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'महाराज हम दिल्ली आएंगे, रवीश से मिलवा दोगे?'

ये जो लोग हैं न, प्यार करते, लड़ते, रूंधते, रूठते. यही दिल्ली को अब तक भरभराने से बचाए हुए हैं. और इन्हीं बचे लोगों में एक रवीश है. टीवी वाला रवीश कुमार.

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सौरभ द्विवेदी
30 दिसंबर 2015 (Updated: 31 अक्तूबर 2017, 08:07 AM IST) कॉमेंट्स
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मैं जब अपने घर उरई जाता हूं. तो मेरे दोस्त पूछते हैं. महाराज. आप तो दिल्ली में पत्रकार हो. कई बड़े बड़े लोगों से मिलते हो. हमें भी एक लोग से मिलवा दो. मुझे लगता है कि किसी मोदी वोदी टाइप नेता का नाम लेंगे. या शाहरुख-सलमान का. मगर वो जो जवाब देते हैं, उसे सुन मैं लुल्ल साबित होकर भी मुस्कुरा देता हूं. उन्हें रवीश से मिलना है. मोहल्ला राजेंद्र नगर का ये नजारा है. रवि की दुकान के बगल का खाली प्लॉट. पहले यहां भैंसें बंधती थीं. अब टप्पर है और उसके नीचे एक तखत. किनारे शराब की कुछ खाली बोतलें. उन पर चढ़ी कोल्डड्रिंक की बोतलें. उन पर सने कुछ रैपर चिप्स वगैरह के. सने कैसे, ऊपर से गुटखे की लेस की लेस जो गिरी है. मन न घिनाइए. ध्यान लगाइए. फड़ जमी है. 555 छाप सबसे सस्ते पत्तों से. खेला जा रहा है दहला पकड़. पप्पू पीटर, बबूची. तनमन कारतूस, लंगड़ महाराज, बंदर, बम्हौरी और ऐसे ही कई धुरंधर. यहीं आपके महाराज भी पहुंच जाते हैं, जित्ते भी दिन घर होते हैं. और यहीं उनसे रवीश वाली रिक्वेस्ट भी की जाती है. मैं पूछता हूं. अच्छी बात है. मिलवा दूंगा रवीश से. क्या करोगे मिलकर. मेरा इत्ता पूछते ही बमचक कट जाती है. कोई कहता, फोटू खिंचवाएंगे. कोई कहता, चाय पिएंगे. पर ज्यादातर को सुट्ट मार जाती. उन्हें आगे समझ ही नहीं आता. मैं वापस आता. दोस्त मिहिर-सुमन की शादी की दावत में जाता. रवीश मिल जाते. उन्हें किस्सा सुनाता. वो असमंजस की हंसी हंस देते. और फिर बात बदल देते. और जो कहते. वो तकलीफ भरा होता. सौरभ, हम कित्ता भी लोगों से प्यार पा लें. ये जो पावर का स्ट्रक्चर है न. यहां जहां फैसले लिए जाते हैं. उसमें हम हिंदी वालों की कोई पूछ नहीं. मैं कहता. सब बदल जाएगा. हम बदल देंगे. खैर, ये सब तो पर्सनल बातें हैं. और सच्चाई तो ये है कि मैं रवीश को जानता ही कितना हूं. कुल जमा तीन मुलाकातें. पर एक बात है. आदमी अभी दिल्ली का नहीं हुआ. ये शहर फरेब सिखाता है. और कमाल ये कि सीखने वालों को पता भी नहीं चलता. कि उनके पैरों में काई चिपक गई है च्युंगम सी. बचने का एक जंतर है. बिना पइसे के दे रहा हूं. प्यार कर लो. प्यार करने वालों के भीतर एक शिलाजीत उग आता है. जो उनमें गर्मी भर देता है. वे शहर को नए सिरे से टटोलते हैं. उसमें अपने लिए गुंजाइश खोजते हैं. और तब दिल्ली राजा दिल्लू का टीला भर नहीं रह जाता. ये तमाम बिल्लुओँ और बिल्लियों का दड़बा बन जाता है.
ये जो लोग हैं न, प्यार करते, लड़ते, रूंधते, रूठते. यही दिल्ली को अब तक भरभराने से बचाए हुए हैं. और इन्हीं बचे लोगों में से एक रवीश है. एक लड़का. डीयू में पढ़ने वाला. एक आदमी जनसत्ता और एनडीटीवी में काम करने वाला. वो प्यार करता है. एक लड़की से.
औरत से प्यार करना भूगोल में इतिहास मिलाने सा है. सड़कें, गलिया, कमरे, बगिया अपने दिए हुए नाम भर नहीं रह जाते. आपके इतिहास का जो अंक वहां रचा गया, वो उनकी पहचान का हिस्सा बन जाता है. किस्सागो वो है, जो अपने इतिहास भूगोल को हमें दिखाए. और ऐसे दिखाए कि लगे. नजर ले गया बंदा हमारी. रवीश किस्सागो है. क्योंकि उसने कुछ गढ़ने की कोशिश नहीं की. जो था, जो है, जैसा है, बस वैसा ही लिख दिया. बरतने में चीजें बिगड़ जाती हैं. इसलिए जरूरी है. बिना बेईमान हुए बयां कर दिया जाए. इश्क में शहर होना एक बयान है. कई सिम्तों में बंटा. सबमें थोड़ा सा खुरदुरापन है. औचकपन. जैसे होता है. हमेशा ही. और इसकी शुरुआत हुई फेसबुक पर दर्ज करने से. जैसा कि मैंने कोठागोई के सिलसिले में कहा था. डर बस एक ही है. जो है, वो दर्ज होने से छूट न जाए. क्योंकि दिखाने के चक्कर में ऐसी ऐसी सूरतें वाया सेल्फी और स्टेटस दर्ज हो रही हैं, जो सेकंड भर ही जिंदा न रहेंगी.
इश्क में शहर होना डर कम करती है. यकीन देती है. हौले से. होने का. बचे रहने का.
ये साल 2015 की सबसे अच्छी तीन किताबों में से एक है. बाकी की दो, प्रभात रंजन की 'कोठागोई' और रबिशंकर बल की 'दोजखनामा'. आप सबसे पहले तो इश्क करिए. जिससे भी करने की जितनी भी औकात है, उतना. मगर बेईमंटी बहाकर. वर्ना हो नहीं पाएगा.

और यहां इश्क में शहर होना के कुछ वाकये पढ़िए.

1

मैं आज स्माल टाउन-सा फील कर रहा हूं... और मैं मेट्रो-सी हाँ, जब भी तुम साउथ एक्स से गुज़रती हो, मैं करावल नगर-सा महसूस करता हूँ. चुप करो. तुम पागल हो. दिल्ली में सब दिल्ली-सा फ़ील करते हैं. ऐसा नहीं है. दिल्ली में सब दिल्ली नहीं है. जैसे हर किसी की आँखों में इश्क़ नहीं होता... अच्छा, तो मैं साउथ एक्स कैसे हो गई? जैसे कि मैं करावल नगर हो गया. सही कहा तुमने... ये बारापुला फ्लाइओवर न होता तो साउथ एक्स और सराय काले खाँ की दूरी कम न होती. तुम मुझसे प्यार करते हो या शहर से? शहर से; क्योंकि मेरा शहर तुम हो.

2

स्पाइडरमैन की तरह मेट्रो पर सवार जब वह आनन्द विहार उतरा तो मर्दानापन दुरुस्त करने के डाक्टरों के दावों से घिर गया. वहाँ से नज़र हटी तो मशहूर चाट की दुकानों से होती हुई की-रिंग, छोले, तरह-तरह के मोजों के बीच से टर्न लेती हुई उस ऑटो स्टैंड पर टिकी, जहाँ वह आई तो सही समय पर लेकिन दुपट्टे का नक़ाब उतारना भूल गई. उस वक़्ईत ऑटो से ऐसी कई नक़ाबपोश लड़कियाँ उतरी थीं. बाइक सवारों की पिछली सीट पर भी ऐसी ही लड़कियाँ गुज़री थीं. शिखर और राजश्री गुटखा की लड़ियों से बचते हुए आनन्द विहार की आवाजाही में उसकी चिल्लाहट खो गई. सब कानों में ईयर पीस ठूंसे सीढ़ियाँ चढ़े जा रहे थे. यहाँ सब एक दूसरे से पराए हैं. बुदबुदाते हुए जब उसने मोबाइल का कॉल बटन दबाया तो एक जैसे कई रिंग टोन बजने लगे. एक जैसे दुपट्टे, कॉलर ट्यून और ईयर पीस के दौर में हमारा इश्क़य भी आनंद विहार जैसा है. अराजक चौराहा!

3

मेट्रो ने मालवीय नगर को मॉडल टाउन से जोड़ दिया है. घंटे-भर में दनदनाती हुई ट्रेन ने दोनों की दूरी काफ़ी कम कर दी है. वक्त तो बच गया मगर कहने को कुछ बचा ही नहीं. वे तमाम योजनाएं जो दोनों ने बनाई थीं, अब आउटसोर्स होने लगी हैं. साथ-साथ कुछ सोचने और करने का फ़न कम होता जा रहा था. यार तुम बस से आया करो न... क्यों? मेट्रो में क्या प्रोब्लम है? कम-से-कम फ़ोन कर पूछने का मौक़ा तो मिलेगा कि कहाँ हो, कब आओगे. इश्क़ा में हम बेरोज़गार हो गए हैं. चलना न फिरना. कब तक मेट्रो से उतर कर हम मॉल के खम्भों से चुपचाप चिपके रहेंगे? इस मेट्रो को कह दो कि जाए यहाँ से...

4

ऑटो शोर नहीं करता तो भीतर का एकान्त महफ़ूज़ न होता. स्पर्श से संवाद का अँधेरा कमरा न बनता और ड्राइवर ज़माने को कोसता हुआ बैक मिरर में देखता ऑटो न चलाता. ऐसा कम होता है जब दोनों एक जैसा सोचने लगते. बोल उठा, समझ नहीं आता छूना मना है या ऑटो अंकल का पीछे देखना. बात मना होने की नहीं, मानने की है, वह बोली, ये देखो एक तरफ़ से करिश्मा आंटी और तुम्हारी तरफ़ मदर ऐश्वर्या. जाने किसे देख रहे हैं. हम सब तरफ़ से देखे जा रहे हैं. ऑटो अंकल इन्हें बातों में उलझते देख निराश हो गए. सीन के इन्तज़ार में सफ़र लम्बा कर दिया. रिज़ की तरफ़ मोड़ ले गए, शायद यहाँ की सड़क जोड़े को फिर से लिपटने का मौक़ा दे दे और उन्हें देखने का.

5

लाजपतनगर की मोमोवाली पर उसका दिल आ गया. नार्थ ईस्ट के सतबहनी मुल्कों को उसने नक़्रशे में ही देखा था. रोज़ शाम को चक्कर काटना उसकी आदतों में शुमार हो गया. वह चुपचाप फुल प्लेट मोमो में एक पीस ज़्यादा देने लगी. हल्की मुस्कुराहट के बाद रोज़ बोल कर जाता कि बहुत अच्छा है. शाहरुख़ की 'दिल से” देखने के बाद उसे लगने लगा कि इस एक पीस अतिरिक्त मोमो से प्रेम का नया रास्ता खुल रहा है. खाना और पैसे देना. लाजपतनगर की आंटियों को कभी फ़र्क़ ही नहीं पड़ा कि नार्थ इंडिया वाला नार्थ ईस्ट की लड़की के खोमचे के पास रोज़ चार बजे क्यों खड़ा रहता है. संस्कृतियों का मिलन मार्केट प्लेस में ही हो सकता है. बस एक ही ग़लती हो गई. उसने मोमो के बदले एक दिन घर से आया ठेकुआ दे दिया. वह मोमो खाने के शौक़ की आखि़री शाम हो गई...

6

सी-फिश की तलब दोनों को आईएनए मार्केट ले गई. पल्सर बाइक कोने में लगाकर हेल्मेट बग़ल में दाबे बाज़ार में घुसे. मछलीवाला समझ गया. कूकरी बुक पढ़कर कोई आया है. यही बात अखर गई. जान-बूझकर अंग्रेज़ी बोलने लगी और वह हेल्मेट नीचे रखकर मछली की गर्दन पलटने लगा. अपनी गर्दन घुमाई तो मार्केट में मेम साहबों की टोली झमाझम चली आ रही थी. ओ, तभी तुम इंग्लिश बोलने लगी. औकात की हर लड़ाई का हथियार अंग्रेज़ी थोड़े न है! चिल...डियर!

7

मगध एक्सप्रेस, बोगी नम्बर एस-वन. दिल्ली से पटना लौटते वक़्ड़त उसके हाथों में बर्नार्ड शॉ देखकर वहाँ से कट लिया. लगा कि इंग्लिश झाड़ेगी. दूसरी बोगियों में घूम-घूमकर प्रेमचंद पढ़नेवाली ढूंढ़ने लगा. पटना से आते वक़्रत तो कई लड़कियों के हाथ में गृहशोभा तक दिखा था. सोचते-सोचते बेचारा कर्नल रंजीत पढ़ने लगा. लफुआ लोगों का लैंग्वेज प्रॉब्लम अलग होता है!

8

यह नीले कोटवाला किताब को छाती से लगाए क्यों खड़ा है? इश्क़ के लाजवाब क्षणों में ऐसे सवालों में उलझ जाना उसकी फि़तरत रही है. इसलिए वह चुप रहा. उसके बालों में उँगलियों को उलझाने लगा. बेचैन होती साँसें जातिविहीन समाज बनाने की अंबेडकर की बातों से गुज़रने लगीं—देखना यही किताब हमें हमेशा के लिए मिला देगी!

9

सौ फ़ीसदी सच. तुम्हारी $कसम. पर सच तो सच होता है! छब्बीस या चौहत्तर फ़ीसदी क्या होता है? और ये तुम प्रतिशत में क्यों बात करते हो? क्या हमारा प्यार सौ फ़ीसदी नहीं है? पर जब से सच में विनिवेश की सीमा बढ़ाई गई है, मेरा प्यार मेरा नहीं रहा. क्या? हां. हम सब विनिवेशित हो चुके हैं. सत्य अगर सौ फ़ीसदी नहीं है तो वह सत्य नहीं है. सत्य और प्यार सिर्फ तुम्हारे लिए नहीं है. सीमा और प्रगति के लिए भी है. सुनो. कहो. तुम पागल हो गए हो. तुम फ़ेसबुक बन्द कर दो. हम बिना विनिवेश के ख़्ावाब देख लेंगे. लेकिन मैं तो जीने की बात कर रहा था...

10

सुनो, तुमने जेलचलो डॉट कॉम में रजिस्टर कर लिया क्या? सुना था जब दादा जी गान्ही बाबा के कहने पर जेल में ठेला गए थे. याऽ...मेरे भी डैड के फ्रेंड्स जेपी के साथ प्रिज़न गए थे. ओ रियली! गॉड क़सम, नो याऽ...माई डैड वाज़ इन्दिरा भक्त. अक्चुअली ही लाइक्ड अमरजेंसी. ही वाज़ अगेंस्ट लालू फ्राम द बिगनिंग. ओह, दैड वे. बट दिस टाइम लेट्स गो टुगेदर. जेलचलो डॉट कॉम इज़ कूल न! या-याऽ वैरी कूल. देन माइ डूड चलो, चलते हैं जेल. अन्ना ने हमें डॉट कॉम पे चलना सिखाया, अब हम मुल्क ओ कॉम की ख़ातिर जेल चलेंगे. सुनो...तुम साथ तो दोगी न...आइ मिन...डिच... उफ़फ़...कैसी बात करते हो...ऑफ़कोर्स जेल चलूँगी. वी आर टूगेदर फ़ार एवर...

11

दोनों के होंठ चॉकोबार से चिपके हुए थे. आधे-आधे हिस्से को बाँटकर चाटते रहने का सुख आज भरी भीड़ में मिल रहा था तो इसकी वजह अन्ना थे. अनशन तोड़ने के ऐलान के साथ जब भीड़ छँटने लगी तो दोनों का एकान्त भी ख़त्म हो गया. काश अनशन एक हफ़ता और खिंच जाता. उदास मन से दोनों जब बाराखम्भा लौटे तो एक बार मुड़कर रामलीला को देखने लगे. जीभर कर देख लो, इसी भीड़ के अँधेरे में हमने आन्दोलन के चन्द लम्हे गुज़ारे हैं. मैं तो इंडिया के लिए कुछ भी कर सकती हूं, पर पता नहीं अब कब अनशन होगा...
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