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यह 'गधा' पर निबंध है

बोझ ने गालिब कबाड़ा कर दिया, वर्ना...

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गधों के मन में न तो औरों के काम बनाने का घमंड होता है, न ही ज्यादा बोझ का क्षोभ. (फोटो क्रेडिट: Reuters)
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अमरेश
26 अप्रैल 2020 (Updated: 26 अप्रैल 2020, 11:06 AM IST) कॉमेंट्स
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गधा संसार का एकमात्र चौपाया जानवर है, जिस पर सबसे कम निबंध लिखा गया है. जिस पशु पर सबसे ज्यादा लिखा गया, उनमें गाय पहले नंबर पर आती है. गाय को तो न्यूज में भी खूब सुर्खियां मिलती हैं. ऐसे में गधों का मानना है कि एक जानवर और दूसरे जानवर के बीच इस तरह का भेदभाव बंद होना चाहिए. तर्क ये कि आखिर हम जानवर हैं, कोई इंसान थोड़े ना हैं!
इसी से जुड़ी एक और बात. जब इतना भाव मिलता है, तभी तो गाएं इतना मीठा दूध देती हैं. गायों से अलग, गधों ने अपना अलग सिद्धांत बना रखा है. घर हो या घाट, बस काम दो. दाम तुम खुद रख लो.
वैसे गधे की पॉलिसी कहां तक सही है, ये जाहिर करने की जरूरत नहीं. बस मन में ही रखिए. गधों से सहानुभूति रखना कोई इंसानियत नहीं है.

कहां से बिगड़ी बात

अब जरा देखते हैं कि गधों के साथ गड़बड़ी की शुरुआत कहां से होती है. बहुत पुरानी बात है. समझ लीजिए कि खूब लॉन्ग लॉन्ग एगो वाली. जब सृष्टि रची जा रही थी, तो सभी जीवों के एक-एक प्रतिनिधि लाइन में खड़े हो गए. एक काउंटर पर बारी-बारी से सभी को उसकी प्रजाति का नाम अलॉट किया जा रहा था. उनके बीच होड़ मची थी कि लाइन में सबसे आगे लगें और अच्छा से अच्छा नाम हासिल करें.
शेर के पुरखे सबसे आगे थे. आगे क्या थे, पहले पहुंचने वाले कुछ जीवों को धकियाकर आगे हो गए थे. ऐसे ही हंस ने 'एक्सक्यूज मी' बोला, तो दूसरे जीवों ने उसे लाइन में अपने से आगे कर दिया. इन जैसे कुछ जीव-जंतुओं को खूब बढ़िया नाम मिला. इतना लल्लनटॉप नाम कि बाद में कुछ इंसान भी इन्हीं से मिलते-जुलते नाम रखने लगे.
हां, तो बात गधे की हो रही थी. काउंटर पर एक-दूसरे से आगे निकलने की मारामारी हो रही थी और उधर गधे का प्रतिनिधि धूल-कीचड़ में आराम फरमा रहा था. बाद में भीड़ छंट गई. ऑफिस बंद होने का टाइम आया, तो गधा एकसमान गति से चलता हुआ काउंटर पर पहुंचा. काउंटर पर जो बाबू वाली ड्यूटी कर रहा था, एकदम से झल्ला गया. अचानक मुंह से निकल गया, 'तुम तो एकदम गधे हो यार!' गधा अपना नाम पाकर एकदम निर्विकार भाव से चल दिया.
क्या पता, जिन्हें हम 'गधा' कह रहे हों, वो हमें 'आदमी' कहकर ज्यादा बड़ी वाली गाली दे रहा हो. (फोटो क्रेडिट: Reuters)
क्या पता, जिन्हें हम 'गधा' कह रहे हों, वो हमें 'आदमी' कहकर ज्यादा बड़ी वाली गाली दे रहा हो. (फोटो क्रेडिट: Reuters)

आप प्रमाण मांग सकते हैं. कहां लिखी है गधों वाली ये कहानी? अब प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या जरूरत. आज भी जब कोई प्रतिनिधि एकदम ढीला-ढाला रवैया अपनाता है, तो मुंह में पान-गुटखा दबाए, गली-नुक्कड़ के लोग यही तो कहते हैं, 'ये टो एट नंबर टा डडहा है...'
खैर, अब इस कहानी से निकलिए. गधों की ओर देखिए.

समदर्शी गधे

गधे तब भी समता की प्रतिमूर्ति थे. आज भी हैं. मन में न हर्ष, न विषाद. अगर मन में आ भी जाए, तो चेहरे पर झलकने नहीं देते. न औरों के काम बनाने का घमंड, न ज्यादा बोझ का क्षोभ. सिर्फ काम के लिए समर्पण.
औरों का काम बनाने के लिए अपना पूरा जीवन खपा देने वाले गधों को देखकर हम बहुधा हंस पड़ते हैं. पर गधे आप पर कभी नहीं हंसते. एक शेर देखिए-
इन गर्धवों की उम्र इलाही दराज हो आ गए नजर में, दिल कुछ बहल गया
कन्फ्यूज मत होइए. ये इलाही फर्जीवाला का लिखा है. लालकिले के पीछे चोर बाजार के पास कहीं रहते हैं. शायर कहना चाहता है कि इन गधों की जिंदगी-जान आबाद रहे. ये जब-जब नजर आ जाते हैं, तो दिल कुछ बहल जाता है.

गधा बनाम घोड़ा

साइंटिस्ट जेम्स वॉट पावर मापने के लिए घोड़ों को लेकर प्रयोग कर रहे थे. वही वाला एक्सपेरिमेंट, जिसके बाद शक्ति की इकाई 'हॉर्स पावर' रखी गई थी. वहां टेस्ट देने गधे भी पहुंचे थे. प्रयोगकर्ताओं ने उनका भी टेस्ट लिया. गधे की पीठ पर दोनों ओर एक-एक ईंट लादी और आगे बढ़ने का इशारा किया, पर वो वहीं खड़े रहे. दो-दो ईंटें लादीं. वो खड़े रहे. 10-10 ईंटें लादीं. वो खड़े रहे. इस तरह बार-बार इशारा करने के बावजूद गधे टस से मस न हुए. गधों ने तब तक आगे बढ़ना शुरू नहीं किया, जब तक कि उनकी पीठ पर 25-25 ईंटें नहीं लाद दी गईं.
तभी प्रयोगकर्ताओं ने गधों को ठीक से पहचाना, फिर ससम्मान वहां से विदा किया.
एक बड़े टेस्ट में फेलगति को प्राप्त होकर गधे इंसानों की भांति मायूस होकर लौट गए. एक शायर ने इनके दर्द को महसूस किया, फिर एक शेर लिख मारा.
बोझ ने गालिब कबाड़ा कर दिया वर्ना हम भी गधे थे बड़े काम के
यहां भी कन्फ्यूज मत होइए. ये शायर भी उसी इलाही फर्जीवाला के पड़ोस में रहते हैं. हां, इन दोनों की कहीं भी कोई दूसरी ब्रांच नहीं है.

इंसानों से कितना अलग

वैसो गधों की ये फितरत कमोबश इंसानों में भी पाई जाती है. तीन महीने गुजरे. अभी से क्या पढ़ना? छह महीने गुजरे. अभी से क्या पढ़ना? नौ महीने गुजरे. अभी से क्या पढ़ना? जब एग्जाम सिर पर आया, तो पन्ने पलटते हैं. जब लास्ट डेट निकलने को आती है, तो अप्लाई करते हैं. लेकिन फिर भी हमारी गलती माफ, क्योंकि हम तो इंसान हैं.
इसमें तो कोई शक नहीं कि गधे रगड़कर काम करते हैं. बस, ये दुनियाभर में आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझ रहे होते हैं. गधों की कुछ आदतें इंसानों में, और इंसानों की कुछ आदतें गधों में घुल-मिल गई हैं. किसने किससे सीखा, कहना मुश्किल. क्या पता, जिन्हें हम 'गधा' कह रहे हों, वो हमें 'आदमी' कहकर ज्यादा बड़ी वाली गाली दे रहा हो.
तुलसीबाबा ने इस खतरे को पांच शताब्दी पहले ही भांप लिया था. तभी तो लिखा, 'जड़-चेतन जग जीव जत, सकल राममय जानि.' जड़ और चेतन के बीच फर्क क्या करना. एक जीव और दूसरे जीव के बीच फर्क क्या करना. सभी पूजनीय. संसार के जितने भी जीव-जंतु हैं, सबको दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम!
इसी पॉइंट पर आकर सटायर खत्म हो जाता है. गधे पर निबंध यहीं से शुरू होता है.


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