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बिहार की जातिगत जनगणना के पीछे की राजनीति क्या है?

बिहार सरकार ने जाति जनगणना के आंकड़ों को जारी कर दिया. पिछले कुछ समय से कई राजनीतिक दलों ने जाति जनगणना कराने की मांग लगातार उठाई है. सिर्फ विपक्ष ही नहीं, एनडीए के भी कई सहयोगी दल भी राष्ट्रीय स्तर पर इसकी मांग कर रहे हैं. बिहार सरकार के आंकड़ों में क्या निकलकर आया है, इसके मायने क्या हैं.

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CM नीतीश कुमार ने गांधी जयंती के मौके पर जातिगत जनगणना के आंकड़ें जारी किए हैं (सांकेतिक फोटो)
2 अक्तूबर 2023 (Updated: 3 अक्तूबर 2023, 10:51 IST)
Updated: 3 अक्तूबर 2023 10:51 IST
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राम मनोहर लोहिया नारा दिया करते थे- "पिछड़ा पावे सौ में साठ". यानी राजनीति में हिस्सेदारी हो या संसाधनों पर अधिकार हो, पिछड़े वर्ग की हिस्सेदारी 60 फीसदी होनी चाहिए. लेकिन 'बिहार का लेनिन' कहे जाने वाले समाजवादी नेता जगदेव प्रसाद नारा दिया करते थे- "सौ में नब्बे शोषित और नब्बे भाग हमारा है...". 90 फीसदी में वे पिछड़े, दलितों, आदिवासियों को भी जोड़ते थे. जगदेव प्रसाद एक और बात कहते थे कि हिंदुस्तानी समाज दो भागों में बंटा हुआ- "10 फीसदी शोषक और नब्बे फीसदी शोषित". वहीं, बहुजन समाज पार्टी (BSP) के संस्थापक कांशीराम का नारा था- “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.” ये सभी बातें जातिगत प्रतिनिधित्व को लेकर कही जाती थीं. इन सारे नारों या कहें बातों का निचोड़ ये था कि जिस जाति की जितनी आबादी है उसे उसका उतना हक मिले. इसी जातिगत प्रतिनिधित्व का हवाला देते हुए जातिगत जनगणना की मांग पिछले कुछ समय से जोर पकड़ी है. इसी क्रम में बिहार सरकार ने जाति जनगणना के आंकड़ों को जारी कर दिया. 

पिछले कुछ समय से कई राजनीतिक दलों ने जाति जनगणना कराने की मांग लगातार उठाई है. सिर्फ विपक्ष ही नहीं, एनडीए के भी कई सहयोगी दल भी राष्ट्रीय स्तर पर इसकी मांग कर रहे हैं. बिहार सरकार के आंकड़ों में क्या निकलकर आया है, इसके मायने क्या हैं और इस पर राजनीतिक दल क्या कह रहे हैं? ये सब जानने का प्रयास किया जाएगा. आज इन्हीं मुद्दों पर बात होगी. 

बिहार में जाति आधारित गणना में क्या निकलकर आया है उन आंकड़ों को पहले मोटे तौर पर जानिये. फिर जातिवार आए आंकड़ों को भी बताएंगे. आंकड़े बताते हैं कि बिहार में सबसे ज्यादा आबादी अत्यंत पिछड़े वर्ग की है, जिसे राज्य में EBC के रूप में कैटगराइज किया गया है. इनकी आबादी 36 फीसदी है.

- सर्वे के मुताबिक, बिहार की कुल आबादी है 13 करोड़ 7 लाख 25 हजार. इसमें बिहार के बाहर रहने वाले प्रवासी भी हैं. करीब 53 लाख 72 हजार. यानी बिहार की सीमा में रहने वाले लोगों की संख्या हुई 12 करोड़ 53 लाख.

- सर्वे के मुताबिक, कुल आबादी में पिछड़े वर्ग की संख्या है- 3 करोड़ 54 लाख 63 हजार. यानी 27.12 प्रतिशत.

- अत्यंत पिछड़े वर्ग की आबादी है- 4 करोड़ 70 लाख 80 हजार. यानी 36 प्रतिशत.

- अनुसूचित जाति यानी दलित समुदाय की आबादी है- 2 करोड़ 56 लाख 89 हजार. यानी 19.65 प्रतिशत.

- अनुसूचित जनजाति यानी आदिवासी आबादी है- 21 लाख 99 हजार. यानी 1.68 फीसदी.

- एक कैटगरी है अनारक्षितों की, जो तथाकथित अगड़ी जाति माने जाते हैं, उनकी आबादी है- 2 करोड़ 2 लाख 91 हजार. यानी 15.52 फीसदी.

बिहार में जाति जनगणना की शुरुआत

पहले ये बताते हैं कि जातिगत सर्वे की ये पूरी प्रक्रिया कैसे पूरी हुई. जातिगत जनगणना पर जो आंकड़े आए हैं, उसकी शुरुआत करीब साढ़े चार साल पहले हुई थी. बिहार विधानमंडल ने 18 फरवरी 2019 को राज्य में जाति आधारित जनगणना यानी सर्वे कराने का प्रस्ताव पारित किया था. बिहार विधानसभा के सभी 9 राजनीतिक दलों की सहमति से फैसला लिया गया कि राज्य सरकार अपने संसाधनों से जाति आधारित गणना कराएगी. इसके बाद 2 जून 2022 को बिहार कैबिनेट ने जाति आधारित जनगणना कराने को मंजूरी दी.

यहां ये भी बता दें कि तब इस सरकार में बीजेपी भी सहयोगी थी. इसके कुछ दिनों बाद ही जेडीयू और बीजेपी की दिशा अलग हो गई थी.

नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव (फोटो- पीटीआई)

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि आज गांधी जयंती के शुभ अवसर पर ये आंकड़े प्रकाशित हुए. इससे न सिर्फ जातियों के बारे में पता चला है कि बल्कि सभी की आर्थिक स्थिति की जानकारी भी मिली है, इसी के आधार पर सभी वर्गों के विकास के लिए आगे की कार्रवाई की जाएगी.

अब बताते हैं कि ये जाति सर्वे पूरा हुआ कैसे. दो चरणों में किया गया. पहले चरण में ये सर्वे मकानों के जरिए हुआ. इसके तहत 7 जनवरी 2023 से 31 जनवरी 2023 तक मकानों का नंबरीकरण किया गया और लिस्ट बनाई गई. फिर, दूसरे चरण में राज्य के सभी नागरिकों की जनगणना का काम 15 अप्रैल 2023 को शुरू किया गया.

5 अगस्त 2023 को इस जातिगत सर्वे का काम पूरा हुआ. सर्वे में बिहार में कुल परिवारों की संख्या दो करोड़ 83 लाख 44 हजार थी. 

इस सर्वे के दूसरे चरण में परिवारों से कई तरह के सवाल पूछे गए थे. कुल 17 सवाल मसलन उम्र, लिंग, धर्म, जाति के अलावा किस सदस्य ने कहां तक पढ़ाई की. परिवार के लोग क्या करते हैं. उनके पास खेती की जमीन है या नहीं, जमीन और मकान की पूरी जानकारी, कुल आमदनी वगैरह. राज्य सरकार का उद्देश्य था कि इससे लोगों की पूरी जानकारी मिलने पर सरकार को नीतियां बनाने में और योजनाओं का लाभ बनाने में मदद मिलेगी.

बिहार में 200 से ज्यादा जातियां अलग-अगल वर्गों में कैटगराइज हैं. सरकार ने जो आंकड़ा जारी किया है, उसके मुताबिक, राज्य में यादव 14 फीसदी, भूमिहार 2.86 फीसदी, राजपूत 3.45 फीसदी, ब्राह्मण 3.66 फीसदी, कुर्मी 2.87 फीसदी, मुसहर 3 फीसदी, तेली 2.81 परसेंट, मल्लाह 2.60 परसेंट हैं. चूंकि जातियों की लिस्ट बहुत लंबी है इसलिए एक साथ सभी को पूरा रखना संभव नहीं है.

इसी सर्वे में एक और डेटा आया है, धर्म का. बिहार में किस धर्म के कितने लोग हैं. हिंदुओं की आबादी है 10 करोड़ 71 लाख 92 हजार. यानी 81.99 परसेंट. मुस्लिमों की आबादी है 2 करोड़ 31 लाख 49 हजार. यानी 17.70 फीसदी. बौद्ध एक लाख 11 हजार यानी 0.08 परसेंट. ईसाई आबादी है 75 हजार यानी 0.05 फीसदी.

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से पहले आया आंकड़ा

एक और दिलचस्प बात ये है कि जाति सर्वे का ये डेटा सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई से एक दिन पहले आया है. इस पूरे अभियान को कानूनी चुनौती दी गई थी. खुद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि राज्य सरकार के पास जातिगत जनगणना कराने का अधिकार नहीं है. जनवरी में सर्वे शुरू होने के बाद ही मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया था. हालांकि 20 जनवरी को कोर्ट ने याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा था कि इसमें कोई मेरिट नहीं है. हाई कोर्ट जाने की सलाह दी गई थी. फिर मामला पटना हाई कोर्ट पहुंचा. 4 मई 2023 को हाई कोर्ट ने इस जाति सर्वे पर अंतरिम रोक भी लगा दिया था. राज्य सरकार ने कोर्ट में कलेक्शन ऑफ स्टेटिस्टिक्स एक्ट का हवाला दिया और कहा कि राज्य सरकार को जाति सहित हर तरह की गणना और सर्वे का अधिकार है. बिहार सरकार ने 'सर्वे' शब्द के इस्तेमाल पर जोर दिया. फिर एक अगस्त को हाई कोर्ट ने फैसला दिया कि जाति सर्वे कराना वैध और पूरी तरह कानूनी है.

नीतीश कुमार ने कहा कि सर्वे से जातियों की आर्थिक स्थिति भी पता चली है (फोटो- पीटीआई)

फिर, इस फैसले को 'एक सोच एक प्रयास' नाम के एनजीओ समेत कई संगठनों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा. केंद्र ने विरोध करते हुए सेंसस एक्ट 1948 का हवाला दिया कि केंद्र सरकार ही इस तरह से जनगणना करवा सकती है. राज्यों को इसका अधिकार नहीं है. वहीं, बिहार सरकार ने भी कलेक्शन ऑफ स्टेटिस्टिक्स एक्ट वाली दलील को दोहराया. 6 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वो इस मामले में विस्तृत सुनवाई के बिना कोई आदेश जारी नहीं करेगा. सुनवाई की अगली तारीख 3 अक्टूबर तय की गई. साथ ही जातिगत सर्वे के आंकड़े को प्रकाशित करने से रोकने की मांग नहीं मानी गई. अब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से एक दिन पहले सरकार ने आंकड़ा जारी कर दिया.

अब सवाल उठता है कि ये जातिगत जनगणना की मांगें उठी कहां से....

कई विपक्षी दल हैं जो जातीय जनगणना की मांग केंद्र से कर रहे हैं. उनका तर्क है कि जातियों की जनगणना होने से उन तक योजनाएं पहुंचाने और अधिकार दिलाने में आसानी होगी. हालांकि एक पहलू राजनीतिक वोटबैंक का भी है. जानकार बताते हैं कि यही वो पहला मुद्दा है जो बिहार में नीतीश और तेजस्वी को साथ लाया. चुनावी राजनीति में अक्सर आप विश्लेषण पढ़ते होंगे कि फलां क्षेत्र में इस जाति समूह के इतने लोग हैं, इस जाति के इतने लोगों को टिकट मिला. जाहिर सी बात है इसके राजनीतिक निहितार्थ को अलग नहीं किया जा सकता है.

कांग्रेस ने भी पिछले कुछ समय से राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना को लेकर कैंपेन शुरू किया है. लगातार केंद्र सरकार से जातीय जनगणना कराने की मांग कर रही है. कर्नाटक चुनाव के दौरान कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने भी एक नारा दे दिया- "जितनी आबादी उतना हक." इस नारे के साथ राहुल गांधी ने कहा अगर हम ओबीसी को ताकत देना चाहते हैं तो पहले ये समझना होगा कि देश में ओबीसी कितने हैं.

17 अप्रैल को कर्नाटक के हुमनाबाद में रैली में राहुल ने कहा था, 

“हमें पता करना होगा कि देश में कितने OBC, दलित और आदिवासी हैं. अगर हमें यही नहीं मालूम तो उन्हें ताकत कैसे दे सकते हैं. जब 2011 में हमारी सरकार थी हमने जातीय जनगणना करवाई थी. पूरा का पूरा डेटा सरकार के पास उपलब्ध है. लेकिन नरेंद्र मोदी जी डेटा पब्लिक नहीं किया है, छिपाया हुआ है. दिल्ली की सरकार को मालूम है कि ओबीसी की आबादी कितनी है लेकिन वो बता नहीं रही.”

जुलाई 2021 में संसद के भीतर मौजूदा सरकार से जातीय जनगणना पर सवाल पूछा गया था. सवाल था कि 2021 की जनगणना जातियों के हिसाब से होगी या नहीं? नहीं होगी तो क्यों नहीं होगी. सरकार का लिखित जवाब आया कि सिर्फ एससी, एसटी को ही गिना जाएगा. यानी ओबीसी जातियों को गिनने का कोई प्लान नहीं है. कहने का मतलब ये है कि केंद्र की सत्ता में जो भी पार्टी होती है, वो जातीय जनगणना को लेकर आनाकानी करती है. विपक्ष में जब ये पार्टियां होती हैं तो जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाती हैं.

जाति जनगणना का इतिहास

इसलिए आगे बढ़ने से पहले जातिगत जनगणना के इतिहास को भी थोड़ा समझ लेते हैं. अंग्रेज़ों के दौर में भारत में जातियों के हिसाब से लोगों को गिना जाता था. आखिरी बार 1931 में जाति जनगणना हुई थी. 1941 में भी जाति जनगणना हुई, लेकिन आंकड़े पब्लिश नहीं हुए थे. इसकी वजह तब के जनगणना कमीशनर एम डब्ल्यू यीट्स ने बताई थी  इसके बाद अगली जनगणना से पहले देश आज़ाद हो गया था. 1951 में सिर्फ अनुसूचित जातियों और जनजातियों को ही गिना गया. यानी अंग्रेज़ों वाले जनगणना के तरीके में बदलाव कर दिया. जनगणना का ये ही स्वरूप कमोबेश अभी तक चला आ रहा है.

संविधान लागू होने के साथ ही में एससी-एसटी के लिए आरक्षण शुरू हो गया था. फिर पिछड़े वर्ग की तरफ से आरक्षण की मांग उठने लगी थी. पिछड़े वर्ग की परिभाषा क्या हो, कैसे इस वर्ग का उत्थान हो, इसके लिए नेहरू सरकार ने 1953 में काका कालेलकर आयोग बनाया था. इस आयोग ने पिछड़े वर्ग का हिसाब लगाया. जाति के आंकड़ों का आधार था 1931 की जनगणना. हालांकि कालेलकर आयोग के सदस्यों में इस बात पर सहमति नहीं बनी कि पिछड़ेपन का आधार जातिगत होना चाहिए या आर्थिक. कुल मिलाकर ये आयोग इतिहास की एक घटना भर रहा, पिछड़ों को लेकर कोई नीतिगत बदलाव इस आयोग के बाद नहीं हुआ.

अब आइए 1978 में. मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार ने बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया. दिसंबर 1980 में मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी. तब तक जनता पार्टी की सरकार जा चुकी थी. मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर ही ज्यादा पिछड़ी जातियों की पहचान की. कुल आबादी में 52 फीसदी हिस्सेदारी पिछड़े वर्ग की मानी गई. आयोग ने पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की. मंडल आयोग की रिपोर्ट पर 9 साल तक कुछ नहीं हुआ. 1990 में वी पी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की एक सिफ़ारिश को लागू कर दिया. ये सिफारिश अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 फीसदी आरक्षण देने की थी. तब आरक्षण के खिलाफ खूब बवाल हुआ था. देशभर में प्रदर्शन हुए थे. मामला कोर्ट में भी गया था. सुप्रीम कोर्ट ने भी आरक्षण को सही माना लेकिन अधिकतम लिमिट 50 फीसदी तय कर दी.

पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह (फोटो- इंडिया टुडे)

इसके बाद 2006 में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने मंडल पार्ट-2 शुरू किया. इस बार मंडल आयोग की एक दूसरी सिफारिश को लागू किया गया. सिफारिश ये थी कि सरकारी नौकरियों की तरह सरकारी शिक्षण संस्थानों मसलन यूनिवर्सिटी, आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल कॉलेज में भी पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिया जाए. इस बार भी बवाल हुआ लेकिन सरकार अड़ी रही और ये लागू भी हुआ. 2010 में आकर फिर जाति आधारित जनगणना की मांग उठी. लालू यादव, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव और गोपीनाथ मुंडे जैसे ओबीसी नेताओं ने ज़ोर शोर से ये मांग उठाई.

लेकिन तब कांग्रेस भी आनाकानी कर रही थी. मार्च 2011 में उस वक्त के गृह मंत्री पी चिदंबरम ने लोकसभा में कहा था कि 

"जनगणना में जाति का प्रावधान लाने से ये प्रक्रिया जटिल हो सकती है. और जो लोग जनगणना का काम करते हैं –ख़ासतौर पर प्राइमरी स्कूल शिक्षक –उनके पास इस तरह के जातिगत जनगणना कराने का अनुभव या ट्रेनिंग भी नहीं है.''

हालांकि यूपीए सहयोगियों के दबाव के बाद मनमोहन सरकार को जाति जनगणना पर विचार करना पड़ा. 2011 में प्रणब मुखर्जी की अगुवाई में एक कमेटी बनाई. इसने जाति जनगणना के पक्ष में सुझाव दिया. इस जनगणना को नाम दिया गया- सोशियो- इकनॉमिक एंड कास्ट सेन्सस. 4800 करोड़ रुपये खर्च कर सरकार ने जनगणना कराई. ज़िले वाइज़ पिछड़ी जातियों को गिना गया. जातीय जनगणना का डेटा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को दिया गया. लेकिन करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी केंद्र सरकार आज तक ये आंकड़ा जारी नहीं कर पाई है.

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