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कन्हैया कुमार के साथ कोर्ट और जेल में असल में हुआ क्या था?

उस दिन की पूरी कहानी.

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30 नवंबर 2016 (Updated: 30 नवंबर 2016, 07:22 AM IST) कॉमेंट्स
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कन्हैया कुमार के संस्मरण 'बिहार से तिहाड़ ' का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित


हवालात में पांच दिन बिताने के बाद मुझे पता लगा कि 17 फरवरी को फिर से अदालत में मेरी पेशी थी. पेशी के दिन एक आला पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया कि आज मुझे ज़मानत मिल जाएगी. मुझे यह बात पता नहीं थी कि पुलिस कमिश्नर ने यह बयान दिया था कि पुलिस मेरी ज़मानत का विरोध नहीं करेगी. मैंने कहा कि मैं ज़मानत नहीं लूंगा. मैंने कोई गलत काम नहीं किया था कि मुझे ज़मानत लेनी हो. हरेक छात्र के ऊपर से सारे आरोपों को खत्म किया जाए. मैं यह भी नहीं जानता था कि मेरी ज़मानत लेने कौन आएगा. उस आला अधिकारी ने हंसते हुए कहा, ‘तुम्हारी पूरी यूनिवर्सिटी तुम्हारी ज़मानत लेने आ जाएगी.’
उस अधिकारी ने मुझसे कहा कि मैं एक कागज़ पर यह लिख कर दे दूं कि मुझे देश के संविधान और न्यायालय पर पूरा भरोसा है. मैं भारत की एकता और अखंडता में भरोसा रखता हूं और मैं हमेशा इस बात की कोशिश करूंगा कि भारत की एकता और अखंडता अक्षुण्ण रहेगी. मुझे यह लिखने में कोई दिक्कत नहीं थी. मैं इन बातों में यकीन करता ही था. मैंने अपने तरीके से इसे लिख दिया. लेकिन वह अधिकारी संतुष्ट नहीं हुआ. उसने मुझे दोबारा उसे लिखने को कहा. उसने मुझसे दोबारा बोलकर लिखवाया.bihar se tihar feature
लेकिन 17 फरवरी को मुझे ज़मानत नहीं मिली. उस दिन ज़मानत की याचिका ही दायर नहीं की गई थी. इसकी जगह उस दिन कुछ और हुआ. उस दिन की तैयारी देख कर मैं हैरत में था. मेरी समझ में नहीं आ रहा था. काफी सारी फोर्स, काफी सारी गाड़ियां. मैं समझ गया कि पुलिस मुझे मीडिया से बचा रही थी. लोदी रोड से वसंत कुंज थाना जाने के लिए पीछे के रास्तों का इस्तेमाल किया गया. रास्ते में एक सिपाही ने मुझसे कहा, चलो तुमको आज जेएनयू दिखा कर लाते हैं. दूसरे ने कहा कि ये तो आज वैसे भी छूटने ही वाला है, फिर लौट कर जेएनयू ही तो आएगा. लेकिन वो मुझे जेएनयू के मुख्य नॉर्थ गेट के सामने से बाबा गंगनाथ मार्ग होते हुए वसंत विहार थाना ले गए.
पांच दिनों के बाद मैं अपने जेएनयू को देख रहा था. वही सादा-सा प्रवेश द्वार. आज उसके सामने भारी बैरिकेडिंग थी. एक छोटा-सा प्रदर्शन हो रहा था,जिसमें शामिल लोगों को मैं नहीं जानता था. उनमें कोई भी जेएनयू का नहीं था. बस, सड़क की दूसरी तरफ़ जेएनयू का एक लड़का जा रहा था, जिसे मैं पहचानता था. अपने पुराने बसेरे से होकर गुज़रना, अपने करीब से एक पहचाने चेहरे को जाते देखना, उन्हें इतने करीब और फिर भी इतने दूर महसूस करना, पूरी ताक़त से मुझे मेरी अजीब परिस्थिति का अहसास करा रही थी.
वसंत विहार थाना पहुंच कर हम पीछे की ओर से थाने में दाखिल हुए, जो अब एक नियम ही बन गया था. इसके बाद हम वहां से कोर्ट के लिए रवाना हुए. इंडिया गेट के पास हमारे काफिले को रोक दिया गया. हम वहां करीब आधे घंटे रुके रहे. लगातार फोन आ-जा रहे थे. इसके बाद पुलिस मुझे पटियाला हाउस कोर्ट ले गई. वहां कैमरों और पत्रकारों का एक सैलाब था. हम मीडिया से घिरे हुए थे. पुलिस ने मुझे झुक कर बैठने को कहा ताकि कोई मुझे देख न सके. मुझे बाद में पता चला कि पुलिस डमी का इस्तेमाल करती थी. वे चार-पांच गाड़ियां निकालते, जिनमें चेहरा ढंका हुआ एक आदमी बैठा होता. मीडिया डमी के पीछे दौड़ जाता जबकि मुझे किसी और गाड़ी से चुपचाप निकाल लिया जाता था. इस तरह पुलिस मीडिया के साथ लुका-छिपी खेलती थी. आख़िरकार मीडिया ने मुझे पहचान लिया और मेरी गाड़ी के चारों ओर जमा हो गए. एक भारी भीड़ थी. कभी भी मैं इतने सारे लोगों से नहीं घिरा था. किसी तरह उनसे बचते हुए मुझे कोर्ट परिसर के अंदर लाया गया. जब मैं भीतर जा रहा था, वकीलों की पोशाक पहने आदमियों के एक समूह ने मुझ पर हमला कर दिया. पता नहीं कि वे सचमुच वकील ही थे. मुझे मारते हुए वे गालियां दे रहे थे. भागदौड़ और अफरा-तफरी में मैं गिर गया. मेरी नाक से खून बहने लगा. कुछ पुलिसवालों को भी चोट आई थी. किसी तरह से मैं कोर्ट रूम तक पहुंच पाया. कुछ ‘वकीलों’ की हिम्मत इतनी बढ़ी हुई थी कि वे कोर्ट रूम तक पहुंच गए, जहां से उनको भगाया गया. वह दिन मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा. बाहर खड़ी भीड़ के लिए मैं बिल्कुल तैयार नहीं था. मैंने कभी भी ऐसा कुछ नहीं देखा था. हमले ने मुझे बुरी तरह हिला दिया था. पहली बार मुझे लग रहा था कि मेरी ज़िंदगी खतरे में थी. इन पांच दिनों में खबरों से बिल्कुल कटे होने के बाद इतने हिंसक तरीके से यह बात मेरे सामने आई थी कि मेरी गिरफ़्तारी कितना बड़ा मुद्दा बन गई थी. समाज का एक हिस्सा मुझसे कितना नफ़रत कर रहा था.
वकीलों के भेस में आए लोगों में से एक आदमी इतना हिम्मती था कि कोर्ट रूम में घुस गया. उसने मुझे पीछे से मारने की कोशिश की. एक दूसरा आदमी अदालत में घुस कर बेंच पर बैठ गया. वहां जेएनयू के अनेक टीचर थे. मेरी बुरी हालत देख कर वे घबरा गए और पूछा कि क्या हुआ है. पिछले कुछ दिनों के बाद जाने-पहचाने चेहरों को देख कर मुझे सुकून महसूस हुआ. उन्होंने मुझे बैठाया, पानी पीने को कहा. जैसे ही मुझे थोड़ी राहत मिली, मैंने उन्हें बताया कि मेरे पीछे बैठे हुए आदमी ने अदालत के ठीक बाहर मुझे मारा था.
पुलिस उस हमलावर के पास गई और उससे पूछा, ‘कौन हो भाई?’ जवाब देने के बजाए उल्टे उसी ने पुलिस से पूछा, ‘तुम कौन हो?’ पुलिस ने अपना परिचय दिया और उससे आई कार्ड मांगा तो उसने पुलिस से ही आई कार्ड मांग लिया. फिर वह आदमी उठा और निकल भागा. मैंने उसे पकड़ने के लिए कहा, पर कोई उसे पकड़ने न गया. एक महिला वकील, जिन्हें मैं नहीं जानता था, कोर्ट रूम में मौजूद थीं और वो नाराज़ हुईं कि कानून तोड़ने वाला आदमी अदालत के भीतर से इतनी आसानी से भाग गया. मुझे एक दूसरे कोर्ट रूम में ले जाया गया. पुलिस हर जगह थी. किसी को अंदर आने की इजाज़त नहीं थी. कमरे में कुछ वकील थे. मैंने उनके सवालों के जवाब दिए और बताया कि कैसे मेरे साथ मारपीट हुई थी. बाद में मुझे पता लगा कि उन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्त किया था. मेरी चोटों का इलाज करने के लिए कोर्ट रूम में ही एक डॉक्टर को बुलाया गया. मैंने उसे बताया कि किस तरह मुझे पीटा गया है. लेकिन डॉक्टर ने कुछ भी नहीं लिखा. वह मेरी बात सुनते हुए चुपचाप खड़ा रहा. उसका रवैया देख कर जज काफी नाराज़ हुए और कहा कि अगर उसने सहयोग नहीं किया तो उसका लाइसेंस रद्द हो सकता है. डॉक्टर बहाने बनाने लगा लेकिन फिर डर कर वो लिखने को तैयार हुआ. मुझे रिमांड पर लेने के लिए पुलिस के पास अब कोई वजह नहीं थी, लेकिन चूंकि ज़मानत का कोई आवेदन नहीं दिया गया था इसलिए मुझे न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. इसका मतलब था कि मुझे हवालात से जेल भेज दिया जाएगा. मेरे अंदर सचमुच एक डर उभर रहा था. बाहर क्या हो रहा है? मैंने कुछ नहीं किया है और अगर पुलिस मुझे कसूरवार ठहराने के लिए कोई सबूत नहीं खोज पाई है, तो मीडिया मेरे पीछे क्यों पड़ा था? ये कौन लोग हैं जो मुझ पर हमला कर रहे हैं और यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं राष्ट्र विरोधी हूं? मैं इन सब बातों का तार जोड़ नहीं पा रहा था. मेरे चारों तरफ़ पुलिस की इतनी भारी तादाद में मौजूदगी से भी कोई फर्क नहीं पड़ता था. लग रहा था कि युद्ध की तैयारी चल रही हो. पहले एक अधिकारी ने मुझे हेलमेट और गार्ड पहना दिया. थोड़ी देर के बाद वह लौटा और मुझे एक दूसरे कमरे में ले गया. वहां मेरी ही कद काठी का एक और पुलिस नौजवान पहले से था. हम दोनों के कपड़ों को आपस में अदल-बदल दिया गया. अब मैं पुलिस की वर्दी में था. कोर्ट रूम से कोर्ट का जेल अधिक से अधिक पचास मीटर की दूरी पर था. यह सारा इंतज़ाम इतनी सी दूरी तय के लिए किया जा रहा था. पुलिस को अपने लोगों पर भी शक था. उन्हें आशंका थी कि उनमें से ही कोई हमला न कर दे. चार घंटे बीत गए थे. लोग एक दूसरे से तेज़ी से बातें कर रहे थे. मैं सोच रहा था, किसी दूर-दराज़ के इलाके में नहीं बल्कि देश की राजधानी में ऐसा हो रहा है. यह एक बुरे सपने जैसा था. किसी तरह मुझे कोर्ट जेल तक पहुंचाया गया. कोर्ट जेल को मेरे लिए खाली करा लिया गया था. अब एक रणनीति बनाई जा रही थी कि मुझे तिहाड़ जेल कैसे पहुंचाया जाए. सारे आला अधिकारी आपस में बहस कर रहे थे. अलग-अलग बटालियनों के अधिकारी वहां थे. तय हुआ कि किसी भी हमलावर को देखते ही गोली मारनी है. हर ट्रैफिक सिग्नल पर एक गाड़ी रहेगी और पूरे रास्ते को ग्रीन कॉरीडोर बनाया जाएगा. पहले एक डमी को भेजा जाएगा और जब मीडिया उसके पीछे दौड़ जाएगा तो मेरी गाड़ी के लिए रवाना होगी. बाहर सभी चैनलों के टीवीकर्मी जमा थे. कोर्ट जेल में मैंने कई दिनों के बाद ख़बरें देखीं. टीवी पर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर कह रहे थे वो ज़मानत का विरोध नहीं करेंगे. वे मीडिया को वह चिट्ठी दिखा रहे थे जो मुझसे लिखवाया गया था, जिसमें मैंने संविधान पर भरोसा जताया था. बाद में मुझे मालूम चला कि पुलिस ने उस चिट्ठी को ‘कन्हैया की चिट्ठी’ के नाम से मीडिया को दे दिया था. वह चिट्ठी और ज़मानत का सवाल प्रेस में बहस का बड़ा मुद्दा बन गया था. मुझे फिर से हेलमेट और गार्ड पहनाया गया और कैदियों वाली गाड़ी में बैठा दिया गया. इस गाड़ी में अलग-अलग खाने बने होते हैं. अलग-अलग हथियारों- आंसू गैस, मिर्च के स्प्रे आदि के साथ अलग-अलग खाने में पुलिस बैठ गई. मुझे ड्राइवर के ठीक पीछे बैठाया गया. मेरे साथ बैठने वाले तीनों पुलिस बगैर किसी हथियार के थे. उनमें से एक ने मुझसे कहा, आप घबराइए नहीं, जब हम मर जाएंगे तभी आपको कुछ होगा. बिना कहीं रुके मुझे तिहाड़ तक पहुंचा दिया गया. मीडिया यहां भी मौजूद था. पुलिस ने तिहाड़ जेल के गेट को चारों तरफ़ से घेर रखा था. अब मैं जेल में था. देखिए, कन्हैया कुमार की किताब का रिव्यू - https://www.youtube.com/watch?time_continue=1&v=XMe5ZfP29mY इस किताब को आप यहां क्लिक करके खरीद सकते हैं. उससे पहले नीचे के लिंक पर क्लिक करके इसका रिव्यू पढ़ सकते हैं.क्या खुलासे किए हैं कन्हैया कुमार ने अपनी किताब 'बिहार से तिहाड़ तक' में

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