17 सालों से बुढ़िया वहीं बैठी-बैठी गाली और दिलबाग खा रही है
एक कहानी रोज़ में आज पढ़िए कहानी चमन मिश्रा की, कहानी का नाम है 'महान लेखक'
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फोटो - thelallantop
ये कहानी है चमन मिश्रा की. करेंटली वर्किंग इन इंडिया टीवी एज़ ए असिस्टेंट प्रोड्यूसर. ग्रेजुएशन कर लिए थे, जैसे सब करते हैं. ये नहीं बताए कि खुद किया या रिश्तेदारों ने कराया या घरवालों ने. फिर आईआईएमसी और इंडिया टीवी दोनों में हो गया था तो इंडिया टीवी चूज कर लिए. ठीक किए, नहीं तो आईआईएमसी के बाद कंपटीशन भी बढ़ जाता और तब कहीं होता तो चार लोग पीछे जलने को होते. ये कहानी चमन ने लिखी है. कहानी नहीं है. किस्सा है. उनके शब्दों में ये किस्सा है कमजोरी, लाचारी, बेबसी, तड़प, आह और शराब का. पढ़िए आज एक कहानी रोज़ में.
हैलो! रवि, क्या हो रहा है? शशांक ने कमरे में घुसते ही पूछा. “कुछ नहीं भाई, बस शराब की बोतलें गिन रहा हूं.” रवि ने ‘सीरियस’ जैसा कि वो हमेशा रहता था उसी अंदाज में जवाब दिया, रवि के आने से इंच भर भी फर्क शशांक के चेहरे पर नहीं पड़ा था. “रवि! यार बंद भी कर अब पीना. खुद को मारने की कसम खा ली है क्या?” बैग कोने में रखी टेबल पर ठूसी हुई बोतलों के बावजूद बचे स्पेस में रखकर. सामने वाले बेड पर बैठते हुए शशांक ने कहा. “जीना किसको अच्छा लगता है, यहां हर कोई मरने का ही तो इंतजार कर रहा है. इसी इंतजार में रोज सुबह 4 बजे उठकर लोग ऑफिस जा रहे हैं. रास्ते में सोचते हुए कि एक दिन मर जाएंगे. फिर इस ऑफिस से छुटकारा मिलेगा.” “हे भाई! देख, खुद को देख एक बार. अपने बारे में सोच. तू, ठीक से बैठ नहीं पा रहा. नसें फूल रहीं हैं, किसी भी वक्त फट सकती हैं. आंखे अंदर घुस गईं हैं. चेहरे पर मुर्दापन छा गया है. बाल झड़ रहे हैं. हाथ अब भी कांप रहे हैं. सुर्ख लाल आंखों से आंसू निकल रहे हैं. क्यों हर रोज मर रहा है?” रवि ने बोतल से शराब गिलास में पलटी और फिर हाथ में गिलास पकड़कर कहा “बेइंतहा दर्द की तलाश में. हद दर्ज की कमजोरी की खोज में. मर जाने तक की तड़प की लालसा में. हंसते-हंसते रोने तक की बेबसी को पाने के लिए.” शशांक बेड पर बैठे ही बैठे शूज उतार रहा था, उतारते-उतारते बोला- “क्या करेगा...इस दर्द, कमजोरी, लाचारी, बेबसी, तड़प का. तेरा वजूद खत्म हो जाएगा. बनने से पहले ही तू मर जाएगा.” “वो फोटो देख रहा है ना, वो मंटो की है. वो जब अंतिम सांसें ले रहा था, उस वक्त भी उसने शराब मांगी थी. पता है ना तुझे.” कमरे में सामने इकलौती मंटो की फोटो की तरफ इशारा करते हुए रवि ने कहा, और शराब से भरा हुआ गिलास एक ही बार में गटक गया. शशांक ने मंटो की फोटो देखी. उसे एक दम से याद आ गया कितनी मुश्किल से मंटो की एकमात्र फोटो जो कि गूगल पर उपलब्ध थी, को बड़ा करवाया था, रवि ने. फिर गर्दन रवि की तरफ करके बोला- “तू मंटो नहीं है, तू रवि है. तू क्यों अपने आपको शराब पर बर्बाद कर रहा है. जानता है, कल रात को जब तू उल्टी कर रहा था, तो फूट-फूट कर रो रहा था. तू अपने पापा के पास जाना चाहता था. तू उनसे मिलना चाहता था. लेकिन सुबह होते ही फिर शराब?” “ये शराब ही मुझे मेरे पापा से मिलाती है. जिंदा रखती है, नहीं तो मैं कब से मर गया होता.” बेड पर लगभग लेटने की स्थिति में आते हुए, रवि ने टिपिकल शराबी स्टाइल में बोला. झुंझलाहट लेकिन संयम से शशांक ने रवि की पीठ की ओर इशारा करते हुए आंखों में आंखें डालकर कहा- “ओ मेरे गरीब लेखक दोस्त, जरा देख अपनी पीठ को. बेड पर फूटी पड़ी शराब की बोतलों ने तुझे जख्मी कर दिया है. निगाह डाल टेबल पर स्लीपिंग पिल्स खत्म हो गईं. स्लीपिंग पिल्स के रैपर के सिवाय कमरे में कुछ नहीं है. तू , शराब पर जी रहा है और स्लीपिंग पिल्स पर सो रहा है.” “तू जानता है शरतचंद्र की आवारगी के बारे में. शराब के नशे में धुत्त होकर कोई पारो के प्रेम को अमर बना सकता है. शराब से वो तो नहीं मरा. शराब ने उसे आज कितने ‘देवदासों’ में जिंदा रखा है.”
शराब की खाली हो चुकी बोतलों को डस्टबिन में डालकर. सिगरेट सुलगाते हुए रवि एक महान कहानीकार के अंदाज में शशांक के सामने खड़ा हो गया. खड़ा जब नहीं हो पाया तो टेबल का सहारा लेकर बेपरवाह होकर बोला- “अबे, साले सुन भोषड़ी के! सामने जो ठेला पर आंटी बैठती है ना, उसका पति 35 साल की उम्र में मर गया. 4 साल हुए थे तब आंटी की शादी को. 3 बच्चे थे. एक लड़की दो लड़के. ठेला पर तम्बाकू सिगरेट और चाय बेचकर उसने उन्हें पाला-पोसा. जानता है वो आंटी मुंह भरकर दिलबाग खाती है. उसके तीनों लड़के तम्बाकू खाते हैं, सिगरेट पीते हैं. क्योंकि तम्बाकू और दिलबाग खाकर कुछ और खाने का मन नहीं करता. शायद, उनके पैसे बचते होंगे. उनकी रोटियां बचतीं होंगी. एक मुसलमान की बिरयानी की दुकान के सामने वो ठेला इसलिए लगाती है क्योंकि हिंदुओं ने अपनी दुकान के सामने से आंटी को भगा दिया था. तुझे पता है, बगल में ही शराब का ठेका है. रोज ‘शरीफ’ आदमी उस आंटी/बुढ़िया को शराब पीकर गरियाते हैं. पिछले 17 सालों से बुढ़िया वहीं बैठी-बैठी गाली और दिलबाग खा रही है. उसके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं था. इसे कहते हैं दर्द, कमजोरी, लाचारी, पीड़ा, आह, तड़प.”“स्लीपिंग पिल्स और शराब की बोतलों पर जिंदा रहने वाले परजीवी इंसान! कभी अपनी तकलीफों को भी देख लिया कर. पिछले 3 साल से तेरे चेहरे पर हंसी नहीं आई. 12 महीनों से बिना पिल्स के तुझे नींद नहीं आई. तू अपनी नींद और हंसी दोनों खो चुका है. आंटी के पास नींद भी है और हंसी भी. तेरे पास सिर्फ मरे चुके सजायाफ्ता नपुंसक लेखकों के अश्लील उपन्यास हैं और मंटो की एक फोटो बस.” बैटमेन के जोकर की अदाकारी के साथ रवि कह रहा था “इस दुनिया को एक महान लेखक की सख्त जरूरत है.” “एक अधमरे शराबी की जिसने ड्रग्स, शराब और पिल्स से खुद को खत्म कर दिया है?” सुन! “ऐसे किसी भी इंसान की इस दुनिया को घंटा जरूरत नहीं है.” तेज, जोरदार और गुस्से की फीलिंग के साथ शशांक ने चेहरे को तिरछा करते हुए कहा.
तेज गुस्से में हाथ झटकते हुए रवि अब लगभग भाषण देने की स्टाइल में स्टेट, समाज और समाज के आदर्शों को एक बार फिर गरियाने के लिए खड़ा हो गया. सिगरेट के धुएं को उड़ाते हुए रवि बोलने लगा- “तुम शरीफ हो…! साले, बिना शराब पिए ही सड़क पर चलने वाली लड़कियों की छाती देख-देख तुम्हारी आंखें ‘सुंदर’ हो गईं. हां, जब तक लड़की आंखों से ओझल ना हो जाए, उसे घूरते रहने वाले इंसान की...! फिर रात को अंधेरे में छिप कर ब्लू फिल्म देखने वाले ‘आदर्श’ इंसान की दुनिया को जरूरत है. अपनी महंगी गाड़ी से दलितों को बांधकर उन्हें कुत्तों की तरह पीटना तुम्हारे समाज का आदर्श है? और ऐसे ही इंसानों का तुम्हारी ये ‘आदर्शवादी’ दुनिया सम्मान करती है.सुनो, दिलबाग गुटका खाने वाली आंटी के पति को तुम्हारी ही किसी रोजगार प्रदान करने का दावा करने वाली कंपनी ने नौकरी से निकाल दिया था. क्योंकि वो *** था. नीच था वो. तुम्हारे बनाए हुए समाज के उसूलों के अनुसार उसे सिर्फ टट्टी साफ करने की या फिर चमड़ा उतारने की जिम्मेदारी दी गई है. उसे बेइज्जत करके निकाल दिया गया था. उसने यहीं जहां आंटी 17 साल से बैठी है यहीं बस के सामने खड़े होकर आत्महत्या की थी, उस आंटी के पति ने. सुन, माई डियर तू अपनी ये अच्छी, सच्ची और आदर्शवादी बातें अपने जैसे ही किसी ‘आदर्शवादी’ को समझाना. सच अगर देखना है तो कभी इन ऊंची-ऊंची नोएडा की इमारतों से दूर देख. देख, कभी आकर जहां भैंस मूतती हैं वहीं खाना बनता है. कल्याणकारी राज्य ने लोकतंत्र को नहीं तुम्हारे इस पूंजीवाद को बचाया है. जिसने लाखो करोड़ो लोगो को सड़कों पर सोने को मजबूर कर दिया है. और सुनो, कल जब मैं उल्टियां करते हुए टुकड़ों में बिखरे हुए अपने वजूद को समेटने के लिए लड़ रहा था उस वक्त तुम अज्ञेय के ‘शेखर’ थे. याद है ना या फिर साफ-साफ कह दूं कि तुम अपनी मुंहबोली... से इश्क फरमा रहे थे, फोन पर.” शशांक का पारा सातवें आसमाने पर पहुंच चुका था. तेज गुस्से में बोला- “रवि, तमीज से बात कर. तूने ज्यादा पी ली.“ “चल, छोड़. तू छोड़. ये कमरा, या फिर मैं छोड़ता हूं. हम दोनों में से किसी एक को आज यहां से जाना होगा. कमरा छोड़कर. अगर नहीं तो मैं चला जाता हूं ये दुनिया छोड़ कर तेरी आदर्शवादी दुनिया तेरे जैसों के लिए.” रवि, पूरे निश्चय और दृढ़ता के साथ बोल रहा था. जैसे उसने अभी तक बिल्कुल भी शराब ना पी हो. चल, कुतियापा मत कर. मैं चाय लेकर आता हूं. शशांक, इतना बोलकर आंटी से चाय लेने नीचे चला जाता है. “रवि, क्या हुआ साले.” रवि उल्टी नहीं कर रहा. आज उसके मुंह से खून आ रहा था. रवि क्या आज मर जाएगा? क्या वो ये दुनिया छोड़ जाएगा? क्या उसे आज लाचारी, बेबसी, कमजोरी,और तड़प से छुटकारा मिल जाएगा? शशांक रवि के सिर को अपनी गोद में रखे हुए कहीं खोया-सा सोच रहा था. “शशांक! उठा, इसे फोर्टिस ले चलते हैं.” थर्ड फ्लोर से लगभग मरे हुए ‘महान रवि’ को हम दो लोग नीचे ला रहे थे. उठाते वक्त उसका पैर शराब की बोतल से टकरा गया. मैं अब भी सोच रहा था, जो इंसान इतिहास बदलने चला था वो आज दूसरें के हाथों पर जा रहा है. मैंने बोतल उठा ली, कहीं रास्ते में रवि ने मांगी तो दे दूंगा. मंटो ने भी तो मांगी थी, मरने से पहले शराब. रवि ही तो कहा बताता था. मैं पागल था, उस वक्त होस्टल के लड़के मुझे देख रहे थे, कि रवि मर रहा है और शशांक शराब की बोतल ढूंढ रहा है. हम लोग आपातकालीन फोर्टिस रूम में पहुंच गए थे. नोएडा की सड़कें रोज की तरह गाड़ियों से ठसाठस भरी हुईं थीं. ऑटो था, एंम्बुलेंस नहीं. हमें वक्त लग रहा था. रवि के मुंह से खून निकल रहा था. आंटी के ठेले पर आज भी शराबी उन्हें गरिया रहे थे. आंटी की पैरवी करने वाला रवि मर रहा है. पहुंच गए, फोर्टिस. “जिंदा है.” सुनते ही मैं बैठ गया. चुपचाप बिल्कुल एकाग्र होकर. रवि, जिंदा है. लेकिन, वो जिंदा कैसे रह सकता है. ऑटो की सीट खून से लाल थी. मैं फिर से डॉक्टर के पास गया. “हां, वो जिंदा है. हम लोग इलाज कर रहे हैं, आप उसके मां-बाप को बुला लीजिए.” लेकिन, शराब, ड्रग्स, स्लीपिंग पिल्स वो मरने के लिए ही खा रहा था. लेकिन आज जब वो मर रहा था तब उसे मैंने बचा लिया. ये मैंने पाप कर दिया क्या? रवि, ठीक होने के बाद फिर रोज मरेगा. उल्टी करेगा. कमजोरी, लाचारी, बेबसी, आवारापन और बेइंतहा दर्द की तड़प में फिर शराब पीएगा. “माता-पिता को बुला लो.” “हां, हां...!!!” “अंकल..वो...वो...रवि...फोर्टिस में है. वोमटिंग हो रहीं थी तो खून आने लगा था मुंह से. अभी इमरजेंसी में है, लेकिन ठीक है. आप आ जाइए.”
अभी जब मैं ये लिख रहा हूं, रवि मेरे सामने बैठा लोलिता पढ़ रहा है. साला, मरे हुए सजायाफ्ता लेखकों के अश्लील उपन्यास वो आज भी पढता है. लेकिन अब वो शराब नहीं पीता. पिल्स भी नहीं लेता. उसे नींद भी आने लगी है, और हंसी भी. पता नहीं ये सब कैसे हो गया, लेकिन कहता है कि जब से हॉस्पिटल में पापा को देखा है, तब से मोहभंग हो गया.... क्रांति से. मार्क्स से. चेग्वेरा से. लेनिन से. क्रांतिकारी बनने से. लेकिन मुझे लगता है, कि जब से रितिका हॉस्पिटल इंसीडेंट के बाद फिर से रवि के साथ आ गई. तब से वो ठीक हो गया.क्रांतिकारी अब आशिक हो गया है. रितिका बिश्नोई का. अब वो बेइंतहा मोहब्बत, आशिकी, प्यार और इश्क की बातें करता है. कमजोरी, लाचारी, दर्द, पीड़ा, आह, तड़प की नहीं. मैं आज भी कभी-कभी रुक कर सोचने लगता हूं- क्या ये उसकी विचारधारा की हार थी या फिर प्यार और यथार्थ की जीत. खैर, मोहलत मिली तो आगे आपको सुनाउंगा. किस्सा रवि,रितिका और गार्गी की मोहब्बत का! किस्सा 12 साल तक आभासी स्पेस की प्रेमकहानी का! किस्सा गर्व,गुरूर, इग्नोरेंस का. किस्सा फोर्टिस में रवि के गार्गी को इग्नोर करके रितिका को पकड़ने का. किस्सा आपके कैंपस में, हॉस्टल में, क्लास में, गली में पनपन वाली प्रेमकहानियों का! किस्सा आपकी ‘गार्गी’ और ‘रितिका’ का.
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