'मेरी बीवी पागल हो चुकी है, कहती है मैं उसका हत्यारा हूं'
पढ़िए अरविंद दास की शीघ्र प्रकाशित होने वाली पुस्तक बेख़ुदी में खोया शहर के अंश.
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जर्मनी
लेखक के बारे में
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अभी मानसून नहीं आया है, पर लोग कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन का ये असर है. पिछले दो-तीन दिनों से यहां काफी बारिश हो रही है.
रात ढल गई है. पर बारिश से समंदर की नींद में कोई खलल नहीं पड़ता. दरअसल उसे नींद आती ही कहां है! कभी खरगोश के शावक की तरह कोई झक सफेद गुच्छा मेरी ओर लंबी छलांगे लगाता दिखता है, तो कभी बूढ़ी दादी की तरह किसी बच्चे पर कुपित.
बाहर कोलंबो की सड़कों पर कार, बसों, और टुक-टुक के हल्के शोर के बीच एक ठहराव है. लोगों के मुस्कुराते चेहरे पर विषाद झलकता है.
उत्तरी श्रीलंका में एलटीटीई और सरकार के बीच 25 साल चला खूनी संघर्ष खत्म हो गया, पर कोलंबो की फिज़ा में उदासी अब भी छाई है. लोग युद्ध के बारे में बात नहीं करना चाहते.
शहर की सड़कों पर शांति भले दिखे पर समंदर की लहरों में शोर है. मेरी खिड़की से भी समंदर झांक रहा है. लहरों की झंझावात और चीख मुझे सुनाई दे रही है. मैंने एसी बंद कर दिया है, खिड़की खुली छोड़ दी है और सोने की कोशिश कर रहा हूं.
मार्क्स का राजनीतिक दर्शन मर चुका है
यहां बर्फ़ की चादर धीरे-धीरे सिमट रही है. कहीं-कहीं घास पर बर्फ़ का चकत्ता ऐसे दिखता है मानो धुनिया ने रूई धुन कर इधर-उधर फैला रखी हो.सबेरे टिपटिप बारिश हो रही थी. भीगते-भागते, पहाड़ियों को पार करते, विश्वविद्यालय की कैफ़ेटेरिया पहुंचे मुश्किल से एक-दो मिनट हुए होंगे कि मेरे कानों में आवाज़ आई, ‘आर यू मिस्टर कुमार?’ आंखे उठाई, सामने वे खड़े थे. मैंने देखा, घड़ी की सुई आठ बज कर 30 मिनट पर ठहरी हुई है.
मैंने जैसे ही आहिस्ते से अपने बैग से कैमरा निकाल कर मेज पर रखा उन्होंने पूछा, क्या आप मेरी तस्वीर लेंगे, इसे छापेंगे! कोई बात नहीं..
अपनी कमीज़ के कॉलर को ठीक करते हुए उन्होंने कहा... अब शायद ठीक रहेगा और मुस्कुरा दिया.
फिर अचानक जैसे कुछ याद करते हुए उन्होंने पूछा ‘आर यू ए सांइटिस्ट ऑर जर्नलिस्ट?’

‘असल में मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो घुमना पसंद करते हैं और शायद इस वजह से ज्यादा गोरा हूं. 35 वर्ष पहले मैं भारत गया था फिर नहीं जा पाया.’ कुछ सफाई देते हुए उन्होंने कहा.
जिगन विश्वविद्यालय, जर्मनी में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफ़ेसर युरगेन बेल्लर्स के साथ हमारी बातचीत का यह अवांतर प्रसंग था:
यहां तो अब मार्क्स का राजनीतिक दर्शन मर चुका है. हां, छात्र संघों में अब भी मार्क्स की धमक सुनाई पड़ेगी आपको. विश्वविद्यालयों में ज्यादातर प्रोफ़ेसर परंपरागत रूप से मार्क्सवादी नहीं है, वे ‘लेफ्ट-लिबरल’ हैं. अब उनका सारा ज़ोर पर्यावरण मुद्दों और सेक्स के मामले में होने वाले भेदभाव की मार्क्सवादी विवेचन पर है.
जब मैं विश्वविद्यालय का छात्र था तब ऐसा नहीं था. 60 के दशक का दौर अलग था...सब तरफ छात्रों के अंदर असंतोष और विद्रोह था. मैं भी कट्टर मार्क्सवादी था लेकिन अब पूरी तरह से बदल चुका हूं... मैं अब एक कंजरवेटिव हूं. लेकिन मेरा मामला ‘टिपिकल’ नहीं है.

मैंने समाजवादी जर्मनी में कट्टरता को झेली है. मैं पश्चिमी जर्मनी का हूं और मेरी बीवी पूर्वी जर्मनी से ताल्लुक रखती है. वह वहां से भाग कर पश्चिमी जर्मनी आना चाहती थी. उसे जेल में क़ैद कर दिया गया. वहां उसे दो-तीन साल बंदी बना कर रखा गया, फिर उन्होंने उसे नौकरी और अन्य सुविधाएं देकर वहां के समाज में सामंजस्य के साथ रखने की कोशिश की. लेकिन जब उन्हें लगा कि ऐसा संभव नहीं है तो फिर उसे छोड़ दिया गया. इन बातों की चर्चा आज कोई नहीं करता.
मेरी बीवी पागल हो चुकी है. मैं उससे नहीं मिलता. वह कहती है कि मैं उसका हत्यारा हूं...क़ैद में बंद रहने का खामियाजा उसे अब भुगतना पड़ा है (लेट कांसिक्वेंसेज ऑफ़ प्रिज़न)...
फिर जैसे कहीं कोई खयाल आया और वे कह उठे, ‘इट्स फ़ेट...यू मस्ट लिव इट...’. मैं भी उनकी बातचीत में कहीं खो गया था, जैसे सोते से जाग कर कहा, ‘यस, यस...’

किताब: बेख़ुदी में खोया शहर - एक पत्रकार के नोट्सलेखक: अरविंद दासप्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, नई दिल्लीउपलब्धता: अमेज़न (शीघ्र प्रकाश्य)
पृष्ठ: 192 (हार्डबाउंड)मूल्य: 375 रुपए
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