वो 'झरेला' भोजपुरी गायक, जिसका गाना बॉलीवुड चुराता है
भोजपुरी का पहला सिंगिंग सुपरस्टार.
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फोटो - thelallantop
दुश्मन मिले सवेरे लेकिन मतलबी यार ना मिले मूरख मिले बलेसर, पर पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले.
भोजपुरी की ये बातें बड़ी आसानी से जिंदगी के गूढ़ रहस्यों को निपटा देती हैं. सवेरे-सवेरे दुश्मन मिल जाए, कोई बात नहीं. पर सिर्फ अपना मतलब साधने वाला यार ना मिले. ये जीवन के सामाजिक, राजनीतिक हर पहलू में लागू होता है.इन लाइनों को लिखने वाले थे यूपी के बालेश्वर यादव. एक अनपढ़ आदमी जो कबीर की परंपरा में गीत लिखता था. जो तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों की बातों पर भारी पड़ता था. जिसे दुनिया के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान यूं ही हो गया था.

बालेश्वर यादव
बालेश्वर यादव पहले ऐसे भोजपुरी गायक थे जिन्होंने स्टारडम कमाया. गीत लिखते भी और गाते भी. फिर उन्होंने फकीरी नहीं की, अपने गीतों के मार्केट को समझा. और दबा के पैसा भी बनाया. जब तक जिन्दा रहे, उनके कैसेट से मार्केट पटा रहा. ऑर्केस्ट्रा करते, एलबम निकालते और विदेशों में जाकर प्रोग्राम भी देते.
बालेश्वर का जन्म 1942 में मऊ जिले के बदनपुर गांव में हुआ था. गाना बनाने और गाने का शौक बचपन से था. पहले लोकल लेवल पर झंडे गाड़े, फिर सांसद झारखंडे राय के संपर्क में आने के बाद लखनऊ आना हुआ. इसके बाद उन्हें खूब शो मिलने लगे.
पान खा ला मुन्नी साढ़े तीन बजे मुन्नी तीन बजे मुन्नी जरूर मिलना, साढ़े तीन बजे.
ये गाना लिखा था बालेश्वर यादव ने. जिससे प्रेरणा लेकर अनजान ने अमिताभ बच्चन की 'आज का अर्जुन में' गाना दिया था 'चली आना तू पान की दुकान पे साढ़े तीन बजे'. इस गाने में समय की महत्ता और प्रेम के लिए आश्वस्ति देखिए. पान की दुकान पर नायिका को बुलाने की शायद ये पहली तरन्नुममयी गुजारिश थी ये.साढ़े तीन बजे का वक़्त गांव के बड़ा ही रहस्यमयी सा होता है. दोपहर में सारे लोग घरों में अलसाये से दुबके रहते थे. औरतें अपना काम-धाम निपटाकर कुछ-कुछ गुन-बुन रही होती थीं. जो खेतों पर गए रहते थे, वो शाम के होने का इन्तजार करते थे. पानवालों के पास इक्का-दुक्का ग्राहक आते थे. वो ऊंघते रहते थे. ऐसे में प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिए ये वक़्त मुफीद सा हो जाता था. अगर प्रेम घर में करना हो तो बड़े-बूढ़ों की नज़र से ये वक़्त बचाता था. क्योंकि वो सो जाते थे. साथ ही बच्चे भी दुबके रहते दादा-दादी के पास. अगर सरकार को नियोजन करना हो तो इसी वक़्त में सबको डिस्टर्ब करे. क्योंकि हिंदुस्तान में बच्चे इसी वक़्त की दें होते हैं. जो लोग शादी के इन बंधनों से परे हैं उनको घर में जगह नहीं मिलती. उनके लिए साढ़े तीन बजे पान की दुकान पर पहुंचना प्यार का एक मौका देता था. बालेश्वर ने इस चीज को पकड़ लिया था.
स्टार बनने के बाद समाज, राजनीति, बाजार सबको निपटाने के चक्कर में बालेश्वर पर 'समझौते' करने के आरोप भी लगे. पर बंदे ने कब ये वादा किया था कि सबके दिलों की क्रांति के लिए वही मशाल लेकर चलेगा? सबकी अपनी लड़ाई है. खुद ही लड़नी है. दूसरों को क्यों कहते रहना कि तुम मेरी लड़ो.70-80 के दशक में जब एजुकेशन सिस्टम ध्वस्त हो चुका था, साथ ही नौकरियां भी नहीं मिल रही थीं. तब बालेश्वर यादव ने लिखा था: बिकाई ए बाबू BA पास घोड़ा. ये गाना उस दौर के युवाओं के दर्द को बयान करता था.
बालेश्वर ने प्रेम पर भी अपने अंदाज में लिखा. पर उसमें प्रेम को लेकर ठंडी आहें नहीं हैं. अहसास की बातें नहीं हैं. उसमें प्रेमी-प्रेमिका का तकरार है. तंज कसा जाता है एक-दूसरे पर. 'हम कोइलरी चली जाइब ए ललमुनिया के माई'. नायक नायिका को धमकी देता है कि वो कोइलरी में काम करने चला जायेगा. इस लाइन में ये भी पता चलता है कि उस वक़्त के समाज के लिए कोइलरी में जाने का ही ऑप्शन था. घर से भागना, प्यार की तकरार के बाद भागना या नौकरी करने जाना सबके लिए कोइलरी ही मंजिल थी.
इनके गानों में नायिका भी पूरी टशन में रहती थी. अपने त भइल पुजारी ए राजा, हमार कजरा के निहारी ए राजा. खुला चैलेंज है यहां. अपनी सेक्सुअलिटी से नायिका पूरी तरह परिचित है. वो नायक के पुजारीपन पर हमला कर देती है. उसे पता है कि ये सब ढोंग है. कोई और नायिका को निहारने लगे तो पुजारी जी को दिक्कत हो सकती है.
उस वक़्त ददरी का मेला लोगों के लिए बड़ी चीज हुआ करती थी. कंज्यूमर वाला कल्चर उस मेले में ही दिखता थी. संस्कृति क्या, कहिए कि कम पैसे वाली जनता के लिए वो अपने जीवन से अलग एक नया माहौल दिलाता था. 'आव चलीं ए धनिया ददरी क मेला'. पर वहां जाने के बाद मेले में बिछड़ जाने का भी डर रहता था. बालेश्वर की नज़र से अपने पति से बिछड़ी हुई मासूम औरत का दर्द नहीं बचता है. 'हमार बलिया बीचे बलमा हेराइल सजनी'. इस विधा को बिरहा कहा जाता है. भोजपुरी समाज की अपनी विधा है बिरहा. ये अंग्रेजों के टाइम से ही शुरू हुआ था. जब पूर्वांचल के लोग ब्रिटिश राज के द्वीपों में चले जाते थे काम करने और उनकी कोई खबर नहीं मिलती थी जल्दी. तभी ये गीत रचे जाने लगे थे. विरह की आग वाले इन गानों को बिरहा कहा गया.
पर बाद में बालेश्वर के गानों में प्रेम का ये भाव थोड़े सस्तेपन की ओर बढ़ चला. 'चुनरी में लागता हवा, बलम बेलबाटम सिया द'. और ये मुक्त एक्सप्रेशन नहीं था. ये भारत की कुंठित सेक्स संस्कृति का ही रूप था. यहां बालेश्वर के गीत एकदम ही पिछड़ी मानसिकता के हो गए: 'जब से लइकी लोग साइकिल चलावे लगलीं तब से लइकन क रफ़्तार कम हो गइल'.
हालांकि इससे अलग बालेश्वर ने 90 के दशक में चल रही कमंडल राजनीति पर भी अपना ध्यान लगाया. 'बाबू क मुंह जैसे फ़ैज़ाबादी बंडा, दहेज में मांगेलें हीरो होंडा'.
बालेश्वर यादव ने 2008 में आखिरी शो किया था सूरीनाम में. उसके कुछ समय बाद ही उनकी मौत हो गई. हालांकि तब तक भोजपुरी गाने श्लील-अश्लील की गलियों में भटकते हुए अपनी पहचान बना चुके थे.
भोजपुरी-प्रेमी ये कहते हैं कि बालेश्वर ने गानों को गिराने का जो काम शुरू किया था, उसे बाद के गायक गुड्डू रंगीला, मनोज तिवारी, पवन सिंह और बाकी सबने मिलकर अलग ही लेवल पर पहुंचा दिया. पर ये व्याख्या का मसला है. श्लील-अश्लील और गिरना-गिराना वक़्त के हिसाब से बदलता रहता है.