काम किए बिना सैलरी मिलने लगे तो?
आज दुनिया जिसे काम कहती है और जिसके लिए आपको पैसा मिलता है, उसकी अवधारणा बदलने की जरूरत है.


विवेक आसरी
यूरोप. दूर. ठंडा. पराया. अतीत को खुरचें तो हम पर कब्जा करने वाला. और पीछे लौटें तो हमें मसालों की कीमत चुका अमीर करने वाला. मगर सांस्कृतिक रूप से हमेशा दूर दूर रहा.
लेकिन ये सब का सब पास्ट है, जो टेंस रहा. प्रेजेंट मजेदार है. आपको पूरे यूरोप में देसी मिल जाएंगे. हमें भी मिल गए. हमारे देसी. नाम विवेक आसरी. जर्मनी में रहते हैं. और उन्होंने वादा किया है कि यूरोप के किस्से-कहानियां, सियासत और समाज के खूब नजारे दिखाएंगे. हमें. आपको.
वादे के मुताबिक वो लाए हैं 'डाक यूरोप' की एक और किस्त. वो गाई स्टैंडिंग से मिले थे और बात हुई कि अगर लोगों को बिना काम किए सैलरी या पैसा मिलने लगे, कैसा रहेगा. सुनकर भले आपको अजीब लगे, लेकिन जब आप इसे पढ़ेंगे, तो आपको बिल्कुल अजीब नहीं लगेगा.
गाई स्टैंडिंग से मुलाकात हुई. बड़े अर्थशास्त्री हैं. ब्रिटिश हैं, जिनीवा में रहते हैं और मुफ्त पैसा बांटने की वकालत करते हैं. उनका एक विचार है कि दुनिया में हर व्यक्ति को एक बेसिक इनकम मिलनी चाहिए, काम करें या न करें. मतलब हर महीने खाते में एक तय रकम पक्का आए. अच्छा आइडिया है ना? आप काम करें या न करें, तन्ख्वाह मिलेगी, बराबर मिलेगी.
दरअसल गाई दुनिया को एक अलग ही निगाह से देखते हैं. वो कहते हैं कि फ्री मार्केट कैपिटलिज्म का खड़ा किया एक छलावा है. गाई के शब्दों में, 'कैपिटलिस्ट कहते हैं कि वे फ्री मार्केट के पक्ष में हैं और वे फ्री मार्केट इकॉनमी बनाने का काम कर रहे हैं. लेकिन, मैं कहता हूं कि ये एक झूठ है, क्योंकि वे एक ऐसी व्यवस्था बना रहे हैं, जिसमें वे बाजार को बाइपास कर सकें.'
कैसे?

गाई स्टैंडिंग
गाई समझाते हैं, 'इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स, कॉपीराइट्स, ट्रेड मार्क्स रेंटियर कैपिटलिज्म का सबसे बड़ा हथियार है. होता ये है कि अगर कोई पेटेंट लेता है, तो उस चीज पर उसकी मनॉपली हो जाती है. यानी उस चीज से होने वाली कमाई पर 20 साल तक सिर्फ उसका हक होगा. कोई और न उसका इस्तेमाल कर सकता है, न उसे बेच सकता है. बड़ी-बड़ी कंपनियां पेटेंट्स लेने में ही जुटी हैं. इनके पास हजारों पेटेंट्स हैं, जिनसे वे अरबों-खरबों कमा रही हैं. यही हाल कॉपीराइट्स का है. जिसके पास कॉपीराइट होता है, उसे उस चीज या आइडिया या किताब का पैसा मरने के 70 साल बाद तक मिलता रहता है. मुझे नहीं पता कि मरने के बाद लोग उस पैसे का क्या करते हैं, लेकिन इससे एक बात तो सुनिश्चित होती है कि बाजार बाइपास हो जाता है.'
गाई स्टैंडिंग का मासिक तय रकम देने का आइडिया स्विट्जरलैंड में कुछ महीने पहले पेश किया गया. इस बारे में जनमत संग्रह कराया गया और जनता ने इस आइडिया को खारिज कर दिया. स्टैंडिंग कहते हैं, 'सामाजिक सुरक्षा के सारे कार्यक्रम विफल हो चुके हैं. वे बस गरीबी के दुष्चक्र हैं. आपको सामाजिक मदद तब मिलती है, जब आप साबित कर पाएं कि आप गरीब हैं और ये भी कि आपकी गरीबी की वजह आप खुद नहीं हैं. और इस मदद के जरिए आप लोअर वेज ऑक्युपेशन में पहुंच जाते हैं. लेकिन, आपकी हालत में रत्तीभर भी सुधार नहीं होता, क्योंकि असल में आपको उस थोड़ी सी कमाई पर इतना टैक्स देना पड़ता है कि आपकी असल कमाई मदद से भी कम होती है. लिहाजा आप गरीबी के दुष्चक्र में ही फंसे रहते हैं. ये व्यवस्था पूरी तरह से खत्म हो चुकी है. अब हमें एक ऐसी व्यवस्था चाहिए, जहां हर व्यक्ति को एक न्यूनतम आय का अधिकार है. उसे एक सुनिश्चित रकम मिलनी ही चाहिए, वो काम करे या न करे.'
दुनिया में कई जगह गाई ऐसे छोटे-छोटे प्रॉजेक्ट्स चला चुके हैं. भोपाल में भी ऐसा प्रोजेक्ट चला था. लोगों को हर महीने तन्ख्वाह मिली. और नतीजा क्या निकला? वो बताते हैं कि लोगों ने ज्यादा काम करना शुरू कर दिया. गाई कहते हैं कि जिसे दुनिया काम कहती है, उस अवधारणा को ही बदलना होगा.
वैसे, दिलचस्प बात कहते हैं गाई. उनके हिसाब से, 'अब वक्त आ गया है कि हम काम की अवधारणा को दोबारा समझें. पिछली सदी में हमने जिस तरह काम को परिभाषित किया है, वो इतिहास का सबसे बुरा दौर था. अब यूं समझिए कि अगर मैं किसी महिला को अपने यहां घर का काम करने के लिए रखता हूं, तो जीडीपी बढ़ता है, राष्ट्रीय आय बढ़ती है और बेरोजगारी कम होती है. अगर मैं उस महिला से शादी कर लूं, तो वो वही काम करती है, लेकिन राष्ट्रीय आय घट जाती है, जीडीपी घट जाती है और बेरोजगारी बढ़ जाती है. इससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण और लैंगिक रूप से भेदभावपूर्ण कुछ नहीं हो सकता. आंकड़ों और कामकाज का ये हिसाब मूर्खतापूर्ण है. इसके कारण आपका बहुत सा काम, काम माना ही नहीं जाता, जबकि आपको उसके लिए खासी मेहनत मशक्कत करनी पड़ती है. जैसे काम खोजना, फॉर्म भरना, नौकरी के लिए इंटरव्यू देना, लाइनों में खड़े होकर इंतजार करना. क्या ये मजे की बात है? नहीं, ये काम है. लेकिन इसे कोई काम नहीं मानता. ये तो अपमानजनक है.'
गाई की बात अभी लागू तो कहीं नहीं हुई है, लेकिन इस बारे में बात खूब हो रही है. अमेरिका से लेकर अफ्रीका तक नेता लोग ऐसा सोच रहे हैं कि लोगों की एक सुनिश्चित आय तय कर दी जाए. गाई कहते हैं कि लोग काम करना चाहते हैं. सोचिए, अगर आपको एक सुनिश्चित आय मिलने लगे, तो क्या आप काम नहीं करना चाहेंगे? क्या आप काम करना बंद कर देंगे? लोग अपनी, अपने बच्चों की जिंदगी सुधारना चाहते हैं. इसके लिए वे काम करेंगे ही.
गाई स्टैंडिंग की एक किताब आई है, 'दि करप्शन ऑफ कैपिटलिज्म'. उसमें वो लिखते हैं, 'हमारे युग का डर्टी सीक्रेट है कि सरकार बड़ी-बड़ी कंपनियों को सब्सिडी दे रही हैं कि हमारे देश में आओ और पैसा लगाओ. देशों की सरकारों के बीच इस बात की होड़ लगी हुई है कि कौन ज्यादा सब्सिडी देगा. अब अमीर देश जाहिर तौर पर गरीब देशों से ज्यादा सब्सिडी दे रहे हैं. इसलिए पूंजी और उद्योगों का जमावड़ा अमीर देशों में ही होता जाता है.'
गाई के हिसाब से जब लोगों के पास एक सुरक्षा होती है, तो वो कम नहीं, बल्कि ज्यादा काम करते हैं. और जब वो काम करते हैं, तो वो ज्यादा प्रोडक्टिव, ज्यादा मानवीय और ज्यादा रचनात्मक होते हैं. टैक्स बढ़ाने के बजाय अगर हम ये व्यवस्था लागू करें, तो सामाजिक और आर्थिक उत्पादन बढ़ सकेगा.
बात तो पते की है.
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