'भीड़ के हल्ले में कुचलने से बचा यह मेरा चुप'
आज पढ़िए विनोद कुमार शुक्ल की कविता.
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फोटो - thelallantop
बोलने में कम से कम बोलूं कभी बोलूं, अधिकतम न बोलूं इतना कम कि किसी दिन एक बातबार-बार बोलूंजैसे कोयल की बार-बार की कूकफिर चुप. मेरे अधिकतम चुप को सब जान लें जो कहा नहीं गया, सब कह दिया गया का चुप. पहाड़, आकाश, सूर्य, चंद्रमा के बरक्सएक छोटा सा टिम-टिमातामेरा भी शाश्वत छोटा-सा चुप. ग़लत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में मेरा एक चुप- चलने के पहले एक बंदूक का चुप. और बंदूक जो कभी नहीं चलीइतनी शांति काहमेशा-की मेरी उम्मीद का चुप. बरगद के विशाल एकांत के नीचे संभालकर रखा हुआ जलते दिये का चुप. भीड़ के हल्ले मेंकुचलने से बचा यह मेरा चुप, अपनों के जुलूस में बोलूं कि बोलने को संभालकर रखूं का चुप.
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