स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ने वाली एक बनारसी लड़की की डायरी
DU में एडमिशन हुआ तो लोगों ने एक्सपोज़र का फायदा उठाने की सीख दे कर भेजा. पर हुआ कुछ और ही...
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फोटो - thelallantop

पारुल
पारुल तिवारी डीयू के टॉप कॉलेज सेंट स्टीफेंस से पढ़ाई कर रही हैं. हिस्ट्री में. धें वाली अंग्रेज़ी में लिखती-पढ़ती-बोलती हैं लेकिन हिंदी से इश्क इधर 'दी लल्लनटॉप' की गली में खींच लाया है. बनारस की इस लड़की ने डीयू के 'हैप' कल्चर वाले कॉलेज में पढ़ाई का एक्सपीरियंस लिख मारा है. पढ़ें.
हम बनारस से हैं और डीयू के सेंट स्टीफेंस से भी. स्टीफेंस में कोई 'हम' की भाषा में बात नहीं करता. हमारे यहां से कम ही लोग आते हैं इधर.
हम ठहरे कस्बा माइंडेड. सारी ज़िंदगी गड्ढे में सड़क देखी तो दिल्ली की चौड़ी सड़कों में ही चकरा गए. खैर वो पुरानी बात हुई. अब तो आपको पूरा दिल्ली घुमा दें हम. किस्सा मुख्तसर इस तरह है:
बनारस में बरसों से रह रहे थे हम. एक दिन जी अउता गया तो DU का फारम भर दिए. एडमिशन हो गया. फिर कुछ दिन घर में बड़ी इज्जत मिली और जुलाई में हमारी मम्मी लिट्टी, पूड़ी और चूड़ा बांध के 2-3 बैग तैयार कर दीं. ट्रेन में रोना-धोना किए हम. फिर सुबह-सुबह बोरिया बिस्तर लेकर विश्वविद्यालय मेट्रो पहुंच गए. अभी रहने का ठिकाना खोजे नहीं थे तो वहीं पे दो ठो लिट्टी उड़ा दिए.

फिर हॉस्टल मिल गया और हम बाल्टी-मग्गा और साबुनदानी के लिए आधा दिन कमला नगर में भटकते रहे. अगले दिन से कॉलेज था. रात को फुरसत पाए तो समझ आया कि हम कितने भी तुर्रमखां बन लें, बिना माई-बाऊ के हालत खराब है, मन लग नहीं रहा है. ऊपर से बनारस छूटने का दुख अलग. खैर जइसे तइसे सुबह हुई. हम पहिले दिन पहुंच गए कॉलेज.
वैसे तो हम अपने स्कूल में बहुत बड़े तीसमारखां थे. भौकाल ऐसा बना था कि आज तक जा के पूछेंगे तो तफरीबाजी में हमारा कोई सानी नहीं है. लेकिन यहां तो भई, लोग पहिले से ग्रुप बना-बना के आए थे. न उनके जोक हमारी समझ में आएं, न उनके रेफरेंस. और बड़े ग्रुप में टिक पाना हमारे बस के बाहर की बात थी. प्लेट की मटर पनीर में छांट दिए गए मटर की तरह फील हो रहा था.
पूरी जिंदगी कानपुर, गोरखपुर और बलिया जैसे नामों के बीच रहे इंसान को अब अचानक से कोलकाता, पुद्दुचेरी, मणिपुर और केरला सुनाई दे रहा था. यहां दिन कैसे काटेंगे कुछ समझही नहीं आ रहा था. साला हर तरफ दुख ही दुख था. कितने दिनों तक हम वापस बनारस चले जाने के बारे में सोचते रहे.
किसी भी प्रकार के दुख का सबसे सही इलाज है बढ़िया खाना. इसीलिए बनारस की याद में हम गोलगप्पे खाने निकले. अब दिल्ली का स्ट्रीट फ़ूड तो फेमस है, आपको पता ही होगा. तो बहुत अरमान संजोये जब हम ठेले पे पहुंचे तो जो खाने को मिला उसके सदमे से हम आज तक उबर नहीं पाए हैं. भाईसाहब! वो चीज़ गोलगप्पे के लिए क्वालिफाई ही नहीं करती. मतलब गोलगप्पे में एक खड़ा उबला आलू दो टुकड़े में काट के, उसमे पुदीना का ठंडा पानी डाल के कोई फ्री में भी खिलाये तो भी न खाएं. हम गोलगप्पा खा के वापस आए तो फिर कसम खाए कि फिर कभी दिल्ली में गोलगप्पे की ओर देखेंगे भी नहीं.
खैर, खाने की बात करवा के दुखती रग पर हाथ मत रखिए. तो ऐसे ही हम 2-3 महीना दुखी आत्मा की तरह भटकते रहे. कोशिश की दोस्त बनाने की लेकिन कुछ बात नहीं बनी. एक बार तो इसी चक्कर में दूसरे कॉलेज में किसी को नंबर दे आएं. इलेक्शन के टाइम में तो ढेरों कहानियां सुनने में आती थीं जब उलटे-सीधे फ़ोन आते थे लड़कियों को. हालांकि फन पार्क और फिल्म टिकट्स के आगे सब मंज़ूर था लोगों को.फिर हमने वो सब करने की कोशिश की जो हमारे घरवालों, पड़ोसियों और टीचर्स ने सिखा के भेजा था. एक्सपोज़र का भरपूर इस्तेमाल, एक्स्ट्रा करीकुलर चीज़ों में भाग लेना, और अपनी हक्का बक्का रह जाने वाली आदत छोड़ कर 'एक्टिव' बनने की. कुछ चीजें तो सचमुच अच्छी लगती थीं. कुछ में कॉलेज सोसाइटी या क्लब की मेम्बरशिप का हवाला देकर बैठा दिया जाता था. सीनियर्स हर दूसरे दिन एक्सपोज़र नाम की चिड़िया का नाम जपते थे.
जबकि हम अपने मनमर्जी की चीज़ के अलावा हर चीज़ से चिड़िया उड़ खेल जाने वाले इंसान थे. जहां देखो तहां लोग सीवी सुधारने और ग्रो करने की जुगत में भिड़े थे. जो चीज़ें हमें पसंद थीं, हमने भी उनमे हाथ आज़माना शुरू कर दिया, पर कुछ ज़बरदस्ती वाली चीज़ें हमें भाई नहीं और हम जल्दी ही अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगे.
मतलब हक्के-बक्के भटकने लगे. भटकने के दौरान ही पता चला कि हम अकेले नहीं हैं. ऑर्गनाइज्ड सिस्टम में सांस न ले पाने वाले और भी हैं. फिर हमें ये भी समझ आया कि सीखने को आप हर चीज़ से सीख सकते हैं, लेकिन ईमानदारी से सीखना ज़्यादा ज़रूरी है. अब मिसाल के लिए अगर हमें फिल्में पसंद हैं तो कॉलेज में फिल्मों से जुड़े कुछ भी अनर्गल को झेलने की मजबूरी क्यों होनी चाहिए? एक्सपोज़र, ग्रोथ सब घंटा होता है, जो मन आए वो करने से जिंदगी दुरुस्त रहती है. आख़िर व्यास जी कहते ही हैं,
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने मेंजो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में
DU की जो सबसे जबर बात है ये है कि यहां देश के हर कोने से लोग आते हैं. स्टीफेंस में ये डाइवर्सिटी और ज़्यादा है. और मेरे दिल के सबसे करीब के लोग सबसे दूर-दराज से आए हुए हैं. लोगों से मिलकर जितना सीखा उतना किसी पकाऊ टॉक और झेलाऊ सेमिनार से घंटा ही सीख पाते. अब हम लोग के लिए थुक्पा, आलू भाजा, रसम, पूड़ी-सब्जी, सब एक्कै थाली के पकवान बन चुके हैं.
पहिले जब हमारे बुरे दिन चल रहे थे तो हमारे घर वाले दिन में तीन बार फ़ोन करते थे और बेटा बेटा कर के बतियाते थे. अब तो साला दो कौड़ी का भाव नहीं मिलता. ढंग से मम्मी तभी बतियाती हैं जब ऑनलाइन गैस सिलिंडर बुक कराना हो.
अब ये हमारी राम कहानी जानकर आप क्या ही कर लेंगे. लेकिन हम सोचे कि क्या पता आप अपने या अपने बच्चों के एडमिशन के जुगाड़ में लगे हों तो हम थोड़ा बोल-बतिया लें इसी बारे में.