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World Autism Day: क्या खराब पेरेंटिंग है ऑटिज़्म का कारण?

इस जटिल डिसऑर्डर बारे में जितनी कम जागरूकता है, उससे कहीं अधिक भ्रांतियां.

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ऑटिज़्म को लेकर कई भ्रांतियां लोगों में हैं. सांकेतिक फोटो- Pixabay
2 अप्रैल 2022 (Updated: 3 अप्रैल 2022, 13:52 IST)
Updated: 3 अप्रैल 2022 13:52 IST
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ऑटिज़्म डिसऑर्डर के बारे में लोगों को इतना ही पता है कि इससे पीड़ित लोग अजीब सी हरकते करते हैं. इस जटिल डिसऑर्डर बारे में समाज में जितनी कम जागरूकता है, उससे कहीं अधिक भ्रांतियां. जितने कम मेडिकल एविडेंस, उतने ज्यादा मिथक.
मेडिकल की भाषा मे कहें तो 'Autism Spectrum Disorder’. 'स्पेक्ट्रम' इसलिए क्योंकि इस डिसऑर्डर के लक्षण हर इंसान में बिल्कुल अलग और कॉम्प्लेक्स होते हैं. ऑटिज़्म की कंडीशन को लेकर तमाम गलत इन्फॉर्मेशन्स और बेतुकी धारणाएं हमारे आसपास मौजूद हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी भ्रांतियां ऑटिज़्म से पीड़ित लोगों के सामने नई सामाजिक मुश्किलें खड़ी कर रहीं. तो आज यानी 2 अप्रैल को वर्ल्ड ऑटिज़्म डे के मौके पर हम कोशिश करेंगे कि आपको ऑटिज़्म से जुड़ें तमाम भ्रम और भ्रान्तियों के बारे में बता दें. 'ऑटिज़्म बीमारी है!' सबसे पहले और सबसे ज़रूरी यही जानना है कि ऑटिज़्म कोई बीमारी ही नहीं है. ये एक तरह की कंडीशन है. विज्ञान की भाषा में कहें तो 'न्यूरो-डेवलपमेंटल डिसॉर्डर'. ऑटिस्टिक होने का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ है. इसका मतलब है कि उस व्यक्ति का दिमाग़ दूसरे लोगों से अलग तरीके से काम करता है. कुछ ऐसा, जिसके साथ आप पैदा हुए. जिसके लक्षण बचपन में या बढ़ती उम्र के साथ दिखाई देते हैं. जिसमें ध्यान, स्मृति, धारणा, भाषा, संवाद और सामाजिक व्यवहार जैसी समस्याएं शामिल हैं. डिसऑर्डर के बारे में अभी तक पुख्ता क्लीनिकल एविडेंस न होने के कारण मेडिकल साइंस ने ऑटिज़्म को बीमारी नहीं माना है. इस कंनडीशन के बारे में जागरूकता की कमी है और इसी कमी के कारण इसका पता देर से चलता है. 'ऑटिज़्म ठीक हो सकता है!' कुछ लोग सोचते हैं कि ऑटिज़्म एक 'स्टेज' है, जो बढ़ती उम्र के साथ अपने आप चली जाएगी. नहीं भी होगा, तो इलाज से ठीक हो जाएगा. बच्चों के लिए खासतौर पर यही सोचा जाता है. ऑटिज़्म की कड़वी सच्चाई ये है कि कोई ऑटिस्टिक इससे कभी बाहर निकल ही नहीं सकता. यह आजीवन रहने वाली अवस्था है. माने ऑटिज़्म लाइलाज है. लेकिन कई सारी ऐसी थेरेपीज़ हैं, जिससे पीड़ित के जीवन और स्थिति में सुधार किया जा सकता है. इन थेरेपीज़ से स्थिति में बेहतरी हो सकती है. इसके लिए सबसे ज़रूरी है लक्षणों को जल्दी से जल्दी पहचान लेना. सभी ऑटिस्टिक लोग अलग-अलग तरीकों से प्रभावित होते हैं. लक्षण भी किसी व्यक्ति के जीवन के अलग-अलग चरणों में बदल सकते हैं, विकसित हो सकते हैं, बदतर हो सकते हैं. हां, लेकिन ऑटिज़्म के आजीवन बने रहने के बावजूद ऐसा कोई कारण नहीं है जिससे ऑटिस्टिक व्यक्ति औरों की तरह जीवन नहीं जी सकते. 'वैक्सिनेशन है ऑटिज़्म का कारण!' ऑटिज़्म को लेकर यह सबसे पॉपुलर मिथ है कि ये बचपन में दिए जाने वाले 'प्रिवेंटिव वैक्सीन' के कारण होता है. जबकि वास्तव में ये सच नहीं है. इस मिथक के पीछे की एक कहानी है. लेट 90s में एक मैगज़ीन में एक रिसर्च पेपर छपा, जिसमें वैक्सीन और ऑटिज़्म के बीच एक बहुत ही कमज़ोर संबंध को स्थापित करने की कोशिश की गई. कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा टाइप.
फिर इस रिसर्च की जांच हुई, तो यह पाया गया कि इस 'प्रयोग' में रिसर्च के मानकों का इस्तेमाल ही नहीं हुआ था. सिर्फ हवा हवाई बातें थी. बाद में इस भ्रामक निष्कर्ष को पूरी तरह से खारिज कर दिया गया. और रिसर्चर का मेडिकल लाइसेंस भी छीन लिया गया. पिछले कुछ दशकों में इस बात का कोई सबूत नहीं होने के बावजूद, वैक्सीन और ऑटिज़्म के कनेक्शन होने का मिथक बना हुआ है.
वैक्सीनेशन को लेकर ऑटिज्म से जुड़े कई मिथक हैं, सांकेतिक फोटो- Pixabay
वैक्सीनेशन को लेकर ऑटिज्म से जुड़े कई मिथक हैं, सांकेतिक फोटो- Pixabay
'ऑटिज़्म एक महामारी बनती जा रही!' यह मिथक भी बहुत आम है. बहुत से लोग सोचते हैं कि ऑटिज़्म अब बहुत सामान्य होता जा रहा. इसलिए इसे 'महामारी' मान लेना चाहिए. हालांकि, यह सच है कि पिछले दो या तीन दशकों में ऑटिज़्म से पीड़ित लोगों की संख्या वास्तव में बढ़ी है. लेकिन इसका कारण कुछ और है. कारण है ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम के प्रति लोगों की बढ़ती समझ. जिन लोगों की पहले ऑटिस्टिक के रूप में पहचान नहीं हो पा रही थी, उन्हें अब डायग्नोज़ किया जा रहा है. पॉपुलर मीडिया में भी ऑटिज़्म के इर्द गिर्द विमर्श बढ़ा है. हो सकता है कई लोगों में ऑटिज़्म का पता न चल पाया हो और उन्हें केवल सामाजिक रूप से अजीब, असंवेदनशील, इंट्रोवर्ट माना जाता हो. 'सभी ऑटिस्टिक लोगों में कुछ स्पेशल स्किल होती है!' अब पॉपुलर मीडिया में विमर्श हुआ तो सब अच्छा ही हो, ये भी ज़रूरी नहीं. ऑटिज़्म के बारे में कई सारे मिथकों के बीच यह एक और व्यापक गलत धारणा है कि ऑटिस्टिक लोगों में कुछ स्पेशल स्किल होती है. इस मिथ को पॉप कल्चर मीडिया और कुछ फिल्मों ने हवा दी. साल 1988 में आई हॉलीवुड फिल्म ‛रेन मैन’ और टीवी शो द ‛बिग बैंग थ्योरी’ के बाद से यह भ्रांति फैलनी शुरू हुई. भारत में भी इस तरह की तमाम फिल्में बनी. ऐसी फिल्मों के द्वारा यह भ्रम फैलाया गया कि सभी ऑटिस्टिक लोगों में कुछ स्पेशल स्किल्स होते हैं. वास्तव में ऑटिस्टिक व्यक्ति का इंटरेस्ट और कंसन्ट्रेशन अक्सर एक ही विषय में बहुत ज्यादा होता है. कभी-कभी वह सब कुछ छोड़कर एक ही काम को लगातार करते हैं. जिसके कारण उन्हें किसी विषय पर औसत स्तर से अधिक ज्ञान हो सकता है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वे उस काम में ऑटिज़्म के कारण दक्ष हैं. 'ऑटिज़्म से होती है Intellectually Disability' यह एक और मिथक है. इसकी सच्चाई यह है कि ऑटिज़्म से पीड़ित कुछ लोगों में बौद्धिक अक्षमता होती है और कुछ लोगों को नहीं. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि ऑटिज़्म का मतलब इंटलेक्चुअल डिसेबिलिटी नहीं है. बात इतनी सी है कि कुछ ऑटिस्टिक लोगों को मौखिक रूप से बोलने और संवाद करने में दिक्कत आती है. कुछ को कोई दिक्कत नहीं आती. कुछ ऑटिस्टिक लोगों का IQ अन्य लोगों की तुलना में अधिक होता है और कुछ का IQ बिलो एवरेज होता है. कम्युनिकेशन को लेकर ये लक्षण परिस्थितियों और उम्र के हिसाब से बदल भी सकते हैं. इसलिए लक्षणों को किसी एक सांचे में देखना या उसे जेनरलाइज़ करना उचित नहीं है. 'ऑटिस्टिक लोग कुछ सीख नहीं सकते!' यह भी एक चलती-फिरती धारणा है कि ऑटिस्टिक व्यक्ति कोई नई स्किल सीख या विकसित नहीं कर सकते. यह कतई सच नहीं है. दरअसल हम सभी की सीखने और समझने की क्षमता अलग है. सभी लोगों की तरह ऑटिस्टिक व्यक्ति को भी शिक्षित करने के लिए उनकी जरूरतों, क्षमताओं और सीखने की शैली को समझना ज़रूरी है. हां, ये हो सकता है कि ऑटिज़्म से पीड़ित व्यक्ति को सिखाने के लिए कुछ अलग मेथड्स के साथ स्पेशल ट्रीटमेंट की आवश्यकता हो. कुछ ऑटिस्टिक बच्चों को पढ़ाना औरों की तुलना में और आसान भी हो सकता है. इसमें और सुधार और जल्दी ग्रोथ के लिए प्रोफेशनल ट्रीटमेंट का सहारा लिया जा सकता है.
World Autism Day. सांकेतिक फोटो- Pixabay
World Autism Day. सांकेतिक फोटो- Pixabay
'खराब पेरेंटिंग है ऑटिज़्म का कारण!' एक बात ये आती है कि खराब परवरिश इस डिसऑर्डर का कारण है. ऐसा सोचने के लिए कोई पुख्ता मेडिकल एविडेंस मौजूद नहीं है. तमाम रिसर्च के बाद अब यह साफ हो चुका है कि खराब पालन-पोषण ऑटिज़्म का कारण नहीं बन सकता. लेकिन सोचने वाली बात है कि ये मिथक जनमा कहां से? असल में इस मिथक के पीछे का कारण है ‛refrigerator mother hypothesis’ थ्योरी. 1950 के दशक में ऑस्ट्रियन फिजिसिस्ट Leo Kanner ने थ्योरी दी कि जो माएं भावनात्मक रूप से अपने बच्चों की उपेक्षा करेंगी उनके बच्चों को मानसिक रूप से इतना आघात पहुंचेगा कि वे ऑटिस्टिक हो जाएंगे. यह थ्योरी पूरी तरह से फर्जी थी. पूरी तरह से. अब इसे वैज्ञानिक रूप से तो खारिज कर दिया गया पर यह मिथक पूरी तरह से खत्म नही हो पाया. यह एक व्यापक रूप से फैली गलतफहमी है जिसका जिन रह-रह कर बोतल से बाहर आ जाता है. ऑटिस्टिक बच्चे अधिक हिंसक होते हैं! यह ऑटिस्टिक बच्चों के माथे पर लगा सबसे झूठा कलंक है. हाल में हुई कई रिसर्चेज़ ने ये बताया है कि दूसरों की तुलना में ऑटिस्टिक लोगों में अधिक हिंसक होने का कोई प्रमाण नही है. बच्चों में अक्सर ये देखा जाता है कि जो वे चाहते हैं, उन्हें न मिलने पर वे परेशान होते हैं. इस तरह के बच्चों में खुद को व्यक्त करने की क्षमता का अभाव होता है, जिसके कारण वे संघर्ष कर सकते हैं. ये भी हो सकता है वे अपनी भावनाओं को कंट्रोल करने में उतने सक्षम न हों. यह गलत धारणा है कि एक ऑटिस्टिक बच्चा जानबूझकर अधिक हिंसक होता है या खुद को शारीरिक नुकसान पहुंचाने की संभावना रखता है. आंकड़े क्या कहते हैं? सेंटर्स फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रीवेंशन (CDC). दुनियाभर में सेहत के बदलते मिजाज पर नजर रखने वाली अमेरिकी संस्था. CDC के अनुमानों के मुताबिक हर 44 में से एक अमेरिकी बच्चे को ऑटिज़्म है. वहीं 2.21% व्यस्क आबादी ऑटिज़्म से प्रभावित है. WHO के अनुसार दुनिया में 160 बच्चों में एक बच्चा ऑटिज़्म से प्रभावित है. भारत में ऐसे मामलों रिपोर्टिंग कम हैं. स्कूलों में हुए एक सर्वे के मुताबिक भारत में प्रत्येक 10000 बच्चों में से लगभग 23 बच्चे ऑटिस्टिक हैं. ऐसा माना जाता है कि भारत में जानकारी के अभाव के कारण ज्यादातर ऑटिज़्म के मामले सामने नही आ पाते. भारत में कई ऑटिस्टिक लोग इलाज के बिना रह रहे हैं. इस ख़ास स्थिति के बारे जागरूकता फैलाने के लिए United Nations ने साल 2007 में 2 अप्रैल को World autism Day की घोषणा की. साल 2012 से इसे एक विशेष थीम के साथ मनाया जाता है. वर्ल्ड ऑटिज़्म डे 2022 की थीम है ‘Inclusive Education’ मतलब ‘समावेशी शिक्षा’.
ऑटिज़्म अवेयरनेस डे. सांकेतिक फोटो- Pixabay
ऑटिज़्म अवेयरनेस डे. सांकेतिक फोटो- Pixabay

विशेषज्ञों के मुताबिक ऑटिस्टिक व्यक्ति लोगों से घुलने-मिलने, संवाद स्थापित करने, पढ़ने-लिखने और समाज में मेलजोल बनाने में संघर्ष करते हैं. सफल न होने पर कभी-कभार उनकी मानसिक स्थिति तनावपूर्ण हो जाती है. कुछ कॉमन लक्षण जैसे किसी बात या हरकत को बार बार दोहराना. आवाज या टच से डर जाना. आई-टू-आई कॉन्टैक्ट इसटैब्लिश करने और शरीर को बैलेंस करने में मुश्किलों का सामना करना है. बावजूद इसके ऑटिज़्म का ये मतलब नही है कि ऑटिस्टिक व्यक्ति कभी दोस्त नहीं बना सकते या नौकरी नहीं पा सकते. बस इसमें आवश्यकता होती है अतिरिक्त मदद की. ऑटिस्टिक लोगों को एक्स्ट्रा सपोर्ट मिले तो वे भी आत्मविश्वास के साथ अपने रोज़मर्रा के काम कर सकते है.
ऑटिज़्म पर हुए तमाम रिसर्च के बावजूद यह स्पष्ट नही हो पाया कि ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर का कोई एक तय कारण क्या है. इसकी जटिलता देखते हुए इसके लक्षण और गंभीरता अलग-अलग हैं, इसके कई कारण हो सकते हैं. कुछ मामलों ये जेनेटिक हो सकते जबकि कुछ लोगों के दिमाग में अन-नैचुरल केमिकल चेंजेज़ इसका कारण हो सकता है. बता दें कि ये महज अनुमान ही हैं. लक्षण अलग होने की वजह से उनकी जरूरतें भी अलग होती हैं.
आमतौर पर ये डिसॉर्डर बच्चों में पाया जाता है पर ऑटिज़्म सिर्फ़ बच्चों को ही नहीं, वयस्कों को भी हो सकता है. अधिकांश लोगों में इसके लक्षण बचपन मे दिख जाते है पर कई ऐसे भी हैं जिनमें यह लक्षण वयस्क होने के बाद उभरते हैं.

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