिहार के नॉन गजेटेड कर्मचारी यूनियन के तत्कालीन अध्यक्ष रेंवतीकांत सिंहा के घर रुके हुए थे. शिवानंद तिवारी इस घटना को याद करते हुए कहते हैं-
"जॉर्ज का स्वाभाव ऐसा था कि उनके लिए अंडरग्राउंड होकर रहना संभव नहीं था. जल्द ही पुलिस को उनके आने की सूचना मिल गई. पुलिस जब पहुंची तो जॉर्ज तो नहीं मिले लेकिन रेंवतीकांत को पकड़ लिया गया. पूछताछ में रेंवती टूट गए. वो किसी हथियारबंद संघर्ष से निकले हुए आदमी नहीं थे. इसलिए यह स्वाभाविक भी था. उन्होंने पुलिस को बता दिया कि जॉर्ज जब आए थे तो अपने साथ डायनामाइट की पेटी लेकर आए थे. वो पेटी अब उनके घर में गड़ी हुई है." 
इस तरह जॉर्ज और उनके साथियों की इस घटना का भांडाफोड़ हो गया. कुल पच्चीस आदमी इस केस में आरोपी बनाए गए. सीबीआई ने इस मामले को अपने हाथ में ले लिया. रेंवतीकांत समाजवादियों के बीच अछूत हो गए और इसी अवसाद में चल बसे.

तीस हजारी का विद्रोही

यह योजना सरकार के सामने खुल गई और जॉर्ज फर्नांडिस और 24 और लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया. जॉर्ज को किसी दुर्दांत अपराधी की तरह ढूंढा जाने लगा. जॉर्ज को छिपने के लिए सुरक्षित ठिकाने की तलाश थी. इस समय उनकी सिमेनरी की पढ़ाई काम आई. वो कलकत्ता के चर्च में जा कर छुप गए.
10 जून 1976 को उन्हें यहां से गिरफ्तार कर लिया गया. इस गिरफ्तारी ने राजनीतिक माहौल में नया उबाल ला दिया., जॉर्ज को रातोंरात कलकत्ता से दिल्ली लाया गया. जेल से बाहर यह संदेह जताया जा रहा था कि कहीं सरकार जेल के भीतर ही उनकी हत्या ना करवा दे. जर्मनी,नॉर्वे और ऑस्ट्रिया के राष्ट्राध्यक्षों ने इंदिरा गांधी के सामने जॉर्ज की सुरक्षा को लेकर अपनी चिंता जाहिर की.
 
जॉर्ज की वो तस्वीर जो प्रतिरोध का प्रतीक बन गई
जॉर्ज की वो तस्वीर जो प्रतिरोध का प्रतीक बन गई

जॉर्ज फर्नांडिस की सबसे मशहूर तस्वीर आपातकाल के दौरान की ही है. इस तस्वीर में जॉर्ज हथकड़ी में बंद अपने हाथों को उठाए हुए हैं. यह तस्वीर आज भी आपत्काल के खिलाफ खड़े हुए प्रतिरोध का प्रतीक चिंह बनी हुई है. उस समय जॉर्ज के साथी रहे विजय नारायण बताते हैं इस तस्वीर के बारे में बताते हैं कि जब जॉर्ज को बड़ौदा डायनामाइट केस की पेशी के दौरान तीस हजारी कोर्ट में पेश किया गया तो भारी सुरक्षा का इंतजाम था. लगभग 200 पुलिस के जवान उस वैन को घेरे हुए थे जिसमें जॉर्ज को तिहाड़ से तीस हजारी कोर्ट ले जाया जा रहा था. यह तस्वीर उनकी पहली पेशी के दौरान ली गई थी.
जब जॉर्ज को तीस हजारी कोर्ट में उनकी पेशी हो रही थी तो जेएनयू और डीयू के छात्र कोर्ट परिसर के बाहर खड़ी थी. नारे लगाए जा रहे थे, "जेल के दरवाजे तोड़ दो, जॉर्ज फर्नांडिस को छोड़ दो." कॉमरेड जॉर्ज को लाल सलाम."  यहां से जॉर्ज नौजवानों के लिए विद्रोह का आइकॉन बन गए.
वो जेल में था और तस्वीर प्रचार कर रही थी.
1977 में जब आपतकाल हटा तो जॉर्ज मुजफ्फरपुर सीट से चुनाव लड़ रहे थे. बड़ौदा डायनामाइट केस में बतौर आरोपी वो उस समय जेल में थे. उन पर राज्य के खिलाफ युद्ध भड़काने और देशद्रोह के मामलों में मुकदमा कायम किया गया था. चुनाव प्रचार के लिए जमानत नहीं मिली.
मुजफ्फरपुर की जनता ने मतदान से पहले ही उन्हें चुन लिया था. यहां उनकी तीस हजारी कोर्ट की वही प्रसिद्द तस्वीर गलियों में घुमाई जाने लगी. जनता ने खुद पैसा इकठ्ठा करके प्रचार किया. इस चुनाव में जॉर्ज की तरफ से एक नया पैसा खर्च नहीं किया गया था. चुनाव का नतीजा आया. जॉर्ज तीन लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव जीत गए. सत्ता में आई जनता सरकार ने बड़ौदा डायनामाइट केस को खत्म कर दिया. इस सरकार में जॉर्ज उद्योग मंत्री बनाए गए.
इस कहानी की अगली कड़ी में पढ़िए जॉर्ज फर्नाडिस के सत्ता के गलियारों का सफर जोकि गुमनामी की गलियों में खत्म हुआ. 


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