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नइहर में बांस तोड़ने की बात सुनकर दुलार काका की बिटिया रो दी

एक कहानी रोज़ में आज पढ़िए, अभिषेक त्रिपाठी की कहानी 'सिंदूर की लाल रेखा'.

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आशीष मिश्रा
16 जून 2016 (Updated: 16 जून 2016, 01:26 PM IST) कॉमेंट्स
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"दुलहिन रहैं बेमार निरहुआ सटल रहै"

का हो भौजी, सुने है तुमका बुखार होई गया है? हां बहुतै तेज़, पर बुखार हमको है, तप रहे तुम्हरे भैया. फिर यह बुखार की दवा कराओ, कब तक हमरे भैया इसी मे तपते रहेंगे? हम का करें, इस मरज के मरीज़ हम तो है, पर वैद्य तुम्हरे भैया ही है, दवाई करन की जगह बाजा बजा के पूरे पुरवा मे हमरी बीमारी की डुग्गी पीट रहे हैं. का सिखाई हो इतने दिनन मे अपने भैया को, ऊ तौ एकदमै अनाड़ी निकले. हमरी छोड़ो, अबहिन तो वो तुम्हरे वैद्य है और तुम उनकी मास्टरनी जौन कला-छला कम लग रही हो अपने हिसाब से तुम्ही सिखाय दो. हम तो सिखाई देंगे, पर हम तो कहते है ई विद्या का थोड़ा बहुत ज्ञान तुम भी लेई लो, का पता हमरे नन्दोई इनसे भी बडे अनाड़ी मिले. धत्त भौजी. अरे धत्त का, सही कह रहे है, सीख लो आगे चलकर बडे काम आती है. ऊ सब तो ठीक भौजी, जब भैया अनाड़ी है तौ तुम कौन से मास्टर से यह विद्या लिए आई हो? फुलेसरी ने बात बदलते हुए पूछा. काहे उसी मास्टर से तुमहू सीखोगी का? कहो तो तुम्हारा बियाह उसी संग करा दें, फिर सारी उमर सीखती सिखाती रहना. भक्क. भक्क का, हम सही कह रहे हैं. आख़िर बियाह की उमर तो तुम्हारी भी हो चुकी है, कब तक नइहर में खटिया के बांस तोड़ोगी?
"भौजी बरसो से दबे आंसू पता नहीं क्यों आपका सहारा पाकर आंखों में उबल पड़े, अब जब गांव में आई गई हो तो तुमको भी पता चल ही जाएगा, काहे फिर से हमें रुलाना चाहती हो, हम बता ना पाएंगे, बस इतना समझ लो कि हर औरत के भाग्य में ई सिंदूर की गहरी लाल रेखा नहीं होती."
"क्या हुआ?" "कुछ नहीं" "नहीं, कुछ तो बात है, क्या हुआ?" "वो आज इमरती आई थी, थोड़ा हंसी-मज़ाक़ हुआ उसके बाद वह रो पड़ी " "कैसा हंसी-मज़ाक़ ?" "अरे ननद-भौजाई में कैसा हंसी-मज़ाक़ होता है, सब तुमको बताएं का अब, इतना भी नहीं समझते?" "अरे तो बिगड़ती काहे है, कुछ तो कहा होगा ? कि बस हंसी-मज़ाक़ की वजह से रो पड़ी?" "नहीं पहले तो बड़ी चुहल कर रही थी, हमने कह दिया कि तुम कब विदा हो रही, आख़िर कब तक नइहर का बांस तोड़ोगी, बस इसी पर रो पड़ी " "हूं, अब उससे ऐसा बोलेगी तो रोएगी ही बेचारी " "क्यों?" "उसकी जेसे शादी हुई वह नहीं रहा अब, बेचारी विदा भी ना हुई थी." "हैं? शादी कब हुई उसकी?" "बचपन में ही इसकी शादी हो गई थी, रजौरा के भीखू के बेटवा से, लड़का ठीक-ठाक भी था गौना का दिन भी रखाया था, पर भगवान को मंज़ूर नहीं रहा कि यह उहां विदा होकर जाय, दिल्ली शहर में लड़का कमा रहा था, गौने के लिये ही वहां से गांव को चला था नवंबर की ठंडी रात थी. कुहरा बहुत होने के कारण जिस ट्रेन से आ रहा था लड़ गई, और उसी में उसकी मौत हो गई. अब उससे ऐसा मज़ाक़ मत करना कभी " "तो का अब इसका दूसरा बियाह नहीं होगा?" "तोर दिमाग़ बहुत चल रहा, वक़ील मत बन अब, केतना बार बियाह होगा रे उसका " "केतना बार का मतलब? बचपने में बियाह कर दो. लड़का मर मुरा गया तो इसमें वोकी का ग़लती है? दुलार काका को दूसरा लड़का देखना चाहिए,शादी के लिए. अभी उमर का है उसकी? पूरी जिंदगी यहां केकरे सहारे पर काटेगी वो?" "हम यही लिये कहते है कि मेहरारु को बहुत पढ़ना-लिखना नहीं चाहिए, तुम्हरे बाप ने तुमको पढ़ाय कर हमरे मत्थे मढ़ दिया. अब ऊ तो फरके है, झेल हम रहे." "नहीं, हम सही कह रहे है. एक बार सोचिए यह पर. आख़िर उसकी जिंदगी बर्बाद करके का मिलेगा." "बात तो सोलह टका सही है, पर अब कौन लड़का वोसे बियाह करेगा? विदा हुई ना हुई सब अपनी जगह पर अब फुलेसरी के माथे पर दुआह लिखा गया है. दुनिया में सब ग़लत रीति-रिवाज बदले चाह रहे है. पर इमरती, अपने घर से बदले के लिये कोई भी तैयार नहीं. और फिर ख़ाली हमारे सोचने से का होगा? दुलार काका के भी तो सोचना चाहिए, शायद एक-दो जगह बात भी चलाए थे. पर दुआह के नाम पर हर कोई नाक-भौं सिकोड़ता है. अब तो ऊ भी इसे नियति का खेल मानकर समझौता कर लिए हैं. चल अब सो जा. बहुत सोचने से अब कुछ बदलने वाला नहीं है.
"बाबू इस लड़की को देखे ?" "हां जब चाय पानी यही ला रही तो देखेंगे नहीं का " "बाबू इसका बियाह बालपन में हो गया था, गौना का दिन धराया पर विदाई से पहिले ही लड़का गुज़र गया, अब कही बात बन नहीं रही, अगर आप इजाज़त दे तो काहे नहीं लाखन से ही इसका बियाह कर देते." पिलुवा हतप्रभ हो इमरती को देखता रहा. "ये का पागलपन की बात कर रही है." "आप चुप रही अभी, बाबू लड़की बड़ी अच्छी है, बस बेचारी की क़िस्मत ही ख़राब थी." " बेटी, बात तो सही है, लड़की अच्छी है, सुन्दर भी है, पर हम समाज में सबसे क्या कहेंगे आख़िर क्यो हम दुआह लड़की से अपने कुंआरे लड़के का बियाह किए, समाज तो लाखन में ही खोट बता देगा. और फिर रहना तो हमको यही इसी समाज में है ना." " बाबू, अगर हम सब पढ़े-लिखे होके समाज से ई सब बुराई दूर करे के पहल ना करेंगे तो फिर किससे उम्मीद करे कि कौन खड़ा होगा इसके ख़िलाफ़, आख़िर यह समाज के वेदी पर हमार सब के बहन बेटी के जिन्दगी कब तक तबाह होवे के चाही, फिर हम जानते है, आप जानते है कि हमार लाखन में खोट नहीं फिर समाज कुछ भी कहे का फ़र्क़ पड़ता है, बाबू जी समय लेकर सोची केहू के बेटी का जिन्दगी संवर जाईं, और फिर भगवान ना करे अगर यही हमरे साथ हुआ होता तो...?
"बेटी, हम तो पहली बार में ही जब तुम कही तो मन बना लिए थे पर तुम्हारी राय जानना चाहते थे कि यह केवल सहानुभूति बस तो नहीं, आज हम उस समाज के सामने गर्व से सीना तानकर खड़े हो सकते है जिसने तुम्हारी पढ़ाई को लेकर हम पर कभी तंज कसा था. हमारी दी हुई शिक्षा और संस्कार आज तुममें झलक रहा, हमारी रज़ामंदी है बिटिया, बाकी लाखन से भी पूछ ले एक बार." "का रे लाखन, फुलेसरी पसंद है तोके?" "दीदी और बाबू को पसंद तो हमको भी पसंद है" लाखन ने सर नीचे किए हुए कहा.

पिलुवा उस दिन ज़ोर-ज़ोर से अपनी 1300 रुपये वाली बिना सिम की चाइनीज़ मोबाइल मे श्रृंगार रस से परिपूरित कविता बजा रहा था, घर के भीतर से यह गाना सुनकर इमरती भौजी कई कई बार शरम के मारे गड़ी जा रही थी, अग़ल-बग़ल के घर वाले पिलुवा को देखकर कंटीली हंसी छोड आगे बढ जाते या फिर "जिया हो निरहू" जैसे उपमान से नवाज़ कर मन ही मन मगन हो रहे थे. फुलेसरी, जो पड़ोस के दुलार काका की बिटिया थी, भौजी को छेड़ने के लिये घर के भीतर तक पहुंच गई थी. फुलेसरी इतना सुनकर ही चुप हो गई. आंखों से आंसुओं की दो-तीन बूंद गालों पर ढुलक आए. इन आंसुओं को वह इमरती से बचाने की लाख कोशिशों के बाद भी ना बचा पाई. इमरती इन आंसुओं में पीड़ा देख चुकी थी पास आकर संवेदना से उसके सर पर हाथ फेरा. दुखी मन जब संवेदनाओं का साथ पाता है तो सारे दुख सारे क्लेश एक ही बार में आंसुओं के साथ बहा देना चाहता है. कुछ यही हाल फुलेसरी का भी हुआ, इमरती के कंधे अब उसका सहारा बन चुके थे. आर्तनाद करता हुआ बरसों से जमा हुआ लावा आंखों से मोतियों की मानिन्द बरसने लगा. कुछ देर तक ढाढ़स बंधाने के बाद जब आंसुओं ने सिसकियों का रुप लिया तो इमरती रोने का मर्म जानना चाहा. इतना ही कहकर वह लाल आंखें लिए घर से बाहर चली गई, इमरती अभी भी इसी उधेड़बुन में पड़ी रही कि आख़िर ऐसा क्या हो गया है इसके साथ? रात काफ़ी गहरी हो चुकी थी. पूर्णिमा का चांद सिर के ऊपर अपनी शीतलता से आह्लादित कर रहा था, घड़ी की सुईयां ग्यारह से कुछ ऊपर का ही इशारा कर रही थी. हर कोई इस चांदनी रात के आग़ोश में सो चुका था. एक इमरती को छोड़कर, अभी भी फुलेसरी की लाल-लाल सजल आंखें उसे झकझोर रही थी. आख़िर ऐसा तो उसने कुछ कहा भी नहीं था. अपनी ही सोच में गुमसुम इमरती का ध्यान टूटा पिलुवा के करवट बदलने से. वह ख़ुद को सहेजने लगी कि तभी पिलुवा की भी आंख खुल गई. नींद अभी भी इमरती की आंखों से कोसों दूर थी. एक स्त्री का दर्द एक स्त्री ही बेहतर समझ सकती है. फुलेसरी का चेहरा बार-बार उसकी आंखों के सामने आ जाता. कितनी तो मासूमियत भरी है उसमें. इतना सारा कुछ अपने अंदर समेटे कभी ज़ाहिर नहीं करती. हमेशा मुस्कुराता हुआ चेहरा ही देखा है. प्रकृति से भी लड़ने का एक हौसला चाहिए. शायद उसी हौसले को समेटकर वह अपनी नियति से लड़ रही है. लेकिन कब तक ? छोटी-छोटी विपत्तियों में इंसान को टूटते हुए देखा है. एक दिन फुलेसरी भी बिखर जाएगी. बहुत अधिक कठोर हो चुका इंसान जब बिखरता है तो लाख कोशिशों के बावजूद कोई उसे समेट नहीं सकता, आज उसके बिखरने की टूटने की शुरुआत हो चुकी है. आख़िर कब तक अपने आपको इस समाज की आग में वह तपा पाएगी, एक छोटी सी लौ उसका सब कुछ जलाकर ख़ाक कर देगी. सब कुछ. सुबह जब इमरती पिलुवा के लिये चाय लेकर आई तो अपने बाबू जी से फ़ोन पर बात करने के लिये बोली. "नइहर की बहुत याद आ रही " पिलुवा बोला "माई-बाप को छोड़कर विदा होना पड़ता ना तब समझ में आता. फ़ोन मिलाकर बुला दीजिए. बाबू और लाखन से मिलने का मन हो रहा, हम जा नहीं पाएंगे कह दो वही दोनों आ जाय." पूरी रात की क़ुर्बानी देकर इमरती, फुलेसरी के लिये एक नतीजे पर पहुंची थी. अब इसमें उसे अपने बाबू और भाई लाखन का सहयोग चाहिए था. वैसे बाबू दक़ियानूसी तो नहीं है, पर कौन जाने समाज से लड़ने, ताने, उलाहने सुनने की हिम्मत उनके बूढे हो चुके कंधों में हो या ना हो. पूरा दिन इमरती का यही सोचते हुआ बीता कि बाबू जी से क्या कहेगी. अभी तक उसने अपने मन की बात तो पिलुवा को भी नहीं बताई है. पिलुवा कह गया था कि इतवार को दोनों लोग आ रहे है. अभी तो चार दिन है, पूरे चार दिन इमरती का इसी उधेड़बुन में बीता कि वह बात कहां से शुरु करेगी. इतवार को मदद के बहाने इमरती ने फुलेसरी को बुला लिया था. बाबू और लाखन को पानी और चाय फुलेसरी ने ही दिया था. इस बीच इमरती ज़मीन पर बैठी पूरे गांव का हालचाल लेती रही. पिलुवा भी पास में ही एक स्टूल पर बैठा हुआ था. फुलेसरी चाय पानी देकर अपने घर चली गई थी. बाबू थोड़ी देर तक शांत इमरती को देखते रहे. फिर इमरती, पिलुवा की तरफ घूमी. जो अब तक निर्वाक हो उन दोनों की बातें सुन रहा था. जाईं जी आप दुलार काका से तुरंत बात करी और लेके आई जादा समय ना है आज ही सारी बात पक्की कर दीं. पिलुवा गर्व के भाव से इमरती को देखा और छाती चौड़ी किए, दुलार काका के पास पहुंच गया. थोड़ी ही देर में भरी आंखों के साथ दुलार काका बाबू जी के सामने खड़े थे. रिश्ता पक्का हो चुका था, गोदभराई आज ही होगी. फुलेसरी को तैयार करके इमरती ख़ुद ले आई. बाबू जी और कुछ तो लाए नहीं थे. चौराहे से एक नारियल, साड़ी, सवा किलो लड्डू और एक हज़ार एक रुपये फुलेसरी के कोइछा में इमरती के हाथ से डलवा दिए. तभी इमरती अपने हाथ से मां की दी हुई अंगूठी निकालकर फुलेसरी को पहनाते हुए बोली. "अब तुम्हारे भाग्य में भी ई सिन्दूर की गहरी लाल रेखा आ गई है, आज से तुम हमको भौजी कहना और हम तुमको भौजी कहा करेंगे " आस-पास खड़े सभी लोग ठहाके लगाकर हंस पड़े. फुलेसरी की आंखों में एक बार फिर से आंसू छलक रहे थे. पर ये आंसू अबकी बार इमरती के लिए कृतज्ञता के थे.

'मस्से को छूने से भीतर की सारी घटिया बातें निकल जाती'

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