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इतिहास में पहली बार कोई मरीज एम्बुलेंस की आगे की सीट पर बैठा था

एक कहानी रोज़ में आज पढ़िए अम्न सिन्हा की कहानी 'एविल और डेविल'

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आशीष मिश्रा
23 जून 2016 (Updated: 23 जून 2016, 01:32 PM IST) कॉमेंट्स
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समय: 08:28:32 AM (To be more precise)स्थान: पुणे, इंडिया (ऑफिस के बगल में ) [To be more precise specific] घडी की सुई जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, मेरे कदमों की चाल भी उसी हिसाब से तेज हुए जा रही थी. मेरे अनुभव के हिसाब से एक सामान्य इंसान पूरे दिन में सिर्फ दो बार हड़बड़ी में रहता है. पहला जब वो ऑफिस जा रहा होता तो बॉस के डर से और दूसरा शाम जब घर को लौटे तो पत्नी के डर से. शादीशुदा नहींं होने की वजह से दूसरा केस मुझ पर लागू नहींं होता है तो पहले डर की वजह से मेरे कदमो में गति थी. ऑफिस पहुंचने के ठीक पहले जैसे मैं एक पेड़ के नीचे से गुजर रहा था तो ऐसा प्रतीत हुआ कि कुछ तरल सा मेरे सिर पर गिरा. सारी आशंकाओ को किनारे कर मैंने आसमान देखा. कहीं बारिश तो नहीं हो रही? नहीं! तो? नहीं क्या? नहीं...ऐसा नहीं हो सकता. कहीं सुबह-सुबह किसी पक्षी ने अपनी नित्यक्रिया मुझ पर ही तो नहीं कर दी? तमाम अटकलो को विराम देने के लिए मैंने सर पर हाथ फेरा. जितनी तेज़ी से सिर पर हाथ गया था. उतनी ही तेजी से मैंने हाथ खींच लिया. कुछ जोर का चुभा था. शायद जैसे किसी बिच्छू ने अपने नुकीले दंश गड़ा दिए हों. हाथ से टटोल कर देखा तो एक मक्खी थी. दिल में आया कि उस मक्खी का खून पी जाऊं जिसने मेरे उंगली से खून निकला था. मगर अफ़सोस न मैं धर्मेंद्र था और न ही वो मक्खी कुत्ता. जिसे "कुत्ते तेरा खून पी जाऊंगा" कह पाऊं.
समय: 08:40:00 AM स्थान: ऑफिस केबिन ऑफिस के क्यूबिकल को जाने वाले कदम अब ऑफिस के डिस्पेंसरी की तरफ मुड चुके थे. बेशुमार दर्द लेकर जल्दी से डिस्पेंसरी के डॉक्टर को अपना दर्द -ओ-गम सुनाया कि कैसे एक चिड़िया या मक्खी ने मेरी सुबह बर्बाद कर दी है. उंगली का दर्द बढ़ा जा रहा था और सूजन रुकने का नाम नहीं ले रही थी. दर्द के साथ कुछ और भी था जो बढ रहा था, "डर". डर इस बात का कि आखिर एक मक्खी ने इतना आतंक कैसा मचा रखा है. कहीं ये जहरीली तो नहीं. डिस्पेंसरी में मौजूद डॉक्टर ने जो भी दवा दी उससे मैं दुआ समझ कर ग्रहण कर लिया. दवा देते वक़्त डॉक्टर ने नसीहत दी थी कि कुछ खाकर दवाई लेना. दवा के असर के इंतजार में मैं अपने केबिन में जा बैठा. एक गाढ़ी कॉफ़ी के साथ मैं दर्द को आराम देने की कोशिश किए जा रहा था. मगर सारा प्रयास असफल रहा. थोड़ी देर बाद ऐसा लगा मानो दवा असर कर रही. मगर ये वो असर नहीं जिसकी मुझे उम्मीद थी बल्कि वो असर था जिसका मुझे डर था. आंखे भारी हो रही थी, नशा सा आ रहा था. करना कुछ था और हुए कुछ और जा रहा था. ऐसा अनुभव अक्सर मुझे होली के दिनों में भांग पीने के बाद होता है. मैं खुद को अचेत होता हुआ पा रहा था. कही मेरा डर सही तो नहीं ? कही ये सचमुच एक मक्खी ने? "नहीं ! ये नहीं हो सकता " सास बहू सीरियल की तरह मेरे अंदर से आवाज़ निकली .
समय: 08:45:00 AM स्थान: सीनियर का केबिन और डिस्पेंसरी होश संभाले, मेरे पैर सीनियर की केबिन को बढे. बची हुई चेतना को इकठ्ठा करके मैंने सीनियर से बोला "Sir! An insect has bitten me." एक मामूली हिंदी माध्यम में पढ़ा इंसान ही इस बात को समझ सकता है कि अंग्रेजी को सही grammar और pronunciation के साथ बोलने के लिए कितने होशो-हवास की जरूरत होती है है और मेरे पास न होश था न हवास (हवास ही पढ़े !). सो हमने धड़ल्ले से बोल दिया "सर मुझे कीड़े ने काट लिया और अब चक्कर सा आ रहा है. जॉनी वॉकर सा फेस बनाकर सीनियर ने पूछा "तो मेरे पास क्यों आए हो? डिस्पेंसरी जाओ." जवाब में मैंने बताया कि मैं आते वक़्त ही डिस्पेंसरी के दर्शन कर आया हूं. अब तो लागत है भैया की हॉस्पिटल जान के नौबत आ गईल. उनके हामी भरने की देर थी की मैं दौड़ पड़ा डिस्पेंसरी की ओर. डिस्पेंसरी में अपनी राम कहानी बताई तो उन्होंने बाहर खड़ी एम्बुलेंस के ड्राईवर को जल्दबाजी में मुझे हस्पताल पहुंचाने को बोल दिया .
समय: 09:05:00 AM स्थान: पुणे की सड़क पर डिस्पेंसरी के गेट पर ड्राईवर खड़ा था. मुझे देखते ही उसने धांय से एम्बुलेंस का गेट खोला और आगे की सीट ऑफर कर दी. मैं भी बिना सोचे-समझे सीट पर जाकर जम गया. मुझे खुद पर तरस आ रहा था. हाय ! किसका मुंह देखकर उठा था. मैंने इशारे में ड्राईवर से गाड़ी हांकने को कहा. पीछे मरीज़ की सीट पर कोई नहीं था. भारत ...अरे भारत क्या विश्व इतिहास में पहली बार एक मरीज़ एम्बुलेंस की आगे की सीट पर बैठे कर जा रहा था. मैं इतिहास लिख रहा था. मगर थोड़ी किस्मत ख़राब होती तो ट्रैफिक पुलिस वाले मेरा चालान लिख रहे होते. मेरे चेहरे के बदलते हाव-भाव को ड्राईवर आसानी से पढ़ पा रहा था. मेरे इमोशन का सिग्नल ड्राईवर के राडार पर बराबर पकड़ रहा था. हाथ को गियर पर जमा कर उसने गियर बदला और गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी. लगे हाथ उसने गाड़ी की छत पर लगा सायरन को ऑन कर दिया. हमारी गाड़ी ने रोड पर ग़दर मचा रखी थी. सारे गाड़ीवाले साइड दिए जा रहे थे. ट्रैफिक पुलिस वाले भी आगे जाने का सिग्नल दिए जा रहे थे. लोग मुझे किसी बीमार पेशेंट का रिश्तेदार समझ कर सहानभूति की नज़र से देख रहे थे. वो भी सोच रहे होंगे कि किसी बड़े हादसे का शिकार होगा. एम्बुलेंस के अंदर मगर उन्हें क्या पता कि आगे की सीट पर जो बैठा है. वही मरीज़ है. और इसे एक 'मक्खी' ने काटा है. बेडा गर्क हो उस मक्खी का. मिनटों में गाड़ी की रफ़्तार काफी तेज़ हो चुकी थी. खिड़की से आने वाली हवा मुझे थोड़ी राहत दे रही थी. दर्द भी कम हो रहा था. सब शांत हुए जा रहा था. मैने अक्सर सुना है की सुनामी आने से पहले समंदर बिलकुल शांत हो जाता है. कही ये भी किसी सुनामी का संकेत तो नहीं.
समय: 09:40 :00 AM स्थान: हॉस्पिटल मैं इन्ही बातों में खोया था कि ड्राईवर ने स्टीयरिंग को बाईं तरफ घुमाकर गाड़ी को एक बड़े से हॉस्पिटल के अंदर घुसा दिया. आदित्य बिरला हॉस्पिटल बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था. बोर्ड देख मैं समझ गया था कि आज मेरी जेब अच्छी-खासी ढीली होगी. किसी सस्ते से सरकारी हॉस्पिटल का रास्ता नहीं मालूम इसे जो ये मुझे यहां ले आय. जब तक मैं मन में उठते इन सवालों को किनारे करता. तब तक मैंने देखा हमारी गाड़ी इमरजेंसी वार्ड में खडी थी. "रे छोरे. बावला हो गया है के तू ? एक तो एम्बुलेंस की आगे सीट पर मरीज़ बिठा कर. सायरन बजाकर, रोड पर हांकते लाया है. ऊपर से इमरजेंसी वार्ड में. वो पूछेंगे कि मरीज़ कौन है और हुआ के है तो के बोलेगा ? मक्खी ने काट लिया ?" हरियाणवी एक्सेंट में मन ही मन कोसता हुआ मैं अपने हिस्से आने वाली शर्मिंदगी को झेलने की शक्ति जुटाने लगा. उतरने से पहले मैंने अपने एम्बुलेंस की तरफ नज़र दौडाई. सामने इमरजेंसी वार्ड के वार्डबॉय स्ट्रेचेर आदि लेकर तैयार खड़े थे. उन्हें लगा कि कोई दुर्घटना का शिकार आया है. मुझे अकेले उतरता देख उन्होंने उत्सुकता से मुझसे पूछा. मरीज़ कौन है? मैंने आंखें हल्की नीचे करके बोला 'मैं'. हुआ क्या है? धीमी आवाज़ में बोला 'मक्खी ने काटा है.' इतना कहने की देरी थी कि उनके चेहरे पर मुझे मूर्ख बताने वाली हंसी उभर आई. मैं जल्दी से अंदर की तरफ जाने वाले रास्ते की तरफ हो लिया ताकि कम शर्मिंदगी झेलनी पड़े. उनके लिए ये भले एक मक्खी की केस हो मगर मेरी आंखों के नीचे तो अंधेरा छा रहा था. जाकर आगे के बेड पर मैंने तशरीफ़ जमा दी. धीरे-धीरे वार्ड के सारे स्टाफ को इस नए केस के बारे में पता चल गया था. एक नर्स आकर अपने अस्पताल के रीति-रिवाज़ निभाने लगी. जैसे बीपी चेक, आदि इत्यादि. ये हॉस्पिटल की आबोहवा का असर था या नर्स के हाथों का या फिर होने वाले खर्च की फ़िक्र . मेरी परेशानी दूर हुए जा रही थी. होश बराबर आ रहा था और वो हल्की सी खुमारी भी उतर चुकी थी. मेरा दिल कर रहा था कि निकल लूं किसी पतली गली से, मगर इतने बड़े अस्पताल में पतली गली कहां मिलेगी अब. परिस्थिति ने मुझे शर्मिंदा करने की सुपारी ले रखी थी. इतनी शर्मिंदगी क्या कम थी कि फिर नर्स एक व्हीलचेयर लाकर मुझे बैठने को बोली. मैंने कारण पूछा तो जवाब आया इस बीमारी का इलाज़ ओ.पी.डी डिपार्टमेंट में होता है. और प्रोटोकॉल की तहत मुझे व्हीलचेयर पर ले जाया जाएगा. भरी महफ़िल (हॉस्पिटल पढ़ें!) में व्हीलचेयर पर बिठा कर मुझे ओ.पी.डी डिपार्टमेंट ले जाकर छोड़ दिया. जहां एक लंबी प्रक्रिया के बाद डॉक्टर का नंबर लगा. तब तक मेरी तकलीफ दूर हो चुकी थी. डर और मर्ज़ दोनों न जाने कहां गायब हो चुके थे और मुझे पतली गली नज़र आने लगी. ड्राईवर भी पहले ही किसी कारण से जा चुका था. मैं जल्दी से सरकता हुआ, सरपट निकला तो पैर बस पर चढ़ कर ही रुके.
समय: 12 बज चुके थे (घड़ी में नहीं ! मेरे बज चुके थे)स्थान:अपनी औकात में लौटते वक़्त मैंने खुद के दिमाग पर जोर डालने की कोशिश की आखिर ऐसा क्या हुआ था कि आखिर एक मक्खी ने इतना आतंक मचाया. थोड़ी माथापच्ची के बाद याद आया कि जो दवा दी थी डिस्पेंसरी मे वो एविल थी. जिसे डॉक्टर ने भूखे पेट लेने से मना किया था और मैंने भूखे पेट खा ली. एविल के चक्कर में मैंने एक मक्खी को डेविल बना दिया था. लौटते वक़्त मुझे खुद पर हंसी और तरस आ रहा था.
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