उस दिन के बाद से उसने भी ग़ालिब को पढना शुरू कर दिया था
एक कहानी रोज़ में आज पढ़िए नीलेश प्रताप सिंह की कहानी 'ईदगाह वाला ग़ालिब'

ईदगाह वाला ग़ालिब नीलेश प्रताप सिंह
आज लगभग दस साल बाद लौट कर फिर अपने शहर आया था वो. कुछ दिनों की छुट्टी लेकर. जैसे ही मोहल्ले में उसके आने की ख़बर फ़ैली पुराने यार दोस्तों की भीड़ लग गई. जिनके पास टाइम नहीं था वो सिर्फ ये कहने चले आए थे कि रात खाने के बाद मिलेंगे. इसी के साथ कहीं और न जाने की ताक़ीद भी कर गए थे. हंसी-मज़ाक का दौर चल रहा था. मोहल्ले के बुजुर्गों के बारे में चर्चा हो रही थी कि इस लम्बे वक्फे में कौन-कौन इस फ़ानी दुनिया से रुखसत हो चुका था? और कौन क़गार पर था. उसकी दिलचस्पी दोस्तों की बातों में थी लेकिन कहीं न कहीं उसको एक कमी सी खल रही थी. कहकहे तो लग रहे थे लेकिन उनके पीछे जैसे कुछ दबा हुआ था. उन लोगों के चेहरों पर अब उसे वो निर्दोष हंसी और खिलंदड़पन नहीं दिख रहा था. कुछ देर बैठ कर और शाम को आने का वादा कर सब अपनी जिंदगी में लौट गए. वो भी बैठे-बैठे इस शहर में बिताए अपने अतीत को याद करने लगा. जब वो छोटा था तब ये शहर एक क़स्बा हुआ करता था. जिसका अपना एक अलग निराला ढंग था. कस्बे के बीचोंबीच एक पुराने मोहल्ले के बड़े से मकान में उसका परिवार पीढ़ियों से रहता आ रहा था. उसे तो वो पूरा मोहल्ला ही घर जैसा लगा करता था. क्योंकि कोई चाचा था तो कोई दद्दा तो कोई ताऊ. पकड़िया के पेड़ वाले मैदान में सुबह से मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट खेलने लगते थे. लेकिन उसे केवल स्कूल बंद होने के बाद गर्मी की छुट्टियों में ही क्रिकेट खेलने दिया जाता था. बाज़ार भी वो पापा के साथ उनका हाथ पकड़ कर जाया करता था. अब भी उसे वो फल वाले सलीम चचा याद थे जो पापा से ठाकुर साहब आदाब अर्ज़ करते थे और उसको छोटे ठाकुर कहकर कभी केला कभी अमरुद तो कभी आम देते थे. उसे वो आदमी भी याद था, जो केवल एक आदमी ही था उसके लिए उस वक़्त, जो सब्ज़ी मंडी जाते समय अक्सर लाखन चौराहे पर कुछ गाता मिला करता था. लुंगी और उसके ऊपर जूट के बोरे से बना एक लबादा से पहने हुए. उसे उस वक़्त तो समझ नहीं आता था की वो क्या गा रहा है. लेकिन जब वो धीरे धीरे बड़ा हुआ, जब वो गर्मी की छुट्टियों के अलावा भी क्रिकेट खेलने लगा. जब वो अकेले सब्जी मंडी जाने लगा. जब वो शाम को चौराहेबाज़ी करने लगा. जब वो मन ही मन एक लड़की से मोहब्बत करने लगा. तब उसे समझ में आने लगा की वो फकीर सा दिखने वाला आज तक क्या गाया करता था. ग़ालिब के शेर और ग़ज़लें गाया करता था वो. समझना शुरू करने के बाद से जो पहली ग़ज़ल उसने सुनी थी उसका एक शेर उसे आज भी याद था. ईद का दिन था और दोस्तों के साथ वो ईदगाह में घूम रहा था. अचानक पीछे से वो ग़ज़ल गाता हुआ निकला था जिसका एक शेर आज भी उसके कानों में गूंजता था.
जब उसने दोस्तों से पूछा था कौन है? तब पता चला था की यहीं ईदगाह के पीछे रहता है अकेला और ग़ालिब के शेर ओर ग़ज़ल जोर-जोर से अपनी ही मस्ती में गाता रहता है. तब से वो उसे ईदगाह वाला ग़ालिब कहने लगा था. इसके बाद फिर वो उसे कई दिन नहीं दिखा था लेकिन फिर दिखा एक मंदिर के बाहर बैठा हुआ. बिलकुल चुपचाप किसी सोच में डूबा हुआ. वो धीरे धीरे चलता उसके पास पहुंचा और बोला “आदाब चचा, आज बहुत शांत बैठे हो कोई शेर सुनाओ” तब उसके दाढ़ी-मूंछे निकलना शुरू हो चुकी थी. “कभी मोहब्बत की है किसी से” अचानक से ईदगाह वाले ग़ालिब ने उससे पूछा तो वो अचकचा गया. न हां बोल पाया न ही ना बोल पाया बस एकटक उसकी तरफ देखता रहा. तब ईदगाह वाले उस ग़ालिब ने एक शेर पढ़ा.“हां नहीं वो खुदा परस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही. जिसको हो दीन ओ दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाएं क्यों..”
उस दिन उसको इस शेर का मतलब तो समझ नहीं आया था लेकिन उस ईदगाह वाले ग़ालिब से एक रिश्ता ज़रूर बन गया था क्योंकि उस दिन के बाद से उसने भी ग़ालिब को पढना शुरू कर दिया था. इस घटना के बाद एक दिन वो चौराहे पर खड़ा पान खा रहा था जिसका कि उसको अभी नया शौक़ चढ़ा था. तभी हमेशा की तरह कहीं से ग़ालिब उसके सामने आकर खड़ा हो गया था और उसे देखने लगा था. पान खाते हुए उसने ऐसे ही मस्ती में पूछ लिया.“आशिक़े सब्र तलब और तमन्ना बेताब, दिल का क्या रंग करूं ख़ूने जिगर होने तक.”
पान वाले ने सुनकर पान लगा दिया और वो ईदगाह वाला ग़ालिब पान खाकर बिना कुछ बोले आगे अपने रास्ते पर बढ़ गया. उसके बाद गाहे-बगाहे वो उसे कभी चौराहे पर तो कभी किसी चबूतरे पर बैठा अक्सर मिल जाता था. कभी केवल दुआ सलाम होती थी तो कभी वो एकाध शेर सुना दिया करता था. अब उसको भी शायरी का शौक़ हो गया था और ग़ालिब के अलावा ज़ौक, फैज़ और मीर तकी मीर भी उसको समझ आने लगे थे. जब उसको मुस्लिम मोहल्ले की वो लड़की अच्छी लगने थी तबसे ऐसा लगता था जैसे हर शेर में उसका ही हाल-ए-दिल छुपा हुआ है. ये वो दौर था जब उसके लड़कपन का पहला क़दम जवानी में पड़ चुका था और जिंदगी अब एक नई दिशा ले रही थी. इसी साल उसका 12वीं का रिजल्ट आ गया था और जैसी कि उससे ज्यादा उसके घर वालों और रिश्तेदारों को उम्मीद थी. वो प्रथम श्रेणी में पास हो गया था. अब आगे की पढाई के लिए उसे अपना ये प्यारा शहर और घर छोड़ना था क्योंकि इस शहर में अभी भी कोई अच्छा कॉलेज नहीं था. अंततः कानपुर के एक अच्छे कॉलेज में बी एस सी में उसका एडमिशन हो गया था और साथ ही मेडिकल की कोचिंग भी वो करने लगा था. अगले साल उसका सिलेक्शन मेडिकल में हो गया तो बीएससी छोड़कर उसने डॉक्टरी वाला कॉलेज ज्वाइन कर लिया था. इसी तरह कब जिंदगी का समय बीतता चला गया और वो एक के बाद एक सफलता की सीढियां चढ़ता हुआ ऑस्ट्रेलिया पहुंच गया. लेकिन वो मुस्लिम मोहल्ला और ईदगाह वाला ग़ालिब आज भी उसके ज़ेहन में वैसे ही थे. सोचते-सोचते उसकी आंख लग गयी थी. शाम पांच बजे के करीब वो उठा और चाय पीकर फिर से अपने उसी पुराने अंदाज़ में चौराहेबाज़ी करने निकला. मोहल्ले के बड़ों से राम राम और आदाब करता हुआ वो चौरसिया पान वाले की दुकान पर पहुंचा. पता नहीं क्यों ये चौराहा आज उसे कुछ अजनबी सा लग रहा था. सामने ही अकबर की इतर की दुकान थी लेकिन वहां पर आज केवल अकबर और उसका भाई थे बस. उसे याद है पहले आसपास के दुकानदार और दो चार लोग वहां बैठे रहा करते थे और हंसी मज़ाक और कहकहे गूंजा करते थे. तभी उसे सामने गोविंद नज़र आया वो सामने वाली दुकान पर कुछ खरीद रहा था. उसने गोविंद को आवाज़ दी. उसे देखते ही गोविंद दौड़ कर आया और जोर से उसके गले लग गया. गोविंद को भी उसने पान खिलाया और फिर इधर उधर की बातें होने लगीं. बातों बातों में गोविंद ने उसे बताया की मुस्लिम मोहल्ले वाली उस लड़की की शादी हो गयी थी इस पर वो दोनों बहुत जोर से हंसे और उस दौर को याद करने लगे जब उस लड़की को देखने के लिए वो दिन भर उस मोहल्ले के चक्कर काटा करता था. साथ ही उसे वो शेर याद आ गया जो उसने कितनी बार उस लड़की को एक काग़ज़ पर लिख कर देने की कोशिश की थी लेकिन हर बार उसकी हिम्मत ने उसे ऐन मौक़े पर दगा दिया था.“पान खाओगे चचा” और ईदगाह वाले ग़ालिब ने बिलकुल भावहीन होकर बस इतना कहा था “हरा पत्ता, गीली सुपाड़ी, स्टार, चटनी, बाबा 120”
फिर उसने ईदगाह वाले ग़ालिब के बारे में पूछा जो कि अभी तक उसके ज़ेहन में अटका हुआ था. जिससे उसे इस शहर की खुशबू महसूस हुआ करती थी. तब गोविंद ने बताया कि चार महीने पहले शहर में दंगे भड़क गए थे. दो परिवारों की आपसी लड़ाई को फ़िरकापरस्त लोगों ने साम्प्रदायिक रूप दे दिया था. पचासों दुकाने और गाड़ियां फूंक दी गयी थीं और दोनों तरफ से कोई दर्जनभर लोग मारे गए थे. कोई एक हफ्ते तक शहर में नफरत की आग का नंगा नाच होता रहा था. उसी दौरान एक दिन वो ग़ालिब इन सबसे बेख़बर अपनी ही मस्ती में एक ग़ज़ल गाता चला जा रहा था. लोगों ने उसे रोका और समझाया लेकिन वो तो अपने में ही मस्त था. फिर शाम को एक गली में उसकी चाकुओं से बिंधी लाश मिली थी. किसने ये घिनौना काम किया था ये आज तक पता नहीं चल पाया. ये सुनकर उसकी आंखों के सामने वो ईद का दिन, जब उसने पहली बार कोई ग़ज़ल समझी थी, जीवंत हो उठा. उसे समझ में आने लगा था कि क्यों अकबर की दुकान पर कोई नहीं था, क्यों ये चौराहा आज पहले सा नहीं था. अचानक उसे वहां की हवा में सांस लेना मुश्किल लगने लगा था. वो सोच रहा था कि उसके खुशबुओं के शहर में किसने ये नफरत का काला धुआं फैलाया था. ये अब उसका वो शहर नहीं था जहां खेल कर वो बड़ा हुआ था, जहां उसने उसने मन ही मन किसी लड़की को चाहा था. वो शहर तो उन दुकानों के साथ ही जल गया था. बची थी तो बस हवाओं में उड़ती नफरत की आग. अब उसे चौराहे पर रुकना भारी लग रहा था और उसके ज़ेहन में वो शेर गूंज रहा था जो ईदगाह वाले ग़ालिब ने उस दिन उसको सुनाया था जब वो चौराहे पर दोस्तों के साथ खड़ा था और अगले दिन ये शहर छोड़कर मेडिकल की पढाई करने जा रहा था.“हमने माना की तगाफुल न करोगे लेकिन, खाक़ हो जायेंगे हम तुमको ख़बर होने तक.”
“हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया, पर याद आता है, वो हर इक बात कहना कि यूं होता तो क्या होता.”
बाबूजी के कपड़े टांगने की कील खाली दिखती तो जी सिहर जाता था ये कल की कहानी थी. पढ़े हैं? अभी जा कहां रहे हैं? सुनिए तो. आप भी कहानी लिखते हैं? लिखते हैं, हमको पता है. डायरी में लिखिएगा, या फेसबुक पर या नोटबुक पर. हमको काहे नहीं भेज देते. भेजेंगे कहां? ये रहा चिट्ठी का पता. lallantopmail@gmail.com