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'मस्से को छूने से भीतर की सारी घटिया बातें निकल जाती'

एक कहानी रोज में आज पढ़िए कावाबाता की कहानी मस्सा.

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13 जून 2016 (Updated: 13 जून 2016, 10:15 AM IST) कॉमेंट्स
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जापानी राइटर यासुनारी कावाबाता. कहानीकार. कावाबात जापान के पहले ऐसे लेखक, जिन्हें 1968 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला. यासुनारी की एक जापानी कहानी है, नाम है द मोल. हिंदी में इस कहानी का अनुवाद 'मस्सा' सुशांत सुप्रिय ने किया है. आज एक कहानी रोज में हम आपको पढ़वा रहे हैं कहानी मस्सा.
कल रात मुझे उस मस्से के बारे में सपना आया. 'मस्सा' शब्द के जिक्र मात्र से तुम मेरा मतलब समझ गए होगे. कितनी बार तुमने उस मस्से की वजह से मुझे डांटा है. वह मेरे दाएं कंधे पर है या यूं कहें कि मेरी पीठ पर ऊपर की ओर है. "इसका आकार बड़ा होता जा रहा है. और खेलो इससे. जल्दी ही इसमें से अंकुर निकलने लगेंगे." तुम मुझे यह कह कर छेड़ते, लेकिन जैसा तुम कहते थे, वह एक बड़े आकार का मस्सा था, गोल और उभरा हुआ. बचपन में मैं बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अपने इस मस्से से खेलती रहती. जब पहली बार तुमने इसे देखा तो मुझे कितनी शर्मिंदगी महसूस हुई थी. मैं रोई भी थी और मुझे तुम्हारा हैरान होना याद है. "उसे मत छुओ. तुम उसे जितना छुओगी, वह उतना ही बड़ा होता जाएगा." मेरी मां भी मुझे इसी वजह से अक्सर डांटती थी. मैं अभी छोटी ही थी, शायद तेरह की भी नहीं हुई थी. बाद में मैं अकेले में ही अपने मस्से को छूती थी. यह आदत बनी रही, हालांकि मैं जान-बूझकर ऐसा नहीं करती थी. जब तुमने पहली बार इस पर गौर किया तब भी मैं छोटी ही थी. हालांकि मैं तुम्हारी पत्नी बन चुकी थी. पता नहीं तुम, एक पुरुष, कभी यह समझ पाओगे कि मैं इसके लिए कितना शर्मिंदा थी, लेकिन दरअसल यह शर्मिंदगी से भी कुछ अधिक था. यह डरावना है - मैं सोचती. असल में मुझे तब शादी भी एक डरावनी चीज लगती. मुझे लगा था जैसे तुमने मेरे रहस्यों की सभी परतें एक-एक करके उधेड़ दी हैं. वे रहस्य, जिनसे मैं भी अंजान थी. और अब मेरे पास कोई शरणस्थली नहीं बची थी. तुम आराम से सो गए थे. हालांकि मैंने कुछ राहत महसूस की थी, लेकिन वहां एक अकेलापन भी था. कभी-कभी मैं चौंक उठती और मेरा हाथ अपने-आप ही मस्से तक पहुंच जाता. "अब तो मैं अपने मस्से को छू भी नहीं पाती." मैंने इस के बारे में अपनी मां को पत्र लिखना चाहा, लेकिन इसके ख्याल मात्र से मेरा चेहरा लाल हो जाता. "मस्से के बारे में बेकार में क्यों चिंतित रहती हो?" तुमने एक बार कहा था. मैं मुस्करा दी थी, लेकिन अब मुड़ कर देखती हूं, तो लगता है कि काश, तुम भी मेरी आदत से जरा प्यार कर पाते. मैं मस्से को लेकर इतनी फिक्रमंद नहीं थी. जाहिर है, लोग महिलाओं की गर्दन के नीचे छिपे मस्से को नहीं ढूंढ़ते फिरते. और चाहे मस्सा बड़े आकार का क्यों न हो, उसे विकृति नहीं माना जा सकता. तुम्हें क्या लगता है, मुझे अपने मस्से से खेलने की आदत क्यों पड़ गई? और मेरी इस आदत से तुम इतना चिढ़ते क्यों थे? "बंद करो," तुम कहते, "अपने मस्से से खेलना बंद करो." तुमने मुझे न जाने कितनी बार इसके लिए झिड़का. "तुम अपना बायां हाथ ही इसके लिए इस्तेमाल क्यों करती हो?" एक बार तुमने चिढ़ कर गुस्से में पूछा था. "बायां हाथ?" मैं इस सवाल से चौंक गई थी. यह सच था. मैंने इस पर कभी गौर नहीं किया था, लेकिन मैं अपने मस्से को छूने के लिए हमेशा अपना बायां हाथ ही इस्तेमाल करती थी. "मस्सा तुम्हारे दाएं कंधे पर है. तुम उसे अपने दाएं हाथ से आसानी से छू सकती हो." "अच्छा?" मैंने अपना दायां हाथ उठाया. "लेकिन यह अजीब है." "यह बिलकुल अजीब नहीं है." "लेकिन मुझे अपने बाएं हाथ से मस्सा छूना ज्यादा स्वाभाविक लगता है." "दायां हाथ उसके ज्यादा करीब है." "दाहिने हाथ से मुझे पीछे जा कर मस्से को छूना पड़ता है." "पीछे?"
"हां. मुझे गर्दन के सामने बांह लाने या बांह इस तरह पीछे करने में से किसी एक को चुनना होता है." अब मैं चुपचाप विनम्रता से तुम्हारी हर बात पर हां में हां नहीं मिला रही थी. हालांकि तुम्हारी बात का जवाब देते-देते मेरे जहन में आया कि जब मैं अपना बायां हाथ अपने आगे लाई, तो ऐसा लगा जैसे मैं तुम्हें परे हटा रही थी, जैसे मैं खुद को आलिंगन में ले रही थी. मैं उसके साथ क्रूर व्यवहार कर रही हूं, मैंने सोचा.
मैंने धीमे स्वर में पूछा, "लेकिन इसके लिए बायां हाथ इस्तेमाल करना गलत क्यों है? " "चाहे बायां हाथ हो या दायां, यह एक बुरी आदत है." "मुझे पता है." "क्या मैंने तुम्हें कई बार यह नहीं कहा कि तुम किसी डॉक्टर के पास जा कर इस चीज को हटवा लो? " "लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकी. मुझे ऐसा करने में शर्म आएगी." "यह तो एक मामूली बात है." "अपना मस्सा हटवाने के लिए कौन किसी डॉक्टर के पास जाता है?" "बहुत से लोग जाते होंगे." "चेहरे के बीच में उगे मस्से के लिए जाते होंगे, लेकिन मुझे संदेह है कि कोई अपनी गर्दन के नीचे उगे मस्से को हटवाने के लिए किसी डॉक्टर के पास जाएगा. डॉक्टर हंसेगा. उसे पता लग जाएगा कि मैं उसके पास इसलिए आई हूं, क्योंकि मेरे पति को वह मस्सा पसंद नहीं है." "तुम डॉक्टर को बता सकती हो कि तुम उस मस्से को इसलिए हटवाना चाहती हो, क्योंकि तुम्हें उससे खेलने की बुरी आदत है." "मैं उसे नहीं हटवाना चाहती." "तुम बहुत अड़ियल हो. मैं कुछ भी कहूं, तुम खुद को बदलने की कोई कोशिश नहीं करती." "मैं कोशिश करती हूं. मैंने कई बार ऊंचे कॉलर वाली पोशाक भी पहनी ताकि मैं उसे न छू सकूं." " तुम्हारी ऐसी कोशिश ज्यादा दिन नहीं चलती." "लेकिन मेरा अपने मस्से को छूना क्या इतना गलत है?" उन्हें जरूर लग रहा होगा कि मैं उनसे बहस कर रही हूं. "वह गलत नहीं भी हो सकता, लेकिन मैं तुम्हें इसलिए मना करता हूं, क्योंकि मुझे तुम्हारा ऐसा करना पसंद नहीं." "लेकिन तुम इसे नापसंद क्यों करते हो?" "इसका कारण जानने की कोई जरूरत नहीं. असल बात यह है कि तुम्हें उस मस्से से नहीं खेलना चाहिए. यह एक बुरी आदत है. इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम ऐसा करना बंद कर दो." "मैंने कभी यह नहीं कहा कि मैं ऐसा करना बंद नहीं करूंगी." "और जब तुम उसे छूती हो, तो तुम्हारे चेहरे पर वह अजीब खोया-सा भाव आ जाता है. और मुझे उससे वाकई नफरत है." शायद तुम ठीक कह रहे हो. कुछ ऐसा था कि तुम्हारी बात सीधे मेरे दिल में उतर गई. और मैं सहमति में सिर हिलाना चाहती थी. "अगली बार जब तुम मुझे ऐसा करते देखो, तो मेरा हाथ पकड़ लेना. मेरे चेहरे पर हल्की चपत लगा देना." "लेकिन क्या तुम्हें यह बात परेशान नहीं करती कि पिछले दो-तीन सालों से कोशिश करने के बाद भी तुम अपनी इतनी मामूली-सी आदत भी नहीं बदल सकी हो?" मैंने कोई जवाब नहीं दिया. मैं तुम्हारे शब्दों 'मुझे उससे वाकई नफरत है' के बारे में सोच रही थी. मेरे गले के आगे से मेरी पीठ की ओर जाता हुआ मेरा बायां हाथ - यह अदा जरूर कुछ उदास और खोई-सी लगती होगी. हालांकि मैं इसके लिए 'एकाकी' जैसा कोई शब्द इस्तेमाल करने से हिचकूंगी. दीन-हीन और तुच्छ - केवल खुद को बचाने में लीन एक महिला की भंगिमा. और मेरे चेहरे का भाव बिल्कुल वैसा ही लगता होगा जैसा तुमने बताया था - 'अजीब, खोया-सा'. क्या यह इस बात की एक निशानी थी कि मैंने खुद को पूरी तरह तुम्हें समर्पित नहीं कर दिया था, जैसे हमारे बीच अब भी कोई जगह बची हुई थी. और क्या मेरे सच्चे भाव तब मेरे चेहरे पर आ जाते थे, जब मैं अपने मस्से को छूती थी और उससे खेलते समय दिवास्वप्न में लीन हो जाती थी, जैसा कि मैं बचपन से करती आई थी? लेकिन यह इसलिए होता होगा, क्योंकि तुम पहले से ही मुझसे असंतुष्ट थे, तभी तो तुम उस छोटी-सी आदत को इतना तूल देते थे. यदि तुम मुझसे खुश रहे होते, तुम मुस्कुरा देते और मेरी उस आदत के बारे में ज्यादा सोचते ही नहीं. वह एक डरावनी सोच थी. तब मैं कांपने लगती, जब अचानक मुझे यह ख्याल आता कि कुछ ऐसे मर्द भी होंगे, जिन्हें मेरी यह आदत मोहक लगती होगी. यह मेरे प्रति तुम्हारा प्यार ही रहा होगा जिसकी वजह से तुमने इस ओर पहली बार ध्यान दिया होगा. मुझे इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन यह ठीक उन छोटी-मोटी खिझाने वाली चीज़ों की तरह होता है, जो बाद में बढ़कर विकृत हो जाती हैं और वैवाहिक संबंधों में अपनी जड़ें फैला लेती हैं. वास्तविक पति और पत्नी के बीच इन व्यक्तिगत सनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किंतु मुझे लगता है कि दूसरी ओर ऐसे पति और पत्नी भी होते हैं, जो हर बात पर खुद को एक-दूसरे के खिलाफ पाते हैं. मैं यह नहीं कहती कि वे दंपति, जो आपस में समझौता करके चलते हैं, एक-दूसरे से प्यार ही करते हों. न ही ऐसा है कि जिनकी राय एक-दूसरे से भिन्न होती है, वे दंपति एक-दूसरे से घृणा ही करते हों. हालांकि मैं यह जरूर सोचती हूं (और यह सोचने से खुद को रोक नहीं पाती हूं) कि यह बेहतर होता, यदि तुम मस्से से खेलने की मेरी आदत की अनदेखी कर पाते. असल में तुम मुझे पीटने और ठोकरें मारने पर उतारू हो गए. मैं रोई और मैंने तुमसे पूछा कि तुम इतने हिंसक क्यों हो गए हो? केवल अपना मस्सा छूने भर की मुझे ऐसी सजा क्यों मिले? अपनी त्वचा ही तो छू रही थी मैं.
"तुम्हारे इस रोग का उपचार क्या है?" गुस्से से कांपती हुई आवाज में तुमने पूछा था. मैं समझ गई कि तुम कैसा महसूस कर रहे थे. तुमने जो किया था, उस बारे में मेरी नाराजगी भी जाती रही. यदि मैंने किसी और को इस के बारे में बताया होता तो वे तुम्हें हिंसक पति कहते, लेकिन चूंकि हमारे संबंध एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गए थे जहां कोई मामूली बात भी हमारे बीच तनाव बढ़ा देती थी, जब तुमने मुझ पर हाथ उठाया, तो उसने असल में मुझे अचानक जैसे मुक्ति दे दी, छुटकारा दे दिया.
"मैं इस आदत को कभी नहीं छोड़ पाऊंगी, कभी नहीं. मेरे हाथ बांध दो." मैंने अपने दोनों हाथ जोड़ कर तुम्हारी छाती की ओर बढ़ा दिए. गोया मैं खुद को पूरी तरह से तुम्हारे हवाले कर रही थी. तुम चकरा गए. तुम्हारे गुस्से ने तुम्हें शिथिल बना दिया था, मनोभावों से रिक्त कर दिया था. तुमने मेरी कमरबंद में से डोरी ले कर उससे मेरे हाथ बांध दिए. मैं अपने बंधे हुए हाथों से अपने बालों को संवारने की कोशिश करने लगी और मुझे खुशी हुई, जब मैंने तुम्हें अपनी ओर ताकते हुए देखा. मैंने सोचा कि इस बार मेरी यह आदत छूट ही जाएगी. हालांकि तब भी उस मस्से का हल्का-सा स्पर्श भी किसी के लिए खतरनाक था. क्या मेरी मस्सा छूने की आदत दोबारा लौट आने की वजह से ही अंत में मेरे प्रति तुम्हारा बचा-खुचा स्नेह भी खत्म हो गया? क्या तुम मुझे यह बताना चाहते थे कि तुम्हें अब मुझसे कोई उम्मीद नहीं थी और मैं जो चाहे कर सकती थी? अब जब मैं अपने मस्से से खेलती, तुम ऐसा बहाना बनाते जैसे तुमने यह सब देखा नहीं. तुम कुछ नहीं कहते. फिर एक अजीब बात हुई. मेरी वह आदत, जो डांटने और मारने से भी नहीं गई, एक दिन अपने-आप छूट गई. डराने-धमकाने वाला कोई भी इलाज काम नहीं आया. वह आदत खुद-ब-खुद चली गई. "क्या तुम जानते हो, अब मैं अपने मस्से से नहीं खेलती हूं." मैंने कहा जैसे मुझे इसके बारे में अभी पता चला हो. तुम घुरघुराए और तुमने अपना हाव-भाव ऐसा बनाया जैसे तुम्हें इस बात की कोई परवाह न हो. यदि तुम्हारे लिए इस बात की कोई अहमियत नहीं थी, तो फिर तुम मुझे इसके लिए डांटते क्यों थे? मैं चाहती थी कि तुम मुझसे इसके बारे में पूछो, लेकिन तुम थे कि मुझसे बात ही नहीं कर रहे थे. जैसे मस्सा छूने की मेरी आदत की तुम्हें कोई परवाह न हो, जैसे मैं जो चाहूं करने के लिए स्वतंत्र हूं. तुम्हारे चेहरे के हाव-भाव से तो यही लगता था. मैंने खुद को निरुत्साही और उदास महसूस किया. तुम्हें चिढ़ाने के लिए ही सही, मैं अपने मस्से को तुम्हारे सामने दोबारा छूना चाहती थी, लेकिन अजीब बात यह हुई कि मेरे हाथों ने हिलने से इनकार कर दिया. मैंने खुद को अकेला महसूस किया. और मुझे गुस्सा आया. जब तुम आस-पास नहीं थे, तब भी मैंने अपने मस्से को छूने के बारे में सोचा, लेकिन न जाने क्यों यह मुझे शर्मनाक और घृणास्पद लगा और एक बार फिर मेरे हाथों ने हिलने से इनकार कर दिया. मैंने फर्श की ओर देखा और अपने दांतों से अपना होठ काटने लगी. "तुम्हारे मस्से को क्या हुआ?" मैं प्रतीक्षा करती रही कि तुम मुझसे यह पूछोगे, लेकिन इसके बाद तो हमारी आपसी बातचीत से 'मस्सा' शब्द ही गायब हो गया. और शायद इसके साथ ही हमारे बीच कई और चीजें भी गायब हो गईं. जब तुम मुझे डांटा करते थे, उन दिनों मैं कुछ क्यों नहीं कर सकी? मैं कितनी बेकार औरत हूं. फिर मैं अपने मायके लौटी. उन्हीं दिनों जब मैं एक बार मां के साथ स्नान कर रही थी, तो वह बोली, "अब तुम उतनी सुंदर नहीं रही जितनी पहले थी, सायोको! शायद तुम बढ़ती उम्र को बेअसर नहीं कर सकती." मैंने चौंक कर मां की ओर देखा. वे अब भी पहले जैसी ही दिखती थीं - गोल-मटोल, किंतु चमकीली त्वचा वाली. "और तुम्हारा वह मस्सा पहले बेहद आकर्षक हुआ करता था." उस मस्से की वजह से मुझे वाकई तकलीफ सहनी पड़ी थी - किंतु मैं अपनी मां से यह नहीं कह सकती थी. मैंने कहा - "लोग कहते हैं कि शल्य-चिकित्सक आसानी से मस्से को हटा सकता है." "अच्छा? डॉक्टर! लेकिन दाग तो रह ही जाएगा." मेरी मां कितनी शांत और स्वाभाविक प्रकृति की थी. "हम तुम्हारे मस्से के बारे में बातें करके हंसा करते थे. हम कहते कि शादी के बाद भी सायोको अपने मस्से से खेलती होगी." "हां, मैं उससे खेलती थी.""हां, हमें लगता था कि तुम यह करती होगी.""यह एक बुरी आदत थी. मैंने अपने मस्से से खेलना कब शुरू किया होगा?""पता नहीं, बच्चों की देह में मस्सा कब से दिखने लगता है? नवजात शिशुओं के तो मस्सा नहीं होता.""मेरे बच्चों की देह पर कोई मस्सा नहीं." "अच्छा? लेकिन जैसे-जैसे बच्चे बड़े होने लगते हैं, वे नजर आने लगते हैं. और फिर वे गायब नहीं होते, लेकिन तुम्हारी गर्दन के आकार का मस्सा आम तौर पर नहीं होता. जब तुम बहुत छोटी होगी, यह मस्सा तभी से वहां होगा." मेरी मां मेरी गर्दन और कंधे की ओर देख कर हंसी. मुझे याद आया, जब मैं छोटी थी, तो मेरी मां और मेरी बहनें कभी-कभार उस मस्से को छूती थीं. वह मस्सा तब बेहद मोहक लगता था. क्या यही वह वजह नहीं थी, जिसके कारण मुझे भी उस मस्से से खेलने की आदत पड़ गई? मैं बिस्तर पर लेटे हुए अपने मस्से से खेलती रही. मैं याद करने की कोशिश करती रही कि जब मैं बच्ची थी, क्या तब भी मैं इस मस्से से खेलती थी. यह बहुत समय पहले की बात थी, जब मैं पिछली बार अपने मस्से से खेली थी. पता नहीं कितने साल पहले की बात थी. तुमसे दूर अपने मायके के उस घर में जहां मेरा जन्म हुआ था, मैं अपने मस्से के साथ जैसे चाहे खेल सकती थी. यहां मुझे रोकने वाला कोई नहीं था. किंतु यह भी सुखकर नहीं लगा. जैसे ही मेरी उंगली ने उस मस्से को छुआ, मेरी आंखों में आंसू आ गए. मैं बरसों पहले की बात सोचना चाहती थी, जब मैं छोटी थी, लेकिन जब मैंने मस्से को छुआ, तो मुझे केवल तुम याद आए. मुझे एक बुरी पत्नी के रूप में धिक्कारा गया है, और शायद मुझे तलाक भी दे दिया जाएगा, किंतु यह तो मैंने भी नहीं सोचा था कि यहां मायके में बिस्तर पर लेटे हुए मुझे केवल तुम्हारा ही ख्याल आएगा. मैंने अपने गीले तकिए पर करवट बदली. मुझे झपकी आ गई और मुझे सपना भी उसी मस्से का आया. जब मैं जगी, तो मैं नहीं बता सकती थी कि वह कमरा कहां का था, लेकिन तुम वहां मौजूद थे. संभवतः हमारे साथ कोई और महिला भी थी. मैं शराब पी रही थी. यकीनन मैं नशे में थी. मैं न जाने किस चीज के लिए तुमसे निवेदन कर रही थी.
मेरी बुरी आदत फिर उभर कर सामने आ गई. मैंने मस्से को छूने के लिए अपना बायां हाथ आगे बढ़ाया. हमेशा की तरह मेरी बांह मेरी छाती के आगे से हो कर पीछे की ओर जा रही थी, लेकिन छूते ही मस्से को क्या हो गया? क्या वह मेरी त्वचा पर से निकल कर मेरी उंगलियों में नहीं आ गया? बिना किसी दर्द के वह त्वचा पर से ऐसे निकल आया जैसे यह दुनिया की सबसे स्वाभाविक बात हो. मेरी उंगलियों में वह मस्सा ठीक किसी भुनी हुई हुई सेम-फली के छिलके-सा लगा.
किसी बिगड़ैल बच्ची की तरह मैंने तुमसे जिद की कि तुम मेरे उस मस्से को अपनी नाक के बगल में मौजूद अपने मस्से के पास वाले हल्के से गड्ढे में डाल लो. मैंने अपनी उंगलियों में पकड़े उस मस्से को तुम्हारी ओर धकेला! मैं हाथ-पैर पटक कर चिल्लाई. मैंने तुम्हारी कमीज की आस्तीन पकड़ ली और तुम्हारी छाती से लटक गई... जब मेरी नींद खुली, मेरा तकिया तब भी गीला था. मैं अब भी रो रही थी. हालांकि मैं बेहद थकान महसूस कर रही थी, मुझे ऐसा भी लगा जैसे मैं हल्की हो गई हूं, जैसे एक भारी बोझ मेरे सिर पर से उतर गया है. कुछ देर तक मैं मुस्कराते हुए लेटी रही, यह सोचते हुए कि क्या मेरा मस्सा वाकई गायब हो गया था. उसे छूने में भी मुझे मुश्किल हो रही थी. मेरे मस्से की पूरी कहानी बस यही है. मैं अब भी उसे अपनी उंगलियां के बीच किसी बड़े काले दाने-सा महसूस कर सकती हूँ. तुम्हारी नाक के बगल में उगे उस छोटे-से मस्से के बारे में मैंने तो कभी ज्यादा नहीं सोचा. न ही मैंने उसके बारे में कभी बात ही की. फिर भी मुझे लगता है कि तुम्हारा वह मस्सा मेरे अवचेतन में हमेशा रहा है. यह कितनी बढ़िया परी-कथा बन जाएगी, यदि तुम्हारा वह मस्सा इसलिए वाकई सूज जाए, क्योंकि तुमने उसके ऊपर मेरा मस्सा रख लिया हो. और इस बात से मैं कितनी खुश हो जाऊँगी यदि मुझे पता चले कि तुम्हें मेरे मस्से के बारे में सपना आया था. एक बात मैं भूल ही गई. "यही वह चीज है जिससे मुझे नफरत है", तुम कहते थे. मैं इसके बारे में इतनी अच्छी तरह जानती थी कि मुझे लगता जैसे तुम्हारा यह उद्गार मेरे प्रति तुम्हारे स्नेह का सूचक है. मुझे भी लगने लगता कि जब मैं अपने मस्से को उंगलियों से छू रही होती, तो मेरे भीतर की सारी घटिया चीजे जैसे बाहर आ जातीं. लेकिन मुझे लगता है कि क्या वह एक तथ्य, जिसका जिक्र मैंने पहले भी किया है, मुझे पुनः प्रतिष्ठित नहीं कर देता? शायद मेरी मां और बहनें मेरे बचपन में जिस तरह से मेरे मस्से को पुचकारती थीं, यही वह वजह थी जिसके कारण मुझे अपने मस्से को छूने की आदत पड़ गई होगी. "मुझे लगता है, बचपन में जब मैं अपने मस्से से खेलती थी, तो तुम मुझे डांटती थी", मैंने मां से कहा. "हाँ, लेकिन यह केवल बचपन की ही बात नहीं है." "तुम मुझे क्यों डांटती थी, मां? " "क्यों? क्योंकि यह एक बुरी आदत थी, इसलिए." "लेकिन जब तुम मुझे अपने मस्से से खेलते हुए देखती थी, तो कैसा महसूस करती थी? " "देखो...", माँ अपना सिर एक ओर झुका कर बोली, "मुझे अच्छा नहीं लगता था. वह शोभनीय नहीं था." "सही कहा, लेकिन मेरे ऐसा करने पर क्या तुम्हें मेरे प्रति अफसोस होता था? या तुम यह सोचती थी कि मैं घृणित कार्य करने वाली एक गंदी लड़की थी?" "इसके बारे में मैंने कभी ज्यादा नहीं सोचा. तुम्हारे चेहरे का उनींदा भाव देख कर मुझे लगता था कि तुम अपने मस्से से न खेलो तो अच्छा है." "क्या तुम मेरी इस हरकत से चिढ़ती थी?" "हाँ, मुझे थोड़ी फिक्र होती थी." यदि यह सच है, तो क्या मेरा खोए हुए अंदाज में अपने मस्से को सहलाना बचपन में मेरे प्रति मेरी मां और बहनों के प्यार को याद करने का मेरा एक तरीका नहीं था? जिन लोगों से मैं प्यार करती थी, क्या मैं उनके बारे में सोचते हुए ऐसा नहीं कर रही थी? यही वह बात है जो मुझे तुमसे जरूर कहनी है. क्या मेरे मस्से के बारे में तुम्हारी धारणा शुरू से अंत तक गलत नहीं थी? जब मैं तुम्हारे साथ होती थी, तो क्या मैं किसी और के बारे में सोच सकती थी? बार-बार मैं सोचती हूं कि मेरी जिस हरकत से तुम्हें इतनी चिढ़ है क्या वह मेरे उस प्यार के इजहार का एक तरीका नहीं था, जिसे मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती थी.
मस्से से खेलने की मेरी आदत तो एक बेहद मामूली बात थी, और मैं इसके बचाव में कोई बहाना नहीं बना रही, लेकिन तुम्हारी निगाहों में मुझे एक बुरी पत्नी बना देने वाली वे सभी चीजें भी क्या इसी तरह शुरू नहीं हुई थीं? क्या ऐसा नहीं था कि शुरू-शुरू में वे सब भी तुम्हारे प्रति मेरे प्यार की सूचक ही थीं, जो तुम्हारे लिए बाद में इसलिए अशोभनीय हो गईं, क्योंकि तुमने उनकी सच्चाई को स्वीकार करने से इनकार कर दिया?
अब जब मैं यह सब लिख रही हूं, तो क्या अपने साथ हुए अन्याय की बात करके मैं एक बुरी पत्नी जैसा व्यवहार कर रही हूं? जो भी हो, ये कुछ बातें हैं, जो तुम्हें बतानी जरूरी हैं.
साभार: हिंदी समय
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