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ज़ुबैर अरेस्ट और उदयपुर हिंसा पर विदेशी मीडिया में क्या छपा?

मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी और उदयपुर हिंसा पर दुनियाभर के अख़बारों ने क्या लिखा?

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What did the newspapers around the world write on the arrest of Mohammad Zubair and the Udaipur violence?
मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी और उदयपुर हिंसा पर दुनियाभर के अख़बारों ने क्या लिखा?
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30 जून 2022 (Updated: 30 जून 2022, 23:51 IST)
Updated: 30 जून 2022 23:51 IST
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हालिया दिनों में भारत से जुड़ी दो ख़बरों ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. पहली ख़बर फैक्ट-चेकिंग वेबसाइट ऑल्ट न्यूज़ के को-फ़ाउंडर मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी से जुड़ी थी. जबकि दूसरी ख़बर का संबंध राजस्थान के उदयपुर से था. उदयपुर में मजहब के नाम पर टेलर कन्हैयालाल का सिर काट दिया गया. इसको लेकर काफ़ी हंगामा हुआ. आज हम पहले विदेशी अख़बारों के पन्ने पलटेंगे. जानेंगे, मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी और उदयपुर हिंसा पर दुनियाभर के अख़बारों ने क्या लिखा? फिर सुनाएंगे, दो पड़ोसियों की कहानी. जो एक-दूसरे को देख लेने पर आमादा है. कहां? युद्ध के मैदान में. ऐसा क्या हुआ कि दो सगे पड़ोसी एक-दूजे के ख़ून के प्यासे हो गए हैं? और जानेंगे, फ़्रांस के आधुनिक इतिहास की सबसे कठोर सज़ा की कहानी क्या है?

पहले बात मोहम्मद ज़ुबैर के अरेस्ट की. 27 जून को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने ज़ुबैर को गिरफ़्तार किया. उनके ऊपर सोशल मीडिया के ज़रिए धार्मिक भावनाएं भड़काने का आरोप था. दिल्ली पुलिस ने उनके जिस ट्वीट पर कार्रवाई की, वो चार साल पुराना था. ज़ुबैर पर इंडियन पीनल कोड (IPC) की धारा 153 और 295ए के तहत कार्रवाई की गई है. धारा 153 दंगे से जुड़े अपराधों में लगाई जाती है. जबकि धारा 295 ए किसी की धार्मिक भावनाओं या जानबूझकर अपमान करने पर लगाई जाती है. 28 जून को दिल्ली की एक अदालत ने ज़ुबैर की कस्टडी दो जुलाई तक के लिए बढ़ा दी है. दिल्ली पुलिस बेंगलुरू में उनकी रिहाइश पर छापेमारी भी कर रही है.

इस घटनाक्रम पर कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (CPJ) ने तीख़ी टिप्पणी की. CPJ पत्रकारों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के लिए आवाज़ उठाती रही है. CPJ के लिए एशिया से जुड़े मामले देखने वाले स्टीव बटलर ने लिखा,

“पत्रकार मुहम्मद ज़ुबैर की गिरफ्तारी दिखाती है कि भारत में प्रेस की आजादी और भी निचले पायदान पर चली गई है. सरकार ने सांप्रदायिक मुद्दों पर प्रेस रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों के लिए शत्रुतापूर्ण और असुरक्षित वातावरण बना रखा है.”

इत्तेफाक ऐसा था कि जिस दिन ज़ुबैर की गिरफ्तारी हुई, उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी G7 समिट में हिस्सा लेने जर्मनी पहुंचे हुए थे. समिट के दौरान G7 देशों ने लोकतांत्रिक मूल्यों को मज़बूत करने संबंधी एक दस्तावेज पर दस्तख़त किए. दस्तख़त करने वालों में प्रधानमंत्री मोदी भी थे. इस दस्तावेज में ये बात भी लिखी थी कि सभी देश प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

अमेरिकी अख़बार द वॉशिंगटन पोस्ट ने सुर्खी लगाई,

Indian Muslim journalist, critic of Modi, arrested over tweets

यानी. भारत के मुस्लिम पत्रकार और मोदी के आलोचक ट्वीट करने के लिए गिरफ़्तार

पोस्ट ने लिखा,

“ज़ुबैर की गिरफ्तारी की टाइमिंग, और उनके ऊपर लगाए चार्जेज़ से ऐसा प्रतीत होता है कि ये सब बदले की कार्रवाई के तहत किया गया है. वो भी ऐसे समय पर जब मोदी सरकार और उनके समर्थक आलोचकों को निशाना बना रहे हैं.”

चर्चित ब्रिटिश अख़बार द गार्डियन ने इस खबर को नूपुर शर्मा के केस जोड़ा. गार्डियन ने लिखा कि इस मुद्दे ने इतना तूल इसलिए पकड़ा क्योंकि ज़ुबैर ने नूपुर शर्मा का वीडियो ट्विटर पर शेयर किया. ट्विटर पर वायरल होने के बाद अरब देशों ने आपत्ति दर्ज़ कराई थी. बवाल बढ़ने के बाद बीजेपी ने नूपुर शर्मा को नवीन जिंदल को पार्टी से निकाल दिया था.

एक और अमेरिकी अख़बार न्यू यॉर्क टाइम्स की सुर्खी है,

Arrest of Journalist in India Adds to Press Freedom Concerns

यानी,

भारतीय पत्रकार की गिरफ़्तारी ने प्रेस की आज़ादी को लेकर चिंता बढ़ाई

NYT ने ये भी दर्ज़ किया कि ज़ुबैर की गिरफ़्तारी में एक सबक छिपा है. ये पीएम मोदी और उनकी पार्टी के हिंदू राष्ट्रवादी नज़रिए के आलोचकों के ख़िलाफ़ चालू व्यापक कार्रवाई का हिस्सा है. अख़बार ने आगे लिखा,
ये बात चौंकाने वाली इसलिए है, क्योंकि उसी समय पीएम मोदी G7 देशों के साथ प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी पर भाषण दे रहे थे.

NYT ने अपनी रिपोर्ट में सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ़्तारी का ज़िक़्र भी किया है. अख़बार ने दोनों की गिरफ्तारी को वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स में भारत की गिरती रैंकिंग से जोड़ा है. गौरतलब है कि प्रेस फ़्रीडम के मामले में भारत 8 अंक गिरकर 150वें स्थान पर पहुंच गया है.

अल-जज़ीरा की सुर्खी है,

India journalist Mohammed Zubair arrested for 2018 Twitter post
2018 में किए ट्वीट के लिए पत्रकार मोहम्मद जु़बैर गिरफ़्तार

अरब न्यूज़ ने सुर्खी लगाई,

Arrest of Muslim Journalist sparks widespread outrage in India
मुस्लिम पत्रकार की गिरफ़्तारी के बाद देशभर में हंगामा

इन सबके अलावा डॉन और सीएनएन ने भी ज़ुबैर की गिरफ़्तारी को प्रमुखता से प्रकाशित किया है.

भारत में हफ़्ते की दूसरी बड़ी घटना राजस्थान के शहर उदयपुर में घटी. 28 जून को उदयपुर में मोहम्मद रियाज अत्तारी और मोहम्मद गौस ने एक टेलर कन्हैयालाल का सिर धड़ से अलग कर दिया. दोनों की नाराज़गी इस बात से थी कि कन्हैयालाल ने नूपुर शर्मा के समर्थन में पोस्ट किया था. राजस्थान पुलिस ने तत्काल कार्रवाई कर दोनों आरोपियों को गिरफ़्तार कर लिया. नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (NIA) आतंकी संगठन वाले लिंक की जांच कर रही है.
उदयपुर हिंसा पर विदेशी अख़बारों ने क्या लिखा?

गार्डियन ने सुर्खी लगाई,

Killing of Hindu tailor prompts internet shutdown in Indian state over unrest fears
हिंदू टेलर की हत्या के बाद तनाव बढ़ा, राजस्थान में इंटरनेट बंद

गार्डियन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि नूपुर शर्मा की बर्खास्तगी के बाद भी विवादित टिप्पणी वाले मामला चर्चा में है. अख़बार ने ध्यान दिलाया कि अगले साल होने राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में ये घटना सांप्रदायिकता को और बढ़ावा दे सकती है.

न्यू यॉर्क टाइम्स  ने सुर्खी लगाई है,

“Religious Unrest Spreads in India With Killing of Hindu Man”

अख़बार ने इस घटना को नूपुर शर्मा के मामले से जोड़ा है. NYT ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है,
“पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी के बाद देश में लगातार तनाव बढ़ रहा था. कन्हैयालाल की हत्या ने आग में घी डालने का काम किया है.”

पाकिस्तानी अख़बार डॉन ने घटना की रिपोर्टिंग के साथ-साथ पाकिस्तान सरकार का रिएक्शन भी प्रमुखता से छापा है. डॉन ने पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के हवाले से लिखा,

“भाजपा की हिंदुत्ववादी सरकार इस हत्या का इस्तेमाल पाकिस्तान के खिलाफ भ्रामक प्रचार करने के लिए कर रही है. पाकिस्तान के किसी संगठन का इस हत्या से कोई लेना-देना नहीं है”

हॉन्ग कॉन्ग से संचालित होने वाले अखबार, साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट ने उदयपुर में हुई हत्या की तुलना फ़्रांस की एक पुरानी घटना से की है. अक्टूबर 2020 में फ्रांस में एक टीचर सैमुअल पैटी की गला काटकर हत्या कर दी गई थी. पैटी ने अपनी क्लास में कथित तौर पर पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाया था. पैटी की हत्या के बाद फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इसे अभिव्यक्ति की आजादी की हत्या करार दिया था. उन्होंने ये भी कहा था कि इस्लाम में सुधार की ज़रूरत है. उनके बयान के बाद मुस्लिम देशों में फ़्रांस के ख़िलाफ़ जमकर प्रोटेस्ट हुए थे.

अल-जज़ीरा ने उदयपुर हिंसा पर छपी रिपोर्ट में जमात-ए-इस्लामी हिंद और असदुद्दीन ओवैसी के बयानों को प्रमुखता से छापा है. दोनों ने इसे इस्लाम के ख़िलाफ़ बताया था. उन्होंने घटना की निंदा भी की थी.

बीबीसी ने इस घटना पर सुर्खी लगाई है,

Rajasthan on edge after Prophet Muhammad row beheading
पैगंबर मोहम्मद विवाद के बीच सिर काटने की घटना के बाद राजस्थान में तनाव.

अब सुर्खियों की बारी.

पहली सुर्खी फ़्रांस से है. पेरिस आतंकी हमले के आख़िरी जीवित हमलावर सलाह अब्देसलाम को आजीवन जेल की सज़ा सुनाई गई है. उसे अंतिम सांस तक जेल में रहना होगा. इस दौरान उसे पैरोल मिलने का चांस नहीं के बराबर है. इसे आधुनिक फ़्रांस के इतिहास की सबसे कठोर सज़ा बताया जा रहा है. फ़्रांस में 1981 में मौत की सज़ा का प्रावधान ख़त्म कर दिया गया था. हालिया फ़ैसले में सलाह के अलावा 19 और लोगों को दो से तीस बरस के बीच की सज़ा दी गई है. 06 को उनकी अनुपस्थिति में सज़ा सुनाई गई है. इन लोगों ने आतंकी हमलों को अंज़ाम देने में मदद दी थी.

पेरिस टेरर अटैक क्या था?

दरअसल, जनवरी 2015 में फ़्रेंच अख़बार शार्ली हेब्दो ने पैगंबर मोहम्मद ने कार्टून पब्लिश किए. इस्लामी जगत में इसकी ख़ूब आलोचना हुई. 07 जनवरी को दो मुस्लिम भाई शार्ली हेब्दो के दफ़्तर में घुसे. उन्होंने गोलीबारी कर 12 लोगों की जान ले ली. इनमें से कई फ़्रांस के सबसे मशहूर कार्टूनिस्ट थे. 11 लोग घायल भी हुए. इस हमले के बाद पूरे फ़्रांस में आतंकी हमलों की सीरीज़ शुरू हो गई. सबसे भीषण हमला 13 नवंबर 2015 को हुआ. इस दिन आतंकियों ने पेरिस में रेस्टोरेंट, बार, स्टेडियम और म्यूजिक कॉन्सर्ट जैसे भीड़भाड़ वाले ठिकानों पर हमले किए. इन हमलों में 130 लोगों की मौत हो गई. जबकि सैकड़ों घायल हुए थे. सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद ये फ़्रांस की धरती पर हुआ सबसे बड़ा हमला था.

पेरिस हमले में मरे लोगों को श्रद्धांजलि देती महिला (AFP)

बाकी हमलावरों ने तो ख़ुद को बम से उड़ा लिया था, लेकिन सलाह बच गया. उसका सुसाइड वेस्ट नहीं फटा. उसे गिरफ़्तार किया गया. बाद में पुलिस ने साज़िश रचने के आरोप में और भी लोगों को पकड़ा. सितंबर 2021 में उनके ऊपर मुकदमा शुरू हुआ. 09 महीनों तक सर्वाइवर्स, पुलिस, पत्रकारों और पीड़ितों के घरवालों ने गवाही दी. कोर्ट की शुरुआती कार्यवाही में सलाह अपने फ़ैसले को सही ठहराता रहा. उसने कहा कि मैं इस्लामिक स्टेट का सिपाही हूं और इस्लाम की रक्षा के लिए कुछ भी कर सकता हूं. बाद में उसका मन बदल गया. उसने अपने किए के लिए माफ़ी मांगी. बोला कि उसने किसी की हत्या नहीं की. उसे सज़ा देना ग़लत होगा. लेकिन अदालत ने उसकी अपील पर ध्यान नहीं दिया. दरअसल, अदालत को जो सबूत मिले थे, उनके मुताबिक, अंतिम समय पर सलाह का कोई हृदय-परिवर्तन नहीं हुआ था. वो बम इसलिए नहीं फोड़ पाया, क्योंकि उसके सुसाइड वेस्ट में खराबी आ गई थी.

हमले के साढ़े छह बरस बाद आतंकियों को सज़ा तो मिल गई है, लेकिन जिन घरों में खालीपन छूट गया, उसकी भरपाई कौन कर सकता है? न्याय की अवधारणा इस मुकाम पर आकर असहाय हो जाती है.

दूसरी सुर्खी अफ़्रीकी महाद्वीप से जुड़ी है. अफ़्रीका के उत्तर में दो देश हैं. सूडान और इथियोपिया. दोनों देशों के बीच सात सौ किलोमीटर लंबी साझा सीमा है. सीमा के निर्धारण को लेकर तो विवाद हमेशा चलता ही रहता है. लेकिन उनके बीच ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा बुझी चिनगारी की तरह काम करता है. ये चिनगारी समय-समय पर सुलगती रहती है. इस टुकड़े को सूडान वाले अल-फशका कहते हैं, जबकि इथियोपिया वाले अलफशगा.

1902 में हुई एक संधि में तय हुआ था कि ये इलाक़ा सूडान का है. लेकिन धीरे-धीरे यहां इथियोपिया के लोग बसते चले गए. ये लोग सूडान के बदले इथियोपिया की सरकार को टैक्स चुकाते थे. यही तनातनी का कारण बना. सूडान की मांग थी कि इथियोपिया के लोग इलाका खाली कर दें. वहीं इथियोपिया का कहना था कि सूडानी फौज उसके नागरिकों का शोषण कर रही है.    

फिर आया साल 2008. इस बरस दोनों देशों के बीच एक और समझौता हुआ. इसके तहत इथियोपिया, अल-फशका को सूडान का हिस्सा मानने के लिए तैयार हो गया, बदले में सूडान ने कहा कि इथियोपिया के लोग इस इलाक़े में रह सकते हैं. जब ये समझौता हुआ, तब इथियोपिया की सत्ता में टिग्रे पीपल्स लिबरेशन फ्रंट (TPLF) नाम का एक संगठन भी शामिल था. जब तक TPLF सत्ता में साझेदार रही, तब तक परिस्थितियां शांतिप्रिय बनी रहीं.  लेकिन 2018 में तख्तापलट हुआ और TPLF इथियोपिया के टिग्रे तक सीमित हो गया. जैसे ही TPLF सत्ता से बेदखल हुई, अल-फशका में रहने वाले लोगों ने आवाज़ उठानी शुरू कर दी. उनका कहना था कि 2008 का समझौता उनकी मर्जी के ख़िलाफ़ हुआ था. इसके बाद सीमा पर लगातार झड़पें होने लगी. फिर सूडान की सेना ने हथियारों के दम पर इलाके को इथियोपिया के लोगों से खाली करा लिया. इससे तनाव और बढ़ गया. दोनों देश इस इलाके पर अपना हक़ जता रहे थे. 2020 में दोनों देश बातचीत की मेज पर बैठे. तय हुआ कि सीमा विवाद को बैठकर सुलझा लिया जाएगा. लेकिन ये संभव होता, उससे पहले ही दूसरा बवाल हो गया.

22 जून को सूडान के सात सैनिकों और एक नागरिक को अगवा किया गया. फिर उनकी हत्या कर दी गई. हत्या के बाद उनकी लाशों को खुले में टांग दिया गया. सूडान का आरोप है कि ये हत्या इथियोपिया की फौज ने की है. इथियोपिया इससे इनकार कर रहा है. उसका कहना है कि सूडान की फौज हमारे इलाके में दाखिल हुई. वहां उनकी मुठभेड़ लोकल गैंग्स से हुई. इथियोपिया ने ये भी कहा कि घटना के वक़्त हमारे सैनिक वहां पर मौजूद नहीं थे.

सूडान इस सफ़ाई से संतुष्ट नहीं हुआ. उनके यहां इथियोपिया के दूतावास के बाहर प्रोटेस्ट होने लगे. सूडान की सेना ने बदला लेने की धमकी भी दी. 28 जून को खबर आई कि सूडान ने इथियोपिया पर हमला किया है. सूडान ने दावा किया कि उसने इथियोपिया के कब्जे वाली जमीन का एक हिस्सा वापिस हासिल कर लिया है.

इथियोपिया का कहना है कि 29 जून की शाम तक सूडान की तरफ़ से भारी बमबारी हुई लेकिन इसमें कोई हताहत नहीं हुआ. इथियोपिया का कहना है कि सूडान उसके यहां गृह युद्ध का फायदा उठाकर अलफशगा पर कब्ज़ा जमा लेना चाहता है.आठ लोगों की हत्या के बाद उसे एक बहाना मिल गया है.  

बढ़ते तनाव के बीच अफ्रीकन यूनियन की तरफ़ से शांति की कोशिशें चल रहीं है. अफ्रीकन यूनियन ने कहा है कि दोनों देश संयम बरतें और बातचीत का सहारा लें. जानकारों का कहना है कि दोनों देश कोरोना महामारी के बाद पैदा हुई समस्याओं से जूझ रहे हैं. उनकी माली हालत पहले से ख़राब हैं. जरा सी चिनगारी कभी भी बड़े युद्ध में तब्दील हो सकती है.
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, सूडान की फौज अभी भी हमले में जुटी है.अलफशगा के आसमान में सूडान के मिलिटरी प्लेन चक्कर लगा रहे हैं. इस मामले में और जो भी अपडेट्स होंगे आप तक पहुंचाते रहेंगे.

आज की तीसरी और अंतिम सुर्खी मेक्सिको से है. 29 जून को मेक्सिको में एक और पत्रकार की गोली मारकर हत्या कर दी गई है. ये 2022 में मेक्सिको में किसी पत्रकार की हत्या का 12वीं घटना है. पत्रकार एंटोनियो डे ला क्रूज़ पर हमला उस समय हुआ, जब वो अपने घर से निकल रहे थे. हमले के वक़्त एंटोनियो की 23 साल की बेटी भी उनके साथ थीं. इस हमले में उन्हें भी चोट आई है. एंटोनियो पिछले 3 दशक से बतौर रिपोर्टर काम कर रहे थे.
मेक्सिको में पत्रकारों पर हमला कोई नई बात नहीं है. मई महीने में वेराक्रूज़ राज्य में दो मेक्सिकन पत्रकारो येसेनिया मोलिनेडो और शीला जोहाना गार्सिया की हत्या कर दी गई थी. मेक्सिको में साल 2000 से अब तक 150 से ज़्यादा पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. इन हत्याओं में सबसे ज़्यादा स्थानीय पत्रकार निशाने पर रहते हैं. ये पत्रकार सामान्य तौर पर बड़े मीडिया संस्थानों से ताल्लुक नहीं रखते हैं. क्रिमिनल गैंग्स के लिए उन्हें चुप कराना ज़्यादा आसान होता है. सरकार भी स्थानीय पत्रकारों की सुरक्षा पर ध्यान नहीं देती है. गार्डियन की रिपोर्ट के अनुसार, आंद्रेस मैनुएल लोपेज़ ओब्राडोर के राष्ट्रपति बनने के बाद इन घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है. ओब्राडोर दिसंबर 2018 में मेक्सिको के राष्ट्रपति बने थे. उसके बाद से पत्रकारों पर होने वाले हमलों की संख्या 85 प्रतिशत तक बढ़ गई है. मेक्सिको में साल 2021 में सात पत्रकारों की हत्या हुई थी. 2022 में पहले छह महीनों में 12 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है.

 

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