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एक कविता रोज़ - कृष्ण कल्पित की कविताएं

मुझे भुला देना, किसी भुला दिए गए प्यार की तरह.

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मयंक
4 जनवरी 2021 (Updated: 4 जनवरी 2021, 12:58 PM IST) कॉमेंट्स
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कृष्ण कल्पित. वो नाम जिनके बिना समकालीन हिन्दी कविता की कल्पना भी नहीं की जा सकती. चालीस साल से अधिक समय से कृष्ण कल्पित की कल्पनाएं हमारी हिन्दी में मूर्त रूप ले रही हैं. या अगर आप कल्पित की भाषा से परिचित हैं तो यूं कहना बेहतर होगा कि हमारी अपनी हिन्दी, बिना लाग लपेट वाली, इसी में कृष्ण कल्पित की कविताएं सोती-जागती हैं और हम तक पहुंचती हैं. हिन्दी से इश्क़ और उर्दू से दिल्लगी कराने वाले कृष्ण कल्पित की कविताओं की तुलना अगर सर्दियों की किसी आम दुपहरी से कर दें तो ये अतिशयोक्ति नहीं होगी. कल्पित की कविताएं हमारे बोलचाल, भावभंगिमाओं का हिस्सा कब बन जाती हैं, हमें खबर तक नहीं होती. आज एक कविता रोज़ सेगमेंट में हम आपको कृष्ण कल्पित की कविताएं पढ़ा रहे हैं. पढ़ें और नए साल की खिड़की से थोड़ी साहित्य की धूप भी आत्मा तक पहुंचने दें.

कृष्ण कल्पित की कविताएं

(1) मैंने एक स्त्री को प्यार किया और भूल गया मैं उस पत्थर को भूल गया जिससे मुझे ठोकर लगी थी और वह कौन सा रेलवे-स्टेशन था जिसकी एक सूनी बेंच पर बैठकर मैं रोया था मैंने अपमान को याद रखा और अन्याय को भूल गया अंत में मुहब्बत भुला दी जाती है और नफ़रत याद रहती है जलना भूल जाते हैं पर अग्नि याद रहती है मुझे भुला देना किसी भुला दिये गये प्यार की तरह और याद रखना एक खोये हुये सिक्के की तरह या किसी गुम चोट की तरह दुनिया में प्यार के जितने भी स्मारक हैं वे पत्थर के हैं ! (2) वह पत्थर का लैम्पपोस्ट आज भी खड़ा है क़स्बे की निगरानी करता हुआ उसकी लालटेन कब की बुझ गई है अब उसमें एक चिड़िया का घोंसला है गुप्त रोगों के शर्तिया इलाज़ के पोस्टर उसके बदन से लिपटे हुये हैं लालटेन के चारों और बना हुआ लोहे का फूल थोड़ा दाहिनी तरफ़ झुक गया है पुराने बस-स्टैंड के पास ठेलों, खोमचों और ख़ास क़स्बाई शोर से घिरा हुआ यह पत्थर का लैम्पपोस्ट नहीं होता तो मैं कैसे पहचान पाता कि यह वही क़स्बा है और वही पुराना बस-स्टैंड जहां से चालीस बरस पहले मैं चला गया था एक जर्जर बस में बैठकर किसी अज्ञात शहर की ओर कोई अपनी प्रेमिका से क्या लिपटता होगा जैसे कभी मैं लिपटता था इस पत्थर के लैम्पपोस्ट से इस पत्थर के पेड़ को हमने अपने आंसुओं से सींचा था जिसके नीचे खड़ा होकर अभी मैं मीर को याद कर रहा हूँ : 'नहीं रहता चिराग़ ऐसी पवन में' !

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