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डोनाल्ड ट्रंप से रार लेने वाले शख्स की कहानी जो उनका नंबर 2 भी बन सकता है

Donald Trump के ख़िलाफ़ वो चुनाव तो हार गए है. मगर फिर भी इस Indian American Businessman के बारे में ट्रंप ने कहा- 'साथ काम करेंगे!'

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vivek ramaswamy and donald trump
विवेक रामास्वामी और डोनाल्ड ट्रम्प एक चुनाव रैली के मंच पर. (फ़ोटो - रॉयटर्स)
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25 जनवरी 2024 (Updated: 25 जनवरी 2024, 12:40 IST)
Updated: 25 जनवरी 2024 12:40 IST
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अमेरिकी प्रांत न्यू हैमशायर का एक शहर है, ऐट्किंसन. डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) का चुनावी मंच सजा हुआ है. उन्हीं की पार्टी का एक शख़्स - जिसे उन्होंने अभी-अभी हराया है - उनके पक्ष में ज़ोरदार भाषण देता है. हारने का बाद आलोचना के सुर क़सीदे में बदल जाते हैं. जनता इसे सहर्ष स्वीकार लेती है. वाइट सुप्रिमेसी और अमेरिका फ़र्स्ट वाली जनता एक अश्वेत भारतीय-अमेरिकी के लिए तालियां पीटती है. जिसका नाम है विवेक रामास्वामी (Vivek Ramaswami). भाषण ख़त्म होते ही ट्रंप पोडियम के पास आते हैं. इस शख़्स से मिलते हैं. हाथ मिलाते हैं. सामने खड़ी भीड़ नारे लगाती है - 'वीपी! वीपी!'

ट्रंप-मंडित भाषण और 'वीपी! वीपी!' के नारों के बाद ट्रंप भी कह देते हैं - 'ये हमारे साथ लंबा काम करेंगे'. शख्स मुस्कुराता हुआ मंच से उतर जाता है.

ज्यों ही कमला हैरिस अमेरिका की उपराष्ट्रपति बनीं, भारतीयों ने मौक़ा खोज के उनसे रिश्ता जोड़ लिया. अब फिर से ऐसा ही संयोग बन रहा है. फिर से एक भारतीय मूल का आदमी अमेरिका का उप-राष्ट्रपति बन सकता है. इस भारतीय-अमेरिकी बिज़नेसमैन का नाम है विवेक रामास्वामी.

क्या काम करेंगे? वीपी बनेंगे?

16 जनवरी को ख़बर आई कि डोनाल्ड ट्रंप आयोवा कॉकस में अव्वल रहे. इस रेस में भारतीय मूल के विवेक रामास्वामी बुरी तरह हारे. चौथे स्थान पर रहे. इसके बाद उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली. मतलब वो अब चुनाव नहीं लड़ेंगे. एलान किया,

"इस सच को समझना काफ़ी कठिन है, लेकिन मुझे ये स्वीकार करना ही होगा. हम वो नतीजे हासिल नहीं कर पाए, जो चाहते थे. अब मेरे राष्ट्रपति बनने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है. इसलिए मैं अपना कैंपेन ख़त्म करता हूं."

38 साल के करोड़पति एंटरप्रेन्योर विवेक, रिपब्लिकन पार्टी (Republican Party) के सबसे कम-उम्र के उम्मीदवार हैं. माता-पिता मूल रूप से केरल के रहने वाले हैं. अमेरिका जाकर बस गए. विवेक की पैदाइश भी अमेरिका के ओहायो में ही हुई. उन्होंने हार्वर्ड और येल जैसी प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटीज़ से पढ़ाई की. साल 2014 में विवेक ने 'रोइवेंट साइंसेज़' नाम की एक बायो-फार्मा कंपनी शुरू की. ऐसा कहा जाता है कि विवेक को आर्थिक मामलों की भी अच्छी समझ है. उन्होंने किताबें भी लिखीं और एक एसेट मैनेजमेंट फ़र्म भी बनाई. उनके नाम से एक बेस्टसेलर किताब है: ‘वोक, इंक: इनसाइड कॉरर्पोरेट अमेरिकाज़ सोशल जस्टिस स्कैम’ (Woke, Inc.: Inside Corporate America's Social Justice Scam).

जनवरी 2024 में फ़ोर्ब्स मैगज़ीन (Forbes Magazine) का अनुमान बताता है कि रामास्वामी की कुल संपत्ति क़रीब 8,000 करोड़ रुपये के आस-पास है. ये पैसा उनके बायोटेक और वित्तीय व्यवसायों से आता है.

ये भी पढ़ें - US प्रेसिडेंट के दावेदार रामास्वामी कौन हैं, जिनका मस्क ने समर्थन कर ट्रंप को भी चौंकाया?

पिछले साल, 21 फरवरी को फॉक्स न्यूज़ के एक शो में विवेक ने US प्रेसिडेंट के लिए अपनी दावेदारी का एलान किया था. प्रेसिडेंट उम्मीदवारों के बीच टीवी डिबेट, पब्लिक स्पीच वग़ैरह होने की रवायत है. रामास्वामी वहीं से चमके. उनकी राय ने कंज़र्वेटिव्स के बीच उनका नाम जमाया और एक दक्षिणपंथी राइज़िंग स्टार के तौर पर आगे बढ़े. पब्लिक बहसों में उनके जोश से भरे भाषणों - जहां वो ट्रम्प से भी ज़्यादा 'कट्टर' सुनाई पड़ते थे - ने उन्हें प्रशंसक भी दिए और आलोचक भी.

जिन रैडिकल विचारों ने उन्हें ख़बरों में रखा, वो क्या थे?

- चीन को अमेरिका का दुश्मन मानते हैं, चीन पर किसी भी तरह की आर्थिक निर्भरता के ख़िलाफ़ हैं. चीन से आर्थिक तौर पर 'आज़ादी' चाहते हैं. उसके बरक्स भारत को अपनी बिज़नेस चेन में शामिल करने के पक्षधर हैं.

- वोक होने के ख़िलाफ़ हैं. अपनी किताब 'वोक, इंक.' में रामास्वामी ने उन बड़ी कंपनियों की निंदा की, जो सामाजिक न्याय और जलवायु परिवर्तन के आधार पर रणनीति बना रहे हैं. वो मानते हैं कि 'वोकिज़्म' मेहनत, पूंजीवाद, धार्मिक आस्था और देशभक्ति पर हमला है.

- क्लाइमेट एक्टिविज़्म को एजेंडा मानते हैं. एक डिबेट के दौरान उन्होंने जलवायु परिवर्तन के लिए काम करने वालों को फ़र्ज़ी क़रार दिया था.

- विदेश नीति से बहुत सहमत नहीं हैं. द हिल की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, उनका मानना है कि शीत युद्ध के बाद अमेरिका आसानी से दुनिया की अकेली महाशक्ति बन सकता था, लेकिन उन्होंने वो मौक़ा गंवा दिया. रूस और चीन को अनुमति दी कि वो साथ काम करें और अमेरिका की स्थिति ख़तरे में आ गई. उन्होंने विदेश नीति के लिए राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन और रिचर्ड निक्सन समेत अमेरिका के कई बड़े नेताओं की आलोचना की है.

अपनी आक्रामक भाषा शैली और भाव-भंगिमा से माहौल बना लेते हैं. (फ़ोटो - रॉयटर्स)

- उनका एक ख्यात (कुख्यात और विख्यात, अपनी सुविधा से पढ़ें) शगल था.  राष्ट्रपति बन गए हैं, ऐसी कल्पना करते थे. कहते थे - राष्ट्रपति बना तो ये करूंगा, वो करूंगा. यूक्रेन युद्ध पर कहा कि राष्ट्रपति बनने के बाद रूस जाएंगे. यूक्रेन युद्ध ख़त्म करने की शर्तों पर बात करेंगे. जिन पर रूस की सेना ने क़ब्ज़ा कर लिया है, उन इलाक़ों पर रूसी नियंत्रण को 'स्वीकार' कर लेंगे.  यूक्रेन को नाटो में शामिल भी नहीं होने देंगे. बस शर्त ये कि रूस को चीन के साथ अपना सैन्य गठबंधन ख़त्म करना होगा.

- 9/11 हमले को लेकर बाइडन सरकार पर गंभीर भी आरोप लगाए. उनका कहना है कि अमेरिकी सरकार ने इस हमले को लेकर 'असली सच' छिपाए हैं. सऊदी अरब की सरकार तक को लपेटा. कहा कि सऊदी सरकार भी आतंकी हमले में शामिल थी.

- धर्म और धर्म की स्वतंत्रता पर उनके विचारों ने ख़ूब सुर्खियां बटोरी थीं. उन्होंने कहा था कि बावजूद इस स्वतंत्रता के, कुछ लोगों का मानना है कि अगर आप क्रिशचन नहीं, आपका धर्म अमेरिका के फ़ाउंडिंग फ़ादर्स के धर्म से अलग है, तो आप राष्ट्रपति नहीं बन सकते.

क्या ट्रंप चुनाव जीत रहे हैं?

उन पर दो बार महाभियोग चलाया जा चुका है. उन्होंने 2020 राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण को बाधित किया. उन पर कई आपराधिक मामलों में आरोप हैं, जिनसे वो इनकार करते हैं और राजनीति से प्रेरित बताते हैं. और उनके आलोचकों ने दर्जनों बार चेतावनी दी है कि वो एक तानाशाह के तौर पर शासन करेंगे. फिर भी, वाइट हाउस (White House) में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी हो सकती है.

उन्हें हाल ही में दो बड़ी सफलताएं मिल चुकी है. पहली विवेक रामास्वामी के ख़िलाफ़, दूसरी निक्की हेली (Nikki Haley) के ख़िलाफ़.

इसके कारण क्या हैं? देश की राजनीति बूझने वाले इन चार पैमानों को मुख्य कारण मानते हैं:

  • बाइडन सरकार कहती है कि अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में है. ट्रंप के जाने के बाद से बेरोज़गारी 6.3% से घटकर 3.7% हो गई है और महंगाई भी कम हुई है. लेकिन जनता का एक बड़ा वर्ग - जिसमें कई अश्वेत और युवा मतदाता हैं, वो कुछ और सोचते हैं. बाइडन प्रशासन आर्थिक संकेतकों के बारे में बात कर रहा है, अमेरिकी अपनी जेब के बारे में. वो कहते हैं कि उनकी वेतन कम है; ज़रूरत का सामान, गाड़ी-घर, बच्चे-बुजुर्गों की देखभाल जैसी आवश्यक सेवाओं की लागत बहुत ज़्यादा.
  • माइग्रैंट्स को लेकर हर राज्य-देश की तरह अमेरिका भी बंटा हुआ है. कुछ मानते हैं, जितने रंग के पेड़, उतना सघन गुलिस्तां. दूसरे तबके को ज़मीन खोने का डर है. भीड़ बढ़ने से घर, काम, शिक्षा में हिस्सा बंटेगा. फिर सर्वे से ये भी पता चलता है कि वो अपराध के बारे में चिंतित हैं. अवैध रूप से अमेरिका-मेक्सिको सीमा पार करने वाले प्रवासियों से घबराए हुए हैं. ट्रंप उन आशंकाओं को प्रसारित करने और पैकेजिंग करने में माहिर हैं. वो आग लगाने वाले और बुझाने वाले, दोनों बन सकते हैं. पहले ख़ुद घोषणा करेंगे कि देश अराजकता में है और फिर ख़ुद एक सेवियर बन जाते हैं.
  • ट्रंप की कवरेज के मामले में अमेरिकी मीडिया ने कोई क़सर नहीं छोड़ी है. इससे उनके कई समर्थक आश्वस्त हो गए हैं कि ट्रंप 'टार्गेटिंग' के शिकार हैं. इस साल की शुरुआत में रॉयटर्स ने जो सर्वे किया, उसमें कम से कम आधे रिपब्लिकन्स ने कहा कि अगर ट्रंप किसी अपराध के दोषी भी पाए जाते हैं, तब भी वोट उन्हीं को करेंगे.
  • बाइडन प्रशासन भी कुछ मसलों से जूझ रहा है. अमेरिकी बंटे हुए हैं. ट्रंप का 'अमेरिका फ़र्स्ट' कैम्पेन भले ही लोगों के कान खड़े करे, लेकिन बाइडन अपनी पारंपरिक विदेश नीति लिए ही चल रहे हैं.

बेशक इनमें से किसी का भी मतलब ये नहीं है कि ट्रंप का चुनाव जीतना तय है. वो देश के कई हिस्सों में और कई जनसांख्यिकी के बीच बेहद अलोकप्रिय हैं. लेकिन इस समय - चुनाव से 10 महीने पहले - ट्रंप के पास वाइट हाउस लौटने का सबसे अच्छा मौक़ा है.

और अगर वो जीतते हैं, तो विवेक रामास्वामी के भी वारे-न्यारे हो सकते हैं.

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