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'लब पे आती है दुआ...' नज़्म ने इस शख्स को शायरी की सीढ़ियां चढ़ा दिया

तार्रुफ़ कराने की जरूरत नहीं. शायर नवाज देवबंदी आपसे मिलना चाहता है. चले आए 'साहित्य आजतक'

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पंडित असगर
9 नवंबर 2016 (Updated: 9 नवंबर 2016, 01:44 PM IST) कॉमेंट्स
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तेरे आने की जब ख़बर महकेतेरी खुश्बू से सारा घर महके

नवाज देवबंदी. उर्दू शायरी का एक मशहूर नाम. कोई महफिल हो या फिर संसद. उनके अशआर अपनी दमक बिखेरते रहे हैं. यूपी में देवबंद जगह है वहीं इस शख्सियत ने जन्म लिया. 1990 में उर्दू से जर्नलिज्म पर रिसर्च कर पी.एच.डी की और वो डॉ. नवाज़ देवबन्दी हो गए. ग़ज़लें लिखीं किसी शायर के लिए सब से बड़ा एजाज (कमाल) वो है, जब पब्लिक उसके क़लाम को सर आंखों पर बैठाए. और नवाज देवबंदी ये एजाज दिखाते रहे हैं. साहित्य आज तक में आ रहे हैं यहां इतना जान लो कि कैसे वो शायर बने. लेकिन उनसे कुछ सीखना है या और जानना है तो साहित्य आज तक में शिरकत करनी होगी. 12 और 13 नवंबर. मिलना हो, तो पहुंच जाना दिल्ली के इंदिरा गांधी सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स. उन्हीं के लफ्जों में-

अंजाम उसके हाथ है आग़ाज़ करके देखभीगे हुए परों से ही परवाज़ करके देख

1. शायर बनने की शुरुआत कहां से हुई?

बचपन मासूम होता है. न ही किसी को ये पता होता है कि वो बड़ा होकर क्या बन जाएगा. मेरा भी कोई मंसूबा नहीं था. ये कुछ कुदरत पर डिपेंड करता है. दूसरी क्लास में पढ़ता था. स्कूल में प्रेयर होती थी. लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी, सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा और जन गण मन. ये सब मैं बहुत ही मन से पढ़ता, गाता था. टीचर भी मुझसे ही पढ़वाते थे. और तारीफ करते थे. ये हौसला अफजाई ही दिलचस्पी बढ़ाती गई. और शायरी के करीब आता गया. 15 अगस्त या 26 जनवरी पर स्कूल में कल्चरल प्रोग्राम होते थे. उसमें शामिल होता था. और उस स्टेज परफ़ॉर्मर बनने की झिझक ख़त्म हो गई. यानी किसी भी आर्टिस्ट की कामयाबी के लिए हौसला अफजाई बेहद ज़रूरी है.

2. मौजूदा दौर में देखा जाए तो कुछ ही अशआर लोगों की ज़बान पर चढ़ पाते हैं?

इसकी कई वजह होती हैं. शायर हर शेर लाजवाब पेश करता है. ये लोगों के सुनने पर भी डिपेंड करता है. मौजूदा दौर सोशल मीडिया का दौर है. ऐसे में अगर कॉपी पेस्ट कुछ होता है उससे फर्क नहीं पड़ता. शायर जिंदा रहता है अगर उसकी कही एक लाइन भी लोगों को याद रह जाए. दौर आते हैं और ख़त्म हो जाते हैं शायरी जिंदा रहती है. जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गुनगुनायी, उसमें मेरा एक शेर है.

गुनगुनाता जा रहा था एक फ़कीर धूप रहती है न साया देर तक

3. कोई ऐसा कलाम या किताब जिससे आप बेहद मुतास्सिर (प्रभावित) हुए?

कुछ भी रचने के लिए पढ़ना जरूरी है. मेरे नज़दीक कोई ऐसी किताब या कलाम तो नहीं जिसका नाम लेकर बता सकूं. लेकिन अच्छी और सही बात किसी भी खिड़की से आ सकती है. इसलिए सभी दरीचे खुले रखने चाहिए. मैं हर उम्र के लोगों, चाहे बच्चा हो या बुज़ुर्ग सबको गौर से सुनता हूं.

4. शायरी को नौजवानों तक पहुंचाने के लिए क्या जरूरी है?

शायरी न कोई उम्र रखती है और न मज़हब. बस मुश्किल अल्फाज़ रखती है. ये जरूरी है कि शायरी में गहराई हो. बिनाई (रोशनी) हो. सोशल मीडिया वाले ज़माने में शायरी में अल्फाजों का आसान होना बेहद ज़रूरी है. शायरी दिल-ओ-दिमाग पर दस्तक दे.

5. साहित्य आज तक के लिए आपके झोले में क्या ख़ास रहेगा?

वाली आसी जी का शेर है.

मुसल्ला रखते हैं सहबा-ओ-जाम रखते हैंफ़क़ीर सब के लिए इंतिज़ाम रखते हैं

ज़ाहिर है सब उम्र के लोग होंगे. कुछ उनसे सुनेंगे और कुछ सुनाएंगे. नौजवानों से मुखातिब होना चाहता हूं. उनसे सीखना चाहता हूं. उनके सामने खुली किताब बन जाना है. बेहद खूबसूरत शेर है. किसका है? नहीं मालूम.

करीब आओ तो शायद हमें समझ लोगे, ये फ़ासले तो गलतफहमियां बढ़ाते हैं.

ये दूरियां ही हैं जो नौजवानों को शायरी की खूबसूरती का एहसास नहीं करातीं. इन फासलों को मिटाना होगा. शायरी उरूज पर आने लगेगी. डॉ. नवाज़ देवबन्दी की ज़िन्दगी सिर्फ शायरी के ही इर्द गिर्द नहीं है. वो लड़कियों की तालीम को लेकर फ़िक्रमंद नजर आते हैं. उन्होंने इसकी शुरुआत मुज्ज़फर नगर में लड़कियों के लिए एक प्राइमरी स्कूल बनवाकर की. इसके बाद लड़कियों के लिए इंटर कॉलेज, डिग्री कॉलेज, वोकेशनल कॉलेज शुरू किया. शायरी के लिए कई अवार्ड मिले. मज़हब की बंदिशों को शायरी से तोड़ा.

दीपक जुगनू चांद सितारे एक से हैंयानी सारे इश्क़ के मारे एक से हैंदरिया हूं मैं भेद-भाव को क्या जानूमेरे लिए तो दोनों किनारे एक से हैंजिसके दिल में तूं है मौला उसके लिएमंदिर मस्जिद और गुरुद्वारे एक से हैं

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वो रुलाकर हंस न पाया देर तकजब मैं रो कर मुस्कुराया देर तकभूखे बच्चों की तसल्ली के लिएमां ने फिर पानी पकाया देर तकगुनगुनाता जा रहा था एक फ़क़ीरधूप रहती है ना साया देर तक


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