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एक रोज भोलू छूटकर फिर घर आ गया

एक कहानी रोज़ में आज पढ़िए शोभा रस्तोगी की कहानी 'मेरे तो गिरधर'

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18 जून 2016 (Updated: 18 जून 2016, 12:54 PM IST) कॉमेंट्स
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मेरे तो गिरधर गोपाल पर नाच रही थी राधा. ' अरी ! ओ कुलटा ! नैक अपनी अंगिया ए तो संभाल लै. जवानी में आग लगे तेरी.' राधा की बूढ़ी सास ठुनक रही थी. नाचते-नाचते राधा की चोली ऊपर चढ़ गई थी. छातियां नीचे सरक आईं थीं. ब्याह के आई ही थी कि पति को ड्रग्स और क़त्ल के अपराध में पुलिस ले गयी. मधुयामिनी दस्तक देती ही रह गई. द्वार खुले ही नहीं. रंगीन, नम ख्वाहिशें बर्फीले रेगिस्तान में जम सफ़ेद हो गईं. सकुचाती-सहमती वह चोली ठीक करने लगी. ' ठाड़ी ही रहेगी ? चूल्हा फूंक ले . खोटे भाग बांध के पैदा भई हती . ब्याहते ई ख़सम कू जेल भेद्दो. 'बर्राती- बड़बड़ाती कमला जमीं पकड़ लेती है. नई नवेली राधा चौके में घुस चूल्हा फूंकती है. प्रति दिन सास के तानों से राधा अपना यौवन सेकती है. गर्माइश देने वाले हाथ तो जेल की सलाखें गरमाए हैं सास के उलाहने ही सही. 'खूब बड़ी दरी बिछा दे. अड़ोस-पड़ोस की औरतें आवन वारी है तेरी मुंह दिखाई कू. ब्याह के अगले दिन होती जे रसम. पर बा दिन तो हमपे आसमां फट पड़ो. आज ई सई. काहे कि रसम पर कहा करे? रसम तो रसम है समाज कि तांई सब कन्नो पत्ते. 'राधा कोठरी से निकाल बड़ी दरी बिछाती है. 'कलेऊ कल्लो ? कछु सिंगार पिटार कल्ले. काहे को सिंगार ? देखनवारो ही ना है. परकल्ले कछु थोड़ो घनो.' सास के स्वर में मां का दर्द चटखने को है. चटख बिंदी खिल जाती है राधा के ललाट पे. मन हुलसता है गुलाबी होंठो पे लाल लाली लगाने को. उठा के चिपिया लेती है. भर हाथ चूड़ियां तो पहले ही हैं. लहंगा पहन ओढ़नी सर पे धरती है तो घूंघट बलात हटा उसे बांहों में कस लेता है उसकी झील आंखों में झलका प्रीतम का प्रतिबिम्ब. सम्मोहित सी बंधी वह भरपूर नहा लेना चाहती है पी प्रतिबिम्ब के साथ अपनी ही झील में. गहरे और गहरे उतराई पे चली जाती है . नम,आद्र,सराबोर, अपने मे ही आत्म तृप्ति का भुलावा लिये पी सम्मोहन के इन्द्रजाल मे बन्धी सी ठगी रह जाती है. 'कित्तो सिंगारेगी? मेरो छोरा तो है न इती. घूंघट धर के आ जा. लुगाई आन लग गईं.' कमला के बैन तन्द्रा तोड़ते हैं. आह ! मधुर स्वप्न में भी पैबंद. स्वप्न आसक्ति पर भी धनवान का राज. क्या गरीब को सपन संजोने का भी हक़ नहीं. यहां भी टोटा ही टोटा. सकपकाई-अटपटाई. इत उत देख घूंघट सम्हाल बाहर निकल आती है. 'अरी देखो तो कित्तो रूप है ? मलूक है बहू तो तेरी कमला.' 'का अचार डारेगी कमला जा मलूक को. छोरा तो जाके भागन ने गैल कर दो पिलिस के.' 'घर तो बसबे ते पेले ई उजड़ गयो.' 'अब कहा करे जे कमला जा रूपमती को. 'तरह तरह की बातें. करेले के रस से भी कटु बातें. रस चटखारे ले स्वाद ले रही थीं आंगन में बैठी औरतें कमला पर पड़े दुःख का नमक,नींबू छिड़क घावों पर राधा के. सहलाना, सांत्वना देना तो दूर की बात. मुंह दिखाई से निच्चू हो दोनों घुस गईं एक छत के दड़बे में. रात चांद आया. चांदनी छाई. मधु किरणें गिरीं. राधा के आंगन अंधेरा पहरा देता रहा. बगल की छत से सरक गया चांद चांदनी छिपा. भोर कमला खेत हाट करती. थक हार घर आती. चार छह जली कटी सुनाती. तानों में लिपटा अपना दर्द खोलती. मां होने का, सास होने का, औरत होने का. कभी-कभी राधा के दर्द की गिरह भी नापती. छिटक देती. जो चीज पकडी न जाए, छोडना बेहतर. क्या करे ? अपने बुढापे-बहू की जवानी का. गज-गज भर पे जवानी के सरमाएदार खडे हैं. दरोगा जब तब आन लगा. जवाब-तलब का बहाना हाथ में बांधे. पूछ्ताछ कमला से, नैन खोजते राधा का साय . और तो. पटवारी,पडोसी बनिया,कल्लू चौकीदार भी डंडा बजा देता. भरी जवानी मे कमला ने पति खोया था. दुखती रग की एक-एक टीस उसके जेहन मे चस्पा थी. समाज के ठेकेदारों की मदद. मायके, ससुरालियो के आश्वासन, सब से वाकिफ़ थी कमला. कैसे उसने भोलू को पाला-पोसा. वही जानती है. फ़िर वही कहानी दोहरा रही है उसकी तकदीर. कमला सबके भाव जाने थी. बहू को सहेज कर रखता. खुद चार बात सुना लेती. पर गैर की क्या मजाल जो राधा की परछाईं भी छू ले. 'माजी ! पालागन.' की टेर सुन राधा बाहर भागी. स्वर पहचाना. भाई का था. 'बैठ बेटा.' 'कहा सोचो है अम्मा जी? ऐसे कब तलक चलेगो ? जीजा पे तो ऐसे वाद लगे हते कि बिनको छूट्बो मुसकल है. जामे बेल उ न मिलते.' 'मैं तो खोटे नसीब की मारी हतू. जो तुम्हे जन्चे सोई कर लेओ. ' ' राधा कू लिवाने आयो ऊं.  बापू तो कछु कत्त नाय. घर को खरचा निकरबो ई मुसकल पत्ते. पर करिन्गे कछु. राधा की उ तो सोचनी ए.' 'राधा ए मेरे गैल कर देयो. पलट के न आवेगी. अब और ई सोचुन्गो जाको.' राधा के जाने का सुनते ही कमला के दिल पे हौल सी उठी. 'चार बात कर तो लेवे ई. ताने-उलाहने ई सई. मन को दुख कोई राह तो निकलेई थो. पर अपने काजे जान ज्वान बहू कू कब तलक . ' बेटे के छूट्ने की आस घनघोर धुन्धियाई थी. ' जा राधा. लै जाओ भैया. जाकी जवानी की कबतलक चौकीदारी करती फ़िरूं ? बेटा तो चलो ई गयो. तू ऊ जा राधा. करम जले हते मेरे.' दुत्कारती है स्वयम को. पुलक भरी राधा भाई से मिलती है. नम नैनों से मां की बात करती है. भरे दिल से बहनों का पता लेती है. जाने की बात पर नाईं कर देती है. सास में मां के दर्द को पहचानती है. ' न भैया ! हम नई जावे. अम्मा कू कौन देखे ? बे तो इते नई हम तो हते.' 'तेरो जीवन अन्धियार है जाएगो पगली. चल इते सै.' ' कौन सो घर ? विदा करते भए मां ने कहो थो - तेरो ससुराल ई तेरो घर है राधा. बोई भगवान एं. बे न सही बिनकी मां तो हते. तुमपे दो और बहनन को न्यारो जोर ए. तुम बिने देखो. भइया, मै न जाय सकूं.' विवेक या लगाव राधा के चेहरे पर कुछ तो था. खिन्न मन भाई लौट गया. और कमला, उलाहने,ताने, कडुवे बोल, मन में बहू की निर्भागता का संचित विषाद आंसुओ की चौड़ी सड़क से रहगुजर होता है. सबका सब बाहर. अन्दर विशुद्ध,साफ़,कोमल,धुला-पुंछा निरभ्र आसमां जिस पर सिर्फ़ राधा लिखा है. जाने कैसे ? गले लगा उसे पुचकारती है. बलैया लेती है. ' अरी ! तू बहू ना है मेरी. बेटी है बेटी. मैने तोय कित्तो जलील करो, पर तू , मेरी खातर अपने मायके ऊ नाय गई. कैक्टस पर मधुमक्खियां. शहद बनने लगा. सास-बहू जाने कहां चली गई. मां-बेटी रहने लगीं. नजदीक के सरकारी स्कूल में राधा को पढ़ने भेजती है. उसकी देखभाल करती है. कोई कुछ बोले तो डांट डपट देती है. जीने की नई राह मिल गई उसे. बुझती चिंगारी शोला बन दहकने लगी. हर तरह से कमला राधा का ध्यान रखती. पर क्या करती उसकी कमसिन उमर का, देह भराव का, मन बहलाव का ? ये उम्र ही ऐसी है. पूरी तरह चाक चौबंद रहने की जरूरत. ज़रा भी नज़र हटी कि चील गिद्ध मंडराने लगें. नोंच-खसोट का कोई मौक़ा न छोड़ें. बोटी बोटी नोंच लें. कमला अपनी भरसक कोशिश करती उसे गिद्धों से बचाने की. एक दिन स्कूल के मोहन नाम के मास्टर को ले राधा घर आई. 'अम्मा ! स्कूल मे नए मास्टर जी आए हैं बाहर ते. इने कमरा के पीछे छ्प्पर पड़ी जगह पे रहवन दो. जा गाम मे इनको कोइ नाय. ' कमला देखती रही. विचारती रही. फ़िर हामी भर दी. जांच पूछ कर. राधा मोहन संग ही संग स्कूल आते जाते. राधा चूल्हा जलाती. आटा उसनती. पनपती रोटी बनाती. मोहन को खिलाती. कमला कुठियार से मिर्च का अचार दे मोहन से कहती - 'खा ले बेटा. तेरो जा गाम मे कौन ठौर ए ? मेरी राधा भोरी ए. बाबरी ए. जाको खयाल राखियो. ' बात-बात मे सरका देती मन में छुपी. राधा मोहन का आना-जाना, पढना-पढाना, खाना-खिलाना नई इबारत लिख रहा था. बूढी आंखों मे समझदारी की कोंपलें नया जन्म ले रही थीं. रोटी देते लेते, पुस्तकों का आदान-प्रदान करते. कमरे से लगे छप्पर मे राधा का कुछ-कुछ देना लेना. इन सबसे उपजा स्पर्श. स्पर्श से फ़ूटे अंकुर. अंकुर से बनी कलियां जिनमें नेह संचित था. मौन स्नेह. कली खिलने का समय चल रहा था. रोमांच, डर, घबराहट से सिहरता दबे पांव बढ रहा था. इतवारी दिन. स्कूल की छुट्टी. कमला खेत पर. राधा कलेऊ की तैयारी मे व्यस्त. मोहन को लगी प्यास. लोटा खाली. चौके के बाहर रखे मटके से पानी लेने उठा. राधा ने देखा. चौके से बाहर आने लगी पानी देने. चौखट पे खडा मोहन झुकने लगा मटके पर. राधा का पांव फ़िसलते-फ़िसलते फ़िसलने को हुआ कि मोहन ने संभाल लिया. 'अरे राधा , संभाल के. लग जाती तो. ' घबराई राधा मोहन की बांहों में. पल भर को दोनों एक दूजे को देखते रहे. वैसे ही खडे रहे. नज़रों ने ऐसा बांधा कि सीधा ही न हो पाया कोई. राधा की चुनरी सिर से ढ़लक लटक गई. सुराही सी गर्दन. गर्दन के नीचे ओढ़नी के पीछे छुपे वक्ष उभार जरा और उभर आए. चौके के चूल्हे की तपिश से राधा का मुंह कुंदन सा चमक रहा था. छलके स्वेद कण हीरे मोती का श्रृंगार, लाल ओष्ठ, गहरी काली आंखें, गौर वर्ण,  खूबसूरत जवानी का मदहोश पल. मोहन देखता ही रह गया. तभी चौके मे रखे कटोरदान पे चूहा कूदा. उसका ढ़क्कन नीचे गिरा. चट की आवाज से दोनों को सुध आई. झिझके,शरमाए,डर गए. किसी ने देख तो नहीं लिया. अपनी-अपनी जगह पकड़ी. राधा ने कलेऊ परोस दिया. पर मोहन बाहर निकल लिया. दोनों एक दूसरे से बचते रहे. उड़ान अपनी ऊंचाई पकड़ चुकी थी. जाने कौन से पल से सरसराई थी हवा जो अब दो दिलों में पंख फड़फड़ा रही थी. कशमकश, जिद्दोजहद का आलम निराला था. सम्मोहित स्पर्श का अपराध बोध था तो एक नज़र कनखियों से उंड़ेलने की भी थी. चाह की यही चाह प्रेम सम्भावनाओं को गहराई देती है. फ़ना हो जाने की कुव्वत रखती है. और ये तो भूमि भी प्रेम की थी. राधा कृष्ण का ब्रज क्षेत्र. राधा गिरधर की रास रंगीली धरा. प्रेम वंशी की स्वर लहरी गुंजाती सुरीली मोहक हवा से प्राण लेता व्योम. पात-पात बोलते राधा नटवर नाम. कृष्णा रम्भाती धेनु. पपीहे कूकते श्याम. दोपहर बीते कमला आई. खा पी के लेटी तो राधा बैठी पैताने. कमला राधा आपस में कोई राज न रखते. आज की भी वह कह गई. ' अम्मा ! तुमे सल ए ? आज तो मैं गिरते गिरते बची. भलो होय मास्टर साब कौ जिन्ने मोय थाम लियो. ' सारी कहानी बंच गई. राधा के आरक्त कपोल और नत नैन कुछ अलग ही बयान कर रहे थे. जिसे कमला के बूढे, अनुभवी नेत्र अनदेखा न कर पाए. 'चौबारे को दरबज्जो तो भिड़ो थो न. काऊ ने देखो तो न ?' 'नाय, अम्मा. काऊ ने न' कह तो गई वह. पर उसके जब को कमला अब देख रही थी. झुकी पलकों के परदे पीछे का गुलाबीपन अपने ही रंग में इठला रहा था. शर्मा रहा था आत्म मुग्ध सा. राधा सकुचा कर वहां से हट गई. कमला के माथे पर सलवटें खिंच गईं. एक पल बेटे का सोच बहू के लिए जुबां पर गालियां चढ़ गईं. कुलटा,कलमुंही. तुरंत पलटा पल. कुछ समझा. थूक दीं गालियां. अनन्यमनस्क, विवश पड़ी रही. भर रात मथता रहा मन. लहरें आतीं,टकरातीं ,शोर खूब करतीं लौट जातीं . हां - न , सही - गलत के भंवर गोल गोल चक्कर लगाते. हेमलेट के टू बी-नॉट टू बी का मंचन स्टेज पकड़े रहा. कमला का मन मस्तिष्क बारम्बार परीक्षा देते रहे. बेटे की तो उम्रकैद अवश्यम्भावी थी. शायद उससे भी ज्यादा. बेटे की वापसी की कोई किरण मां की आंखों को सेक नहीं पा रही थी. कब नींद टूट पड़ी. भान ही न हुआ. गयी रात तक जगने से सुबह देर तक नींद तारी रही. ' अम्मा ! उठो, मोय स्कूल जानो है. तबियत मलूक न लग रई तुमारी. ' राधा के झिंझोड़ने पर थके, अलसाए नेत्र खुले कमला के. ' हाय दइया ! इत्ती देर ? दारी , मौय उठायो चौं न ? खेत पै का तेरो बाप जावेगो ?' झुंझलाई बुढ़िया. निशा पटल पर किए मंथन सुमिर आए. हौले से बोली,' आज तू ऊ छुट्टी कल्ले. मास्टर चलो जावेगो.' मोहन निकल लिया. राधा अपराध बोध से घिर गई. 'कल्ल की बात से नराज हो अम्मा ? अब कबऊ न होवेगी ऐसी गलती.' कान पकड़ वह कमला के पैरों पे झुक गई. ' अरे नाय. कछु गलत न भयो. चल मैं नहा धोय के निच्चू है लूं. तू कलेऊ लै आ. ' दोपहर तले सास बहू आंगन माय बैठ गईं. पहले राधा चारपाई के नीचे बैठा करती. पर अब कमला उसे अपने पास ही बैठाने लगी थी. राधा का अपराधी मन आज फ़िर नीचे बैठ गया. ' अरे, कित बैठ रइ ए ? यां बैठ. मेरे झौरे. तू मेरी बहू न बेटी ह्ते. मेरे छोरा कौ तो पांव निकर गयो थो. ऐबिन की संगत माय पड़ गयो. नसाखोरी की हालत में पटबारी के छोरा को खून कद्दो. पिलिस बाय कबऊ नाय छोड़ेगी. मेरो कलेजा फ़टते. पर कहा करूं ? मेरी कहा बिसात. ' सुबकते-सुबकते सीने पे जमी नमकीन बर्फ़ वाष्पीकृत हो आंखों से जलधार बन बह निकलती है. राधा भी उस नदिया में भीगने लगती है. उसके भी कितने सपने थे. पति को जी भर देखा ही कहां था ? कोई भाव कुंआरे माढ़े भी साथ न जिया था. विवाह पूर्व मुलाकात पर बंदिश थी गांव में. ' राधा ! मेरी लल्ली. तोसे एक बात पुछूं ? सही जांचियो, मास्टर की कै मरजी है ?' हकबकाई राधा - मरजी काय की ? मोय न सल. बिनते ई पूछियों.' 'और तेरी ' मेरी?' जवाब उगल निगल की देहरी पे ही लटक गया. एक पल में कितने ही हां जी गयी और कितने ही ना. हां-ना का मिश्रण तालू से चिपक गया. चेतन मस्तिष्क की चेतनता अवरुद्ध हो गयी. निर्णय धारा सूख कर कहीं लुप्त हो गयी. अंदर बाहर की कशमकश के चलते चौखट पर झुकी रह गयी. ' हां बेटा. मैं तुम दोनन की राजी में ई राजी ऊं. तू अपनो मन तो खोल. ' यकायक राधा की आंखें दुगने वेग से हल्की होने लगीं. ' मैं तुम कू छोड़ कहीं न जा रही.' ' अरी बावरी ! मैं तोय कहूं नाय भेज रई. झईं राखूंगी.  तू और मास्टर, दोनन कू अपने झौरे.' लता सी लिपट गई राधा कमला के ठूंठ तने से. दो जोड़ी आंखे दुख-सुख की बौछारें कर दोनों को भिगो रहीं थीं. दरवाजे की ठक-ठक ने उनके इस अश्रु स्नान मे व्यवधान डाला. राधा को अंदर कर कमला द्वार पर आई. दरवाजा खोलते ही हैरानी ने उसके होंठ सी दिए. उसका बेटा उसका भोलू चौखट पर खडा था. जाना कि साक्ष्यों के अभाव में पुलिस ने उसे पकड़ लिया था. कसूरवार वह नहीं कोई और था. अब साक्ष्य मिलने पर उसे बरी कर दिया. मां के गणित और ममता थरथरा उठे. गड्ड्म-गड्ड होने लगे. इनकी अंदर-बाहर, ऊपर-नीचे की कवायद ने सांसों की रफ़्तार जैसे थाम सी दी. मां थी तो ममता ही जीती. राधा को समझाया. लोक लाज का आईना दिखाया. नई भोर फ़ूटी. राधा घर न थी. स्कूल की नौकरी छोड़ मोहन भी जा चुका था. सास के बोल टूट पड़े. कलमुंही. बदचलन.

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