सचिन देव शर्मा. पेशे से एचआर प्रोफेशनल हैं. शौक से एक लेखक और यात्री. दिल्ली के बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी से एमबीए हैं. गुरुग्राम की एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम कर हैं. लेकिन ज़िन्दगी में शौक की अपनी जगह होती है. इसलिए उनका लिखा उत्तरांचल पत्रिका, जानकी पुल, आईचौक वगैरह पर छप चुके हैं. सचिन अपने ट्रैवल ब्लॉग Yatravrit.com पर भी लिखते रहते हैं. उनकी एक किताब आ रही है- ल्हासा नहीं...लवासा.
क्या है किताब में?
'ल्हासा नहीं... लवासा' के बारे में सचिन कहते हैं कि ये लवासा और अन्य यात्राओं का एक ऐसा वृत्तान्त है, जो ट्रैवल को फैंटैसी लैंड से बाहर लाकर उनके वास्तविक स्वरूप को पाठकों के सामने दिलचस्प कहानियों के रूप में पेश करता है. ये यात्रा वृत्तान्त यानी ट्रैवलॉग, यात्रा की एक नई अवधारणा रचता है, जहां यात्रा का मतलब सिर्फ़ बैग पैक करके सोलो ट्रिप पर निकल जाना, या ग्रुप में दुर्गम पहाड़ियों पर ट्रैकिंग करना ही नहीं है. इस किताब में ऐसी यात्राओं की कहानियां हैं, जो ये बताती हैं कि दुर्गम स्थानों के अलावा भी बहुत कुछ है दुनिया में देखने और घूमने के लिए. कुल मिलाकर ये घुमक्कड़ी पर आधारित एक घुमक्कड़ की किताब है. तो आइये इसी घुमक्कड़ी की एक झलक देखते हैं, और पढ़ते हैं इस किताब का एक अंश.
उस चट्टान की यात्रा, जहां पहुंचकर लगा कि सारा लवासा वहीं सिमट गया
चलते-चलते रास्ते में हमारे दाएँ हाथ पर एक साइन बोर्ड लगा दिखा था, लिखा था ‘फर्स्ट कोर्ट’. यह जगह लवासा एंट्री गेट से कोई दो-ढाई किलोमीटर रही होगी. कुछ और आगे गए तो एक और साइन बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था ‘सेकेंड कोर्ट’. ये नाम अपने आप में कुछ बताने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन मेरी समझ से बाहर थे. बाद में पता चला कि वहां के पॉश रेसिडेंशियल इलाक़ों के नाम हैं. अभी कोई दो सौ मीटर आगे ही गए थे कि दाएं हाथ पर ‘हेलिपैड’ का साइन बोर्ड दिखाई पड़ता है. रास्ते में एक घुमावदार टर्न पर सड़क के दाईं ओर गुलाबी रंग के फूल, झाड़ियां और पेड़ दिखाई पड़े. यों तो सड़क पर फूल, पत्ती और पेड़ों का मिलना कोई विचित्र बात नहीं लेकिन हरी-हरी झाड़ियों पर लगे वो गुलाबी फूल, हरा-भरा छितराया हुआ सा वह पेड़, वह साफ़-सपाट सर्पीली सड़क और कार के अंदर से देखने पर वह पूरा दृश्य दीवार पर लगी उस तस्वीर की तरह लग रहा था, जिसे बड़े प्यार से एक सुंदर फ़्रेम में लगाया गया हो.
जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे, वैसे-वैसे उस अदभुत स्थान को देखने की जिज्ञासा अपने चरम की ओर अग्रसर थी. अब हम शहर में दाख़िल होने ही वाले थे. कोई दो-ढाई किलोमीटर चलने के बाद बाएं हाथ पर नीचे उतरते ढलान पर एक हटनुमा सुंदर इमारत नज़र आ रही थी, जिसके काफ़ी हिस्से में कांच के पैनल लगे थे. उस इमारत का वास्तुशिल्प लवासा की यूरोपीय छवि के अनुकूल जान पड़ रहा था. उस ढलान से उतरते ही कुछ गाड़ियां और लोग दिखाई दिए. हमने भी गाड़ी रोक ली.
सड़क के किनारे उस चट्टान पर लोहे की ग्रिल लगी थी. कुछ तो था चट्टान के उस तरफ़, जो लोग उसे टकटकी लगाए देख रहे थे. मैं भी जैसे ही चट्टान पर पैर रखकर ऊपर चढ़ा तो मानो ऐसा लगा, जैसे पूरा-का-पूरा लवासा सिमटकर उस चट्टान तक पहुंच गया है. ऐसा लग रहा था कि गहरे नीले वस्त्र पहने मुथा नदी विशाल पर्वतमाला के बीच से इठलाती हुई अविरल बही जा रही है और संपूर्ण पर्वतमाला उसके सम्मान में नतमस्तक है. वह हरी-भरी पर्वतमाला शायद अपनी प्राकृतिक संम्पन्नता के कारण ही विनम्रता का परिचय प्रस्तुत कर रही थी. मुथा नदी पर बने ब्रिज को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो नदी के दोनों छोर पर खड़े पर्वत एक-दूसरे से हाथ मिलाकर एक-दूसरे का अभिवादन स्वीकार कर रहे हैं.
जहां ब्रिज के बाईं तरफ़ झोपड़ीनुमा स्लेटी रंग की छत वाली कुछ इमारतें दिखाई पड़ रही थीं, वही दाईं तरफ़ गहरे गुलाबी और पीले रंग में सराबोर बहुमंज़िला इमारतें घाटी का शृंगार जान पड़ती थीं. आसमान साफ़ था, तेज़ धूप की चमक से पूरी घाटी सोने-सी दमक रही थी. मन बस यूं ही एकटक उस सुंदरता को निहारते रहने की स्वीकृति दे रहा था, लेकिन कुछ और अकल्पनीय दृश्यों को सजीव होते देखने की उत्सुकता मुझे अगले पड़ाव की ओर धकेल रही थी. दोस्त और परिवार के साथ कुछ फ़ोटो लिए और निकल पड़े अपनी अगली कल्पना को जीवंत होता देखने.
उस सर्पीले पहाड़ी रास्ते पर चलते-चलते ऐसा लग रहा था, जैसे मुथा नदी हमारे साथ लुका-छिपी खेल रही है. कभी नदी आंखों से ओझल हो जाती तो कभी अचानक से फिर सामने आ धमकती. कुछ दस-पंद्रह मिनट में ही हम उस जगह पर पहुंच गए, जिसे लवासा के नाम से जाना जाता है. जिस जगह की केवल कल्पना मात्र ही की थी. जो कभी एक केवल सपने जैसा था, वह आज मूर्त रूप में मेरे सामने था.
हमें लगा कि शायद नदी के दोनों छोरों पर बने पुल को पार करके ही शहर की एंट्री होगी, सो कार को उस ओर ही मोड़ दिया लेकिन इससे पहले कि उस पुल को पार कर पाते, मुथा नदी ने मानो दो पल वहां रुककर उससे बतियाने का निमंत्रण दे डाला. ब्रिज पर फुटपाथ के बीच-बीच में अंग्रेजी के अक्षर D के आकर में बने प्वाइंट पर खड़े होकर जहाँ तक नज़र पड़ रही थी, वहां तक पानी-ही-पानी दिख रहा था, जो कि सूरज की तेज़ धूप में ऐसे दमक रहा था, जैसे किसी ने उस गहरे नीले रंग की चादर पर सितारें टांक दिए हों. वनस्पति से लदे पहाड़ उस मां की तरह ख़ुश नज़र आ रहे थे, जो नदी रूपी बच्चे को अपनी गोद में खिलाती है.
उस जगह खड़े होकर उस निर्मल नदी के विस्तार का आकलन कर ही रहा था कि हमारे पीछे की तरफ़ से रेल... अरे नहीं-नहीं, वह रेल का रूप लिए असल में एक मोटर वाहन ही था. इंजन के ऊपर लिखा था- ‘लवासा एक्सप्रेस’ लेकिन था हूबहू यूरोप में चलने वाली किसी रेल की तरह ही, बहुत आकर्षक और रंग-बिरंगा. उसके साथ फ़ोटो खिंचवाना तो बनता था. इंजन में बैठे लोगों से पूछा कि ये कहां जाएगा? जवाब आया कि ये लवासा शहर के चारों तरफ़ चक्कर लगाता है. जिसने जवाब दिया, शायद वह ड्राइवर ही था. कुछ देर वहां रुकने के बाद वह रेल जैसी सवारी वहां से अपने अगले स्टेशन की ओर रवाना हो गई. और मैं फिर से मुथा नदी को निहारने और उस नदी और उन पहाड़ों के संबंधों को टटोलने में व्यस्त हो गया.
पीछे से आ रही पैट्रोल कार के हॉर्न से ध्यान बंटा. कार में बैठे लोगों ने उस जगह से कार को हटाने का आग्रह किया. मैंने पूछा कि शहर का रास्ता यहीं से होकर जाएगा क्या? तो उन्होंने जवाब दिया कि वह तो ब्रिज शुरू होने से पहले ही दाईं तरफ़ की ओर जाता है. उस ओर जाने पर कुछ दूर चलके हमारे दाईं तरफ़ एक कार पार्किंग के बारे में भी बताया. सो गाड़ी को उसी दिशा में मोड़ दिया. कुछ दूर चले ही थे कि अपने बाईं तरफ़ नीचे की ओर जाती बहुत चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियां नज़र आ रही थीं. वह एक तरह से नदी के किनारे बसे उस छोटे लेकिन आधुनिक शहर के मुख्य इलाक़े की शुरुआत मालूम पड़ती थी. बाकी सबको वहीं गाड़ी से उतारकर हम दोनों दोस्त अब निकल पड़े थे, पार्किंग की तलाश में.
उस साफ़-सुथरी चमचमाती दूर तक जाती हुई सड़क पर कुछ ही दूर आगे, जहां सबको छोड़ा था, वहां से लगभग दो-ढाई सौ मीटर पर ही दाईं ओर पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर पैदल ही दोनों वहीं वापस चल दिए, जहां सबको छोड़कर आए थे. जहां सड़क के एक ओर नदी के किनारे आधुनिक तरीक़े से बनी वह मज़ेदार जगह, जिसे अगर एक पिकनिक स्पॉट या एक मनोरंजन स्थल कहूं तो शायद ग़लत नहीं होगा. वहीं सड़क के दूसरी ओर पहाड़ी पर तीन-चार मंज़िला इमारतें दिखाई पड़ रही थीं, और कुछ मकान भी थे जिसे आजकल शहरी भाषा में ‘विला’ भी कहा जाता है. कुछ मकान बिना लिपे-पुते भी थे, देखकर ऐसा मालूम पड़ता था कि उनका मकान मालिक उन मकानों को बेगानों की तरह छोड़कर कहीं चला गया है. थोड़े-थोड़े अंतराल पर नदी के किनारे तक जाती सुंदर चमकदार पत्थरों से बनी चौड़ी चौड़ी सीढ़ियां उन पर सजाए सुंदर गमलों में लगे हुए तरह-तरह के पेड़ पौधों से और ज़्यादा सुंदर जान पड़ रही थीं.