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गुआड़ी की कविता कभी मां बनना चाहती थी, कभी बुआ, कभी मैडम

एक कहानी रोज़ में आज पढ़िए अनुपमा तिवाड़ी की कहानी 'एक थी कविता'

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अनुपमा तिवाड़ी कवियित्री और सामाजिक कार्यकर्ता हैं कहानियां भी लिखती हैं. जगतपुरा, जयपुर में रहती हैं.
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30 जून 2016 (Updated: 30 जून 2016, 10:35 AM IST) कॉमेंट्स
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पूरी गुआड़ी में आज ख़ुशी की लहर बसंती बयार की तरह फ़ैल रही है. पिछला दिन तो चुप था, लेकिन रात बड़ी जगमग थी. पिछली रात करीब ग्यारह बजे हाइवे के किनारे सड़क से उतरे ट्रक के पीछे एक सफ़ेद कार के ब्रेक लगे. कार से एक बावन वर्षीय, फक्क सफ़ेद पाजामा, कुरता और चमचमाती घड़ी पहने. छहफुटा, पत्थर व्यवसायी उतरा. जिसके चेहरे पर भी पत्थर से कुछ सख्त निशान थे. उसने कुछ चोर की तरह धीमे से कार का दरवाज़ा डाला, लॉक किया. सिगरेट बुझाई और फिर एक लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ सा मिट्टी की दीवारों वाले कच्चे मकान की ओर बढ़ने लगा. गुआडी के कुत्ते भौंक–भौंककर के बता रहे थे. कि गुआड़ी में कोई अजनबी आया है. पर वह उनकी भौं–भौं को तवज्जो न दे कर जल्दी से जल्दी कविता के घर में घुस जाना चाहता था. बारह बरस की कविता के बाप ने दो दिन पहले ही कविता को उसे दिखा दिया था और इसके लिए उनके बीच नगद एक लाख में सौदा तय हुआ था. बाप से कुछ खुसुर–पुसुर के बाद वह उस कच्चे कमरे में दाखिल हुआ, जहां कविता एक खाट के पास पतली स्टेप का झीना कुरता और पीला चमकनी बूटियों का शरारा पहने खड़ी थी. कमरे में घुसते पत्थर व्यवसायी को देख, वह थोड़ी हडबडा गई और जल्दी से खाट पर से उठकर खडी हो गई. एक अनहोनी सी उसके दिल में घर करने लगी जैसे कोई कसाई चाकू ले कर बकरे की ओर बढ़ रहा हो.
बैठ जा, खडी क्यों है ? तेरे बाप ने कुछ बताया नहीं तुझे?
अब से पहले उसने किसी मर्द के साथ ऐसा एकांत नहीं महसूसा था. उसके लिपस्टिक लगे पतले होंठ, लाल से नीले होने लगे और बड़ी हथेलियों में आ जाने वाला सांवला चेहरा फ़क्क सा हो गया. एक झुरझुरी सी शरीर में दौड़ गई और कान में बुआ के बोल, गूंजने लगे "आज की रात बड़े बाबू आएंगे, उनका कहना मानना, बहुत प्यार करेंगे तुझे, रोना मत, चिल्लाना मत”. बड़े बाबू के कमरे में घुसने के कुछ देर बाद परदे की ओट से बुआ के हाथ दो गिलास शरबत के पकड़ा गए. सुबह घर की उठापटक से कविता की आंख खुली. इतनी गहरी नींद अब से पहले उसे कभी नहीं आई थी. अभी वो बिस्तर पर कुछ होश, कुछ बेहोश-सी चित्त पड़ी थी. रात की बात उसे बस इतनी ही ख्याल में रही कि उसके घर की मिट्टी से बनी दीवारों के चौखट पर पिछली रात बुआ और मां ने एक चद्दर का पर्दा खींच दिया था और फिर रात के अंधेरे में वो बड़ा बाबू उसके जिस्म से खेलता रहा था. आज की सुबह उसे एक नई जिंदगी मिली थी. जिसकी तैयारी पिछले कुछ सालों से हो रही थी. वह पहली बार अपने को, अपने से अलग महसूस कर रही थी. कल की रात उसकी नथ उतरवाई की रस्म हुई है. नथ उतारने वाला वह पत्थर व्यवसायी, बड़ा बाबू था. आज सुबह से नथ उतरवाई की खबर कानोंकान लड्डुओं के साथ गुआड़ी भर में जा रही है. पूरे एक लाख में उतरी है नथ. समाचार के साथ–साथ गुआड़ी भर की आंखें कविता के अंग–अंग का मुआयना कर रही हैं और अपनी बेटियों के अंगों को उससे तोल रही हैं. पत्थर व्यवसायी की मुंह दिखाई को गुआड़ी भर की आंखे लालायित हैं पर वह जल्दी ही मुंह अंधेरे गाड़ी से उड़न छू हो गया है.
सुबह उसकी आंखों के सामने दोनों छोटी बुआएं आ गईं. वो कैसे मुंबई से सजी-धजी आती हैं. मुंह मोड़–मोड़ कर सबसे, ठसके से बात करती हैं, मुंह में गुटका दबा कर जगह–जगह बेपरवाह थूकती रहती हैं. उनके जालीदार कपडे उनके शरीर का ऐसा खाका खींचते हैं, कि मर्द आंखों से ही शरीर भोग लेते हैं. उनके पर्स सेंट की तीखी गंध से महकते हैं. उनके पर्स में दो–दो मोबाइल रात–दिन घनघनाते रहते हैं. चहकती गुआड़ी भर की छोटी लड़कियों पर क्या रौब पड़ता है, उनका गज़ब! गुआड़ी की बड़ी लड़कियों को देख, वो सारी छोटी लड़कियों की भी बुआएं होने का सम्मान पा गईं हैं.
दो साल पहले उसने भी इन बुआओं के पास जाने की जिद पकडी थी, तब घर में सबने यही कहा था. "तू अभी छोटी है, बड़ी हो जाएगी तब भेज देंगे” जब भी वह बुआओं के घर का ज़िक्र करती तो उसे यहां वाली बुआ और मां यही बतातीं कि वे मौसी के गई हैं, उसकी मौसी कौन हैं? किसकी क्या लगती हैं? रिश्तों का यह जाल तब उसके पल्ले नहीं पड़ा था. बस उसके बाद धीरे–धीरे अनाम रिश्ते वो कब नाम बेनाम से जानने लगी, पता नहीं ! उसने इधर–उधर से अधकचरा सुना था कि मुंबई के कांगेस हाल के पीछे उनकी बहुत बड़ी बस्ती है. एक कमाठीपुरा में है. वहां बहुत बड़े–बड़े लोग आते हैं, लड़कियों को बड़े–बड़े होटलों में ले जाते हैं. उनके साथ नाचते हैं. जब वो नाचती हैं तो कोई–कोई उनकी ब्रा में नोट ठूंस देते हैं. उन्हें गोद में उठा कर चूम लेते हैं. रात भर होटल चमचमाते हैं. मुंबई की जिंदगी की झलक का अंदाज़ा वह अभी तक टेलीविज़न पर दिखने वाली चकाचौंध से ही लगाती रही थी. उसने पिछले दिनों कई बार साथ रहने वाली बड़ी बुआ को मां–बाप पर झल्लाते देखा है. "मैं कब तक खिलाऊंगी तुमको? भाई का ब्याह करो, पूरे कुनबे को खवाओ, तमाम गंदगी झेलते–झेलते उमर हो गई. अब मेरे बस की नहीं है. अब तेरी बेटी की नथ उतरवाई क्यों नहीं कर देता?
बाप ने सेसू छोड़ रखे हैं, कोई सही ग्राहक तो मिले. कोई चालीस हज़ार दे रहा है, कोई पचास. इतने में तो छह महीने भी घर नहीं चले. मुंबई में तो यूं ही भर–भर नोट दे जाते हैं. बड़े–बड़े आदमी. नथ उतरवाई ही तो बड़ी कमाई का मौका होता है फिर तो फुटकर कमाई है, रोज़ कुआं खोदो, रोज़ पिओ. श्यामा की लड़की को तो कोई दुबई भी ले गया था, उसकी लड़की गोरी भूरी जो थी. दुबई से क्या मालामाल हो के आई थी वो. उस पैसे से ही तो उसकी मां बस्ती में मंदिर बनवा कर जाति समाज से वाहवाही लूट रही है.” श्यामा की बेटी का गुणगान करता गुआड़ी भर थकता नहीं है. वह आदर्श है, गुआड़ी भर की. सारी गुआड़ी को दरकार है, श्यामा की बेटी जैसी अपनी बेटी बनाने की.
छुटपन से ही उन्हें पतली स्ट्रेप के सितारों वाले कपड़ों और लिपस्टिक से प्यार करना बुआ ने सिखाया "पगली यूं रीझते हैं, मरद! जितना मन से भोगने दो, उतनी ही जेब गर्म करते हैं वो, मेरे एक बार ना–नुकुर करने पर ग्राहक कमीना ऐसा गुस्सा हुआ हुआ कि फिर पैसे ही नहीं दे के गया.” मां ये सब सुनती देखती रही है, घूंघट की ओट से. महीना भर पहले कोई लखटकिया बाबू बाहरखटिया पर बैठा बेफिक्र धुआं उड़ा रहा था. मां के पैरों में लगे आलते को देखते हुए उसने बाप से पूछा कि "ये काम तुम्हारे घर की बहुएं नहीं करती क्या? बाप ने तड़ाक से जवाब दिया "बहुएं करें तो हम काट डालें उन्हें” जैसे दुनिया का सबसे बड़ा इज्ज़तदार पति वही हो. इस जवाब को सुनकर बाहर चबूतरे पर घूंघट में रोटी थेप रही मां ने अपने हाथ – पाँव कछुए की तरह सिकोड़ लिए थे. तब वह दिन भर घूंघट में पिस रही मां को देख कर भी, मां ही बनना चाहती थी, बुआ नहीं! छोटी लड़कियों के लिए बुआ बनने की पहली सीढ़ी नथ उतरवाई से नए जीवन में प्रवेश करने की है. अब वो बुआ ही बन सकती हैं, किसी कि पत्नी बन कर मां नहीं. कविता के पास कुछ दिन उस पत्थर व्यवसायी के रोज़ चक्कर लगते रहे, धीरे–धीरे चक्कर कम हो गए. यूं तो नथ उतरवाई की रस्म के बाद से जिसकी जेब गर्म है. उसे चक्कर लगाने के लिए पर्दा हटा कर पर्दा खींच देने की इज़ाज़त घर और पूरा गुआड़ी दे देता है. हर दिन ऐसे काम से जब उबकाई आती तब ये गुटका, मीठी सुपारी ही साथ देते उबकाई न आने के लिए, पर उबकाई है कि, आती ही ! सड़ांध मारते मर्दों की देह, पसीने से लथपथ, तोंदू और बूढ़े हाड़ों को तृप्त करना कोई आसान बात है ? परसों बाप ने मोटू को चार गालियां दीं "साले, चूतिया समझते हैं हमको, सौ का नोट कोई दे तो, फाड़ देना उसके सामने ही. पांच सौ से कम मत लेना”. हाइवे के किनारे लगती अपनी बस्ती के बाहर खड़ी कविता बारह साल से बीस साल की उम्र तक बड़े – बड़े गले का थोडी ऊपर से, थोड़ी नीचे से देह दिखाता ब्लाऊज़ पहने, होठों पर लिपस्टिक रगड़े बुलाती है. हर उम्र के आदमी को. उसका सांवला रंग कभी–कभी कीमत में भांजी मार देता है पर फिर भी वो सात जनों के परिवार को पाल पा रही है, जिसमें मुर्गे, शराब के दौर भी शामिल हैं. थोड़े दिनों पहले जब उसके घर का पर्दा खिंचा हुआ था. उस समय रुक्मा के घर पुलिस आई और उसके घर का परदा हटाकर, ग्राहक लड़के और उसकी बेटी को ले गई. पूरे दो महीने में छूट कर आई थी रुक्मा की बेटी. एक रजिस्टर्ड अड्डा थाने में भी था. "साली हमसे नखरे करती है, रोज़ दस–दस को अपने ऊपर से उतारती है, चल उतार! डर के मारे रुक्मा की बेटी हो जाती हर रात, नंग–धडंग ! ऐसे ही कई बेटियां जा चुकी थी, सुरक्षा के नाम पर बने रजिस्टर्ड अड्डे पर. वहां से आ कर सारी बेटियां आपस में गले लग–लग कर रोतीं. रामदेवरा महाराज हमने गलत काम किया है और फिर वे रामदेवरा के मेले में पदयात्रा करते हुए ढोक देने जातीं. ये कैसा पाप मिला था उन्हें, जिसे वे खुद ही चढ़ाती, खुद ही उतार लेतीं. अब तो बहुत हुआ मैं बुआ बन रही हूं, पत्नी नहीं ! किसी की पत्नी न सही, मां तो बन सकती हूं, अनजान बाप के बच्चे, की मां! तीन महीने के बाद बुआ और बाप ने गर्भपात करवा दिया. क्या खाएंगे हम ? तू तो मां बन के बैठ जाएगी. ऐसा पहले भी दो बार हो चुका है. कविता सोचती कि उसकी गुआड़ी में कितनी सारी उसकी जैसी कविता हैं, पर कोई बबिता नहीं. पिछले साल से एक मधु मैडम बस्ती के चबूतरे पर कुछ बच्चों को घेर कर पढाती है. पहले गुआड़ी के कुछ बच्चे पास के स्कूल में पढने जाते थे. वहां दूसरे बच्चे उन पर पत्थर फेंकते थे. कहते हुए, ओ रंडी के! ये लड़के बड़े हो कर गुटका खा कर थूकेंगे, शादी करेंगे, उनकी बहनें कमाकर बेटी वालों को पैसा देंगी, घर बहू आएगी. फिर वो कविता पैदा करेगी. वो मधु मैडम गुआड़ी को बहुत खटकती है. कहीं ये मैडम हमारी बेटियों को कोई पट्टी न पढ़ा दे कि, ये काम गंदा है. सो सारी गुआड़ी उसे कभी आंखों से तो कभी उसे मुंह से भगाती रहती है. गुआड़ी के बाप और बुआएं उसे उसकी भूमिका समझाते रहते हैं कि तुम्हारा काम है, बच्चों को पढाना, तुम पढाओ, हमारी लड़कियों से क्या मतलब है ? हमारे ऊपर बहुत कर्जा है इसलिए ये काम करवाते हैं.
घर का कोई काम नहीं था, इस कमाऊ पूत के पास! सो जब भी वह बिना ग्राहक के होती तो उस चबूतरे के पास खाट डाल कर गुटका चबाते हुए मधु मैडम को आंख भर–भर देखती रहती. "ये कैसी मैडम है, सादा सी धोती पहनती है, पर कितनी आज़ाद ख्याल की लगती है.” मेरे पास चमकने, सितारों लगे और सुनहरी पट्टी के कपडे हैं. दो–दो तरह की लिपस्टिक है. आसमानी और लाल रंग की नाखूनी है पर. पर. मुझे अच्छा नहीं लगता. उफ्फ, मुझे नहीं चाहिए ये सब! नहीं चाहिए मुझे नाखूनी ! हीक आती है मुझे! मुझे तो इस मैडम के जैसे सफ़ेद नाखून ही अच्छे लगते हैं. इस चमचम के पीछे कितना अंधेरा है. कितना अंधेरा ! इस मैडम की तरह मैं रहूं तो?
पर, फिर कोई ग्राहक नहीं आएगा मेरे पास. नहीं आए. मुझे नहीं चाहिए कोई ग्राहक. भाड़ में जाएं. कमीने होते हैं साले, सब के सब! मधु मैडम से बात किए बिना ही वह आंखों ही आंखों में मैडम का समर्थन पा रही थी. पत्थर कायाओं के उसके पास आने से उसका शरीर तो धीरे–धीरे पत्थर बनने लगा था पर दिल मोम बन, पिघल–पिघल जाता था. मैं भी मैडम की तरह बच्चों को पढाऊं तो? इस मैडम को तो हमारी तरह काम नहीं करना पड़ता होगा न! शारदा की छोटी बेटी को एड्स हो गया है. पर उससे बात करो तो वह बताती है कि उसे मोतीझरा हुआ है, बम्बई की दवा लगती है उसे. उम्ह! पता है मुझे, कैसा मोतीझरा हुआ है उसे! घर में तीसरी बार कविता के मां बनने की जिद चल रही है. सो बाप, एक डंडा उठा रहा है, एक रख रहा है. एक रख रहा है. एक उठा रहा है. ये तमाशा घर में दो दिन से चल रहा है "साली नशा करती है, नशा करेगी तो मारेंगे ही.” कविता ने उन दिनों नशा करना चुन लिया था. जिससे ग्राहकों से मुक्ति मिले. उस दिन डंडों और रोने की आवाज़ मधु मैडम को उसके दरवाजे खींच लाई. बाप गरजा "जाओ मैडम कर लो, जो करना है, नशा करेगी तो मारेंगे ही" उस समय दादी, बुआ और बाप सब एक तरफ थे और मां घूंघट में एक तरफ. मधु मैडम ने बड़ी दीदी को फोन किया "मैडम कविता को उसका बाप दो दिन से बुरी तरह मार रहा है. कह रहा है कि नशा करेगी तो मारूंगा ही. जबकि कविता इसलिए नशा कर रही है कि उसके पास कोई ग्राहक नहीं आए" कविता ने दाएं–बाएं देखकर कुछ दिन पहले मधु मैडम से कहा था दीदी. मैं ये काम नहीं करना चाहती. कोई और काम हो तो दिलवा दो. चार जमात पढ़ी. कविता क्या काम कर सकती थी? मीटिंग के बहाने बड़ी दीदी आईं. कविता को बुलाया. उसे बताया कि "तुम हमारे बच्चों के होम में खाना बनाने का काम कर सकती हो इसके एवज़ में तुम्हें अठारह सौ रूपये मिलेंगे और रहना–खाना फ्री. मैं वहां जाती रहती हूं, हमारे साथ लडकियां भी काम करती हैं, इसलिए सुरक्षा की तो तुम गारंटी समझो." पर दीदी, बच्चे क्या सोचेंगे मेरे बारे में? "देखो कविता, इस काम के साथ ही तुम पर लगा ये बिल्लातो छूट जाएगा न ! बच्चे तुम्हें दीदी ही कहेंगे. मैं अपने ऑफिस में मैडम हूं, अपने घर पर तो बच्चों की मां ही हूं न ! अपने बच्चों के लिए मैडम थोड़े ही हूं.” ऐसे ही बच्चे भी तुमको दीदी ही कहेंगे ! ये सब सुन कर कविता ख़ुशी–ख़ुशी घर गई और जा कर बड़ी दीदी और उनके बताए काम को बता कर कहने लगी, मैं भी ये दीदी जैसा काम करूं तो ? क्या पढी तू, जो ये दीदी जैसा काम करेगी ? बाप ने आंख निकाल कर धमकाने के स्वर में कहा. कविता की आंखों में सप्ताह भर से काम आ रहे तरह–तरह के डंडे और पाईप घूम गए. घरवालों ने तो इस मैडम से कविता को खूब बचा – बचा कर रखा पर कविता की छटपटाहट नएरास्तों को ढूंढ रही थी. ये कमाऊ पूत हाथ से न निकल जाए सो बाप तुरंत हरकत में आया. वह तमतमाता हुआ अपने गुस्से को पीता हुआ सा मैडम के पास आया "मैडम आप तो सही कह रही हो, पर आप नहीं जानती हो, हमारा समाज हमें जात बाहर कर देगा. दीदी ने घंटा भर उससे मगजमारी की और जब उनके पास समझाने के सारे शब्द ख़त्म हो गए तब बस उनके मुंह से हम्म. हम्म. की आवाज़ ही निकलती रही. उनके अन्दर न जाने कितने सारे शब्द तूफ़ान की तरह सांय–सांय करते हुए उथल–पुथल मचाने लगे. ये क्या दस मिनिट बाद ही कविता आगे–आगे और मां पीछे–पीछे आ रही हैं. "दीदी मैं ये काम नहीं छोड़ सकती, दिसंबर में मेरे भाई विजय की शादी करनी है.” दीदी के होंठ सिल गए, उनके मुंह से बस निकलता रहा हम्म...हम्म...
यह काम नहीं करूंगी, नहीं करूंगी, नहीं करूंगी. करना पड़ेगा, करना पड़ेगा, करना पड़ेगा. आगे दस दिन तक घर में यही गूंजता रहा. इन दस दिनों में कई हाथ उसके बाल पकड़कर उसे जमीन पर घसीटते रहे, अपने हाथों पर बने नील के निशान मधु मैडम को दिखाते हुए उसने कहा. दीदी ऐसे ही पीठ पर भी बहुत सारे निशान हैं. सीधे सोने में दर्द होता है. पूरा घर पुलिस थाना लगता है. कविता का दिल फट पड़ा आंसुओं से चुन्नी गीली हो गई, उसे ढाढस बंधाते–बंधाते मधु मैडम अपने होंठ अंदर दबाते हुए फफक पड़ी.
उसकी जिद के आगे थक हार कर दादी और बुआ ने अड़ोसियों–पड़ोसियों से समर्थन जुटाना शुरू कर दिया. कैसे नहीं करेगी, यह काम? तुम्हारी बेटी नहीं कर रही है क्या? ये बन रही है, अंग्रेज की चो*! हमने नहीं किया क्या? हाड़ तोड़–तोड़ के इसके बाप को खवाया, अब ये हमें नहीं खवाएगी, तो हम कहां जाएंगे ? क्यों? बोलो? आस–पड़ोस भी कविता से अपनी बेटियों को बचाने में ही अपनी भलाई समझने लगा. आज इनकी बेटी सिर उठा रही है, कल हमारी उठाएगी ? घर में बड़े दिनों तक रस्साकसी चलती रही, पर रस्सा कब तक दोनो तरफ खिंचता? ग्यारहवें दिन की सुबह कविता अपनी खटिया पर नहीं मिली.

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