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पिता मौत से डरते, डरते कि बेटा मांस खाकर घर न आ जाए

एक कहानी रोज़ में आज पढ़िए हरीश कुमार की कहानी 'पिता'

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5 अगस्त 2016 (Updated: 5 अगस्त 2016, 06:03 PM IST) कॉमेंट्स
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"बहू, विनय आया नहींं अब तक?""नहींं बाबूजी.""यह रोज़ रोज़ शाम को जाता कहां है? रात के आठ बज चुके हैं.""जी यही अपने दोस्त डॉक्टर जॉन के घर जाते हैं वह आ जाएंगे नौ बजे तक.""रोज़-रोज़ क्या करने जाता है उसके घर ? यह अच्छी बात नहींं. मांस-मिट्टी खाने का चलन उनके घर में. अकेला रहता है वह डॉक्टर जॉन. यह विनय भी न कहीं खाना-पीना शुरू कर दे. तुम थोड़ा बहुत टोक दिया करो बहू.""ऐसी बात नहींं है पिताजी. रोज़ ठीक हालत में ही आते हैं. घर आकर ही खाना खाते हैं. मैंने एक बार पूछा तो कहने लगे डॉक्टर साहब को हरमोनियम पर गज़लें गाने का शौक है और मुझे भी थोड़ा बहुत रियाज़ करने का, तो चला जाता हूं. बाकी तो कोई बात कभी महसूस नहींं हुई."
बहू ने बड़ी स्पष्टता से ससुर की चिंता का निवारण किया. पंडित विष्णु प्रसाद बड़े धर्मी-कर्मी आदमी है. साठ वर्ष की उम्र में पत्नी साथ छोड़कर चली गई. उन का इकलौता बेटा है विनय. जबसे पत्नी की मृत्यु हुई उनका मन आशंका से भर गया है. मृत्यु बोध, अनजाना सा भय और हर बात में सलाह-मशवरा, टोका-टाकी उनके स्वाभाव में शामिल हो गए हैं. उनका एक बड़ा भाई था. खूब प्रकांड पंडित. चंडी भक्त. चंडी का ऐसा पाठ करता कि लोग दूर-दूर से बुलावा भेजकर बुलाते. इस काम से उन्होंने खूब धन और नाम कमाया. तीन बेटे थे. दूसरे के घर चंडी पाठ कर कर के दुःख दूर करने वाला अपने घर को न संभाल सका. जितनी तेजी से उसने यह सब कुछ कमाया था उतनी ही तेजी से उसने अपना सबकुछ गंवा भी दिया. कौन सी ऐसी बुरी लत थी जो उसे नहींं लगी. शराब का सेवन , बकरे मुर्गे का लजीज मीट, खूब खाता-पीता. खाते-पीते कब अपने घर की सुख-समृद्धि को खो बैठा? पता ही नहींं चला. विष्णु उसे कितनी बार समझाते. "देखो भाई यह ज्योतिष, पाठ-पूजा का काम बड़ी शुचिता और शुद्धता मांगता है. तुम लोगों और ईश्वर के बीच रोड़ा बनते हो. ईश्वर के सारे ग्रहों की उलटी दशा और दिशा पाठ-पूजा से बदलते हो, तो तुम्हें तो हर सुबह-शाम ईश्वर से प्रार्थना-क्षमा करनी चाहिए ताकि वे तुम्हें क्षमा कर सके. ये शराब वगैरह तो बिलकुल नहीं पीनी चाहिए, पर तुम मेरे भाई इन सारी मर्यादाओं का हनन करने पर तुले हो. ईश्वर फिर भी बड़ी शक्ति है. एक पल में बनाता है तो दूसरे पल सब कुछ छीन भी लेता है." खैर विष्णु प्रसाद की बातें उनका भाई बड़े ध्यान से सुनता और 'हां जी ठीक है भैया ,अच्छा' आदि कहकर, करता वही जो उसका मन करता. उसके दो बेटे ड्रग्स के ओवरडोज़ के कारण मर गए. तीसरे की आदत भी अपने भाइयों से अलग नहीं है. एक लड़की है वह कब आती है कब जाती है, कहां रहती है उसका भी कोई अता-पता नहीं. पूरा घर अनुशासनहीन और अस्तव्यस्त था. हर शाम वो अपने परिवार के सामने ही पीने बैठ जाता. दो-चार फ्री में पीने वाले यार भी वही बैठने लगे. घरबार जमीन सब फालतू खर्च और दिखावा करती पत्नी के उन्माद में जाता रहा. बच्चों के नशे की लत और खुद सट्टा खेलते खेलते चंडी पाठ करने वाला भाई कब कुर्की के चक्कर में फंस गया पता ना चला. लीवर फेल होने पर एक दिन उसकी भी जान जाती रही. पूरा परिवार अस्त-व्यस्त हो गया. विष्णु प्रसाद का इन सब घटनाओं के कारण मन बड़ा परेशान हुआ. इस घटना का जिक्र वे आजकल बहुत करते थे विशेषकर जब भी विनय उनके पास बैठा होता. सुबह होते ही ऊंची आवाज में धार्मिक चैनल शुरु हो जाते. फिर ज्योतिषी, ग्रह दशा और आज का भविष्यफल एवं ग्रहों की स्थिति ,पत्नी की मृत्यु के बाद विष्णु प्रसाद बहुत कम तीर्थयात्रा करते. जब वह जीवित थी तो अक्सर अपने दो- चार धाममित्रों के साथ महीने दो महीने बाद यात्रा पर निकल जाते थे. तीन-चार दिन घूम आते. हरिद्वार जाना तो उनके लिए ऐसा था जैसे पास के शहर में चक्कर लगा लेना. गले में स्फटिक, रुद्राक्ष की माला, हाथों में चांदी की धातु में जड़े रतन. ग्रहों के हिसाब से वे हर महीने दो महीने बाद उन्हे बदल देते. हर पन्द्रह दिन बाद वे अपने शुगर और ब्लड टेस्ट भी करवाते. मृत्यु को लेकर जैसे एक अदृश्य भय उन्हें डराता था. विनय कई बार सोचा कि पिताजी जी ज्यादा वहमी हो गए हैं. पहले कितने मनमौजी थे. चार बजे उठकर सैर पर चले जाते. रोटी में घी शक्कर डलवा कर चूरी कुटवाते और खाते. विनय को बचपन से ही चूरी खाने की आदत ऐसे ही पड़ी थी. अब चीजों को देखकर ललचाते है पर पूरा परहेज रखते हैं. किस चीज के साथ क्या खाना है क्या नहीं, सब पर पूरा व्याख्यान दे देते है. नित्य चली आने वाली पूर्णमसिया, एकादशी और अमावस्याएं उनकी दिनचर्या में शामिल है. मंगल को काले चने मत खाओ, शनिवार को बाल न कटवाओ, एकादशी है तो चावल मत पकाओ. न जाने कितने वहम. घर में कोई सब्जी-दाल बने तो उसमें ज्यादा या कम नमक की शिकायत करते. विनय के बच्चों के लिए, उनके खान-पान को लेकर विशेष परंपरागत खाने मसलन चूरी, दूध की सेवइयां, हरड का मुरब्बा, देसी घी का आटे का प्रसाद खिलाने के लिए ताकीद करते. बोर्नवीटा या कॉम्प्लान उनके लिए फालतू शोशेबाजी थी. पूर्णमासी अमावस पर खीर बनाने का ऑर्डर एक दिन पहले ही विनय की पत्नी को मिल जाता. कई बार वह भूल जाती तो सुबह याद करवाते हुए पूछते "बहू आज पूर्णमासी थी खीर बनाकर पंडितों के घर दे आई या नहीं. और विनय की पत्नी फटाफट खीर बनाने में जुट जाती. वे घर के हर सदस्य के लिए मशवरों की चलती-बसती किताब थे. उनकी वजह से घर में एक परम्परागत अनुशासन सा बना रहता था. जिसके लिए विनय के पड़ोसी उसकी और उसकी पत्नी की बड़ी तारीफ करते थे. "यार विनय तेरे पिता जी ने तो बड़ी अच्छी आदतें बना रखी है, तुम्हारे घर में,वरना आजकल कहा इतना डिसिप्लिन रह गया है बच्चों में. हमारे यहां तो सब अपनी मर्जी के मालिक बने अकड़े रहते हैं." विनय को भी बातें और अपनी तारीफ़ सुनकर अच्छा लगता. वह सोचता के पिताजी की रोकटोक से वह और उसकी पत्नी हर काम समय पर कर लेते हैं. इतनी मर्यादा तो घर में बनी ही रहनी चाहिए. पर कई बार बड़ी घुटन भी महसूस करता. घड़ी में पूरे 9:00 बज चुके हैं. विनय घर लौट आया है. आते ही पत्नी ने विनय को बता दिया पिताजी उसके बारे में पूछ रहे थे.
"क्या पूछ रहे थे. ""यही कि साहबजादे कहां चले जाते हैं.""अरे यार तुम्हें बताकर तो जाता हूं कि डॉक्टर जॉन के साथ हूं. थोड़ा बहुत संगीत और ग़ज़ल का आनंद उठाने जाता हूं. दिमाग एकदम तरोताजा हो जाता है. अब पिताजी का तो कोई दोस्त है नहीं, कि इनके साथ चौबीस घंटे धार्मिक भजन सुनता रहे. "ओफ़ो ,तुम भी बात कहां से कहां ले जाते हो. अच्छा शांत रहो पिताजी खाना खा रहे हैं. पूछे तो आराम से बातें करना.""ठीक है ,कर लूंगा." कहकर विनय पिताजी के कमरे में चला गया. उसका मन किया कि पूछे तो सही कि जॉन से मिलने में भी पिता जी को कोई आपत्ति है, अब वो बच्चा तो नहीं रहा.
पिता जी के कमरे में विनय के बच्चे उनके साथ बैठे कोई धार्मिक सीरियल देख रहे थे. पिता ने इसे देखकर कोई प्रतिक्रिया नहीं की. "पापा आप पूछ रहे थे मेरे बारे में." "हां हां, कहां चले गए थे." बस जरा डॉ. जॉन ग़ज़ल अच्छी गाते हैं हरमोनियम अच्छा बजाते हैं. उन्हीं के पास चला जाता हूं." "चलो अच्छी बात है संगीत तो व्यक्ति की आत्मा को शुद्ध करता है. मैं भी मुरारी बापू का कीर्तन सुनता हूं बड़ा कमाल करते हैं." पिता जी ने खाना खाते हुए कहा. "हां हां , पापा वो ठीक है ,पर मुझे और डॉक्टर जॉन को गजलें ही ज्यादा पसंद है, जगजीत सिंह और गुलाम अली की." "अच्छी बात है बेटा. बस तुम उनके घर का खान पान तो जानते ही हो. जरा अपना ध्यान रखना." पापा क्या कहना चाह रहे थे,विनय समझ रहा था. उसके मन में खानपान को लेकर सब टैबू टूट चुके थे. कालेज के दिनों में वो फुटबॉल टीम का सदस्य था. चोरी-छिपे अंडे खाना उसने तभी शुरू कर दिए थे. घर में आज तक कभी नॉनवेज की एंट्री नहीं हुई थी. वो भी इस व्यवस्था को बनाए रखे था और बाहर ही सब काम निपटा लेता था. अब इस बात के मामले में वो क्या कहता. पर थोडा गुस्सा जरूर आया विशेष कर इस तरह बच्चा समझे जाने पर. उसे अपने आदमी होने और मनमर्जी मुताबिक जीने की छटपटाहट महसूस हुई. "आपको तो पता है कि उनके बच्चे विदेश में सैटल हैं. पत्नी की मृत्यु हो चुकी है. बस शाम छह बजे तक अपना क्लिनिक खोलते हैं और उसके बाद हारमोनियम लेकर गा लेते हैं. उन्हें अपने अकेलेपन से लड़ता हुआ मैं रोज़ देखता हूं. पर पापा वह जिंदगी के प्रति बड़े पॉजिटिव हैं. कभी निराशा या नकारात्मक बात नहीं करते. मुझे उनसे बड़ी प्रेरणा मिलती है. सकारात्मक सोच आपकी हर मुश्किल हर बीमारी का हल कर सकती है." विनय ने अपने क्रोध को समेटते हुए कहा. "हां हां बिल्कुल यह तो है." पिताजी ने संक्षिप्त सी हामी भरी. वे जानते थे कि विनय अब नसीहत देना शुरू करेगा. "अच्छा अब ज्यादा देर हो रही है. जाओ खाना वगैरह खा लो. यह बच्चे भी तुम्हारा ही इंतजार कर रहे हैं." विष्णु चंद्र ने बेटे को यह कहकर बात खत्म की. विनय उठकर पत्नी और बच्चों के साथ खाना खाने चला गया. "यह जो ट्रैफिक पुलिस वाले होते हैं ना इनके पास एक यंत्र होता है. उससे गाड़ी चला रहे वाहन चालकों को चेक किया जाता है कि उन्होंने शराब वगैरह तो नहीं पी." विनय ने अपनी पत्नी से कहा.
"हां तो "!"नहीं मैं सोचता हूं कि तुम और पापा भी मेरे लिए वैसा ही एक यंत्र रखो और घर आकर मुझे चेक कर लिया करो. "देखो तुम दोनों की लड़ाई में नहीं पड़ना चाहती. और अपना गुस्सा अब मुझ पर मत उतारो."" यार मैं अभी पिताजी के धर्म-कर्म का इतना अभ्यस्त नहीं हूं और ना ही होना चाहता हूं. सुबह उठकर जल रही ज्योति के आगे माथा टेक लिया बस मेरे लिए इतना ही काफी है और मैंने खाने-पीने को लेकर भी कोई सौगंध तो अभी नहीं ली नहीं है. ना ही मुझे अभी कोई लत लगी है. हां यह बच्चों की तरह मुझ पर निगरानी वाला काम मुझे जरुर परेशान करता है." विनय ने खीझते हुए कहा.
"अच्छा बाबा ठीक है, पर एक बात बताओ कल को हमारे बच्चे इस तरह रोज़ किसी के घर जाएं या रात को देर से लौटे. तो थोड़ा बहुत संशय तो हर मां बाप के मन में उठेगा ही. अब तुम इकलौती औलाद हो, पिताजी ने अपने भाई के परिवार को उजड़ते देखा है. अपनी पत्नी को इस अवस्था में खोया है. उनके लिए अब तुम्हारे या इस परिवार के सिवा बचा क्या है. तुम्हारी चिंता करते हैं तो क्या गलत करते हैं. उनके अंदर का पिता तो पिता ही रहेगा. वास्तव में वह अपने बेटे का भला ही तो चाहते हैं." पत्नी की भावपूर्ण बातें सुनकर विनय अपने साथ बैठे खाना खाते बच्चों को देखता है और एक दम शांत हो जाता है. "खैर आज पिताजी ने प्रसाद में खोया के पेड़े मंगवाए थे और दो तुम्हारे लिए बड़े जतन से इन बच्चों से बचाए हैं. मुझे कह रहे थे कि बहू इन्हें छुपाकर रख लो. जब विनय आए तो उसे दे देना. बच्चे तो अपना हिस्सा खा चुके हैं." पत्नी ने बताया. विनय का मन भर आया. उसके मन में अपने अकेले पड़ गए पिता की सारी चिंताओं की समझ जैसे स्पष्ट हो गई हो. वो खाना खाकर और पेड़े की कटोरी लेकर पिता जी के कमरे में चला गया. कमरे से हंसने-खिलखिलाने की आवाजें आने लगी थीं.

17 सालों से बुढ़िया वहीं बैठी-बैठी गाली और दिलबाग खा रही है

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