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जब हरियाणे की क्वीन दुनिया घूमने निकली तो क्या हुआ

चेस खेलना छोड़ा और दुनिया घूमने निकल पड़ी, अब अनुराधा बेनीवाल इंडिया वालों को बता रही है अपने एक्सपीरियंस

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6 जनवरी 2016 (Updated: 14 नवंबर 2017, 02:34 PM IST) कॉमेंट्स
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अनुराधा बेनीवाल हरियाणा के रोहतक की हैं. 30 बरस की उमर है. 15 बसंत देखते-देखते शतरंज की नेशनल चैंपियनशिप जीत चुकी थीं. 16 बरस की थीं तो शतरंज की वर्ल्ड चैंपियनशिप में देश के लिए खेल रहीं थीं. अनुराधा ने जब शतरंज खेलना छोड़ा तब उनकी वर्ल्ड रैंकिंग थी 38. एक दिन रोहतक से डीयू आ पहुंचीं. मिरांडा हाउस कॉलेज. अंग्रेजी में वो वाला बीए किया जिसके आगे ऑनर्स लिखाता है. फिर एलएलबी फिर एमए. पर हमें इससे क्या? हम क्यों बताते बैठें कि इनने अपनी बचत के पैसों से देश घूमा. विदेश में बड़े-बड़ों को शतरंज की चालें चलना सिखा आई हैं. आप तो ये जानो कि लड़की घुमक्कड़ी की शौकीन है. खूब घूमी. फिर ब्लॉग में, अखबार में, सात-भांत की वेबसाइट्स पर अपने एक्स्पीरियंस लिखे. जनता ने दबा के पढ़े. हम जिक्र कर रहे हैं क्योंकि आ रही है इनकी किताब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’. राजकमल प्रकाशन के इंप्रिंट 'सार्थक बुक्स' से. ये अनुराधा की घुमक्कड़ी के संस्मरणों की सीरीज ‘यायावरी आवारगी’ की पहली किताब है. हम अनुराधा बेनीवाल की बात कर रहे हैं. अनुराधा जो लिखती हैं. अंग्रेजी में हाथ सधे हैं, हिंदी में उतनी पढ़ी नहीं पर शतरंज खेलने वाली लड़की ने इतनी हिम्मत की कि अपना देखा, अपना महसूसा हिंदी में सबके सामने रख सकें. पढ़िए अनुराधा को. जानिए अनुराधा के लिए घूमना क्या है. Anuradha Beniwalमेरे लिए घूमना 
"मेरे लिए घूमना ‘साईट सीईंग’ नहीं है। जंगल, नदियाँ, पहाड़, इमारतें, शहर, म्यूज़ियम— अपनी जगह सब बहुत ख़ास हैं। और बड़ा मज़ा भी आता है देख कर!लेकिन मेरा घूमना है, केवल घूमने के लिए; एकदम आज़ाद, निश्चिंत, बेफिक्र फिरने के लिए। नए-नए लोगों को जानने के लिए, उनका रहन-सहन, उनका खान-पान, उनके सोचने के तरीके और उनकी सामाजिकता को समझने के लिए। नयी हवा में सांस लेने के लिए... और वह एक `चीज़` ढूंढने के लिए...वह एक `चीज़`, जो मुझे एकदम अनजान शहर में भी दिलाती है— आज़ादी का अहसास। वह जिसकी वजह से मैं एकदम नए शहर में, बिलकुल अजनबी लोगों के साथ रूकती हुई, बेपहचाने सड़कों पर देर-सबेर चलती-भटकती हुई, रास्ते-बेरास्ते सोती-जागती हुई, नाचती-गाती हुई एकदम सुरक्षित और निश्चिंत महसूस करती हूँ।मैं उस `चीज़` को दिल्ली और रोहतक की गलियों में छोड़ देना चाहती हूँ। रोहतक जहाँ मैं पैदा हुई, पली-बढ़ी, पढ़ी-लिखी, इतने लोगों को जानती हूँ, कायदे-कानून, भाषा-ढंग पहचानती हूँ। फिर भी आज तक की उम्र में बेफ़िक्र और बेपरवाह होकर नहीं चल पाई। सार्वजनिक जगहों पर एकदम निश्चिन्त मन से खड़ी नहीं रह सकी. मैं ऐसी जगह पर वह एक ‘चीज’ वैसे ही जमीन में पसार देना चाहती हूँ जैसे हम बचपन में पसारते हैं फूलों के बीज और वे मिट्टी, पानी और धूप की सोहबत में उग आते हैं पौधे बनकर. काश, मैं चौतरफा देख सकूँ उसी एक भाव को, जिससे मैं और मेरी जैसी तमाम लड़कियाँ बेरोकटोक, बेपरवाह, बेफिक्र ज़िन्दगी की सांस ले सकें...मैं पूछती हूँ, आखिर गोबर कल्चर पर चांदी-सोने के वर्क चढ़ाने से क्या उसकी बास कम हो जायेगी? नहीं, उसमें धँसने के मौके और ज्यादा बन जाएंगे। गोबर पर मिट्टी डालकर नए विचारों और नई जीवन-संस्कृति की पौधें उगाने की बात करें. हम आगे बढ़ें. ठहरना तो जीवन के विरुद्ध हैं न!"

ये वो रही जो अनुराधा कहती हैं अब एक झलक किताब की 

"हरियाणा की एक यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. की हुई मुझ लड़की को यहाँ इन अंग्रेजों के देश में लेकिन नौकरी क्या मिलनी थी? मैंने सुना था कि इस देश में भारतीयों को आसानी से नौकरी सिर्फ आईटी कंपनियों में मिल सकती है। अगर आपको कोडिंग आती है तो काम मिलने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन मेरे खानदान में ‘क’ से किसान तो कई हैं, कोडर एक भी नहीं। एक बार को तो लगा कि ऑनलाइन आईटी कोर्स कर लेती हूँ। लेकिन फिर श्रीमान गूगल की मदद से भी कुछ समझ में नहीं आया तो जाने दिया।मैं कुछ भी करने को तैयार थी, होटल में वेटिंग करने को, बार में बार-टेंडिंग करने को, कॉफ़ी शॉप में कॉफ़ी बनाने को, जिम में रिसेप्शनिस्ट बनने को, किसी के घर में कुकिंग करने को, डॉग वॉक कराने को, बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने को, किसी अपाहिज़ की देखभाल करने को। हर वह काम जो मुझे यहाँ की सब्जियां खरीदने में मदद करता— मैं उस काम को करने के लिए तैयार थी। जिस दुकान में बैठ कर चाय पीती थी, उस दुकान तक में मैंने अपना सी-वी दे दिया था।अभी तक अपना खर्च खुद निकालती आई थी। एकदम से एक आदमी पर निर्भर हो जाना मुझे खटकने लगा था। कम-से-कम आधा किराया तो कमा ही लूँ। कुछ घर के और खर्चों में हाथ बटा दूँ। थोड़ा घूम-फिर पाऊँ, बस, इतना भी। पैसा जोड़ने-वोड़ने का तो ख्याल ही कहीं दूर था।मैंने कई तरह के सी-वी बनाये। बार में देने वाले सी-वी से मैंने ‘फॉर्मर नेशनल चैस चैम्पियन’ हटा दिया था। और यह भी कि मेरे पास एक लॉ डिग्री भी है! लंदन में तो इतने सारे बार हैं, हर एक गली में चार-पांच। लेकिन मुझे नौकरी क्यों मिलती वहां? मुझे तो कॉकटेल बनानी भी नहीं आती और नाहीं ‘क्यूट’ ईस्ट यूरोपियन एक्सेंट ही है। इंडियन एक्सेंट के साथ बार में इंट्री मिलना नहीं हो सका। फिर भी मैंने राह में पड़ते हर ‘बार’ में अपना सी-वी दे रखा था।किसी भी दुकान के सामने वैकेंसी का नोटिस देख कर मेरी उम्मीद बढ़ जाती और मैं वहां सी-वी देकर, अगले दिन कुछ अच्छा होने का इंतज़ार करती। लेकिन हर रोज़ कोई जवाब ना पाकर फिर निराश हो जाती। इस तरह बढ़ती मायूसी में और भी उल-जलूल काम खोजती। चाय की टपरी लगा लूँ? योग सीखा दूँ? धर्म बेच दूँ? पराठे बना के बेचूं? टिफ़िन सर्विस शुरू कर दूँ? क्या करूँ मैं कि इस शहर का हिस्सा बन पाऊं? रोज़ कुछ ऑप्शन खत्म होते, मैं रोज कुछ नये ऑप्शन तलाशती।अब तो बस इंडियन रेस्त्रां बचते हैं। वहां तो हिंदी भाषा और भारतीय खाने का मेरा ज्ञान प्लस पॉइंट हो सकते हैं। इंडियन रेस्त्रां में मुझे जरूर नौकरी मिल जायेगी— ऐसा सोचकर रास्ते वाले महाराजा रेस्त्रां में भी मैंने अपना सी-वी डाल दिया था। वेटिंग नहीं तो किचन में तो मिल ही जायेगी। मैं तो खाना भी इतना अच्छा बनाती हूँ। महाराजा वाले मैनेजर से हिंदी में बात की तो लगा यहाँ तो जरूर काम मिल जाएगा, लेकिन इतनी लम्बी बातचीत के बावजूद उनका कई दिनों बाद भी कोई जवाब नहीं आया। लेकिन जाने क्यों मुझे लगता रहा कि इंडियन रेस्त्रां में काम मिलना इतना मुश्किल नहीं होगा। कम्पीटीशन कम रहेगा न! मैं कई सारे इंडियन रेस्त्रां इंटरनेट पर ढूंढ कर अपना सी-वी उन्हें भेजती रही।काम मिलना तो जरुरी था। मांगे हुए पैसों से तो चाय पीना भी मुश्किल हो रहा था, घूमना-फिरना तो दूर के ख़्वाब लगने लगे थे। बिना पैसे के यूरोप कैसे घूमती, जबकि यहाँ लंदन घूमना दूभर हो रहा था। मेरा दिमाग़ दिन-रात घूमने के नए-नए रास्ते तलाशता रहता— न्यूड मॉडल बन जाऊं चित्रकारों के लिये? स्पर्म तो डोनेट नहीं कर सकती, लेकिन किसी दवाई के एक्सपेरिमेंट का हिस्सा बन जाऊं? रोज़ इवनिंग स्टैण्डर्ड (फ्री अख़बार) में छपे हर तरह के विज्ञापनों में से पैसे कमाने के तरीक़े वाले विज्ञापन अंडरलाइन करती। लंदन जैसे शहर में आकर भी अगर दुनिया नहीं घूम पाई तो भला यह सपना कब सच कर पाऊँगी?इस शहर में अगस्त में आई थी, सितम्बर आ गया। जाड़े के कपड़े भी नहीं लाई थी। पता भी नहीं था कि जाड़ा कितना ज्यादा पड़ेगा तो सोचा, वहीँ जाकर लूंगी। लेकिन जितने पैसे का कोट था, उतने में तो एक तरफ से दिल्ली की टिकट थी। अब लगने-सा लगा था कि वापस जाने का समय आ गया है। तभी अचानक एक भूला-भटका मेल आया ‘लाहौर कबाब हाउस’ से— ‘वेटिंग वैकेंसी’; मुझे लगा कि अब यही आखरी आशा है। अब या तो ‘लाहौर’ होगा या फिर ‘दिल्ली’!इधर मुझे नौकरी मिली और उधर मैं अपना पैर तुड़ा बैठी। ज्यादा एक्सरसाइज के चक्कर में सीढ़ी ऊपर-नीचे भागते वक्त पैर मुड़ गया और लंदन की सर्दी में चोट का ठीक होना बड़ा तकनीकी मामला है। लम्बे इंतज़ार के बाद जॉब तो मिली, लेकिन अब पूरा दिन खड़े रहना पहाड़ हो गया। नया रेस्त्रां था तो काम भी हर तरह का था। खाने के समय वेटिंग करनी होती और बाकी समय में किचन में मदद करनी होती। शाम होते-होते पैर में चीस लगने लगती और घर आते-आते आधी रात हो जाती।अब पता चला था कि टिप्स का क्या महत्व होता है। जब पहली बार उन ब्रिटिश-भारतीय महिलाओं ने मेरी जेब में चुपचाप तीन पौंड रख दिये थे। तब वे तीन पौंड मुझे किसी अचानक हाथ लग गये खज़ाने से कम नहीं लगे थे। हर घंटा पूरा होने पर सात पौंड का कन्फर्म होना एक अजब-सा अहसास था। एक-आध दोस्ती भी होने लगी थी। ज्यादातर वेटर पाकिस्तानी थे, हेड शेफ एक बंगाली बाबू थे और असिस्टेंट कुक सब अफ़गानी। एक पोलिश लड़की थी, जिसके साथ मेरी शिफ्ट सिर्फ हफ्ते में दो बार क्लैश करती थी, लेकिन मेरी सबसे पटने लगी थी।रसोई में बर्तन साफ़ करने वाला स्पेनिश लड़का चुपचाप-सा था, अकेले खड़े हो बर्तन मांजता और खूब सारा खाना खाकर बिना किसी से बात किए निकल जाता। एक दिन पूछने पर पता चला कि वो यहाँ पी-एच.डी. कर रहा था। उसे भी घंटे के सात पौंड ही मिलते थे। यों तो मेरी सभी से अच्छी-खासी पटती थी, अफ़गानीयों से थोड़ी ज्यादा पटती थी। हम एक साथ कहवा पीते और खान मुझे रोज़ नए-नए पकवान बना के खिलाता। हम सब हिंदी में बातें करते… और खाली समय में उस घर की यादें ताजा करते रहते, जिसे छोड़ आए थे। इस तरह लंदन में एक छोटा-सा परिवार बनने लगा था।मैंने हिसाब लगाया कि लगन से दिन में दस घंटे काम किया तो दिन के सत्तर, और महीने के कम-से-कम पंद्रह सौ पौंड हो जायेंगे। पांच-सात महीनों में आस-पास के एक-दो देश देखने जितना तो कमा ही लूँगी। लेकिन मेरे ख्वाबों पर जल्द ही पानी फिर गया… या कहूँ कि जिन एंड टॉनिक फिर गया! हुआ यों कि एक दिन पैर का दर्द दोपहर से ही असहनीय हो गया तो लगा एक जिन एंड टॉनिक का शॉट ले लूँगी तो शायद दर्द बर्दाश्त कर पाउंगी। मैंने अली से रिक्वेस्ट की कि एक पैग वह मेरे लिए बना दे। उसने मज़ाक समझ कर बना दिया, मैंने होशो-हवास में पी लिया। लेकिन उसके बाद किचन में ऐसा हंगामा मचा कि क्या कहने! हिन्दुस्तानी भाई यों रोएँ कि एक शरीफ़ दिखने वाली, भले घर की लड़की लंदन आकर बर्बाद हो गयी! और पाकिस्तानी भाई यों कि जिस लड़की को अब तक इतना पाक और इज़्ज़तदार माना था वह इस कदर बेहया निकली! अफ़गानी खान बस मुँह ताके; कभी उनका, कभी मेरा!मुझे बात की गहराई तब समझ में आई जब शाम को मुझे मेरे हिसाब के साथ नोटिस पकड़ा दिया गया— “यू कैन गो नाउ!” होटल के गुजराती मालिक ने मुझे, जरा भी विनम्र हुए बगैर, बाहर का रास्ता दिखा दिया।मेरी नौकरी तो छूट गयी थी, लेकिन मैं निराश बिलकुल नहीं थी। वहाँ से मिले ढाई सौ पौंड से मैंने एक हिम्मत-सी पा ली थी। एक बार पैसे हाथ में मिले तो मुझे पता था कि आगे भी मिल जायेंगे। मुश्किल से ही सही, रास्ता बन ही जायेगा। एक तरह का साहस मिल गया था वहाँ से। सबसे पहले मैंने टेस्को जाकर तीस पौंड का एक ऊनी कोट ख़रीदा, जुराबें खरीदी, एक आई लाइनर ख़रीदा, कई दिनों से चेरी खाने का मन था, वो खरीदी। और एक जोड़ी चलने के जूते भी ख़रीदे। अपने पहले कमाये पौंड से मैंने बाज़ार से इन चीजों के अलावा भी कुछ खरीदा— ढेर सारा आत्मविश्वास!***लाहौर कबाब हाउस की बदौलत घर की चारदीवारी के बाहर निकली तो और दरवाज़े खुलने लगे। नये जूतों में मैंने पैदल शहर नापना शुरू किया। एक दिन मुझे चैस दिखा। जो एक समय में मेरी पूरी दुनिया हुआ करता था, आज वो खेल मुझे एक अजनबी की तरह बेकर स्ट्रीट पर एक दुकान के सामने मिला। अंदर जाकर देखा कि वर्ल्ड चैम्पियनशिप का एक मैच लाइव चल रहा था, और कुछ लोग मोहरे बिछा कर बैठे हुए अगली चालों का अंदाज लगाने की कोशिश कर रहे थे। यों ही एक-दो चालें मैंने भी गेस कर दीं। किस्मत कहिए या मेरी होशियारी, ग्रैंड मास्टर ने वही-की-वही चालें चलीं! लोगों का ध्यान थोड़ा आकर्षित हुआ तो कुछ बातें शुरू हुईं। और बातों में बात निकली कि वो लंदन के स्कूलों में चैस सीखाते हैं, यही नहीं, उन्हें एक चैस-टीचर की जरुरत भी है। यह तो बिन मांगे जन्नत मिलने वाली बात हो गयी! क्या कहूँ…यहाँ चैस का माहौल भारत जैसा नहीं था। भारत में जितनी संख्या में लोग चैस सिखाते हैं, यहाँ तो इतनी संख्या में लोग चैस जानते भी नहीं थे। फीमेल प्लेयर्स और टीचर्स का तो मेजर अभाव है। मुझे अपनी पहचान बनाने में ज्यादा समय नहीं लगा। अपने अतीत में एक इंडियन चैंपियन होने के नाते मुझे अभी भी इतना चैस याद था कि यहाँ के लोकल प्लेयर्स को धूल चटा सकूं! जल्द ही मुझे अलग-अलग क्लबों से उनके लिए खेलने के ऑफर्स आने लगे, और स्कूल में सिखाना तो चालू हो ही गया था।मेरे घर से केवल दस मिनट की दूरी वाले एक स्कूल में मुझे पढ़ाने का काम मिल गया। घंटे के सात पौंड से घंटे के चालीस पौंड— मेरे लिए यह बड़ी छलांग थी। और तीन पौंड की एक टिप पर उछलने वाला वाला एक इंसान ही समझ सकता है कि चालीस पौंड प्रति घण्टे का मतलब क्या था! एक से स्कूल हुए दो, और दो से हुए आठ! धीरे-धीरे प्राइवेट ट्यूशन का भी काम मिलने लगा और दोस्तियां भी होने लगीं. अब लंदन से भी दोस्ती होने लगी थी। अलग-अलग स्कूलों में मैं ज्यादातर पैदल जाती और रोज़ नयी-नयी गलियां खोजती। इस तरह एक अजनबी शहर ने मुझे अपनाना शुरू कर दिया…***जब जिंदगी-बसर के लिए दाना जुट गया तो आज़ादी की चिड़िया फिर पर फडफ़ड़ाने लगी। हालांकि लंदन में मुझे काफी हद तक आज़ादी मिल गयी थी, लेकिन अब मुझे यह जानना था कि लंदन ही स्पेशल है या पूरा यूरोप ऐसा है? क्या पश्चिम सच में आज़ादी के मामले में हमसे आगे निकल गया है? 17वीं-18वीं शताब्दी के लेखकों, जैसे— जेन ऑस्टन, शार्लेट ब्रोंटे, एलिज़ाबेथ गास्केल या चार्ल्स डिकेंस की किताबों में तो औरतों की स्थिति हमारे समाज से बहुत बेहतर नहीं थी. लेकिन फिर उनका समाज किस कदर तेजी से बदल गया? एकदम-से कितना आगे आ गया? और हम जैसे एक ही जगह अटक गए! आखिर उन्हें ऐसी क्या ‘चीज’ मिल गयी? दुनिया का नक्शा अपने कमरे में देख कर रोज लगता कि मैं अभी दुनिया के एकदम बीचोबीच में हूँ तो जल्दी से निकल लूँ और उस ‘चीज़’ को तलाशूं!यूरोप के सारे देशों का एक ही वीज़ा लगता है, ‘शेंगेन’ वीज़ा। एक बार वह लग जाए तो फिर कहीं भी निकल जाओ, सब देश एक-एक, दो-दो घंटे की दूरी पर हैं। लेकिन अब मैं हिंदुस्तान में नहीं थी, जहाँ रहने-खाने के ठिकाने का इंतेज़ाम किये बगैर, इस विश्वास पर निकल लिए कि संभाल लेंगे। जैसे मेरी असमंती बुआ कहती है, “पास में पैसा हो और जुबान हो तो इन्सान पूरी दुनिया नाप दे।” लेकिन बुआ को शायद नहीं पता था कि ना तो हमारे ‘रुपए’ की यहाँ कोई बिसात थी, नाहीं हमारी जुबान की। यह भारत देश नहीं था, जहाँ इंसान दस रुपए में भी पेट भर ले और दस हज़ार भी कम पड़ जाएं। यह यूरोप था. यहाँ तब एक यूरो का मतलब था सत्तर रुपए! और जहाँ हिंदी तो दूर, इंग्लिश जानने वालें मिल जाएँ तो भी किस्मत अच्छी मानी जाय.***जब मैं पहली बार अकेले घूमने निकली थी पुणे से राजस्थान, एक महीने के ट्रिप पर, तब मैंने काफी हद तक जाना था कि पैसा घूमने की प्री-कंडीशन नहीं है। पैसा जरुरी है, लेकिन इतना नहीं जितना हमने बना दिया है। ज्यादातर दुनिया घूमने वाले बैक-पैकर्स अमीर घरों में पले हुए लोग नहीं होते। वे बस घूमने की आग में पके होते हैं। उन्हें सस्ते से सस्ता ठिकाना, एक छत भर की तलाश होती है। वे स्विमिंग पूल वाले होटल नहीं ढूंढते। वे पूरा दिन मूंगफली और केलों पर भी चल जाते हैं। उन्हें भारत में भी मिनरल वाटर की तलाश नहीं होती। वे ब्रांडेड कपड़े और बैग्स पर पैसे नहीं खर्चते। और नाहीं वे पैसे जोड़-जोड़ के बुढ़ापे में आरामदायक जिंदगी के ख़्वाब बुनते हैं। वे आज के लिए जीते हैं और दुनिया के सबसे खुश लोग होते हैं!राजस्थान में बिताये उस एक महीने में मैं कई घुमक्कड़ों से मिली और उन सबमें जो बात एक जैसी थी, वह था उनका आत्मविश्वास। वह पैसों से ख़रीदा या सामाजिक रूतबे पर पला आत्मविश्वास नहीं था। खुद को जानने से आया था। अपनी मानसिकता और अपने जज्बात, अपनी ताक़त और अपनी कमजोरियां जानने से ही ऐसा आत्मविश्वास पा सकना संभव है. ऐसा नहीं है कि इन लोगों का जीवन किसी तरह से सरल था या इनके जीवन में किसी तरह के बंधन या डर नहीं थे। लेकिन इन्होंने अपने डर और बंधन को समझा था, उनको अपने जीवन में बसा लेने के बजाय उनसे पार पाने की कोशिश की थी। उन्होंने अपने जीवन की ज़िम्मेदारी खुद ली थी। कोई और नहीं था ब्लेम थोपने खातिर इनकी लाइफ में। ये अपनी ख़ुशी और अपने दुख के जिम्मेदार खुद थे। और जब आप आगे बढ़कर अपनी जिम्मेदारी आप लेते हैं तो बदल सकना आसान होता है। जब खुद ही चुनना हो तो कोई दुख क्यों चुने?तीन महीने से दुनिया घूमती फ्लाविया मुझे जैसलमेर में मिली। फ्लाविया ब्राज़ील से थी और वह एशिया में थाईलैंड, बाली, वियतनाम और चीन होते हुए भारत आई थी। दिखने में एकदम नार्मल थी और कोई पंख भी नहीं लगे थे उसकी पीठ पर, लेकिन उसकी कहानी एकदम परियों वाली थी। फ्लाविया ने बतौर डेंटिस्ट सात साल काम करके घर ख़रीदने के लिये पैसे जोड़े थे। अपनी सारी जान काम और घर खरीदने के सपने को सच करने की कोशिश में झोंक दी थी। जब घर मिला और डाउन पेमेंट के पैसे देने का वक़्त आया तो फ्लाविया ने सोचा कि सात साल दिन-रात काम करके तो ये डाउन पेमेंट जोड़ी है, आगे बीस साल दिन-रात काम करके लोन उतारूंगी। इस घर को जीवन के सताईस साल दूंगी! घर तो अभी भी है, नेम-प्लेट अपना नहीं तो क्या हुआ? इतना काम करके भी बंधी ही रही तो क्या पाया? फ्लाविया ने घर तो छोड़ा ही, नौकरी भी छोड़ दी; और जमा पैसों से दुनिया घूमने निकल पड़ी! बाली में एक जर्मन लड़के के प्यार में पड़ी और अब जर्मनी में बसने का सोच रही थी। फ्लाविया का साथ नये-नये प्यार में पड़ी लड़की का साथ था— खुश, रोमांचित, बेखबर और दुस्साहसी! यहाँ से मैंने बेफिक्री सीखी।पुष्कर में मिला मुझे फर्नांदो रेन्नी अपने को नंदू बुलाता था। नंदू ना कभी स्कूल गया था और नाहीं कभी दफ्तर! नंदू के हाथों में कला थी, मेटल और पत्थर को सुन्दर ज्वैलरी में तब्दील करने की। वह उसी कला के दम पर अपने देश ब्राजील से बाहर निकल दुनिया घूम रहा था। अपने हाथों से बनाई ज्वैलरी को सड़कों पे बिछा कर बेचता हुआ नंदू अपनी चालीस साल की उम्र में अस्सी से ज्यादा देशों में घूम चुका था। उसने मुझे पुष्कर में सबसे सस्ती रहने और खाने की जगह दिखाई. उसने अपने लिए बहुत जरूरी, लेकिन मेरे लिए पर्सनल सवाल पूछ लिया, “विदेशी लड़कियों को भारतीय लड़को के साथ सोने में कोई दिक्कत नहीं होती, लेकिन भारतीय लड़कियां कभी विदेशी लड़कों को भाव नहीं देती, ऐसा क्यों? भारतीय लड़कियों से तो बात करना तक मुश्किल है!” मैंने बिना अचकचाए कहा— “इस बारे में कभी सोचा तो नहीं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि हमें विदेशी लड़कों से कोई दिक्कत है। हमें तो सब लड़कों से दिक्कत है। लड़कों से नहीं, हमे यों ही कैज़ुअल सेक्स से दिक्कत है। और भारतीय लड़का तो रहेगा, एक दिन शादी कर लेगा। लेकिन विदेशी तो चला जाएगा। हम सिर्फ शादी के बदले सेक्स करती हैं!” मैं अपने दिए जवाब पर हैरान थी! खैर, अगर उसने किसी खास मकसद से वह सवाल पूछा था तो वह पूरा नहीं हुआ. यह जरूर हुआ कि मैंने एक अजनबी को नम्रतापूर्वक ‘ना’ कहना सीखा। बिना चप्पल निकाले, हाथ जोड़ कर अलविदा बोलना सीखा। अपनी मर्जी जानी और अपनी मर्जी की इज़्ज़त करना सीखा।जैसलमेर में ही मिली मार्लुस रेगिस्तान से जुड़ी हर चीज़ की दिवानी थी। उसने सब ऊंट वालों से दोस्ती कर ली थी और उन्हीं के साथ हफ्तों-हफ्तों रेगिस्तान में घूमती रहती। मुझे उसके लिये कभी डर लगता, तो वह हंसती और कहती, “सब भारतीय लड़के मुझसे डरते हैं।“ लगभग पौने छः फुट लम्बी-तगड़ी जवान थी जर्मनी से आई मार्लुस। एकदम निडर! अकेले घर से निकलने से पहले मार्लुस की माँ ने उसे खूब सारी सलाहों के साथ एक सलाह यह भी दी थी, “अपना ढेर सारा ख्याल रखना. पागल कुत्ते तो कहीं भी हो सकते हैं, तो अगर रेप हो जाये तो प्रेगनेंसी से बचने के लिये पिल अपने साथ रखना!”मैंने पहली बार किसी माँ को रेप होने के सिलसिले में सलाह देते हुए जाना था। मैंने या तो माओं को इस बारे में बात करते ही नहीं सुना, या सुना है कि “यहाँ/वहां इस वक्त सेफ नहीं है, बाहर मत जाओ!” लेकिन अपनी बेटी को रोकने की बजाय, हादसा होने पर क्या किया जाए— इस बारे में सलाह देना पहली बार सुना था! मार्लुस की माँ कहती है कि “रेप भी एक एक्सीडेंट है जो नहीं होना चाहिये, लेकिन होने पर शर्म की बजाय उस बारे में क्या किया जाए, यह पता होना चाहिये।” ऐसी माँ की बेटी कैसे निडर नहीं होगी? यहाँ से मैंने साहस सीखा।फ्लाविया और मार्लुस के साथ जैसलमेर के आसपास के गाँवों में साइकिल चलाते, मार्लुस ने हमें एक जर्मन गाना सिखाया था— “mein herz tanzt”. इसका मतलब था— मेरा दिल नाच रहा है। वो दोनों तो चली गईं, लेकिन मेरा दिल नाचता रहा। मैंने पहली बार महसूस किया कि दिल का नाचना क्या होता है! मैं अकेले रेगिस्तान में घूमते, गुम होते, खोते-पाते खुश थी। वह ख़ुशी मेरी थी। उस दिन मुझे लगा कि शायद मेरी रचना प्रकृति ने घूमने के लिए की है, अकेले घूमने के लिए! यही शायद मेरी निज़ता है।***रमोना ने जो बीज बोया था, उसको सींचा इन घुमक्कड़ अजनबियों ने। अब वो सब तौर-तरीके जो मैंने इन अजनबियों से सीखे थे, मुझे यहाँ अपनाने थे। मुझे महंगे यूरोप में सस्ते में घूमना था। मुझे अकेले बेफिक्र घूमना था। एक लाख रुपए जो यहाँ के एक हज़ार पौंड थे— जोड़ लिए थे और छुट्टी थी एक महीने की। तय किया, चलो, अब वह ‘चीज़’ ढूंढी जाए।वो कहते हैं न, आज़ादी ना ‘लेने’ की चीज़ है, ना ‘देने’ की. छीनी भी तो क्या— आज़ादी, यह तो जीने की चीज़ है। रमोना से मिलने के दस साल बाद आज मैं निकली हूँ दुनिया घूमने, अकेले, बिना किसी मकसद के, एकदम आवारा, बेफिक्र, बेपरवाह। आज मैं जीने निकली हूँ। मैं अपनी खुशियां, अपने ग़म, अपनी हंसी, अपने आंसू खोजने निकली हूँ। क्या मैं यही हूँ, जो हूँ यहाँ ‘जानने वालों’ के बीच, क्या मैं परायों में कुछ और हो जाउंगी? कौन हैं पराये? और अपने, वो कौन हैं? क्या मुझे अकेले में भी हंसी आएगी? क्या अकेलापन रुलाएगा मुझे? क्या मैं अनजान देश की अनजान गलियों में शरमा जाउंगी या थिरक पड़ेंगे मेरे पैर वहाँ? कितने दिन फिरूंगी मैं बेमक़सद, कितने दिन कोई भी रह सकता है अनजानी दुनिया में अकेला, अदेखे लोगों से जुड़ता, अपरिचित लोगों को जोड़ता— बगैर किसी वादे के? यों भी इस निकलने का मकसद है क्या? क्या मैं कभी घर वापस आउंगी? और ‘घर’ है कहाँ?अब और कुछ ना सही, इन सवालों के जवाब तो पा ही जाउंगी! इन सब सवालों को साथ लिए मैं सवार थी यूरो-स्टार में। इंग्लिश चैनल के नीचे से होती हुई यह ट्रेन मुझे लिए जा रही थी— पेरिस!"

ये आर्टिकल आशीष ने लिखा है.

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