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जाति काम का नहीं, काम करने वालों का विभाजन है

डॉक्टर आंबेडकर की किताब 'एनहाइलेशन ऑफ़ कास्ट' के कुछ हिस्से

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6 दिसंबर 2021 (Updated: 5 दिसंबर 2021, 04:56 AM IST) कॉमेंट्स
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डॉक्टर भीम राव आंबेडकर. आज इनकी बरसी है. भारतीय संविधान के निर्माता से पहले एक बड़े विचारक. विचार जो उनके झेले हुए सच से पके और मजबूत हुए.ये विचार किसी किताब से उधार नहीं लिए गए थे. उन्होंने जो झेला, जो जिया वही कहा. जाति के ज़हर को उन्होंने बचपन से चखा था. इसलिए इस व्यवस्था के विरोधी हो गए. हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया. गांधी को महात्मा नहीं कहते थे, क्योंकि गांधी जाति को काम का विभाजन मानते थे जबकि आंबेडकर कहते थे ये काम का विभाजन नहीं, काम करने वालों का विभाजन है, जिसका आधार उनका किसी ख़ास जाति में पैदा होना मात्र है.

12 दिसंबर, 1935 में लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल ने एक ख़त लिखकर उन्हें जाति व्यवस्था पर बोलने के लिए बुलाया था. लेकिन बाद में उन्हें आने से मना कर दिया गया था क्योंकि वो हिन्दू धर्म के शास्त्रों और उसकी कुरीतियों की बखिया उधेड़ने वाले थे. बाद में 1936 में आंबेडकर ने खुद इस स्पीच की 15,00 कापियां छपवाईं. इसे 'एनहाइलेशन ऑफ़ कास्ट' नाम से छापा गया.

उसके कुछ हिस्सों का हिंदी अनुवाद पढ़ें- जाति पर

ये शर्मनाक है कि जाति व्यवस्था का बचाव करने वाले आज भी मौजूद हैं. इसके लिए कई सारे तर्क हैं. एक बचाव में ये कहा जाता है कि ये काम का विभाजन है. कहा जाता है कि काम का विभाजन किसी भी  सभ्य समाज के लिए जरूरी है इसलिए जाति व्यवस्था में कोई बुराई नहीं है. अब जो पहली चीज इसके खिलाफ है वो ये कि जाति व्यवस्था सिर्फ काम का विभाजन नहीं है. ये काम करने वालों का विभाजन है. सभ्य समाज में काम का विभाजन होना चाहिए. लेकिन जो समाज सभ्य नहीं है वहां इस तरह काम करने वालों का विभाजन होता है. जाति व्यवस्था सिर्फ काम के लिए ही नहीं बनी है बल्कि ये एक तरह का विभाजन है जिसमें एक को दूसरे से ऊपर रखा गया है. किसी दूसरे देश में काम के विभाजन के साथ इस तरह काम करने वालों का विभाजन नहीं है.

इस तरह का विभाजन नेचुरल नहीं है. लोगों की सोशल और पर्सनल क्षमता को विकसित करने का मौका दिया जाना चाहिए, जिससे वो खुद अपने लिए कैरियर चुन सकें. जाति व्यवस्था में ये अवसर उन्हें नहीं मिलते. काम के इस विभाजन के अलावा जाति व्यवस्था के साथ एक बड़ी दिक्कत और है. ये विभाजन आपके चुनाव पर भी नहीं होता. लोगों की व्यक्तिगत भावनाएं, उनकी प्राथमिकताएं कोई मायने नहीं रखतीं. उनके लिए ये पहले से ही निर्धारित है.

भारत में बहुत से काम ऐसे हैं, जिन्हें हिन्दू निकृष्ट समझते हैं. वो ऐसे कामों से लगातार दूर भागते हैं. इससे वो काम दूसरों के हिस्से आ जाते हैं. ऐसी व्यवस्था में कैसे तेजी आएगी जहां के लोग ही काम नहीं करना चाहते. अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी जाति व्यवस्था खतरनाक है.

धर्म पर

हो सकता है कुछ लोग मेरी ये बात ना समझ सकें कि धर्म को ख़त्म करने से मेरा क्या मतलब है. कुछ लोगों को ये विरोधी लगता होगा, कुछ लोगों को ये बहुत क्रांतिकारी लगता होगा. इसलिए मुझे इसे समझाने दीजिए. मुझे नहीं पता कि आप सिद्धांतों और नियमों के बीच कोई अंतर करते हैं या नहीं, लेकिन मैं करता हूं. मैं न सिर्फ अंतर करता हूं बल्कि कहता हूं कि ये अंतर ज़रूरी है. नियम प्रैक्टिकल होते हैं. ये पहले से तय चीजों को मानने का तरीका है. ये आदत से जुड़ा मसला है. जबकि सिद्धांत बौद्धिक होते हैं. चीजों को परखने के लिए ये उपयोगी तरीके हैं. नियम सिर्फ ये बताते हैं कि क्या करना है. सिद्धांत कुछ तय मापदंड नहीं बताते. नियम ऐसे हैं जैसे खाना पकाना, जिसमें बतायया जाता है कि क्या करना है और कैसे करना है. वहीं सिद्धांत, जैसे कि न्याय, लोगों की इच्छाओं और उद्देश्यों को दिखाता है. ये आदमी को सोचने की प्रक्रिया को दिशा देता है. 

नियम और सिद्धांतों के बीच यही अंतर व्यक्ति की गुणवत्ता में बदलाव लाता है. किसी चीज को नियम के हिसाब से करना और किसी चीज को सिद्धांतो के हिसाब से करना, दो अलग चीजें है. सिद्धांत गलत हो सकते हैं, लेकिन इससे किया गया कार्य जिम्मेदारी और होश से होता है. नियम सही हो सकता है, लेकिन इसमें कार्य मशीनी होता है. कोई धार्मिक कार्य गलत हो सकता है, लेकिन कम से कम उसे जिम्मेदार तो होना ही चाहिए. इसी जिम्मेदारी को निभाने के लिए, धार्मिक कार्य केवल सिद्धांत का मसला होना चाहिए. ये नियमों का मसला नहीं हो सकता. जब ये नियमों में बदल जाता है, ये धर्म बन जाता है. और फिर इससे जिम्मेदारी से भरे धार्मिक कार्यों की बात ख़त्म हो जाती है.

हिन्दू धर्म क्या है? ये सिद्धांत है या नियम? हिन्दू धर्म, जैसा कि वेदों और स्मृतियों में है, और कुछ नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक पवित्र नियमों का समूह है. जिसे हिन्दू धर्म कहते हैं वो कई तरह के निर्देश और पाबंदियां हैं. वेदों और स्मृतियों में 'धर्म' शब्द का इसी रूप में इस्तेमाल किया गया है और लोग इसे ही धर्म समझते हैं. पूर्व मीमांसा में जैमिनी धर्म को इसी तरह परिभाषित करते हैं. उनके हिसाब से 'धर्म वैदिक तरीकों से लक्षित तरीकों तक पहुंचना है.'

साधारण भाषा में इसे कहें तो जिसे हिन्दू धर्म कहते हैं वो असल में क़ानून है. कोड ऑफ़ आर्डिनेंस. कम से कम मैं इन नियमों को धर्म मानने से इनकार करता हूं. इसमें किसी की व्यक्तिगत क्षमता को ना देखकर उसके माता-पिता की सामाजिक स्थिति को देखा जाता है.


ये स्टोरी निशांत ने की है.


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