The Lallantop
Advertisement
  • Home
  • Lallankhas
  • Dead Bodies Head Theft From Bihar History of Skeleton Business From Patna to Kolkata

बिहार में गायब हो रहे लाशों के सिर, फिर जिंदा हो गई कंकालों के बिजनेस की कहानी, पटना से कलकत्ता तक...

Bihar Head Theft Dead Body: ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब बिहार से शवों का सिर चुराया गया है. ये एक कारोबार हुआ करता था. एक दौर में लोगों ने लाशों की डकैती शुरू कर दी थी. इन कंकालों को विदेशों में बेचा जाता. पूरा मामला समझ लीजिए.

Advertisement
Dead Bodies Head Theft From Bihar History of Skeleton Business From Patna to Kolkata
कंकालों के बिजनेस का इतिहास डरावना रहा है. (सांकेतिक तस्वीर)
pic
रवि सुमन
25 जनवरी 2025 (Updated: 25 जनवरी 2025, 05:52 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

बिहार का भागलपुर जिला. थाना क्षेत्र सन्हौला का अशरफनगर गांव. यहां के एक कब्रिस्तान के बाहर कुछ लोग इकट्ठा हुए हैं. और ये सब चोरी की शिकायत कर रहे हैं. इन्हीं में से एक व्यक्ति अपनी बात कहते-कहते रोने लगता है. वो कहता है,

जीते जी मैंने अम्मी की बहुत सेवा की. उनको खाना खिलाता था, उनको पानी पिलाता था. उनके कपड़े धोता था, सिर में तेल लगाता था. आपकी भी तो अम्मी होंगी, उनके साथ ऐसा होगा तो कैसा लगेगा?

बदरूजमा अपनी बातें कहते हुए रो रहे हैं. कुछ महीनों पहले उनकी मां का निधन हो गया था. 85 साल की नूरजाबी खातून को इसी कब्रिस्तान में दफनाया गया था. हाल ही में किसी ने देखा कि नूरजाबी खातून को जिस जगह पर दफनाया गया था, उस जगह को किसी ने खोदा था. मिट्टी उस तरफ से हटाई गई थी, जिधर उनका सिर था.

Bihar Skelton Business
बिहार के बदरूजमा.

इलाके में खबर फैली. लोग जमा हुए. जांच-पड़ताल की गई तो पता चला कि बदरूजमा की मां के शव से उनका सिर काट लिया गया है. और शव के बाकी हिस्सों को भी नुकसान पहुंचाया गया है. 

एक ग्रामीण ने इंडिया टुडे को बताया कि पिछले 5 साल में इलाके से 5 लाशों की चोरी हुई हैं.

Delhi में दो दिन की बच्ची का शव चोरी

ऐसी ही एक घटना दिल्ली में भी हुई थी. हिंदू रीति-रिवाज के अनुसार, छोटे बच्चों के शव को भी दफनाया जाता है. नवंबर 2017 में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की गीता कॉलोनी में यमुना किनारे दो दिन की बच्ची का शव दफनाया गया था. और अगले दिन ही वो शव गायब हो गया. बच्ची के कपड़े वहीं पास में फेंके गए थे. परिवार ने आरोप लगाया कि जिस तरह से शव को निकाला गया है, ये किसी तांत्रिक का काम हो सकता है. उन्होंने ये भी कहा कि इसके पीछे ‘काला जादू’ और अंधविश्वास से जुड़े लोगों का हाथ हो सकता है.

वैसे तो समय-समय पर देश के कई हिस्सों से ऐसी खबरें आती हैं. लेकिन बिहार का लाशों की चोरी के इतिहास से विशेष कनेक्शन है. 

ये भी पढ़ें: पेरिस की सड़कों के नीचे सुरंगों में लाखों कंकाल, इतिहास पढ़ा तो पढ़ते रह जाएंगे!

Body Snatching का इतिहास

कब्र, मुर्दाघर, श्मशान घाट या किसी दूसरी जगहों से शवों या शव के किसी हिस्से की चोरी या उसे बेचना. इसको बॉडी स्नैचिंग कहते हैं. अधिकतर देशों में ये अपराध की श्रेणी में आता है. लेकिन दुनिया में सबसे पहले लाशों की चोरी कहां हुई, किसने की और क्यों की? ये समझने से पहलेे इस मामले को भारत के संदर्भ में समझेंगे.

दरअसल, देश में एक ऐसा वक्त भी था जब एक व्यक्ति ने कंकालों का व्यवसाय खड़ा कर लिया था और वो सिर्फ अंधविश्वास से जुड़े कृत्यों के लिए नहीं था. इस कारोबार की जड़ें बिहार से भी जुड़ी थीं.

Shankar Narayan Sen: कंकालों का बिजनेसमैन

साल था 1943. लाइफ मैगजीन ने कलकत्ता (अब कोलकाता) के रहने वाले एक बिजनेसमैन पर फीचर स्टोरी छापी. देश ही नहीं, दुनिया चौंक गई. क्योंकि इस आदमी ने कंकाल बेचने के लिए एक मजबूत नेटवर्क बना लिया था. वो साल बंगाल में अकाल का भी समय था. मैगजीन ने आरोप लगाया कि एक्सपोर्ट का काम करने वाला शंकर नारायण सेन, नदियों से लाश निकालता है, जिनमें अकाल पीड़ितों के शव या हत्या के बाद फेंके गए शव होते हैं. उसने शवों से कंकाल तैयार करने के लिए एक पूरी तकनीक बनाई थी, डिस्ट्रीब्यूशन के लिए नेटवर्क खड़ा किया था.

सेन ने किसी बड़ी रुकावट के बिना करीब 40 सालों तक इस धंधे से पैसा बनाया. ये एक विडंबना ही है कि सेन ने जब इस काम को छोड़ा तो इसके कुछ सालों के बाद 1985 में, खुद उसने ही इस असंवेदनशील बिजनेस पर बैन लगाने की मांग की. सेन इस कारोबार का सबसे बड़ा आलोचक बना. लेकिन तब तक कई और लोग इस धंधे में आ गए थे. और फिर इसमें आया बिहार एंगल. 

बिहार के अखबारों में छपी रिपोर्ट

अगस्त 1985 में बिहार के पटना से छपने वाले कुछ दैनिक अखबारों ने कंकालों के इस बिजनेस पर रिपोर्ट्स छापीं. इसके कारण लोकसभा में हंगामा हो गया. राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे. सांसद केपी पांडेय ने संसद में इस मामले को उठाया. सरकार ने इन सारी रिपोर्ट्स को खारिज करते हुए इस बात को मानने से इनकार कर दिया कि देश में ऐसा कुछ हो रहा है. लेकिन, इसके बावजूद सरकार ने ऐहतियात के तौर पर 16 अगस्त, 1985 को कंकालों के एक्सपोर्ट पर बैन लगा दिया.

लेकिन तब तक इस धंधे में कई और लोगों की भी एंट्री हो गई थी और एक ऐसी लॉबी तैयार हो गई थी, जो इस बैन को हटवाना चाहते थे. इसी लॉबी का नेतृत्व करने वाले बिमलेंदु भट्टाचार्य ने आरोप लगाया कि पटना के अखबारों ने जिन रिपोर्ट्स को छापा था, उसके पीछे शंकर नारायण सेन का हाथ था. सेन ने अखबारों में उन रिपोर्ट्स को छपवा कर ऐसा नैरेटिव बनाया कि कंकाल का एक्सपोर्ट करना असंवेदनशील है. भट्टाचार्य ने कहा, 

सेन उस कारोबार को अब बंद करना चाहते हैं, जिसकी शुरुआत खुद उन्होंने की है. वो ऐसा इसलिए चाहते हैं क्योंकि अब वो इस कारोबार में नही हैं. 

Patna में कंकाल के लिए बच्चों को मारा गया

1985 में ही पटना पुलिस ने ऐसे ही एक व्यक्ति के खिलाफ मामला दर्ज किया जो शवों को कब्र से निकालकर बेचा करता था. उस पर धार्मिक भवानाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगा. हालांकि, बाद में सबूतों के अभाव में उसे रिहा कर दिया गया. लेकिन उस व्यक्ति पर कई गंभीर आरोप लगे थे. एक आरोप था कि वो कंकाल के लिए बच्चों की हत्या तक कर रहा था.

अखबारों में छपी रिपोर्ट्स में इस घटना का खास जिक्र किया गया. हालांकि, इस कारोबार से बैन हटाने की मांग करने वाली लॉबी से जुड़े एसके मुखर्जी का कहना था कि कंकालों की खरीद-फरोख्त में कुछ भी अवैध या संदिग्ध नहीं है. इस लॉबी ने शंकर नारायण सेन पर बिहार के एक दलित समुदाय को बदनाम करने का भी आरोप लगाया. 

"बिहार के दलित समुदाय को बदनाम किया"

उसी साल इंडिया टुडे ने इस पर विस्तार से रिपोर्ट की. बताया गया कि वो वक्त ऐसा था जब लकड़ी की कीमतें बढ़ गई थीं. इसके कारण बिहार (कथित रूप से) में कुछ लोग मृतकों को ऐसे ही छोड़ देते थे या उस दलित समुदाय को सौंप देते थे. कुछ लोग उन शवों को दफना देते और मांस सड़ने के बाद उसे बाहर निकालते. फिर हड्डियों को उबालकर कलकत्ता के निर्यातकों को भेज देते. 

इस काम में बिहार के जिस दलित समुदाय का नाम आया, वो लाशों के अंतिम संस्कार से जुड़े काम करते हैं. बैन लगने से पहले, कंकालों को कलकत्ता भेजने के लिए उन्हें स्थानीय पुलिस से बस एक मंजूरी लेनी होती थी, जिस पर लिखा होता था कि कंकालों को नदियों के किनारे से जमा किया गया है. सेन ने आरोप लगाया कि बिहार की पुलिस 500 से 1000 रुपये लेकर इन कागजों पर साइन कर देती थी.

सेन ने तब कई भयानक प्रथाओं का जिक्र किया था. उसने बताया कि कुछ लोग अस्पतालों में ऑपरेशन के जरिए शवों से रीढ़ की हड्डी निकाल लेते थे. और वो ये काम इतनी सफाई से करते थे कि परिजनों को कुछ भी संदेह नहीं होता था. हालांकि, इतनी आलोचना के बावजूद सेन इसे अपराध नहीं मानता था. उसका कहना था कि ये अपराध का नहीं बल्कि नैतिकता का मामला है.

विदेशों में बेचे जाते हैं कंकाल

भारत में इस कारोबार को विस्तार देने वाले सेन ने दावा कि ये सब कंकाल विदेश भेजे जाते थे. इस कारोबार को छोड़ने के बाद उसने कहा,

मुझे लगने लगा है कि विदेशियों को हमारे लोगों के कंकाल बेचना निंदनीय है, जबकि हम अपने लोगों को खाना तक नहीं खिला सकते.

दूसरी तरफ इस कारोबार को समर्थन देने वाली लॉबी ने तत्कालीन प्रधानमंत्रकी राजीव गांधी को एक ज्ञापन सौंपा. उसमें लिखा,

कलकत्ता के 13 निर्यातक और उनके 300 कर्मचारी अपने जीवन यापन के लिए कंकाल कारोबार पर निर्भर हैं. और उन्हें केवल इसलिए दंडित नहीं किया जाना चाहिए कि ये नैतिक रूप से घृणित लग सकता है. इस उद्योग ने (एक दलित समुदाय के) हजारों  लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार दिया है.

"कंकाल एक्सपोर्ट करने वाला इकलौता देश भारत"

ज्ञापन में आगे लिखा गया,

अमेरिका, यूरोप और जापान के कंकाल आयातक, पूरी तरह से भारत पर निर्भर हैं.भारत दुनिया में कंकाल निर्यात करने वाला एकमात्र देश है. इसलिए सरकार के लगाए प्रतिबंध का विरोध किया जा रहा है.

सरकार ने 1985 से पहले भी दो बार कंकालों के एक्सपोर्ट पर बैन लगाया था. लेकिन दोनों बार फैसला वापस ले लिया गया. 1952 में पहली बार बैन लगाया गया जो कुछ महीनों तक चला. फिर आपतकाल (1975-77) के दौर में बैन लगाया गया था. जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद इसे हटा लिया गया.

सेन ने बताया कि 1985 आते-आते तक इस कारोबार में धोखेबाजों की संख्या बढ़ गई थी. उसने बताया था,

निर्यातक विदेशियों को कंकाल बेचने के लिए एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं. आज एक कंकाल की कीमत लगभग 100 डॉलर है, जबकि मेरे समय में ये 180 डॉलर थी. दलित समाज के उन लोगों को भी हर कंकाल के लिए केवल 450 रुपये मिलते हैं. विदेशी आयातक ही सबसे अधिक मुनाफा कमाते हैं. उदाहरण के लिए, इंग्लैंड में 1984-85 के दौरान कंकाल के आयात से 1.3 करोड़ रुपये मिले थे.

सेन ने चाहे जितनी भी सफाई दी हो या खुद को नैतिक साबित करने की कोशिश की हो, लेकिन सच ये था कि इस कारोबार से जुड़े लोगों ने उसी से इसकी तकनीकें सीखीं, डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क बनाया और कम समय में अमीर बनने का रास्ता तैयार किया.

विदेश में इन कंकालों का होता क्या है?

कई रिपोर्ट्स के मुताबिक, मेडिकल कॉलेजों में लेक्चर के दौरान इन कंकालों का इस्तेमाल होता है. प्राइवेट डॉक्टर और अस्पताल भी इन कंकालों के खरीददार होते हैं. 17वीं, 18वीं और 19वीं शताब्दियों में इंग्लैंड और अमेरिका से ऐसे बहुत सारे मामले सामने आए. इस समय इन देशों में बड़े स्तर पर मेडिकल स्कूल खुल रहे थे और उनका विकास हो रहा था. तभी बॉडी स्नैचिंग शब्द भी प्रचलन में आया. इसके बाद दुनिया का ध्यान इस ओर गया. 

कई बड़े देशों से ऐसे मामले सामने आए. कुछ मामले सिर्फ लाशों की चोरी तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि लोगों ने लाशों की डकैती शुरू कर दी थी. लाशें छीन ली जाती थीं. एक बड़ा नेटवर्क खड़ा हो गया था. कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं, जब अमेरिका में बड़े प्रोफेसरों ने इस कारोबार से जुड़ने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी थी. 1319 में पहली बार इटली के बोलोग्ना में इस तरह का मामला दर्ज किया गया था. बाद में ये इंग्लैंड और अमेरिका के अलावा, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चीन और आयरलैंड जैसे देशों तक फैला.

वीडियो: तारीख: Eiffel Tower के नीचे कितने कंकाल दबे हैं?

Advertisement