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'पेट में अमर आस लिये, अभी तक ब्रह्माण्ड में निर्वसना घूम रही है लाछी'

बिज्जी का हफ्ता में आज पढ़िए जानदार शानदार कहानी 'केंचुली.'

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लल्लनटॉप
3 सितंबर 2016 (Updated: 5 सितंबर 2016, 05:16 AM IST)
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हम हर वक्त बीत रहे हैं. तकलीफ है. जो सामने से गुजर रहा है, वो याद भी रहेगा या नहीं. छटपटाहट. हड़बड़ी. और खुद पर भरोसा कतई नहीं. इसलिए तस्वीरें खींचते हैं. चेक इन करते हैं. स्टेटस अपडेट करते हैं. फिर भी गुजारा नहीं होता. सब कुछ इतना रियल, सब कुछ इतना वर्चुअल. फर्क खत्म हो गया है. एक दिन सब मिल जाएगा. तब इंसान को कैसे पता चलेगा कि जो हो रहा है, वो सच है या सपना. और जो सपना है तो किसका दिखाया है. उसकी नीयत क्या है.
ऐसा ही हुआ था क्रिस्टोफर नोलन की कमाल फिल्म इन्सेप्शन में. जहां आदमी दूसरों के सपनों में घुस अपने मुताबिक सपने रचता है. मगर इन सबके बीच उसे कैसे पता चलता था कि ऐन अभी वो जो कर रहा है. वो सच्ची मुच्ची है या नहीं. टोटम. एक टोटका. एक लट्टू, जो वो अपनी हथेली में या जेब में रखता था. वो उसे छूता था और उसे जिंदा होने का पता चलता था.
विजय दान देथा की कहानियां हमारे वक्त की और आने वाले वक्त की टोटम होंगी. उन्हें यथार्थ का लालच नहीं है. वो बिल्कुल अभी को कैद नहीं करतीं. वे अपनी मर्जी से आगे पीछे जाती हैं. वहां सब कुछ विज्ञान तर्क या धर्म से नहीं बंधा है. जब जिसका मन होता है उड़ जाता है, मर जाता है, जी जाता है. ये तर्क को ठेंगा है. ये बचकाना लग सकता है, मगर बेहद जरूरी है. और एक उम्दा बात ये भी. कि बिज्जी ने ये सब अपनी मादरी जबान में लिखा. दी लल्लनटॉप ऐसे ही लोगों के हौसलों के सहारे पैदा हुआ है. अपनी भाषा, अपनी बोली, अपनी निजता, अपनी माटी का गौरव.
विजयदान देथा
विजयदान देथा. (वाग्देवी)


कल्पना, कल्लोल कल्पना ही इंसान को बचाएगी. नींद में भी, उसके पार भी. विजयदान देथा उर्फ बिज्जी की कहानियां हमारी संजीवनी बूटी हैं. इन्हें पढ़ें.1 सितंबर बिज्जी का बर्थडे होता है. तस्वीर देखिए. हमारे आपके बाबा से दिख रहे हैं. खादी की सदरी बने. मोटे लेंस के चश्मे से छांकती दुलारती आंखें. दूध उमड़ आया हो जैसे. इस आशीर्वाद को हम अगले आठ दिन बांचेंगे. बिज्जी का हफ्ता 1 सितंबर से शुरू हो गया है. हफ्ते भर में सात कहानियां और आठवीं कहानी ब्याज में.
हम आपको ये कहानियां पढ़वा पा रहे हैं, इसके लिए दिल से शुक्रिया बीकानेर के वाग्देवी प्रकाशन का. उन्होंने हमें बिज्जी के लिखे ये अक्षर, ये किस्से मुहैया कराए. ये कहानियां लजवन्ती- बिज्जी की प्रेम कथाएं किताब से हैं. किताब की कीमत 80 रुपये है. अब आप हैं और बिज्जी हैं. हवा पर दौड़ने का वक्त हो चला है कॉमरेड. खुद अपने ही फेफड़ों में हवा भर. - सौरभ

केंचुली

केंचुली
सड़ता पानी पड़तल. नीर बहे सो निर्मल. अपनी-अपनी नजर और अपना-अपना नजरिया कि दया का दरिया देव-पुरुष, दोस्त-दुश्मन को समान सुमति बख्शे कि किसी एक ठिकाने में गूजरों की एक खाती-पीती गवाड़ी थी. रेंडी नस्ल की गायें, भंवातड़े की भैंसें. पानी से भी ज्यादा दूध-दही की इफरात. घी के घड़े भरे हुए. बस्ती वालों को मनचाही छाछ की छूट. भरपूर नौजवान गूजर. ईसर की तरह तराशी हुई गोरी व मजबूत कद-काठी. टूल का बड़े छोगेवाला साफा. लाल किनारी वाली रेजी की धोती. मगजीदार अंगरखी, दुहरे पुट्ठे. गले में कण्ठी, तांती और देवजी का फूल. खालिस सोने की सांकलियां. हाथों में चांदी के नाहरमुखी कड़े, पैरों में कसीदे की सुरंगी जूतियां. साफे तक लम्बी लाठी, तांबे के तारों से गुंथी हुई. दोनों और चांदी के बन्ध.
उपयुक्त समय पर गूजर का गौना हुआ. और गौने के साथ ही समूचे ठिकाने में यह बात हवा के साथ फैल गयी कि ऐसी खूबसूरत गूजरी न तो देखी न ही सुनी. साक्षात् ईसर-गणगौर की जोड़ी. मानो विधाता ने एक-दूसरे की खातिर ही इतनी कारीगरी की हो. दूध-दही और मक्खन के सांचे में ढली पुष्ट देह. झागों चढ़ा यौवन. अंग-अंग से मानो मजीठ चू रही हो. जिसने भी चेहरा देखा, एक बार तो स्तब्ध रह गया कि साढ़े तीन हाथ की देह में ऐसा रूप समाया तो समाया ही कैसे! मानो तमाम कुदरत की बेजोड़ सुन्दरता ने लाछी गूजरी की देह में शरण ली हो. जैसा बेजोड़ रूप, वैसा ही नाम लाछी. नाम लेते ही मुंह भर जाता. हृदय में प्रतिध्वनि गूंजती. अमृत घुल जाता.
बाड़े-बाड़े, खेत-खलिहान और गली-गली गूंजती लाछी गूजरी के रूप की चर्चा ठाकुर के कानों तक पहुंची. सुनते ही रोम-रोम में फूल खिल उठे. भोजा ‘कनवारिया’ ठाकुर का मरजीदान कारिन्दा था. मूंछ का बाल. उसे बुलवाकर ठाकुर ने पूछा, ‘भोजा, तूने भी कुछ नयी बात सुनी रे?’
भोजा कनवारिया बहुत चतुर था. आकाश के तारे तोड़ लाये, जैसा. सुनने से पहले ही सारी बात समझ लेता था. सुरमई झांई देता सांवला रंग. सफेद-झक बत्तीसी. इनसान जैसा इनसान. न ज्यादा सुन्दर और न एकदम बदसूरत. पर अक्ल का सिरमौर. आगे पूछताछ किये बगैर ही बोला, ‘फकत कानों से सुनने से कुछ पता नहीं चलता, अन्नदाता, मैंने तो अपनी नजरों से देखा है.’
ठाकुर काफी आश्वस्त हुआ. भोजा की नजर से कभी गलती नहीं हो सकती. ठाकुर ने आतुरता से पूछा, ‘फिर जो बात सुनी, वह बिल्कुल सही है?’
‘नहीं अन्नदाता, सरासर झूठ!’
‘झूठ?’
‘हां अन्नदाता, झूठ! चाहे कितनी ही बकवास क्यूं न करें, ऐसे रूप का यह बेचारी जबान बखान कर ही नहीं सकती. मुंह की जीभ हिल जाये तो वो रूप ही क्या. लाछी तो लाछी ही है, अन्नदाता. यह तो फकत उसके जिस्म का करिश्मा है जो ऐसे रूप को झेल रहा है. दहकते अंगारे गमछे में बंधे रह सकें तो ऐसा रूप किसी के शरीर में टिक सके.’
ठाकुर हक्का-बक्का होकर चुपचाप सुनता रहा. भोजा आगे कहने लगा, ‘लाछी सर पर घड़ा रखे सहेलियों के साथ रिम-झिम करती तालाब से आ रही थी. गोया कण्डों के बीच चांद दमक रहा हो. एक बार तो आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ. पर आखिर असलियत पर तो विश्वास करना ही पड़ता है, अन्नदाता! लाछी की मोहिनी सूरत देखने पर होश हुआ कि आप इतने बरस औरतों के भुलावे में बेकार हाथ-पैर मारते रहे और मेरी चाकरी भी फिजूल गयी.’
ठाकुर धीरे से बोला, ‘तो अब....’
भोजा बीच में ही उतावला होकर कहने लगा, ‘मुझे कहने की कतई जरूरत नहीं है. लेकिन मैं तो देखते ही ताड़ गया कि यह बानगी दूसरी है. यह शेरनी आसानी से काबू में नहीं आयेगी. लेकिन यमराज से बड़ा योद्धा कौन? जिस दिन लाछी गूजरी हुजूर की सेज पर चढ़े, उस दिन मेरी कनवार सार्थक होगी.’
कहने को तो भोजा यह बात कह गया, पर कहते ही पहली दफा उसके कलेजे में यह बात रड़की. उस अनजानी रड़क की उसे कुछ खबर नहीं थी.
ठाकुर ने उसे टोकते हुए कहा, ‘अब बस कर. तूने तो ऐसी आग भड़कायी है कि अब किसी दूसरे काम में मेरा मन ही नहीं लगता, अब तेरी आंखों उजियारा है.’
ठाकुर को उस पर अडिग विश्वास था. ऐसे भरोसे के काम में वो बेहद निपुण था. और उधर गूजरी की क्या औकात कि वह ठाकुर की खातिर इनकार करे. इनकार करने में सार ही क्या है! गूजर तो केवल घर का मालिक है, पर ठाकुर समूचे गांव का मालिक है. कैसी ही खूबसूरत क्यूं न हो, है तो जात की गूजरी. ठिकाने की रिआया. हुजूर की सेज तक पहुंचना तो फख्र की बात है!
bijji ka hafta

भोजा कनवारिया एकलछड़ा और कुंआरा था. सर पर ठाकुर के लम्बे हाथ थे. सेजों की चाकरी करने में खुरचन या जूठन जो भी हाथ लगती, उसी से सन्तोष कर लेता था. ठिकाने में उसके डाले ही नमक पड़ता था. इस खातिर हरेक उसे खुश रखने की कोशिश करता था. समझदार लोग तो अलग से ही उसकी हाजरी बजा देते थे. मतलब से बड़ी दूसरी कोई मर्यादा नहीं होती.
गौने के उपरान्त गूजर के घर भोजा का आना-जाना दिन-ब-दिन बढ़ने लगा. और यों गूजर से पहले ही काफी मेल-मुलाकात थी. शुरू-शुरू में तो वो लाछी की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखता था. ऐसा रूप तो बिन देखे ही साफ दिखता है.
पनिहारियों की टोली में भोजा की पांच-सातेक चहेतियां थीं. भोजा उन्हें पट्टी पढ़ाकर लाछी के मन की टोह लेना चाहता था. पर काफी दिनों तक उसके मन की परतें उससे अनजानी ही रहीं. कोई कहती कि वह तो नितान्त भोली है. कोई कहती कि बेहद होशियार है. कोई कहती कि रूप की माफिक उसमें अक्ल नहीं है. न तो किसी बात में समझती है और न इशारे में. अपने पति के सिवाय उसे कोई दूसरा मर्द नजर ही नहीं आता. अपने घड़े के पानी के सिवाय वह तो दूसरी ठौर के पानी से कुल्ला भी नहीं करना चाहती. ऐसी उल्टी खोपड़ी की औरतों से कौन मगजमारी करे!
तब भोजा कहता कि उन्हें मगजमारी तो करनी ही पड़ेगी.
कोई मुंहलगी चहेती मुस्कराकर कहती, ‘पहले तुम्हारा मतलब निकलता हो तो कुछ माथापच्ची भी करें.’
भोजा भी लम्बी-चौड़ी उधार नहीं रखता था. मुस्कराते बोला, ‘भैरूंजी के भोग चढ़े बिना प्रसाद कहां?’
फिर तो दोनों के होंठों पर फकत मुस्कराहट-ही-मुस्कराहट. मुस्कराहट से बड़ा कोई सवाल नहीं. मुस्कराहट से बड़ा कोई जवाब नहीं.
तत्पश्चात् भोजा की चहेतियों ने लाछी को बरगलाने की काफी अटकलें कीं, लेकिन अबूझ गूजरी तो कोई दूसरी बात समझना ही नहीं चाहती थी. वह तो दूध में पली और झागों के बीच बड़ी हुई थी सो उसे सफेद-सफेद सब दूध ही नजर आता था. भैंसियों का दूध भी जब काला नहीं होता तो इनसान की हंसी और उसका मन काला क्यूंकर हो सकता है?
ठाकुर को उकसाने के अलावा भोजा का भी कोई वश नहीं चला. चहेतियां भी कोशिश कर-करके थक गयीं, लेकिन लाछी किसी की बातों में नहीं आयी. हंड़िया का दही हंड़िया में और बिलोवने की छाछ बिलोवने में.
गायें-भैंसें देखने के बहाने ठाकुर कई बार गूजर के घर आया. दिल-ही-दिल में सारी बातें समझते हुए भी लाछी बिलकुल चुप ही रहती. ठाकुर के मंसूबे कितने दिन तक छुपे रहते! वह अन्दर-ही-अन्दर खीजने लगी. जले हुए दूध की गन्ध घी बनने पर भी नहीं छूटती, तब ठाकुर के मैले मन की बास उसे कैसे नहीं आती!
एक बार गायों की तारीफ करते-करते ठाकुर ने लाछी के पास आकर पूछा, ‘यह गाय कितनी मर्तबा ब्यायी हुई है?’
लाछी के एक हाथ में चरी और दूसरे हाथ में रस्सी थी. धीरे से बोली, ‘मुझे पूरा ध्यान नहीं है.’
भोजा पास ही खड़ा था. मौका देखकर तुरन्त बात को समेटते हुए बोला, ‘मुझे लगता है कि तुझे तो अच्छी तरह अपना भी ध्यान नहीं है. अपना ही क्या, किसी का भी कुछ ध्यान नहीं है.’
एक दफा पलकें उठाकर लाछी ने भोजा की तरफ देखा. फिर बैठकर दूध दूहने लगी.
वे दोनों शर्मिन्दा होकर परस्पर बातचीत के बहाने वहां से रवाना हो गये. यह कोई औरत है या आफत. गांव के मालिक की मान-मर्यादा में भी नहीं समझती. सब कुछ जानते हुए भी अनजान बन रही है.
लाछी ने फिर भी खास परवाह नहीं की. अपने-अपने लच्छन व अपना-अपना स्वभाव! पांचों अंगुलियां भी बराबर नहीं होतीं. पति को बात कहते-कहते रह गयी. जो कोयले खायेगा, उसी का काला मुंह होगा.
लेकिन पीछा करने वाले हजरत आसानी से पीछा नहीं छोड़ते. एक बार लाछी ‘गौर’ में खड़ी थी. एक गाय ॠतु में आयी तो वह निशंक सरल भाव से त्वई-त्वई करके सांड को पुकारने लगी. पुकार सुनते ही सांड ने सजग होकर गर्दन घुमायी. उन्मत्त गाय की तरफ जोश में आकर भागा. ठाकुर और कनवारिया शायद ऐसे ही मौके की तलाश में थे. लाछी तो अपने हाल में मगन, त्वई-त्वई कर रही थी.
सांड को निरन्तर उकसाते उसने पीछे मुड़कर देखा. ठाकुर और कनवारिया दोनों पास खड़े बेशर्मी से मुस्करा रहे थे. पहले तो लाछी कुछ चौंकी, लेकिन दूसरे ही पल होश संभाल वापस उसी तरह पीठ घुमाकर सांड को उकसाने में मशगूल हो गयी. कुदरत की इस पवित्र लीला से कैसी शर्म! कैसी लज्जा! तब बेशर्म आदमियों के सामने वह क्यूं लजाये?
संयोग का ऐसा बढ़िया मौका बार-बार नहीं मिलता. इस बार चूक गये तो चूक गये. ठाकुर के मुंह लगे कनवारिये के कैसी लगाम! निशंक बोला, ‘लाछी, तुझे इस सांड की तो इतनी फिक्र है, लेकिन ठाकुर साहब की तो तू कुछ परवाह ही नहीं करती. कितने दिन हो गये हैं, तड़पते हुए?’
लाछी ने एक-एक अक्षर साफ सुना. पिछली सारी बातें एक ज्वाला की भांति उसकी आंखों के सामने झलकीं. क्रोध में खौलते हुए पीछे देखा. एक बेशर्म, घिनौनी हंसी ठाकुर के होंठों पर चिपकी हुई थी. उस हंसी का मर्म उसे भोजा के बोलों से भी अधिक गलीज लगा. इनसान के होंठों पर ऐसी मैली हंसी का परस! उसे रोम-रोम में अंगारों-सी जलन महसूस हुई. रिआया और मालिक का खयाल भूलकर वह तेजी से ठाकुर की तरफ झपटी. हाथ उठाकर कोहनी का वो भरपूर वार किया कि गांव के मालिक को मूर्च्छा आ गयी. वो जहां खड़ा था वहीं चक्कर खाकर नीचे गिर पड़ा. अक्ल के उजागर कनवारिये की अक्ल ने भी वक्त पर साथ नहीं दिया तो वो नीचे बैठकर अन्नदाता की छाती मसलने लगा. और लाछी बड़ी मुश्किल से छलकती हंसी दबाकर त्वई-त्वई करती सांड की तरफ चल पड़ी.
आखिर मसलने-दबाने से ठाकुर की मूर्च्छा दूर हुई, आंखें झपकाते हुए पूछा, ‘भोजा, यह क्या हुआ रे?’
भोजा पसलियों को सहलाते बोला, ‘अन्नदाता, बदजात औरतों से साबका पड़ने पर ऐसा ही होता है. आप समझना कि कोई बुरा सपना देखा. आप कुछ दिन तक धीरज रखें तो यह राह पर आ जायेगी. मैं औरतों की नब्ज अच्छी तरह पहचानता हूं.’
ठाकुर धीरे से बोला, ‘पर यहां तू भूल कर गया.’
‘अन्नदाता, भूल मैंने नहीं की, लाछी भूल कर गयी. वह ठिकाने के तौर-तरीकों से वाकिफ नहीं है.’
ठाकुर को सांस लेने में कुछ कठिनाई हुई तो अटकते हुए कहने लगा, ‘तू कहे तो रांड के नाक-कान कटवाकर बत्तीसी तुड़वा दूं.’
भोजा हाथ जोड़कर बोला, ‘जैसी हुजूर की इच्छा. पर अन्नदाता, इस तरह से बूची करने पर तो उसका हुलिया ही बिगड़ जायेगा.’
‘लेकिन आज इसके हाथों मेरी इज्जत धूल में मिल गयी, सो कुछ नहीं?’
‘किसने देखा अन्नदाता!’ ठाकुर के कलेजे को दबाते भोजा आगे कहने लगा, ‘आप जानते हैं, मैं जानता हूं या यह लाछी जानती है. ये ढोर-डांगर तो इनसान की इज्जत-आबरू में कुछ समझते ही नहीं. आप फरमाएं तो मैं लाछी को मना कर दूं कि वह किसी के सामने इस बात का जिक्र न करे. अगर भूल से भी जिक्र किया तो उसकी बुरी गत बनेगी.’
‘लेकिन वह माने तब न!’
‘वह तो क्या, उसकी छाया को भी मानना पड़ेगा.’
उसके बाद ठाकुर कपड़ों की धूल झाड़ता उठ खड़ा हुआ. उस वक्त वो भोजा को धूल झाड़ने का हुक्म भी नहीं दे सका. भोजा धीरे-धीरे लाछी के पास जाकर कहने लगा, ‘गलती तो तूने आज बहुत बड़ी की है, पर फिर भी अन्नदाता का बड़प्पन कि तुझे माफी बख्श दी. हम भी किसी से चर्चा नहीं करेंगे, तू भी मत करना.’
इस बार लाछी उफनती हंसी को रोक नहीं सकी. ठहाका लगाकर जोर से हंसने लगी सो कुछ देर तक हंसती रही. भोजा की अक्ल यहां फिर चक्कर खा गयी. वो अपना-सा मुंह लेकर वहां से चलता बना. ठाकुर ने भी आगे पूछताछ नहीं की. रुकने के बाद भी लाछी की हंसी काफी देर तक उनके कानों में गूंजती रही.
गाय के शान्त होने के बाद गूजर वहां आया. लाछी उत्साह से उसकी तरफ भागी. चूड़े-बंगड़ियों की खनखनाहट, लिपटती लूंबों की सरसराहट, घूमर लेते घाघरे की फरफराहट और गूजरी के होंठों पर अचरज, उत्साह व जोश घुली मुस्कराहट. पति की लाठी हाथ में लेकर उस पर हाथ फेरते बोली, ‘गुड़-खोपरे खिलाओ तो एक बधाई की बात सुनाऊं.’
गौना हुए कल महीना पूरा होगा. आशा ठहरने की बात तो उसने पहले ही बता दी थी. फिर ऐसी क्या बधाई हो सकती है! लेकिन उस वक्त भी वह इतनी खुश तो नहीं थी, नयी बहू थोड़ी-बहुत शर्म तो करती ही है. शायद इसी खातिर दूसरी बार फिर वही बधाई सुनाना चाहती हो. औरतों के लिए इससे बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती है! उसके गालों पर हाथ फेरते बोला, ‘उत्साह की लहर में तू भूल गयी कि यह बधाई तो तू पहले ही सुना चुकी है.’
लम्बी गर्दन को हिलाते बोली, ‘ऊं-हूं, यह बात दूसरी है. तुम गुड़-खोपरे की हां तो भरो.’
गूजर भी असमंजस में पड़ गया. फिर भी मुस्कराते बोला, ‘गुड़-खोपरे का क्या है, पसन्द हो तो रोजाना खाया कर.’
‘बात पसन्द की नहीं, बधाई की है.’
फिर उसने शुरू से लेकर ठाकुर के बेहोश होने तक की सारी घटना विस्तार से कह सुनायी और पति हतप्रभ-सा चुपचाप सारी बात सुनता रहा. लेकिन कोहनी की मार और माफी बख्शाने के बाद जोर से हंसने की बात उसके गले नहीं उतरी. चेहरे का रंग उड़ गया. सकते में आकर दबी जबान से कहने लगा, ‘यह तो बहुत बुरा हुआ! मालिक की मान-मर्यादा का कुछ तो खयाल रखना था!’
पति के मुंह से ये अचीते बोल सुनकर आनन्द और उत्साह घुली मुस्कराहट लुप्त हो गयी, गोया कोई अदीठ बाज एक ही झपट्टे में उसकी हंसी छीनकर उड़ गया हो. सहसा उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. संज्ञाहीन-सी बोली, ‘मान-मर्यादा! इसमें मान-मर्यादा की क्या बात है? उस वक्त गुस्सा तो ऐसा आया था कि हरामी की गर्दन मरोड़ दूं.’
पत्नी की यह बात सुनकर पति को भी कम गुस्सा नहीं आया. उसके होंठों पर हथेली रखते हुए बोला, ‘बकवास बन्द कर, ऐसे बोल निकालते हुए तुझे शर्म नहीं आती! अन्नदाता का तो स्वभाव ही ऐसा है, चलते ही छोटी-मोटी चुहल कर लेते हैं.’
लाछी ने झटककर हाथ छुड़ाया. बोली, ‘तुम्हें यह छोटी-मोटी चुहल नजर आती है?’
इसके साथ ही उसकी आंखें छलछला आयीं. आगे एक शब्द भी नहीं बोला गया.
इसके बाद पति उसे संजीदगी से समझाने लगा कि यों पागलपन करने से काम नहीं चलता. अन्नदाता तो जैसे हैं, वैसे ही रहेंगे. उनके ऊपर रिआया का जोर नहीं चलता. समुद्र में रहकर मगर से बैर निभ सकता हो तो गांव की रिआया का ठाकुर से बैर निभ सकता है. अक्ल और समझ के बल पर दिन तोड़ें सो अपने हैं. यों इस घर पर मालिक की काफी मेहर है. भोजा से उसकी अच्छी मेल-मुलाकात है. कोरे-मोरे रूप से क्या होता है. गुण, रसूकात और अक्ल बड़ी बात है.
पति समझाता रहा और लाछी हुचक-हुचक रोती रही. वह इस जवांमर्द खाविन्द से क्या उम्मीद रखती थी और क्या सामने आया? फिर यह हाथ वाली लाठी किस दिन के लिए है? बेचारे जानवरों को मारकर अपने हाथों की ऐंठन भले ही निकालो. वे तो बोलकर कभी अपनी पीड़ा नहीं दरसायेंगे. अपने से निर्बल के लिए लाठी की जरूरत ही क्या है? बराबरी वाले अथवा अपरबली से भिड़ने में ही हथियार का महत्व है. पशु-पक्षियों का स्वभाव तो बिलकुल सीधा और सरल. जैसे दिखते हैं, वैसे ही चलते हैं. पर इनसान के चाल-चलन में बहुत उलझाव है. सोचते कुछ हैं, कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं. जैसा दिखता है, उससे निपट उलटा और टेढ़ा. घर-परिवार, जात-पांत और संस्कारों के बन्धन उसका कुछ भी वश नहीं चलने देते.
लाछी ने वापस कुछ जवाब नहीं दिया. पति ने सोचा कि रोने के बहाने पछतावा कर रही है. अभी बचपना है. ठोकरें खाने पर आप ही समझ आ जायेगी. गृहस्थी चलाना बेहद टेढ़ा और कठिन काम है. फिर लाछी को पुचकारते बोला, ‘इतनी बकवास करने पर कुछ तो अक्ल आयी होगी.’
गुमसुम लाछी ने थोड़ा सर उठाकर पति की तरफ देखा. लाछी को ऐसी नजर की तो सपने में भी उम्मीद नहीं थी. आंखें पोंछकर जबरदस्ती मुस्कराने की चेष्टा की. पति ने वो ही सवाल पूछा, ‘कुछ अक्ल आयी कि नहीं?’
अब तो गवाड़ी के भाग्य के साथ ही लाछी का भाग्य है. उससे अलग वह कहां जाये? बोली, ‘अक्ल तो देर-सवेर आनी ही थी.’
गूजर को अपनी समझ पर काफी गरूर हुआ. पत्नी की ठुड्डी उठाकर थोड़ी देर तक उसकी सूरत निहारता रहा. फिर गर्व से कहने लगा, ‘यह रूप देखकर तो पत्थर का दिल भी मचल जाये. फिर हुजूर कैसे अंकुश रखते! अगर तू इतनी खूबसूरत नहीं होती तो कुछ झंझट नहीं था.’
‘खूबसूरत होना और न होना तो किसी के वश में नहीं है.’
‘लेकिन गम खाकर सब्र करना तो वश में है.’
इन बोलों के साथ ही मानो किसी ने लाछी के कलेजे में हाथ डाला हो. पति को चिढ़ाने की खातिर कहा, ‘तुम्हारी हिम्मत न हो तो अपना चेहरा जला डालूं!’
आगे कुछ और भी कहने वाली थी कि पति को तैश आ गया. बोला, ‘खूबसूरती का अधिक गरूर अच्छा नहीं होता. सोने का खंजर खुद के थोड़े ही घोंपा जाता है. चूल्हा फूंकने और गोबर थापने की खातिर इस गवाड़ी में तुझ जैसी सत्रह-बीसी औरतें ला सकता हूं, लेकिन अन्नदाता का आसरा छोड़कर कहां जाऊं?’
लाछी ने सोचा कि अब बहस की हद आ गयी है. कहने-सुनने में कुछ सार नहीं. मसखरी करते हुए बोली, ‘हां, यह बात तो तुम्हारी बिलकुल सही है. लेकिन मुझ जैसा रूप भी दूसरा नहीं मिलेगा.’
पति झुंझलाकर कहने लगा, ‘उससे क्या होता है? कोरे-मोरे रूप से गवाड़ी की गाड़ी नहीं चल सकती. पूरी होशियारी से अपना काम सारना है.’
भला, अब लाछी क्यूं चूकती. ताना देते बोली, ‘तुम्हारी इजाजत हो तो दिन-दहाड़े ठाकुर के साथ सो जाऊं?’
मानो आग में घास का गट्ठर डाल दिया हो. गुस्से में दांत पीसते बोला, ‘चण्डाल, मैंने साथ सोने को कब कहा? जब तेरी इच्छा होगी, तो किसी के रोके भी नहीं रुकेगी. काफी देर से जबान चला रही है. खोपड़ी खुजा रही हो तो बोल अभी ठीक कर दूं.’
बात से बात बढ़ती है और बात से बात दबती है. फिर लाछी क्यूं कसर रखती. बोली, ‘मेरी खाज ठीक करने में तो कोई मर्दानगी नहीं है, लेकिन मुझे कुछ दूसरा ही गुमान था. जल्दी ही वहम मिट गया. अब तुमसे कभी किसी की भी शिकायत नहीं करूंगी. एक ही घड़ी में हजार बरसों की समझ एक साथ आ गयी.’
पति किसी भूली हुई बात को याद करते हुए बोला, ‘तुझे किस काम से भेजा और तू किस लफड़े में उलझ गयी. बातों-बातों में पूछना ही भूल गया कि ‘काबरी’ गाय हरी हुई कि नहीं?’
यही गवाड़ी का सर्वोपरि धर्म! और यही बाड़े का झीना मर्म! पास ही झाड़ू पड़ा था. हाथ में लेकर बुहारते बोली, ‘हां, हो गयी.’
पीहर के पेड़-पौधे, घरवालों का दुलार और सहेलियों का साथ छोड़कर इस परायी जगह आयी. दिल में कितना उत्साह और हर्ष था! लेकिन एक ही झोंके में राम जाने कैसा झटका लगा कि अन्तस् के तमाम फूल मुरझा गये. नयी कोंपलें अन्दर-ही-अन्दर जल गयीं.
लेकिन सुन्दर देह तो वैसी ही तन्दुरुस्त थी. उसे तो कोई लकवा नहीं हुआ था. फिर तो वो ही गौर, वो ही गवाड़ी और वो ही माथा-पच्ची. दूहना, पनघट, चूल्हा, झाड़-बुहार, चारा और गोबर. वो ही दूध और वो ही जावन. वे ही बासन और वो ही दही. वे ही बिलोवने, वो ही माखन. वही सेज और वे ही रलियां. वे ही गलियारे और वे ही गलियां. लेकिन दिल बिलकुल बुझ गया था. अंगरलियों का आनन्द कसैला हो गया था. ऐसा लगता था मानो कोई काठ का बिजूका उसकी लोथ को खूंद रहा हो. यदि लोथ ही खुंदवानी थी तो ब्याह, वेदी और हथलेवे का आडम्बर क्यूं रचाया गया? इस गवाड़ी में बधाकर अन्दर लेने का तमाशा क्यूं किया? यदि ऐसे वक्त में भी पति हिफाजत नहीं कर सकता तो उसका हाथ थामकर पीछे क्यूं आयी? फिर लड़ाई, क्रोध, बदला और यह संवारी हुई मजबूत लाठी किस दिन के लिए है? ठाकुर है तो अपनी जगह है. राम जाने सेजों का महसूल लोग कैसे बर्दाश्त कर लेते हैं? ऐसे बुजदिल भरतार किस काम के? फकत रोटी और कपड़ों के बदले तो यह गुलामी मञ्जूर नहीं की थी. ऐसी घिनौनी गुजर-बसर की खातिर तो दूसरे हजार रास्ते हैं. फिर गाजों-बाजों के साथ इसका इतना उत्सव क्यूं? दही बिलोहती लाछी के दिमाग में भी इसी तरह कोई अदीठ मथानी घमक रही थीझरड़-मरड़, झरड़-मरड़! मक्खन की तरह राम जाने कैसा लौंदा बनेगा? लाछी का दिल पूरी तरह खट्टा हो गया था. उसे कहीं भी कुछ अच्छा नहीं लगता था. उसकी खातिर अब न तो चांद में उजास रहा, न सूरज में और न तारों में. सूरज उगे तो उसकी मरजी और न उगे तो उसकी मरजी. लाछी को उससे कोई मतलब नहीं था. गौने के एक महीने बाद ही लाछी के लिए कुदरत का सारा नजारा बदल गया.
लोक-दिखावे के लिए उसे मुस्कराना भी पड़ता था, हंसना भी पड़ता था, लेकिन पहलेवाली दूधिया आब वापस उसके होंठों पर नहीं थिरकी. सहवास के लिए अब इनकार करने में भी उसे शर्म आती थी. लेकिन पति से उसका मन फिर कभी एक नहीं हो सका.
और उधर कोहनी की मार के बाद ठाकुर को भी चैन नहीं था. अकसर झुंझलाकर मरजीदान कनवारिये से कहता, ‘भोजा, तेरी अक्ल भी जंग खा गयी क्या? अभी तक कोई तदबीर नहीं जमी?’
भोजा आजिजी से हाथ जोड़कर बोला, ‘अन्नदाता, मैंने तो पहले ही अरज की थी कि यह बानगी न्यारी है. दूसरी औरतों की तरह इसकी सीधी समझ नहीं है. अगर बेर व निंबोलियों की तरह गगन के तारे सुलभ होते तो उन्हें कौन छोड़ता! ऐसी वस्तुएं तो बड़ी मुश्किल से हाथ लगती हैं, अन्नदाता! लेकिन हाथ लगने के बाद उस आनन्द की न तो सीमा है और न कोई अन्त. उस सुख के बदले स्वर्ग का राज्य भी निछावर हो तो कम है. आप थोड़ा धैर्य रखें, अपने वश रहते मैं कुछ भी कसर नहीं रखूंगा.’ ठाकुर एक गहरी आह भरकर बोला, ‘यह तो मुझे पूरा भरोसा है रे!’
लेकिन गौर वाली उस मूर्च्छा के बाद भोजा उतना भरोसे-लायक कनवारिया नहीं रहा. धीरे-धीरे खुद-ब-खुद ही उसका दिल फिरने लगा. क्या गांव के स्वामी की इतनी ही बिसात कि कोहनी के वार से ही मूर्च्छा आ गयी और मूर्च्छा टूटने के बाद भी किसी का बाल-बांका नहीं हुआ. जो डरता है, उसे ठाकुर और देवता अधिक डराते हैं. डराने वालों से उलटे डरते हैं. इस नयी बात की रोशनी से भोजा के मन की रंगत बदल गयी और हौले-हौले सेजों की इस आढ़त से उसे नफरत होने लगी. कोई सौ हाथियों का पेट तो उसे भरना है नहीं. एकलछड़े व्यक्ति को ऐसा घिनौना काम शोभा नहीं देता. और लाछी के समान अप्सरा-सी सुन्दर गूजरी के लिए तो यह आढ़त बिलकुल ही रास नहीं आयी. यदि यह कमनीय देह उसके हाथ लग जाये तो ऐसे सौ ठिकाने उसकी मुंहदिखायी में जाते हैं. और यदि यह मखनिया सिंगार उसके गले में बांहें डालकर झूमे तो बादशाहत भी उस सुख के आगे सात बार पानी भरे. फिर ऐसे रूप की दलाली तो उसे मरने के बाद भी जलील करेगी.
संयोग की बात कि भोजा को एक बार ऐसा ही अचीता अवसर हाथ लगा. भोजा ‘धनकिये’ (धनुषटंकार) के डाम का उस्ताद था. गूजर की एक भैंस धनकिये की बीमारी से ऐंठने लगी तो घबराया हुआ गूजर उसे हाथों-हाथ बुला लाया. गूजर को तो बिरादरी की पंचायत में जाने की उतावली थी. इसलिए लाछी को अच्छी तरह समझाकर वो फौरन सफर के लिए चल पड़ा.
बाड़े में खड़ा भोजा छटपटाती व ऐंठती भैंस को सहला रहा था कि लाछी एक ठींगले में जगमगाते उपले लेकर आयी. उपलों के बीच तपा हुआ हंसिया लाल-सुर्ख हो रहा था. भोजा ने झट हंसिये की मूठ पकड़कर भैंस के पुट्ठे पर डाम जड़ दिया. चमड़ी से हल्का-सा धूआं उठा. भैंस ने तड़पकर जल्दी-जल्दी लातें फेंकीं. फिर थोड़ी देर में आप ही उठ खड़ी हुई. मानो कोई अचूक जादू हुआ हो. पैर के अंगूठे से धूल कुरेदती लाछी बोली, ‘समय पर डाम लग गया तो भैंस की जान बच गयी, वरना तड़प-तड़पकर मरती.’
इतनी बात सुनने पर भोजा कब चूकने वाला था. तुरन्त जवाब दिया, ‘इस भैंस की तरह मेरी जान भी तेरे हाथ में है. इच्छा हो तो मार, इच्छा हो तो तार.’
लाछी के कानों को एकबारगी यकीन ही नहीं हुआ कि गौर वाले उस हादसे के बावजूद किसी के मुंह से ऐसे बोल निकल सकते हैं. जब उसने गांव के स्वामी को भी नहीं बख्शा, तब एक नाचीज कनवारिये की क्या बिसात! ठाकुर को तो फकत मूर्च्छा ही आयी थी, उससे आधा झटका लगने पर ही इसका तो कचूमर निकल जायेगा. यह बात अच्छी तरह जानते हुए भी इसके हौसले ने किसी प्रकार का अंकुश नहीं माना. लाछी ने आक-वाक होकर भोजा की तरफ देखा. मुस्कराहट को दबाते बोली, ‘उस दिन की बात भूल गये?’
‘भूला नहीं हूं, तभी तो मेरी हिम्मत हुई. तुम्हारे हाथों मर जाऊं तो नजात पाऊं. सूरज के उजास में अभागों का भी हिस्सा होता है, तब तुम्हारे रूप में क्या मेरी इतनी भी शिरकत नहीं है.’
लाछी नीची नजर किये वापस धूल कुरेदने लगी. अगर पति की ताकत का पैंदा नहीं उघड़ता तो आज ये बोल सुनने पर वह भोजा की आंतें निकाल लेती. लेकिन पति की सीख सुनने के बाद लाछी का वो स्वरूप ही बदल गया था. इनसान के अन्दर कई गिरगिट छुपे रहते हैं. कब क्या रंग बदले, उसे खुद भी पता नहीं चलता. उसके अन्तस् में कई बातों के बवण्डर उठने लगे. हो सकता है, ठाकुरवाली बात सुनकर पति को ताव न आया हो, पर शायद आंखों से रूबरू देखकर उसका जमीर करवट बदले. पति की अन्तिम परख या असली पहचान के बहाने उसकी अच्छी तरह आजमाइश तो कर ले. गूजर परसों वापस आयेगा. लाछी पीठ घुमाकर बोली, ‘तरसों दिन ढलने पर बाड़े में आ जाना.’
भोजे को इतना सब्र कहां? आज तो उसकी हथेली में चांद उगा था. आतुरता से बोला, ‘सांप के काटे को इतवार कब आये? आज क्यूं नहीं? ऐसा मुहूर्त तो पञ्चांग देखने पर भी नहीं मिलेगा.’
‘लेकिन मेरे पञ्चांग में तीन दिन तक मुहूर्त नहीं है.’ यह बात कहकर लाछी तुरन्त वहां से चल पड़ी. भोजा भी पीछे-का-पीछे लपका. कहने लगा, ‘लाछी, मेरे धनकिये का डाम तेरे हाथ है. अगर आज वक्त पर डाम नहीं लगा तो मेरे प्राण हरगिज नहीं बचेंगे.’
लाछी पीठ घुमाकर बोली, ‘आज नहीं, तरसों शाम को, बाड़े में!’
भोजा कुछ आगे कहने वाला था कि लाछी की सास आती दिखायी दी. मजबूरन सब्र करना पड़ा. सास के करीब आते ही बोला, ‘मांजी, डाम देते ही भैंस तो एकदम ठीक हो गयी.’
मांजी के दिल को तसल्ली हुई. मुस्कराकर बोली, ‘तुम्हारे हाथ का तो मुझे पूरा भरोसा था. मुंह तो मीठा करके जाओ.’
गढ़ की राह तेज कदमों से चलते हुए भोजा ने कहा, ‘अब मीठा मुंह तो भाई के आने पर ही करूंगा.’
सास मुस्कराती हुई लाछी के पास आकर कहने लगी, ‘कितना भला और सीधा कनवारिया है. अपने घर पर तो इसकी शुरू से ही शुभदृष्टि है. ठाकुरों की आंखें और उनके कान तो कनवारिये ही होते हैं. वे उनके चलाये ही चलते हैं. घर आने पर ठीक से आवभगत किया कर. दूध-दही की मनुहार किया कर.’
लाछी बात संवारते बोली, ‘आपके होते मुझे चिन्ता करने की क्या जरूरत है. ये काम तो बुजुर्गों के हैं.’
‘फिर भी समय पर गृहस्थी के गुर सीखने से फायदा ही है.’
शाम को लाछी दूहने बैठी तो उसको ऐसा लगा गोया उसके आनन्द का क्षीरसागर एकदम सूख गया हो. मन बहलाने की बहुत कोशिश की, पर जली हुई जड़ें वापस हरी नहीं हुईं. उसके सोचने की दिशा ही बदल गयी. आज कड़बन्धवाली गाय को दूहने बैठी तो उसका मन खट्टा हो गया. वह गाय गर्दन घुमाकर खुद ही अपना दूध पी लेती थी, इस खातिर गले में कड़बन्ध फंसा रखा था. गृहस्थी के गुर इस तरह फायदेमन्द होते हैं. बछड़े को भी भरपेट दूध नहीं पिलाया जाता. और ये बेचारे जानवर घास खाकर अमृत के समान दूध सौंपते हैं. राम जाने, उस समय लाछी को क्या उलटी सूझी कि उसने तगारी में आधी चरी दूध डालकर गाय के सामने रख दिया. पहले तो गाय को यकीन ही नहीं हुआ. नजर उठाकर लाछी की ओर देखा. फिर आप ही चसड़-चसड़ दूध पीने लगी.
क्या इस गाय की तरह उसने भोजा पर भी ऐसी ही दया की है? नहीं-नहीं, यह बात तो मरकर भी मुमकिन नहीं हो सकती. गृहस्थी की मर्यादा निभाना बहुत दूभर है. तब ठाकुर की छाती पर कोहनी का वार करनेवाली लाछी ने खुद अपने मुंह से भोजा को बाड़े में आने का न्योता कैसे दिया? न्योते के बहाने क्या वह पति की सही पहचान करना चाहती है या पति की पहचान के भुलावे में वह सचमुच भोजा से सहवास करना चाहती है? गौर वाले गुस्से तले यह दया जाने कहां इतनी गहरी दबी हुई थी?
प्रत्यक्ष साक्षात्कार होने पर भी यकायक विश्वास नहीं होता. क्या अपना मन अपनी ही आंखों के सामने इस तरह आंख-मिचौनी खेलता है? मन की तहों के भीतर कैसे-कैसे गोरखधन्धे उलझे रहते हैं. दूध में पली और दूध के बीच बड़ी हुई गूजरी के मन की ऐसी लीला तो नहीं जानी थी. भोजा से हुई बातचीत को वापस याद करते ही उसका अंग-अंग शर्म से सिमटने लगा. फिर बार-बार अपने मन को समझाने लगी कि पति के असली चेहरे की पहचान की चाह अगर उसके दिल में नहीं होती तो सपने में भी वह पराये मर्द के सामने ऐसे बोल नहीं निकालती. अपने मन को अपने आपसे छुपाना ही इनसान का सबसे बड़ा गुण है.
लाछी और भोजा के लिए उन दो दिनों का समय तो एक जैसा ही था, पर उन दोनों के खयाल एकदम जुदा थे. उन अलग-अलग भावनाओं का भ्रम न उघड़े तभी बेहतर है. ज्यों-त्यों करके मनचाही घड़ी की सांझ अवतरित हुई. लाछी ने पति से साथ चलने के लिए कहा तो उसने हैरत से पूछा, ‘आज यह नयी बात कैसे? पहले तो कभी साथ चलने को नहीं कहा.’
लाछी कुछ नाराजगी से बोली, ‘पहले मुझे तुम्हारे गांव के रंग-ढंग मालूम नहीं थे. अब अकेली जाते डर लगता है.’
गूजर उसे ढाढ़स देते बोला, ‘कुछ दिनों में धीरे-धीरे आप ही डर मिट जायेगा. अपना मन वश में हो तो फिर कहीं कोई डर नहीं है. पर तेरी मरजी है तो चल, मेरी ना नहीं है.’
और उधर बाड़े में इन्तजार कर रहे भोजे की अधीरता पल-पल बढ़ती जा रही थी. दीवार के ऊपर से झांका तो लाछी के साथ गूजर भी आता दिखायी दिया. यह तो बहुत बुरा हुआ. पर भोजा की अक्ल बहुत पैनी थी. तुरन्त युक्ति सोच ली. ‘ठाण’ के पास जाकर चुपचाप चारा उलट-पुलट करने लगा.
पीठ देखकर गूजर ने ठीक से नहीं पहचाना तो जोर से गरजा, ‘कौन है?’
भोजा ने पलटकर वापस उतने ही जोर से जवाब दिया, ‘यह तो मैं भोजा!’
गूजर की आंखें अभी भी हैरत से चढ़ी थीं. पूछा, ‘इस वक्त यहां बाड़े में कैसे? भोजा, एक घर तो डायन भी छोड़ती है रे!’
भोजा मुस्कराकर कहने लगा, ‘डायन की बात तो डायन जाने. पर पहले गढ़ की चाकरी, फिर भाईचारा. किसी ने ठाकुर साहब के कान भरे कि जानवरों को तू रोजाना दानों सहित ज्वार का चारा खिलाता है. ठाण तलाशने पर पता चला कि बात तो बिलकुल सही है. तुझे कुछ तो खयाल रखना था. अब तुम्हारे साथ मेरी भी खैर नहीं है.’ गूजर का दिल बैठने लगा. लेकिन तब भी भोजा पर उसे पूरा विश्वास था कि वो जैसे-तैसे बात संभाल लेगा. नजदीक आकर उसके सर की तरफ हाथ करते कहने लगा, ‘भोजा, तेरे सर की कसम, फकत कल ही राम निकला. मोतियों की मानिन्द दाने पड़े सिट्टे देखे तो मेरी नीयत बिगड़ गयी. मेरी इज्जत अब तेरे हाथ में है.’
भोजा लाछी को सुनाने की खातिर व्यंग्य से बोला, ‘इज्जत तो तेरी-मेरी साथ ही है, पर हुजूर को क्या जवाब दूंगा? आजकल उनकी तुझ पर कड़ी नजर है. राम जाने, क्या बात है.’
भोजा की तरफ देखते लाछी बोली, ‘राम जाने या न जाने, तुम खुद तो जानते ही हो.’
गूजर को गुस्सा आ गया. डांटते बोला, ‘तू बीच में बकबक मत कर. यह अच्छा हुआ कि मैं साथ आ गया, वरना तू तो फिर झगड़ा कर बैठती. हमारी बातें, हम आप ही निबट लेंगे. तू दुहारी कर. औरतों को मर्दों के काम में बोलने की क्या जरूरत है?’
लाछी को तो अपनी जरूरत का पूरा ध्यान था. फिर इस बेसिर-पैर की बहस का क्या अन्त! लेकिन तब भी भोजे ने मौके पर अक्ल तो खूब ही लड़ायी. रत्ती-भर शक नहीं होने दिया. उसके मन की उथल-पुथल तो अब वो ही जाने.
लाछी ने दुहारी की तब तक दोनों बातचीत करते रहे. भोजा के विश्वास दिलाने पर गूजर निश्चिन्त हो गया कि बात आगे नहीं बढ़ेगी.
अगले दिन लाछी मुंहअंधेरे अकेले ही तालाब की ओर रवाना हुई तो राह में भोजा मिल गया. भोजा की तो जान पर बनी थी. इधर-उधर देखकर बोला, ‘लाछी, यह किस जन्म का बदला लिया? गूजर को साथ लेकर क्यूं आयी?’
‘तुम्हारे भाई नहीं माने तो मैं क्या करती? मैं कन्धे पर तो बिठाकर लायी नहीं थी. आजकल बात-बात पर वहम करते हैं. तुमने होशियारी से काम नहीं लिया तो दोनों का मुंह काला होगा.’
आप ही अपनी तारीफ करते भोजा बोला, ‘मेरी बात तो तू छोड़! मौके पर ऐसी तरकीब लड़ाता हूं कि मुझ पर तो कोई शक-शुबहा कर ही नहीं सकता. पर अब तो कोई नया जुगाड़ बिठा.’
लाछी फुसफुसाते बोली, ‘मेरी ना थोड़े ही है, पर तुम्हारी किस्मत ही खराब हो तो मैं क्या करूं? रात के अन्तिम पहर, बछड़ों वाले बाड़े में आ जाना.’
‘शर्तिया?’
‘हां, शर्तिया.’
इतना आश्वासन पाकर भोजा दूसरे मार्ग पर मुड़ गया. और रुनक-झुनक करती लाछी घड़ा उठाये अपने ध्यान में चलती रही. चोटी की फटकार से गढ़ के कंगूरे कांपने लगे. यह खेल तो अच्छा हाथ लगा! आखिर तो भोजा की अक्ल भी हार-थकेगी. पति का वहम कभी-न-कभी तो फुफकारेगा ही. बांसों गहरे अनजाने पानी में उतर गयी है तो अब पैंदे तक पहुंचकर ही दम लेगी.
शाम को लाछी ने एक भैंस के सामने खली की तगारी रखी तो उसने सूंघा तक नहीं. शायद प्यासी हो. चार-पांच डोलियां कूंडी में पानी डाला, पर भैंस ने पानी की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखा. पीठ थपथपाकर पगहा खोला तो भैंस हुंकारती हुई भागी. कभी इधर तो कभी उधर. भैंस तो ॠतु में आ गयी. लाछी ने गले की पूरी ताकत से हुरत-हुरत करके भैंसे को आवाज दी. भैंसा तो मानो इसी आवाज के इन्तजार में था. तोप से छूटे गोले की मानिन्द भैंस के पीछे लपका. पाक-साफ कुदरत न किसी की झिझक मानती है, न किसी की शर्म. और न उस पर रिवाजों के आडम्बर का अंकुश ही है. पर इनसान अपने चारों ओर कितनी दीवारों, कितने पर्दों, कितने लिबासों, कितने घूंघटों, कितनी चोलियों और काजल-बिन्दियों के बीच जकड़ा हुआ है. सात फेरों के बहाने औरत फकत एक ही मर्द का हाथ क्यूं थामती है? और क्यूं उस हाथ को थामना पड़ता है जिसके लिए सपने में भी उसकी रजामंदी नहीं होती. लाछी का जोबन किसी भी गूजर के घर घूंघट निकाल सकता था. फिर वो जोबन एक मर्द की बन्दिश में क्यूं जकड़ा रहे; जिस बन्दिश की मर्यादा में मर्द के हजारों स्वार्थ पूरे होते हैं. ठाकुर, ठिकाने के अहलकारों और कनवारिये को कोई औरत कहां तलक खुश रखे? ज्यों-त्यों करके जीना ही इनसान का धर्म बन गया है. घर-गृहस्थी की गुजर-बसर से बड़ी कोई नैतिकता नहीं रह गयी है. इनसान के लिए यही इतिहास का दूध है, यही ज्ञान का दही और यही धर्म का मक्खन! बाकी सभी छाछ और धोवन! पहले तो लाछी सफेद-सफेद सब दूध ही जानती थी, पर अब दूध में भी उसे कालिख नजर आने लगी. समझ-समझ का फेर है. कैसी दुविधा में फंसी? न रहे बनता है और न छोड़े बनता है. क्या ठाकुर के आतंक के सामने अर्धांगिनी के शील की कोई इज्जत ही नहीं! लाछी के सर में मानो अनगिनत ततैये भनभनाने लगे हों. जोड़ी का भरतार और खाती-पीती गवाड़ी! फिर किस अदीठ सुख की खातिर उसका मन व्याकुल हो रहा था? घड़ी-डेढ़ घड़ी रात रहते वह चौंककर उठ बैठी. पति को झिंझोड़कर जगाया. बोली, ‘तुम तो घोड़े बेचकर सोते हो! अब मैं देर-सवेर कहीं भी अकेली नहीं जाऊंगी. मेरे साथ चलो.’
गूजर ने काफी टालमटोल की, पर लाछी नहीं मानी तो उसको साथ जाना ही पड़ा. कृष्ण-पक्ष की एकादशी की हल्की चांदनी छायी हुई थी. भोजा तो घड़ी-भर पहले ही आकर ठिकाने पर जम गया था. लाछी के इन्तजार में आंखें पथराने लगी थीं कि इतने में उसे बछोड़िये की ओर दो जने आते दिखायी दिये. एक तो लाछी, और दूसरा...गूजर! हरामजादा, फिर साथ आ मरा! अब तो कोई दूसरी तरकीब सोचनी पड़ेगी.
अ़न्दर अन्दर घुसते ही लाछी को गोबर बीनते एक आदमी नजर आया. जोर से पूछा, ‘कौन है?’
बेधड़क जवाब मिला, ‘यह तो मैं भोजा.’
लाछी झुंझलाकर कहने लगी, ‘इस वक्त यहां क्या खोया हुआ धन ढूंढ़ने आये हो?’
भोजा गोबर बीनते-बीनते ही बोला, ‘ठकुरानी के आज एकादशी का उपवास है. तुलसी का थाना पवित्र करने के लिए बछिया का गोबर लेने आया हूं.’
गूजर ने कहा, ‘इस अदने काम के लिए तुमने तकलीफ क्यों उठायी. मुझे खबर कर देते तो मैं पहुंचा देता.’
‘मेरे कौन-से सुरखाब के पर लगे हैं जो झड़ जायेंगे. फिर तू तो जानता है कि ठकुरानीजी मेरे अलावा किसी पर विश्वास ही नहीं करतीं.’
भोजा का जवाब सुनकर लाछी बेहद खुश हुई. अक्ल हो तो ऐसी. क्या बात बनायी है!
उसके बाद दोनों मित्र परस्पर गुफ्तगू में मशगूल हो गये. गूजर ने पूछा कि ठाकुर साहब अब अधिक नाराज तो नहीं हैं? भोजा ने गुमान से कहा कि उसके रहते कैसे नाराज हो सकते हैं. भला, ऐसे जिगरी दोस्त का एहसान मरकर भी भुलाया जा सकता है? पति की नासमझी पर लाछी अन्दर-ही-अन्दर कुढ़ती रही, पर जबान से कुछ जाहिर नहीं किया.
तड़के दही बिलोते लाछी को लगा कि उसका मन ठीक इसी तरह मथा जा रहा है. जो बिलोवने की हालत, वही उसके मन की हालत.
घर की सीमा में बंधी लाछी बेमन से सारे काम वक्त पर आप ही निबटा देती थी. भरी दोपहर तमाम जानवरों को लेकर वह तालाब के किनारे पहुंची. मौका देखकर भोजा नजदीक आया. लाछी मुंह फिराकर खड़ी हो गयी. ढोर-डांगरों के बीच राम जाने क्यूं उसे इतनी शर्म महसूस हुई! ऐसा लगा कि वह अब कभी इन भोले जानवरों को अपना मुंह नहीं दिखा सकेगी. भोजा ने फिर सामने आकर कहा, ‘लाछी, आज का चक्कर फिर बेकार गया.’
चोटी के फुन्दे को सहलाते लाछी बोली, ‘तो मैं भी क्या करूं? तुम्हारे भाई के शक का इलाज तो मेरे पास नहीं है.’
‘पर मेरी बीमारी का इलाज तो तेरे पास है.’
‘तुम्हारी तकदीर का इलाज तो विधाता के पास भी नहीं है. दिन डूबने पर बागर में आ जाना. घास की सेज पर तुम्हारा इलाज करूंगी.’
भोजा हंसकर कहने लगा, ‘आज चन्द्र-ग्रहण है. तुझे सात पीढ़ियों का पुण्य एक साथ ही मिलेगा. देख भूलना नहीं!’
‘यह भी कोई भूलने की बात है!’
अब ठहरने से क्या फायदा. भोजा वापस गढ़ की ओर चल पड़ा.
ठाकुर को तो बस एक ही रट लगी थी. भगवान के बदले वह लाछी के नाम की माला जपने लगा. बौखलाकर बार-बार पूछता था, ‘भोजा, अभी तक कोई बात नहीं बनी रे?’ ‘बन रही है, अन्नदाता! तीतर-बटेर का शिकार करना आसान है, पर शेर का शिकार मुश्किल है. कई दफा जान से हाथ धोना पड़ता है, सो अलग से. आपकी जान अनमोल है. पूरी तसल्ली हुए बगैर आपको आगे कैसे करूं! एक मर्तबा ही भूल हो गयी, सो अभी तक पछता रहा हूं.’
ठाकुर अपने वफादार कनवारिये पर बेहद खुश हुआ.
उसके बाद भोजा घड़ी दिन रहते ही बागर में आकर मन के लड्डू खाने लगा. ये ‘पचावों’ की गलियां, यह ढूंगरियों की ओट, और यह घास की सेज! यह लाछी की चोटी! ये अंगिया के बन्द! ये उरोज! ये होंठ! यह लहंगा! और यह...!
कि इतने में किसी के पैरों से चारा दबने की चरमराहट सुनायी दी. लगता है लाछी आ गयी. पचावों की गली से झांकाअरे, इस बदजात गूजर ने तो यहां भी पीछा नहीं छोड़ा. अब अगर शक न हो तो अचरज की बात है. कहां तक बहाने बनाये. पर तरकीब निकालना तो उसके बायें हाथ का खेल है. पीठ घुमाकर चारे की गाड़ी में चुन-चुनकर कुश इकट्ठा करने लगा.
दूर से ही गूजर की गरज सुनायी दी, ‘कौन है?’
उसने मुंह घुमाकर उतने ही जोर से जवाब दिया, ‘यह तो मैं भोजा!’
‘यहां बागर में क्या कर रहा है?’
‘आज चन्द्र-ग्रहण है. कुश इकट्ठा कर रहा हूं. तू तो जानता है कि ठिकाने में ग्रहण के दिन पूरे एक गट्ठर की जरूरत होती है.’
‘कुश की तो तू फिक्र ही मत कर. खूब इकट्ठा कर रखा है. मुझे कहता तो मैं ही पहुंचा देता.’
‘तू तो मेरी आदत जानता है. हाथों-हाथ काम निबटाने का तो मजा ही और है.’
लाछी मन-ही-मन हंसी. भोजा की अक्ल तो चरखे की तरह घूमती है. तयशुदा बात का भी इतनी जल्दी जवाब नहीं दिया जा सकता. एक यह अहमक गूजर है कि दिखाने पर भी नहीं दिखता.
चार घड़ी रात ढले चांद पूरा ग्रसित हो गया. काले तवे की नाईं गोल. ग्रहण लगते ही तारों की रोशनी बढ़ गयी. आज का यह ग्रहण तो दुनिया जानती है, पर लाछी के ग्रहण का किसी को कुछ पता नहीं था.
उसके बाद चांद के मुक्त होते ही वह गूजर की बांहों में बंध गयी.
और उधर भोजा कनवारिये की सेज भी सूनी नहीं थी. लाछी के लिए उसका मन तड़पता तो बहुत था, पर उसकी नजर में हाथ लगी औरत ही सबसे अधिक सुन्दर होती है. फकत लाछी के नाम को तरसने से क्या होता है? शरीर की जगह कामना से काम नहीं चल सकता. लाछी से हताश होने पर भोजा पर सहवास का पागलपन सवार हो जाता था. ठाकुर के वफादार कनवारिये के लिए किस बात की कमी! एक की जगह दो हाजिर. और यों भोजा समझदार भी काफी था. बांहों में कसी औरत को लाछी मानकर सन्तोष कर लेता था. अगर कोई इनसान उम्र-भर एक ही हवा में सांस लेकर जीने का हठ करे तो उसका हठ पूरा नहीं हो सकता.
दूसरे दिन तालाब की एक चट्टान पर लाछी कपड़े धो रही थी कि सामने भोजा पर नजर पड़ी. वो कुछ बोले उससे पहले ही लाछी कहने लगी, ‘मुझे उलाहना देने की जरूरत नहीं. सारा कसूर तुम्हारे भाई का है. कोई बहाना बनाकर उन्हें कहीं बाहर भेज सको तो तुम्हारी मुराद पूरी हो.’
वक्त पर चूक जाये तो इतने बरस भोजा की कनवार कैसे चलती. हाजिरजवाबी तो था ही, तुरन्त बोला, ‘फकत मेरी मुराद ही पूरी होगी, तेरी नहीं?’ भोजा को चिढ़ाने की खातिर लाछी परिहास के सुर में बोली, ‘मेरी मुराद तो हर रोज ‘मेड़ी’ में पूरी होती ही है.’
‘तब मेरी फिक्र तुझे क्यूं हो?’
‘मुझे तुम्हारी फिक्र करने की जरूरत ही कहां है? फकत मेरे ही भरोसे होते तो फिक्र भी करती. तुम्हारे कौन-सी कम चहेतियां हैं.’
‘पर कोई तेरे नख के बराबर भी नहीं है. लाछी, आज रात को ही कोई जुगाड़ भिड़ा.’
लाछी कपड़े धोते-धोते ही बोली, ‘चांद उगने पर ‘आखरी’ वाले मीठे नीम पर छुप जाना. वहां एकदम सुनसान है. फिर अपनी तकदीर!’
लाछी की सास आती दिखायी दी तो भोजा पानी पीने के लिए तालाब में घुस गया.
जब सूरज, चांद और तारे भी आंखमिचौनी खेलते हैं, तब लाछी गूजरी को कैसी अड़चन! जितने दिन खेल चले, उतना ही अच्छा. लाछी को यह दूसरा महीना उतरने लगा है. नौंवें महीने उसकी कोख फलेगी. इधर कोख में पला बाल-गोपाल अपनी बन्द आंखें खोलेगा और उधर कहीं, किसी इनसान की आंखें मुंद जायेंगी. जीवन-मरण के बहाने कुदरत भी युग-युग से यह खेल खेलती आ रही है. एक पत्ता झड़ता है तो दूसरी कोंपल फूटती है. यही आदि और अनन्त खेल है. यौवन की लीला भी किसी से कम नहीं, इस धरती पर नित्य नया यौवन चढ़ता है और ढलता है. नित्य नये किरदार बदलते हैं. पर नाटक वोही का वोही!
या तो गूजर का लाछी पर अटल विश्वास था या उसका हृदय इतना निर्मल था कि वो वहम जैसी ओछी भावना को अपने पास ही नहीं फटकने देता था. या कि घर के स्वार्थ में गूजर इतना अन्धा था कि उसे दूसरा कुछ नजर ही नहीं आता था. ठिकाने के कारिन्दों पर वहम करने से कैसे काम चलेगा?
गौर व घर का सारा काम निपटाकर लाछी ने ब्यालू किया, तब तक रात तीन साढ़े-तीन घड़ी ढल चुकी थी. गूजर मेड़ी में सोने लगा तो लाछी ने उसे हाथ पकड़कर उठाया. कहने लगी, ‘सुथारों की एक लड़की ने पक्की खबर दी है कि अपने नीम को गड़रियों ने काफी साफ कर दिया है. अभी भी शायद एक आदमी पत्तियां तोड़ने के लिए ऊपर चढ़ा हुआ है. तुम तो कुछ ध्यान ही नहीं रखते. चलो, अभी उसे संभालकर आते हैं.’
वो गूजर का मनपसन्द नीम था. अपने हाथों सींचकर उसे इतना बड़ा किया था. गौने के पश्चात् ठीक से देखभाल भी नहीं हुई. आज याद दिलाते ही वो तुरन्त उठ बैठा. ‘आखरी’ घर से दो-एक खेत की दूरी पर थी. आकाश की कोख चीरकर कुंकुम-सा चांद निकला ही था. धीरे-धीरे चांदनी छितराते हुए ऊपर चढ़ने लगा. पेड़ों की हरीतिमा सुनहरे मुलम्मे से जगमगाने लगी.
दोनों पति-पत्नी ‘आखरी’ का फलसा खोलकर अन्दर घुसे. भोजा को अब जाकर तसल्ली हुई कि लाछी वादे के मुताबिक आ तो गयी. वो उमंग से छलकता, नीचे कूदने ही वाला था कि गूजर की गरज सुनायी दी, ‘कौन है?’
यह नाग-डसा गूजर तो किसी भी करवट कोई दांव नहीं लगने देता. जहां-तहां छाया की तरह लाछी के पीछे लगा रहता है. पर यह समय बेकार सिर खपाने का नहीं है. अदेर उसके दिमाग में एक उपाय सूझा और वो दोनों हाथों से फटाफट पत्ते तोड़-तोड़कर नीचे डालने लगा. गूजर और कड़ककर बोला, ‘मीठे नीम को कौन तोड़ रहा है? बोलता क्यूं नहीं?’
छिंवरे तोड़ते-तोड़ते ही भोजा बोला, ‘यह तो मैं भोजा!’
खुद के आने की खबर देते लाछी कहने लगी, ‘पर रात को नीम पर क्या रखवाली कर रहे हो?’
भोजा ने निस्संकोच जवाब दिया, ‘ठकुरानी की आंखें बुरी तरह दुख रही हैं. तब इन पत्तों के लिए रात को आना पड़ा. पर तुम दोनों बेवक्त आखरी में क्यूं आये?’
पत्ते तोड़कर भोजा नीचे उतर आया. गूजर उसके पास आकर कहने लगा, ‘अभी एक सुथार की लड़की ने खबर दी कि कोई गड़रिया नीम छांग रहा है. फिर मुझे चैन कहां!’
एक गहरा निश्वास छोड़कर भोजा बोला, ‘नाहक जहमत उठायी.’
गूजर ने कहा, ‘पर इसी बहाने तुझसे मिलना तो हो गया.’
गूजर की तरफ देखकर भोजा लाछी को सुनाते बोला, ‘ऐसे मिलाप में क्या सार!’
पर यह ‘सार’ की बात अकेली लाछी के ही वश में नहीं थी. घर, गृहस्थी, बिरादरी, जाति, धर्म, संस्कार, मर्यादा और रीति-रिवाजों की कितनी रुकावटें हैं! अकेली औरत अपने बूते पर इस भंवरजाल का क्योंकर सामना कर सकती है? जानवरों वाली स्वच्छन्दता का तो अब सपना ही कहां? लाछी के दिल में कुछ इसी तरह की लौ जल रही थी. किस राह आगे बढ़े? कौन-सी पगडण्डी ढूंढ़े?
रात को सहवास के समय उसे ऐसा लगा मानो वह किसी अजगर की लपेट में बुरी तरह फंस गयी हो. औरत की इस जिन्दगी में वह इस जकड़ से कभी मुक्त होगी कि नहीं? गृहस्थी की इस गंधाती धोवन से उसका सर फटने लगा. कोहनी के वार की खातिर भी सात फेरों के परिणेता ने उलटा उसे ही दुत्कारा! उसे ही बुरा-भला कहा! फिर किस दूसरी छांह की आस करे? आस करके भी उस छांह का बसेरा कब मिल सकता है?
स्वप्नजाल में उलझी नींद के कारण लाछी कुछ देरी से उठी. उठते ही उसे ऐसा लगा मानो सूरज आज अपनी जगह पर नहीं उगा है. न उगा तो न सही. सूरज की बात सूरज जाने. गृहस्थी के काम के मारे उसे तो सांस लेने की भी फुरसत नहीं मिलती. वह हड़बड़ाती हुई मेड़ी से बाहर निकली. पशुओं की सार-संभाल, दुहना, चारा-बांटा और फूस-बुहारा. आखिर काम तो करने पर ही निबटता है.
सूरज सिर पर चढ़ आया, तब कहीं वह चारागाह की तरफ रवाना हो सकी. काफी देर हो गयी थी. पति इन्तजार कर रहा होगा. जल्दी-जल्दी पांव उठाने लगी. चूड़ियों की खनखनाहट, घाघरे की फटकार, ओढ़नी की सरसराहट और पायल की झनकार से हवा में मानो जादू ही घुल गया हो. लाछी के रूप-यौवन का रस पाकर जैसे सूरज की किरणों का भाग्य जगमगा उठा.
गांव के बाहर निकलते ही भोजा मिल गया. देखने पर भी लाछी की चाल धीमी नहीं हुई तो भोजा साथ-साथ चलते कहने लगा, ‘लाछी, अब तो लगता है कि अपना मिलाप मसान में ही होगा.’
लाछी होंठों-ही-होंठों में बोली, ‘मरे बगैर तो मसान भी नसीब कहां?’
‘पर मरना तो अपने वश में है!’
‘मेरे लिए तो मरना भी वश में नहीं है.’
‘तो फिर?’
‘इसका जवाब तो मेरे पास भी नहीं है. मैंने तो काफी कोशिश की पर जुगाड़ नहीं बैठा तो किसे दोष दूं. ज्यादा पीछा किया तो बस्ती में बदनामी होगी. तीनेक घड़ी रात ढले रसोई में मिलना. घर की इज्जत घर में.’
भोजा हामी भरते बोला, ‘हां, यह जुगाड़ ठीक है. फिर मेरी तकदीर.’
तकदीर पर बात छोड़कर भोजा गांव की ओर मुड़ गया और लाछी आगे चलती रही. पति खाने का इन्तजार कर रहा होगा.
गूजर खेजड़ी की छांव तले बैठा अलगोजा बजा रहा था. चारों ओर छड़े-बिछड़े, ढोर-डांगर जमीन में मुंह डाले घास चर रहे थे. लाछी पास आयी तो गूजर ने पूछा, ‘बहुत देर लगा दी?’
खाने की टोकरी उतारते लाछी कहने लगी, ‘तुम वक्त पर सोने नहीं देते तब वक्त पर कैसे उठा जा सकता है!’
खाने का सामान बाहर निकाला तो गूजर ने हैरत से पूछा, ‘आज इतना खाना कैसे ले आयी?’
‘ज्यादा देर होने लगी तो मैंने भी घर खाना नहीं खाया. पहले तुम खा लो, फिर मैं खा लूंगी.’
‘क्यूं, फिर क्यूं? आज तो साथ ही खायेंगे!’
गूजर के घर किस चीज की कमी? गाढ़ा दही, राब, छाछ, मक्खन, मतीरे की सब्जी, लपसी और बाजरे की रोटी. पति-पत्नी ने साथ बैठकर आराम से खाना खाया. उसके बाद गूजर ने कहा, ‘मैं थोड़ी कमर सीधी कर लूं. तू जरा खयाल रखना, किसी के खेतों में कोई बिगाड़ न हो.’
यह हिदायत देकर पति तो सो गया और लाछी ढोर-डांगरों को संभालने के लिए चल पड़ी. पहली दफा ग्याभिन हुई गाय व भैंस की पीठ पर हाथ फिराकर लाछी पांच-सातेक कदम आगे बढ़ी तो उसे एक करील में काला व चमकीला टुकड़ा नजर आया. पास जाकर गौर से देखा तो केंचुली समेत काला सांप. सू-सू करके छेड़ा तब भी करैत ने फन नहीं फैलाया. केंचुली ठेठ आंखों तक छायी हुई थी. थोड़ा-सा हिलकर फिर वहीं दुबक गया. केंचुली की वजह से दूर तक रेंगना उसके वश के बाहर था.
लाछी ने दो-तीन कंकर मारे. सांप कुछ रेंगकर आगे बढ़ा कि अचानक उसकी केंचुली करील के कांटे में उलझ गयी. करैत ने कुछ ताकत लगायी तो केंचुली ने अपनी जगह छोड़ी. फिर तो धीरे-धीरे करैत केंचुली से छूटकर सर्र-सर्र घनी झाड़ी में ओझल हो गया. लाछी तुरन्त केंचुली को अपने हाथ में लेकर अचरज से देखने लगी. सफेद चिकनी खोल पर बेशुमार बिन्दियां. केंचुली जकड़ी हुई थी तब तक करैत टस-से-मस भी नहीं हो सका. नितान्त अन्धा, मोटे रस्से की तरह पड़ा था. केंचुली से मुक्त होते ही दृष्टि के वेग से भागा. तो यह केंचुली सबसे बड़ा बन्धन है.
उसके बाद लाछी की आंखों के सामने ठौर-ठौर करैत की केंचुलियां-ही-केंचुलियां झिलमिलाने लगीं.
इधर-उधर चक्कर लगाकर खेजड़ी के नीचे लौटी तो पति खर्राटे भर रहा था. वह बारी-बारी से नींद में सोये पति और केंचुली को देखने लगी. कभी उसे केंचुली में पति का स्वरूप नजर आता, तो कभी पति केंचुली की तरह दिखने लगता. अचानक नजर की यह रंगत कैसे बदल गयी? लाछी के मन की उथल-पुथल का कोई अन्त नहीं था. कुछ देर बाद पति जम्हाई लेकर उठा तो उसे लाछी के गले में सांप की केंचुली लटकती नजर आयी. अचरज से पूछा, ‘अरे, यह केंचुली कहां मिली? इसके शकुन बड़े अच्छे होते हैं. मंशानुसार तेरी कामना पूरी होगी.’
लाछी ने कोई जवाब नहीं दिया. केंचुली हाथ में लेकर उस खाली आवरण की ओर टुकुर-टुकुर देखने लगी.
पति लाछी के करीब आया. गले में बांहें डालकर उसके गालों पर लगातार दो-तीन चुम्बन जड़ दिये. कहने लगा, ‘जोशी को भी पूछने की जरूरत नहीं है. चांद-सा बेटा होगा. और वो भाग्यशाली होगा. मेरी आजमाई हुई बात है. केंचुली के शकुन कभी गलत नहीं होते. तुझसे रिश्ता होने से तीन दिन पहले मुझे भी जंगल में एक केंचुली मिली थी.’
लाछी मुंह बिगाड़कर बोली, ‘तब तो शकुन बिलकुल खराब हुए.’
गूजर लाछी का कंगन घुमाते हुए बोला, ‘वाह, खराब कैसे हुए? तुझ जैसी जोरू मिली. इससे अच्छी किस्मत और क्या हो सकती है.’ फिर उसकी आंखों-में-आंखें गड़ाकर कहने लगा, ‘तेरी एक कामना तो अभी यहीं पूरी किये देता हूं.’
होंठों पर होंठों का परस होने पर ही लाछी को पति की बात समझ में आयी. चौंककर दूर हटी. शिकायत जताते हुए बोली, ‘तुम्हारी अक्ल तो ठिकाने है! मेड़ी के करतब तो मेड़ी में ही शोभा देते हैं.’
‘यहां कौन देखता है?’
लाछी हाथ से इशारा करते कहने लगी, ‘ये बबूल, ये करील, यह घास और ये पक्षी.’
फिर तो वह वहां ठहरी ही नहीं. सरपट गांव की तरफ भागी. पति आवाज देता रहा, पर उसने फिर पीछे मुड़कर देखा तक नहीं.
सीधी कोठरी में जाकर अपनी सन्दूक खोली. करैत की केंचुली को संभालकर अन्दर रखा और वापस ताला लगा दिया. बैठे-ठाले कैसे चल सकता है! गूजरों की गृहस्थी में काम का क्या अन्त! गोबर, भूसा, सानी और पानी. काम निबटाती जा रही थी और सोचती जा रही थी कि रसोई में देखकर तो गूजर का शक जरूर जागेगा और शक के साथ उसका गुस्सा भी खौल उठेगा. इस बार भोजा का बचाव नामुमकिन है. देखें, क्या गुल खिलता है?
पर लाछी की किस्मत कि कोई गुल नहीं खिला. चारेक घड़ी रात ढले लाछी ने पति को सचेत करते कहा, ‘रसोई में शायद कोई आदमी छुपा हुआ है.’
इतनी बात सुनने के बाद गूजर के कैसी ढील! गुंथी हुई लाठी लेकर तुरन्त लाछी के साथ चल पड़ा. दीपक जलाकर देखा तो वाकई कोठी के पीछे एक आदमी छुपा खड़ा था. लाठी तानकर गरजते बोला, ‘किसकी मौत आयी है?’
भोजा के इतनी देर कहां? तुरन्त बात सोच ली. बेखौफ सामने आकर कहने लगा, ‘किसकी क्या, मौत तो तेरी ही आयी है. हुजूर से किसी ने शिकायत की है कि तेरे यहां रोजाना नयी बाजरी का खीच व सोगरे बनते हैं. अन्नदाता ने ज्यादा कुरेदा तो मुझे असलियत जानने के लिए आना ही पड़ा. भले मानस, तेरी औरत तो खुल्लमखुल्ला सोगरे बनाती है.’
फिर हाथ की रोटियां गूजर की ओर करते भोजा कहने लगा, ‘अपने साथ मेरी भी इज्जत गंवायेगा. अब ये सोगरे तो हुजूर को बताने ही पड़ेंगे.’
गूजर हाथ जोड़ते बोला, ‘तब तो मैं बिना मौत मारा जाऊंगा. इतने दिन तो भगवान के दिये हुए थे, आज से तेरे दिये हुए होंगे. जैसे भी हो यह फन्दा काट दे. अब कभी गलती नहीं होगी. तू तो जानता है कि बाजरी के अलावा एक कौर भी मेरे गले नहीं उतरता.’
आखिर भोजा को तो मानना ही था. गूजर काफी गिड़गिड़ाया तब वो बड़ी मुश्किल से राजी हुआ. लाछी से फिर एक पल भी वहां नहीं ठहरा गया. सीधी मेड़ी में आकर चारपाई पर गिर पड़ी. ऐसा कापुरुष पति तो चिराग लेकर ढूंढ़े नहीं मिलेगा. पर भोजा की अक्ल के सामने सिर नवाना पड़ता है. क्या बहाना बनाया! किसी मर्द में अक्ल हो तो ऐसी!
भोजा को गली तक पहुंचाकर गूजर मेड़ी में लौटा. गूजर के घर तेल से घी सस्ता होता है. गाय के घी का दीपक मन्द-मन्द जल रहा था. आधी मेड़ी में गूजर की छाया फैल गयी. काफी देर तक वो भोजा के गुण गाता रहा. फिर पगड़ी उतारकर घरवाली के गालों पर हाथ फिराते बोला, ‘चरागाह से भागकर तो घर आ गयी, पर अब मेड़ी से भागकर कहां जायेगी? आज ऐसी खबर लूंगा कि तू भी याद रखेगी.’
सात फेरों की ब्याहता इनकार भी तो नहीं कर सकती! भले ही उसके दिल में कैसी भी उथल-पुथल मची हो. परायी औरत होती तो कुछ नखरे भी करती, पर लाछी की खातिर तो यह राह भी नहीं बची. ऐसी उलझन के समय इन नखरों से बदतर और क्या हो सकता है!
अंगिया के बन्द खुलते ही मेड़ी में ठण्डी हवा का झोंका आया. चमाचम करती बिजलियों में होड़ लग गयी. एक-दूसरे पर चढ़ते बादल जोर से गरजने लगे. उतरते आसोज के मोती बरसने लगे. दिन को तो बरसात के कोई आसार ही नहीं थे, पर गोधूलि वेला में ऐसी उमस छायी कि दूर-दूर की बरखा एक ही ठौर इकट्ठी होकर तड़तड़ बरसने लगी. उसकी माया वोही जाने. लाछी के मन की लाछी जाने.
आज फिर उठने में देर हो गयी. मेड़ी से उतरते ही लाछी सीधी कोठरी में गयी. चारों ओर पानी-ही-पानी फैला था. रात-भर बरसात होती रही. सन्दूक खोला और करैत की केंचुली निकालकर लाछी एकटक उसे देखने लगी.
सास की आवाज सुनकर उसे चेत हुआ. और वह रोजाना की माफिक गृहस्थी के काम-धन्धे में उलझ गयी.
बादलों के सिवाय इतना छिड़काव भला कौन कर सकता है! बरसात के रुकने पर ठण्डी बयार चलने लगी.
दिन ढलते लाछी काचर-मतीरे लेकर घर लौट रही थी कि भोजा से सामना हो गया. नाराजगी जतलाते कहने लगा, ‘लाछी, रात को तो रसोई में भी भूखा रह गया!’
‘क्या करूं, ननद ने बना-बनाया काम बिगाड़ दिया.’
‘मुझे तो इस बिगाड़ का कहीं अन्त नजर नहीं आता.’
‘थोड़ा इतमीनान रखो. कभी-न-कभी तो पासा सही पड़ेगा. आज तुम्हारा चक्कर बेकार नहीं जायेगा. ढलती रात को तुम्हारे भाई ढोल बजाने पर भी नहीं उठते. मैं केसरिया शाल ओढ़े आंगन में सोयी मिलूंगी. गूजर सफेद खेस ओढ़े मेरे पास ही सोया होगा. शाल खींचते ही मैं तुम्हारे साथ चल पड़ूंगी. अब तो तसल्ली हुई?’
‘तसल्ली तो होगी तभी होगी. मैं तो तेरे इशारे पर मरने को तैयार हूं.’
लाछी फिर समझाते कहने लगी, ‘मुझ पर केसरिया शाल होगी. देखो कैसी होशियारी से काम लेते हो.’
भोजा गुमान से बोला, ‘होशियारी की बात तो तू छोड़. फकत तेरे सामने मेरा वश नहीं चलता.’
‘अब तुम जाओ, लोग बातें बनायेंगे.’
भोजा वहीं से दूसरी राह मुड़ गया और लाछी घर जाकर दूहने के काम में मशगूल हो गयी.
रात को गूजर ब्यालू करके मेड़ी की सीढ़ियां चढ़ने लगा तो लाछी ने कहा, ‘मेड़ी में ननदोईजी सो रहे हैं. तुम्हें तो कुछ खयाल ही नहीं है.’ पति सीढ़ियां उतरते बोला, ‘तब हम कहां सोयेंगे?’
‘थोड़ा धीरे बोलो, तुम्हें तो आठों पहर सोने की ही लगी रहती है और मेरी जान पर बनी है. एक रात बाड़े में सो जाओ तो कौन-सा राज्य छिन जायेगा?’
‘बेचारा राज्य किस गिनती में है!’
तब दूध में जामन डालते लाछी बोली, ‘आंगन में चारपाई बिछी है. तुम चलो, मैं अभी आयी.’
‘ढलती रात ठण्ड पड़ेगी. कुछ ओढ़ने को लाना.’
फिर तो वही रात, वोही अंधियारा, वही लाछी और वोही गूजर!
गूजर को तो नींद आ गयी, पर लाछी की पलक तक नहीं झपकी. भोजा की खुशामद के आगे खाविन्द को शक की हल्की-सी झलक भी दिखायी नहीं देती. क्या स्वार्थ इतना अन्धा और गूंगा होता है? जहां पत्थर को भी शक हो, वहां पति के मन में कोई हलचल तक नहीं हुई. क्या इसी सुख और सुहाग की आशा में उसने अपने यौवन को सहेजा था? अनमोल मोती की तरह उसकी आब बचाकर रखी थी? पर पति की नजर में तो तिनके जितनी भी इसकी कीमत नहीं है. फिर ढोल-नगाड़ों के बीच वेदी का वो ढोंग क्यूं रचा? क्यूं इस घर के आंगन में गाजों-बाजों के साथ एक परायी लड़की को अपनाया? वंश की बेल बढ़ाने के लिए? सेज की भूख मिटाने के लिए! कुनबे के कोल्हू में बैल की तरह खटने के लिए? ठाकुर और अहलकारों के तलवे चाटने के लिए? कोहनी के वार के साथ अगर उस दिन पति की लाठी की ताकत जुड़ जाती तो उसके लिए कितनी खुशी की बात होती! फिर तो उसके मन में किसी तरह का कोई दुख सर नहीं उठाता. हथलेवे का ब्याहता तो उलटा उस पर ही नाराज हुआ. बार-बार उसे ही फटकारा. स्वार्थ पूरा हो तो पति को किसी भी बात का एतराज नहीं. फिर स्वार्थ के इस आक पर इन कड़वे फलों को संजोने से कौन-सा अमृत हाथ लगेगा? तब एक खसम की हाजरी का क्या अर्थ रह जाता है?
लाछी के अन्तस् की बांबी में ऐसे बहुत-से सवाल फुफकारने लगे. बगल में सो रहा परिणेता लम्बी ताने अजगर की तरह खर्राटे भर रहा था. आज पति और भोजा की आखिरी परख है. देखें, क्या मर्म उघड़ता है?
और उधर भोजा के लिए पलभर का इन्तजार भी बर्दाश्त के बाहर हो रहा था. वो एक घड़ी पहले ही चोर कदमों से गूजर के आंगन में आ पहुंचा. गौर से देखा. लाछी की बात तो बिलकुल सही निकली. आज तो मन की कामना जरूर पूरी होगी. उसके बाद उसने भली सोची न बुरी, फौरन केसरिया शाल को खींचकर जोर से झटका दिया. गूजर ने झट-से उठते हुए गरजकर पूछा, ‘कौन है?’
सवाल के साथ ही बैखौफ जवाब मिला, ‘यह तो मैं भोजा!’
गूजर ने फिर हैरत से पूछा, ‘भोजा?’
कनवारिया नजदीक आकर धीरे से बोला, ‘हां, द्वारकाजी* चलना हो तो बोल?’
‘नहीं, मैं तो द्वारकाजी नहीं चलता.’
‘फकत तुझे लेने के लिए ही मैं चुपके से आया हूं. न चलना हो तो तेरी मरजी, पर चिल्ला तो मत. बेकार ‘संग’ बिदकायेगा. चुपचाप वापस सो जा.’
गूजर को सोने की हिदायत देकर भोजा उलटे पांवों लौट पड़ा. लाछी सफेद खेस ओढ़े जगी हुई बाजू में लेटी थी. दोनों की बातचीत उसने पूरी सुनी. अब तो कोई भ्रम शेष नहीं रहा. सूरज के उजाले से भी तेज ज्वाला उसकी आंखों के सामने भभकी और उस भभक के साथ ही उसके पुराने संस्कार, रीति-रिवाज और समूची मर्यादाएं जलकर भस्म हो गयीं. शायद वह इसी ज्वाला के इन्तजार में थी.
दुनिया के सामने हाथ थामनेवाले ने तो सात फेरों के सिवाय कोई जोखिम ही नहीं ली. पर भोजा की जोखिमों का तो कोई अन्त ही नहीं! ऐसी अथाह चाहना की खातिर कैसे इनकार किया जा सकता है? ऐसा इस जोबन का दूसरा माहात्म्य भी क्या है? फकत रोटी-कपड़ों के बदले गुलामों की तरह खटना! शरीर नुचवाना! क्या यही जिन्दगी का मोल है? फिर एक मर्द की मिल्कियत की बन्दिश क्यूं? अब तो कुनबापरस्ती की केंचुली छोड़ने पर ही उसकी मुक्ति होगी.
दूसरे दिन ढोर-डांगरों का झुण्ड लेकर लाछी चारागाह जाने लगी तो गूजर ने कहा, ‘आज तो अल्ल सवेरे ही बला की उमस है, जरूर बरसात होगी. वापस जल्द लौटना.’ लाछी ने हां या ना का कोई जवाब नहीं दिया.
न चारागाह जाते वक्त भोजा से सामना हुआ और न घर लौटते वक्त. कनवारिये का विश्वास टूट चुका था. दुनिया की तमाम औरतों की गरज तो अकेली लाछी से पूरी नहीं हो सकती! अपनी-अपनी ठौर और अपनी-अपनी सेज पर सभी औरतें अच्छी लगती हैं.
गांव के मालिक के मन में अभी तक वही पीड़ा साल रही थी. बार-बार वो ही रटभोजा, कुछ बात बनी रे?
आखिर आजिज आकर भोजा ने कहा, ‘अन्नदाता, यह तो रांड ही शैतान की औलाद है. नाक-कान काटे बगैर इसकी अक्ल ठिकाने नहीं आयेगी.’
ठाकुर एक गहरी आह भरकर बोला, ‘मैंने तो तुझे पहले ही कहा था, पर तू नहीं माना.’
‘सात दफा कान पकड़ता हूं, अन्नदाता! बहुत बड़ी गलती हो गयी.’
LAJVANTI COVER

दिन ढलते-ढलते ऐसी काली घटा उमड़ी कि देखते ही बनता था. चमाचम बिजलियां चमकने लगीं. होड़ मचाते आबनूसी बादल गरजने लगे. मानो हजारों हाथी एक साथ चिंघाड़ रहे हों.
अपने-अपने ठिकाने पर ढोर-डांगरों को बांधते हुए लाछी के हृदय में आज ऐसी ही काली घटा घुमड़ रही थी. पति को इस बरसात का तो काफी पहले ही अन्दाज लग गया, लेकिन भोजा पर दिखती आंखों भी कुछ शक नहीं हुआ. यह कैसा विवेक?
ब्याहता के शरीर को मनचाहा भोगने के बाद गूजर गहरी नींद में सोया था. लाछी मेड़ी के दरवाजे तक आयी तो बरसात की फुहार व बिजलियों की चमक ने गाजों-बाजों के साथ उसके यौवन का अभिनन्दन किया. छलकते सौन्दर्य की बलैयां लीं. करैत की केंचुली हार की तरह उसके गले में झूल रही थी.
अब और सोचने का वक्त ही कहां था? एक-एक करके समूचे कपड़े और तमाम गहने उतारकर वह मेड़ी की सीढ़ियां उतरने लगी. मूसलाधार पानी बरस रहा था. परस्पर प्रतिस्पर्धा से बिजलियां बढ़-चढ़कर चमक रही थीं. गले में केंचुली और जांघों तक झूलती केशराशि, गोया उस पर कोई बदली झूम रही हो.
चमकती बिजलियां लाछी की सुन्दरता निहारकर सार्थक हुईं. बरसात की झड़ी उसके निर्वसन यौवन का परस पाकर निर्मल व पवित्र हो गयी. पेट में आस और गले में करैत की केंचुली! इससे बढ़कर आश्वासन और क्या हो सकता है!
बरसात की मेहर में भीगती लाछी को किसी तरह का कोई डर नहीं था. सीधे भोजा के घर पहुंची. कुण्डी खटखटाने का इरादा किया ही था कि भीतर से किसी औरत की धीमी आवाज सुनायी दी, ‘तुम तो लाछी के पीछे दीवाने हो रहे थे, आज मेरी याद कैसे आयी?’
‘भाड़ में जाये लाछी और उसका गुमान. मेरे सामने उस छिनाल का नाम मत ले.’
लाछी के होंठों की पवित्र मुस्कराहट बिजलियों की चमक में घुलकर ओझल हो गयी. घरर-घरर बरसात में भीगती वह आप ही आगे बढ़ने लगी. फिर न तो किसी दरवाजे पर रुकी और न किसी मर्द का सहारा मांगा.
पेट में अमर आस लिये, वह अभी तक ब्रह्माण्ड में निर्वसना घूम रही है! न कहीं मुकाम और न कहीं विश्राम! शायद इन मौजूदा चांद-सूरज के भस्म होने पर उसकी कोख कभी उघड़े तो उघड़े!


'इधर पधारिए, कबीर की झोपड़ी का यह रास्ता है'

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