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गरीबी को ददवा ने अपने चापट से बोटी-बोटी कर छांट दिया था

एक कहानी रोज़ में आज पढ़िए सुबोध मिश्रा की कहानी 'ढाई बोसे'

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आशीष मिश्रा
3 जून 2016 (Updated: 3 जून 2016, 04:43 PM IST) कॉमेंट्स
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ढाई बोसे सुबोध मिश्रा


सती ने सब देखा था. गेहूं रखने वाली डेहरी के पीछे से. आंखों में पुआल के तिनके पड़ जाते थे, मगर पलकें खौफज़दा थीं. सो सिकुड़ कर आंखों के ऊपर छज्जे में दुबक गईं थीं. एक परछाईं अंदर घुस रही थी. बाबा किस्से में जो दानव बताते थे. वो ज़रूर ऐसा ही रहा होगा. किस्सों में जैसी अंग्रेज़ी पतलून सुनी थी. उसने बिलकुल वैसी ही पहनी हुई थी और धड़ पे एक बनियान थी बस. पसीने से लथपथ शरीर था उसका, खरोंचों और चोट के कई निशान. जो बताते थे कि उससे जूझने की कोशिश तो की थी कईयों ने, मगर उसका ज़िंदा सामने खड़ा होना ही उसकी बहादुरी का सबूत था. वो रोज़ की तरह ओसारे में बाबा के सिरहाने बैठकर उनके बालों से खेल रही थी और अपने मनपसंद किस्से सुन रही थी. चैत की अलसाई दोपहर काटने का यही तरीका था, दोनों बाप-बेटी का. तभी उत्तर वाले बगीचे की ओर से शोर आने लगा. "ददवा आ गया रे. भागो. आसमान में खूब धूल उड़ रही थी. धूल का गुबार तेज़ी से गांव की तरफ़ बढ़ रहा था. "सत्ती. भीत्तर भाग बेटा. जा जल्दी." बाबा की चीख से सती सहम गई, जड़ हो गई. बाबा ने धक्का देकर भगाया. "भाग रे बेटा" "बहिनी जा. हउ डेहरिया के पीछे लुका जा" छोटका चाचा लाठी लिए बाहर की तरफ़ भाग रहे थे. "बहिनी. कुच्छो हो जाए, बाहर मत निकरिहे.", अम्मा ने सती के अंदर जाते ही दक्खिन के घर की सीकड़ लगा दी. बाहर से चीखने-दहाड़ने की आवाज़ें आती थीं. कौन चीखा- कौन चिल्लाया- क्या हुआ, सती ठीक ठीक नहीं समझ पा रही थी. तभी कमरे की सीकड़ खुली. और वो दानव अंदर घुस आया. उसके हाथ में एक चापट था, खून से तर. खून का रंग, मरने वालो के नाम नहीं बता रहा था. मगर वो चीखें अब भी सती के कानों में गूंज रही थीं. उन चीखों का रंग उस चापट पर उतर गया था. .सती सब समझ गई थी. और बाबा भी तो कहते थे. "सती हमार सबसे समझदार बेटी बा."
  "बोरवा तो लदा गै ददवा. डेहरियो भरल है. का करें?" "डेहरी के पिच्छे देख. जरूर चार-छः खाली बोरा राखल होइ. जेतना भर पावे भर ले, अउर लदवा दे डल्लफ पर", बोलकर ददवा अलमारी का ताला तोड़ने लगा. ताला नहीं टूटा, पलट कर पीछे देखा तो रतन एक हाथ में बोरा लिए डेहरी की तरफ़ एकटक देख रहा था. "का रे रतना.हाथे में कोढ़ हो गईल का रे. जा के बोरा भर" "ददवा. हउ डेहरिया के पीछे." "सांप से डेरात हवे का रे. भाग ससुरा ते नाहीं", व्यंग्य भरी हंसी हंसते हुए ददवा ने फिर से चापट उठाया और डेहरी की तरफ़ चल पड़ा. सांप मारने. जा कर क्या देखता है कि डेहरी के पीछे एक लड़की दुबकी बैठी थी. उम्र की कच्ची लग रही थी मगर चेहरे पे बचपन जैसा कुछ नहीं था. रंग लाल. जैसे छूने पे बस खून टपक पड़ेगा. उम्र कोई तेरह-चौदह साल. बला की सुन्दर. वो सन्न रह गया. "का नाम है" ददवा ने सती की बाज़ू पकड़ कर उसे पुआल के ढेर से बाहर खींचते हुए पूछा. "सत्ती", उसने ददवा को घूरते हुए कहा . "रत्तन! हाथ-गोड़ बांध. अउर डार दे लढ़िया पर" "पगला मत बन ददवा. ओके एहिं छोड़ दे. नाहिं तो मुआ दे. मगर संगे मत लिया के चल" "जउन बोला जाए. ओतने कर रतन! ददवा एके आपन रानी बनाई. " ददवा ने सती की बाज़ुओं पर हाथ फेरते हुए कहा. बैलगाड़ी पर पीछे बैठी हुई सती रास्ते पर उड़ने वाली धुल के बीच से अपना गांव देख रही थी. मां बताती थी कि जब बाबा उसे ब्याह के ला रहे थे तो वह भी अपने गांव को इसी तरह देख रही थी.
  ददवा सती को अपने डेरे पर ले आया और रतन की बीवी को उसकी सेवा में रख दिया. "भौजी! ले जा. साड़ी पहिने सिखा दे. अउर खइले-पियले पे पूरा ध्यान रखिहे" उसके बंधे हुए हाथ-पैर खोलते हुए उसने कहा "ईहे तोर देवरानी है." "काहें उठा लाया रे? अबहिन तो बच्ची है एकदम" "अब्बे तोहरे से दू अंगुल लंबी बा रे भौजी. जब तू बियह के आई थी तो फ़्राक पहिनति थी, ई तो समीज पहिरे है. अउर एकर समीज तो सरकत भी नाहीं ." रतन और ददवा ठहाका मार के हंसने लगे. सती का पूरा ख़याल रखा जाने लगा. सती भी उस दोपहर के खून खराबे से आगे निकल चली थी. रतन की बीवी से किस्सा कहानी सुनती, ठिठोली करती . शरीर को बढ़िया दाना पानी मिलने लगा था.और ऊपर से दोनों पहर दूध.यहां खाने पीने की कोई कमी नहीं थी. ददवा ने अच्छी खासी रईसी पाल रखी थी . कच्ची मड़ई में रहना तो डकैत होने के कारण उसकी मजबूरी थी, वर्ना तो गरीबी को ददवा ने अपने चापट से बोटी-बोटी कर के कभी का छांट दिया था. उस ग़रीबी ने ही तो उन्नीस साल के ददवा को डकैत बना दिया था.
हर तरफ़ चेचक का प्रकोप था . इलाज कोई था नहीं और पंडित लोग इसे 'देवी बैठना' बोलने लगे थे. ददवा के गांव में बहुत तेज़ी से फैली थी. उसके मां-बाप काल की गोद में समा गए थे. ददवा अखाड़े जाता था, गुरु जी ने वहीं रोक लिया था. कुछ दिन बाद लौट कर आया तो गांव पूरा उजड़ गया था. अनाज वैसे भी उन दिनों कहां होता था? तो गांव में जितने भी लोग बचे थे, सब डकैत बन गए. और ददवा उनका सरदार. ददवा सबको लेकर डकैती डालने जाता. तो इधर रतन की बीवी और बाकी औरतें बैठ जातीं. खूब गीत गवनई होती थी. सती भी घुल मिल गई थी. समझ गई थी कि यही उसकी नियति है.
  टोले के सारे मर्द बाहर ही सोते थे एक साथ खटिया डाल के. मगर आज बारिश होने लगी थी. तीन महीने बीत गए थे सती को यहां आए हुए, आज पहली बार वो और ददवा मड़ई में थे. और रात का वक़्त.सती तख़्ते के कोने पर सिमटी बैठी थी. ददवा ने उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया. वो कांपने लगी. उठने ही लगी थी कि उसने पकड़ के खींच लिया. सती की सांसे तेज़ हो गईं. कंधे पर से साड़ी का पल्लू हटता हुआ मालूम हुआ. फिर कमर में गुदगुदी लगने लगी. उसे अजीब भी लग रहा था. मगर हट भी नहीं पा रही थी. उसने कोशिश करना भी छोड़ दिया. पूरे धड़ पर जैसे कुछ रेंग रहा हो. साड़ी उसकी देह से उतर के तख़्ते के कोने पर लटक रही थी. साये की डोरी खुलती महसूस हुई, सती ने उस हाथ को कस के नोच लिया. लेकिन डोरी खुल चुकी थी. उसके बाद जो हुआ. सारी रात अपने हिस्से के बिस्तर पे मुट्ठी भींचे सुबकती रही. और पूरी रात तख़्ते पर पैर पटकती रही थी. वो दर्द उसकी बर्दाश्त से बाहर था. थी तो बच्ची ही न.
"भौजी. हउ का हैय़ ऊ जौन दीवार पर टंगा है." सती ने दीवार की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा. रतन की बीवी ने दीवार पर टंगा वो चमड़े का खोल उतार लिया, खोल में एक लकड़ी की मूठ थी. उसे बाहर खींचा. "बाप रे भौजी..ई तो बहुत पैना लागत है." "ई ददवा ला कर दिया था. कौनो ठाकुर के घरे मिला था लूट में. सुने हैं कौनो देवी का खंजर है." सती एकटक उस खंजर को देखे जा रही थी. बहुत तीखी धार थी उसकी, और इतनी चमक. अंधेरे में भी दूर से ही चमचमा उठे. "ई हमको दे दो भौजी." "ददवा को मालूम हुआ तो बहुत गरियाएगा सत्ती" "ऊ हम संभाल लेब भौजी. बहुत सुंदर लागत है. दे दो न." मांग भी सती रही थी, जिसे ददवा खूब मानता था. कहीं इसने ददवा को बता दिया तब भी वो जान ले लेगा कि, हमहीं ला के दिए और हमरी सत्ती को ही नाहीं दी. "अच्छा ले..और ददवा को मत बताना" सती ने लेते ही उस खंजर को चूमा और खोल में रख कर कमर में खोंस लिया.
  ददवा को अब शौक लग गया था. हफ़्ते में एक दो रात वो अंदर ही सोता. सती के साथ. उस दर्द से अब तक उसकी दोस्ती नहीं हुई थी. वो अब भी मुट्ठी भींचती थी. दांतों से अपनी मुट्ठी पर काट लेती थी. अब भी सुबह तक पैर पटकती थी. उस दिन ददवा डकैती पर नहीं गया. रतन को ही संभालने को बोल दिया. सबके जाते ही ददवा अंदर मड़ई में आ गया. सती शाम की आंधी से बिखरे सामान को सहेज- समेट रही थी . ददवा को देखते ही हड़बड़ा गई. और संदूक पर रखे तह लगे कपड़े हाथ लगने से नीचे ज़मीन पर गिर गए. फ़टाफ़ट उन कपड़ों को झाड़कर तह लगाने लगी. ददवा देख कर मुस्कुराने लगा. तख़्ते से उठ कर सती के पास आ गया. हाथ में पकड़े कपड़े को सती ने और कस कर पकड़ लिया. उसने कंधे उचकाते हुए हाथों को बदन के करीब समेट लिया. ददवा ने दोनों हाथों से उसके दोनों बाज़ू पकड़ कर उसे अपने नज़दीक कर लिया. तभी अचानक से तेज़ बरसात शुरू हो गई. खटिया बाहर ही रह गई थी, सती को ध्यान आ गया. ददवा से पकड़ छुड़ा कर बाहर बाहर भाग आई. एक चैन की सांस ली.
खटिया अंदर करते करते सती पूरी तरह भीग गई. मगर तसल्ली थी कि ददवा सोने लगा था . खटिया संदूक से टकरा गई. आवाज़ सुनकर ददवा की नींद टूट गई. झल्लाता हुआ इस तरफ़ पलटा. सती भीग कर जगह-जगह इकठ्ठा हुई साड़ी को सही करने में लगी थी. ददवा ने ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा था. वो एक झटके में उठा, और सती को तख्ते पर खींच लिया . सती ने उस तरफ़ मुंह फेर लिया. ददवा उंगलियों से उसकी काया को महसूस करने लगा. ददवा उसे अपनी तरफ खींचने ही लगा था कि सती उसकी तरफ़ पलट गई और उसके सीने पर हाथ रखती हुई करीब सिमट आई. ददवा को आज उससे पहली बार वो गर्माहट मिली थी, जो वह हमेशा सती से चाहता था. उसके होंठ सती के होंठों के करीब थे आज. सती के होंठ चूमने. उसका चेहरा करीब आया और सती ने अपना चेहरा पीछे खींच लिया. उसने सती की पीठ को सहलाते हुए एक तेज़ चिकोटी काट ली. और सती की उफ़्फ़ को हवा में बिखरने से पहले ही अपने होंठों में समेट लिया. उसके होठों ने कभी भी ऐसी कोई चीज़ नहीं चखी थी. उसकी सांसों में बेचैनी दौड़ने लगी. पिछले बोसे की आंच बुझने से पहले ही उसके होंठ फिर से सती के होंठों के सामने थे. सती फिर से हिचकी. इस बार ददवा के हाथ उसकी गर्दन पर थे. और दूसरे बोसे से उठी भाप दोनों चेहरों के बीच बिखर गई.
शाम को तख्ते पर बैठी सती उस खंजर से खेल रही थी, उसे चूमती. बाज़ू पर टहलाती. बिखरी लट को उसी से हटाती. अचानक से ददवा अंदर आ गया. सती ने गुदड़ी के नीचे छुपा दिया खंजर. बाद में काम काम में उसे वहां से हटाना भूल गई. ददवा उसके गीले बदन को छू कर पागल हुआ जाता था.ज़रा सा किनारे सरकी तो उसकी कुहनी में कुछ धंसा. वही जो छुपाया था, खंजर! इस बार ददवा ने सती को नहीं खींचा, खुद उसके करीब सरक आया. उसकी कमर पकड़ के अपने करीब खींचा, और... वो तीखा खंजर अब ददवा की नाभि में था. एक झटके के साथ सती ने खंजर को पूरी ताक़त से सीधा ऊपर. सीने तक खींच दिया. और ददवा के होठों पर अपने होंठ रख दिए. वो आह भी ना कर पाया. सती ने जब होंठ अलग किए तो. उसके होठों पर खून था. होठों को अपने हाथ से पोंछा. और जब हाथों को देखा तो, उसे ददवा के चापट पर लगा अपने घरवालों का खून याद आ गया. इस खून का रंग उस रंग से हल्का था. *डल्लफ- बैलगाड़ी
कल आपने पढ़ा था -डाका डालने गया था सूरमा और उठा लाया हाथ भर का लौंडाक्या आप भी कहानी लिखते हैं? हमारे रीडर्स को पढ़वाना चाहते हैं? मेल करें  lallantopmail@gmail.com पर. अपने नाम पते के साथ.एडिटोरियल टीम को पसंद आई तो  हम आपसे कॉन्टैक्ट करेंगे. फिर आपके नाम और तस्वीर के साथ ‘एक  कहानी  रोज़’ में  आपकी रचना भी नजर आएगी.  और एक बात और आपको एक कहानी रोज़ सीरीज की सारी कहानियां एक साथ पढ़नी हों तो नीचे जो भूरा-भूरा एक कहानी रोज़ नजर आ रहा है. उसमें दो माउस का खटका या दो अंगूठे का थपका मारिए, सारी कहानियां खुल जाएंगी. और क्या? गायब हो जाइए. अगली कहानी पढ़िए, फिर-फिर लौट आइए. 

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