दुकानदार की धोखाधड़ी, ऐसे मिलेगा क्लेम!
अगर आपको किसी कंपनी या प्रतिष्ठान ने गलत तरीके से कोई प्रोडक्ट या सर्विस बेची हो? तब आप क्या करेंगे? आप जाएंगे कंज्यूमर कोर्ट. इसे कंज्यूमर फोरम भी कहा जाता है.
हमारे देश में कई तरह की अदालतें हैं. दीवानी माने सिविल कोर्ट, फौजदारी माने क्रिमिनल कोर्ट. दीवानी में जहां जमीन, प्रॉपर्टी, तलाक जैसे मामलों की सुनवाई होती है वहीं फौजदारी में आपराधिक मामले सुने जाते हैं. पर क्या हो अगर आपको किसी कंपनी या प्रतिष्ठान ने गलत तरीके से कोई प्रोडक्ट या सर्विस बेची हो?
तब आप क्या करेंगे? आप जाएंगे कंज्यूमर कोर्ट. इसे कंज्यूमर फोरम भी कहा जाता है. ये एक ऐसी अदालत है जिसे कई तरह की पावर्स मिली हुई हैं. बिल्कुल सिविल और क्रिमिनल कोर्ट की तरह.
उपभोक्ताओं के लिए अलग कोर्ट की शुरुआत कब हुई?
अमेरिका में 60 के दशक में एक वकील हुए, राल्फ नादर. राल्फ नादर को कंज्यूमरकोर्ट का जनक माना जाता है. इन्होंने उस समय उपभोक्ताओं के अधिकार के लिए आंदोलन चलाया. परिणाम हुआ कि 15 मार्च 1962 को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी द्वारा पेश किये गए कंज्यूमर संरक्षण विधेयक को अमेरिकी कॉंग्रेस ने मंजूरी दे दी. इसके बाद से ही हर बरस 15 मार्च को वर्ल्ड कंज्यूमर राइट्स डे के रूप में मनाया जाता है.
भारत में शुरुआत कब ?
भारत में इस आंदोलन की शुरुआत हुई 1966 से. देश के जाने-माने उद्योगपति जेआरडी टाटा के नेतृत्व में फेयर प्रैक्टिस एसोसिएशन ने कंज्यूमर आंदोलन की शुरुआत हुई. देश के कुछ प्रमुख शहरों में इसकी शाखाएं भी खोली गईं. फिर इसके बाद 1974 में बी.एम. जोशी ने पुणे में ग्राहक पंचायत की शुरुआत की. कई राज्यों में उपभोक्ता कल्याण के लिए संस्थाओं का गठन हुआ. फिर साल आया 1986. देश के प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी. 9 दिसम्बर, 1986 को पीएम की पहल पर संसद ने उपभोक्ता संरक्षण विधेयक पारित किया और इस बिल ने कानून की शक्ल ले ली. इसमें 2 बार, 1993 और 2002 में संशोधन हुए. पर समय बदलता गया और कंज्यूमर की परिभाषा बदलने लगी. ऑनलाइन सामानों की खरीद-बिक्री होने लगी. तो इसके लिए सरकार 2018 में उपभोक्ता संरक्षण विधेयक लाई.
अब यहां एक शब्द बार बार आ रहा है उपभोक्ता. तो समझते हैं कि कानून के मुताबिक किसे उपभोक्ता माना जाएगा.
उपभोक्ता उस व्यक्ति को माना जाता है जो अपने इस्तेमाल के लिए कोई वस्तु या सेवा खरीदता है. इसमें इलेक्ट्रॉनिक तरीके, टेली-शॉपिंग, मल्टी-लेवल मार्केटिंग या सीधे खरीद के ज़रिये किये जाने वाले सभी तरह के ऑनलाइन या ऑफलाइन लेन-देन शामिल हैं.
कानून को समझ लिया. तो सब समझते हैं कि ये कानून, उपभोक्ताओं को किस तरह के अधिकार देता है.
1. अगर आप कोई प्रोडक्ट या सर्विस ले रहे हैं तो आपको उसकी क्वालिटी, शुद्धता, क्षमता, कीमत और तय मानकों के बारे में जानने का पूरा अधिकार है.
2. खतरनाक प्रोडक्टस और सर्विस से सुरक्षित रहने का अधिकार.
3. उचित दामों पर सामान या सेवाओं को खरीदने का अधिकार
कंज्यूमर फोरम में किसपर केस किया जा सकता है?
फर्ज कीजिए आपने कोई टीवी खरीदा. घर आए, उसे ऑन किया तो वो खराब निकला . आप दुकानदार के पास वापस गए तो उसने टीवी चेंज करने से मना कर दिया. ऐसे केस में आप उस दुकानदार और टीवी बनाने वाली कंपनी के खिलाफ कंज्यूमर कोर्ट जा सकते हैं. ऐसे मुकदमे आप उस शहर में लगा सकते हैं जहां पर आप रहते हैं या जहां से अपने उस प्रोडक्ट को खरीदा है. केस करने के लिए आपको कंपनी के शहर में जाने की ज़रूरत नहीं है.
कुलजमा बात ये है कि इस तरह की कोर्ट में किसी प्रोडक्ट बनाने वाली कंपनी, किसी पेशेवर व्यक्ति या सेवा देने वाली कंपनियों के विरुद्ध केस किया जा सकता है. यहां पेशेवर का मतलब डॉक्टर, चार्टर्ड अकाउंटेंट जैसे लोगों से है. कुछ समय पहले तक वकीलों को लेकर इसमें कन्फ्यूजन की स्थिति थी क्योंकि वकालत पूरी तरह से व्यापारिक पेशा नहीं है. पर सुप्रीम कोर्ट ने अब साफ कर दिया है कि वकील भी अब इस कोर्ट के दायरे में आएगा.
खराब सर्विस या सर्विस में कमी के आधार पर मुकदमा कैसे लगता है?
मान लीजिए आपने कोई हेल्थ इन्श्योरेन्स लिया है. आपकी तबीयत खराब हुई और आपको उस इन्श्योरेन्स की जरूरत महसूस हुई. पर इन्श्योरेन्स कंपनी ने आपको आपका क्लेम देने से इनकार कर दिया. यदि इंकार करने के कारण उचित नहीं हैं तो इसका मुकदमा कंज्यूमर फोरम में लगाया जा सकता है. कंज्यूमर फोरम की थ्योरी समझने के बाद अब जानते हैं इसका प्रैक्टिकल कैसे होगा. माने अगर किसी प्रोडक्ट या सर्विस को लेते समय आपके साथ गलत हुआ है तो आप किस तरह से कंज्यूमर फोरम जा सकते हैं.
तो कंज्यूमर कानून के तहत तीन लेवल्स में उपभोक्ताओं की समस्याओं का निवारण किया जाता है.
1- जिला कंज्यूमर आयोग: अगर आपके साथ हुई धोखाधड़ी की कीमत 1 करोड़ रुपये या उससे कम है, तो ऐसे मामले जिला आयोग में सुने जाते हैं.
2. दूसरा है राज्य आयोग. इसमें एक करोड़ से लेकर 10 करोड़ तक के मामलों की सुनवाई होती है.
3. और तीसरा है, राष्ट्रीय आयोग. इसमें 10 करोड़ से ऊपर के मामलों की सुनवाई होती है.
बात करें कोर्ट फीस की तो कंज्यूमर कोर्ट की फीस काफी कम होती है. इसका उद्देश्य ग्राहकों पर कोर्ट का भार कम करना है जिससे उन्हें सरल एवं सस्ता न्याय प्राप्त हो सके. जिला आयोग में पांच लाख रुपये तक के मामलों के लिए कोई फीस नहीं लगती. उसके बाद पांच से दस लाख रुपये तक 200 रुपये की कोर्ट फीस रखी गई है. दस से बीस लाख रुपये तक 400 रुपये. बीस लाख से पचास लाख तक 1000 रुपये और पचास लाख से एक करोड़ तक 2000 रुपये की कोर्ट फीस ली जाती है.
राज्य आयोग में एक से दो करोड़ तक 2500 रुपये. दो करोड़ रुपये से अधिक और चार करोड़ रुपये तक 3,000 रुपए. चार करोड़ से छः करोड़ रुपये तक 4,000 रुपए. छः करोड़ से आठ करोड़ रुपये तक 5,000 रुपए. आठ करोड़ रुपये से अधिक और दस करोड़ रुपये तक 6,000 रुपए की कोर्ट फीस निर्धारित है. फिर सबसे ऊपर आता है राष्ट्रीय आयोग जिसमें 10 करोड़ से अधिक के मामले सुने जाते हैं. इसके लिए 7500 रुपये की कोर्ट फीस निर्धारित है.
कंज्यूमर कोर्ट के मामलों में मुआवजा मिलने के कई केस हैं. मसलन एक मामला है दिल्ली का जहां एक उपभोक्ता ने सात रुपये के लिए तीन साल तक उपभोक्ता फोरम में केस लड़ा और फैसला उसके हक़ में आने पर फोरम ने उसे तीन हज़ार रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया.
दरअसल शिकायतकर्ता अनमोल मल्होत्रा ने उपभोक्ता फोरम में कंप्लेन की थी कि शोरूम ने उससे सात रुपये अधिक लिए हैं. किस चीज़ के लिए? एक कैरी बैग के लिए.
अनमोल मल्होत्रा नामक व्यक्ति आठ दिसंबर 2020 को पूर्वी दिल्ली के एक शोरूम में गए थे. वहां उन्होंने 699 रुपये की खरीदारी की. पर जब बिलिंग हुई तो अनमोल से 706 रुपये पे करने को कहा गया. जब अनमोल ने इस बारे में पूछा तो शोरूम के लोगों ने बताया कि उनसे कैरी बैग के लिए 7 रुपये लिए गए हैं. अनमोल ने इसका विरोध किया पर जब बात नहीं बनी तो उन्होंने उपभोक्ता फोरम के दरवाज़ा खटखटाया.
पूर्वी दिल्ली के जिला उपभोक्ता निवारण आयोग अध्यक्ष एस एस मल्होत्रा, मेंबर रवि कुमार और मेंबर रश्मि बंसल की बेंच ने इसकी सुनवाई में कैरी बैग के लिए 7 रुपये लेने को नियम के विरुद्ध करार दिया गया. आयोग ने कहा कि अगर कैरी बैग के लिए किसी तरह का शुल्क निर्धारित है तो दुकानदार या शोरूम को अपने यहां सूचनापट लगाकर ग्राहकों को इस बारे में जानकारी देनी होगी. साथ ही यह लिखा भी होना चाहिए कि ग्राहक अपना कैरी बैग लेकर आएं नहीं तो उनसे कैरी बैग के लिए एक्स्ट्रा शुल्क लिया जाएगा.
अगला मामला है दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल का. 2015 में यहां सावित्री शर्मा ने अपने spleen को निकलवाने के लिए इलाज शुरू करवाया. फरवरी के महीने में अस्पताल में उनका ट्रीटमेंट हुआ और उन्हें घर भेज दिया गया. इसके पांच महीने बाद जब सावित्री शर्मा ने अल्ट्रासाउंड करवाया तो पता चला कि उनके spleen को कभी निकाला ही नहीं गया. इसके बाद जून में सावित्री की मृत्यु हो गई.
सावित्री शर्मा के पति ने गंगाराम अस्पताल की इस लापरवाही के लिए कंज्यूमर फोरम के पास गए. फोरम में उनका पक्ष उन्हीं के बेटे एडवोकेट अनिल दत्त शर्मा रख रहे थे. फोरम ने पाया कि मृतका के परिवार को डॉक्टर्स द्वारा spleen और बोन मैरो की रिपोर्ट, समय पर नहीं दी गयी. अगर सही समय पर रिपोर्ट दी गयी होती तो उनका मेडिकल क्लेम रिजेक्ट नहीं होता.
लिहाज़ा दिल्ली राज्य उपभोक्ता आयोग ने उनके हक़ में फैसला दिया. और कहा कि डॉक्टर्स पेशेंट को एक 'एक्सपेरिमेंटल साइट' की तरह ट्रीट नहीं कर सकते. ये अविश्वसनीय है कि जिस spleen को डॉक्टर्स ने ऑपरेशन में निकाल दिया था, अल्ट्रासाउंड में उसका आकार नॉर्मल कैसे आ गया? इस टिप्पणी के साथ ही फोरम ने सावित्री के पति को 9 लाख रुपए का हर्जाना देने का आदेश दिया. ये हर्जाना अस्पताल और उसके 5 डॉक्टर्स को संयुक्त रूप से देना होगा.