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आंग सान सू की: नोबेल मिलते ही इंसानियत मर गई!

बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कह रही हैं म्यांमार की नेता आंग सान सू की.

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सत्ता की महत्वाकांक्षा ही आंग सान सू की के चुप रहने की इकलौती वजह नजर आ रही है...
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स्वाति
12 सितंबर 2017 (Updated: 12 सितंबर 2017, 12:37 PM IST) कॉमेंट्स
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पहले विश्व युद्ध को एक सदी बीत चुकी है. वो क्यों हुआ, आज तक इसका कोई सही-सही जवाब हम नहीं दे सके हैं. क्या हम भी दोषी नहीं हैं? थोड़े कम हिंसक ही सही, लेकिन दोष तो हमारा भी है. आने वाले कल और इंसानियत के मुताबिक हम सही फैसला नहीं कर सके. गलती तो हमारी भी है. केवल जंग ही वो इकलौती जगह नहीं जहां शांति और सुकून का कत्ल होता है. जहां कहीं भी लोगों की तकलीफें नजरंदाज की जाती हैं, वहां संघर्ष की पौध जमने लगती है. तकलीफ और दर्द और कड़वे होते जाते हैं. संघर्ष बढ़ता जाता है.
- आंग सान सू की के नोबेल भाषण का अंश (2012)
म्यांमार में पिछले लंबे समय से बहुसंख्यक बौद्ध समुदाय और सेना मिलकर रोहिंग्या मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं...
म्यांमार में लंबे समय से बहुसंख्यक बौद्ध समुदाय और सेना मिलकर रोहिंग्या मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं...
ताकत नहीं, डर इंसान को खराब करता है. उसे भ्रष्ट बना देता है. जिनके पास ताकत है, वो इसे खो देने के डर से भ्रष्ट हो जाते हैं. - फ्रीडम फ्रॉम फीयर, आंग सान सू के निबंधों की किताब (1991)
काश! आंग सान सू की अपनी कही हुई बातें याद रख पातीं.


तारीख: 16 जून, 2012जगह: ओस्लो
नोबेल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था. नोबेल मिलने के 21 साल बाद किसी ने अपना प्राइज लिया. इतने सालों तक दुनिया उसका इंतजार करती रही. उसके संघर्ष में नजीर तलाशती रही. आंग सान सू की म्यांमार में नजरबंद होतीं. दुनिया के लाखों लोग उनकी रिहाई की दुआ मांगते थे. 15 साल नजरबंद रहीं. 2010 में रिहा हुईं. नोबेल प्राइज लेते हुए उन्होंने अपने भाषण में कहा था, 'मैंने तकलीफें सही हैं. जिनसे प्यार था, उनसे दूर रहना पड़ा. जिनसे मुहब्बत नहीं थी, उनके साथ रहना पड़ा. ऐसे वक्त में मैं कैदियों और शरणार्थियों के बारे में सोचती थी. ऐसे लोगों की तकलीफें याद आती थीं, जिन्हें उनकी मिट्टी से उखाड़ दिया गया. जिनकी जड़ें नोच दी गईं. उन्हें उनके घर, परिवार और दोस्तों से दूर कर दिया गया.'
म्यांमार में सेना द्वारा प्रायोजित हिंसा से लाखों रोहिंग्या मुसलमान प्रभावित हुए हैं...
म्यांमार में सेना द्वारा प्रायोजित नरसंहार से लाखों रोहिंग्या मुसलमान प्रभावित हुए हैं...

नोबेल लेते हुए क्या बड़ी-बड़ी महान बातें कह रही थीं उस दिन आंग सान सू की के भाषण में सब कुछ बेहतरीन था. मानवता. दया. भाईचारा. सद्भाव. शांति. रिफ्यूजियों का दर्द. धार्मिक सहिष्णुता. उन्होंने कहा था कि दयालु होना सबसे प्यारा, सबसे कीमती एहसास है. उन्हें उम्मीद थी कि नेकी से इंसानों की जिंदगी बदल सकती है. शरणार्थियों को आसरा देने के लिए नॉर्वे की पीठ थपथपाई थी. कहा था, 'जिन लोगों को उनकी अपनी जमीन में आजादी और सुरक्षा नहीं मिली, उन्हें अपने यहां ठौर देकर नॉर्वे ने मिसाल कायम की है.' थाइलैंड के रिफ्यूजी कैंप्स का भी जिक्र किया था. दुनिया की बेहद चर्चित राजनैतिक कैदी के इन महान शब्दों को पढ़िए:
हमारा मकसद एक ऐसी दुनिया बनाना है, जहां कोई विस्थापित न रहे. जहां लोगों को रिफ्यूजी न बनाया जाए. जहां कोई बेघर और नाउम्मीद न हो. एक ऐसी दुनिया बनाएं जिसका हर कोना लोगों को सुकून भरी पनाह दे सके. जहां रहने वाले लोगों को आजादी मयस्सर हो. जहां हर कोई शांति से जी सके.
तीन लाख से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमानों को देश छोड़कर जाना पड़ा है...
तीन लाख से ज्यादा रोहिंग्या मुस्लिमों को देश छोड़कर जाना पड़ा है, लेकिन जाएं कहां? उनके लिए कहीं जगह नहीं...

उस दिन उनके भाषण की हर पंक्ति से महानता टपक रही थी. इंसानियत में यकीन रखने वाले हर शब्द को सुनकर अभिभूत थे. उनके हर शब्द में उम्मीद थी. उन्होंने कहा था,
जब मैं बर्मा में लोकतंत्र लाने के आंदोलन से जुड़ी, तब मेरे दिमाग में किसी सम्मान या पुरस्कार का ख्याल नहीं आया था. एक आजाद, सुरक्षित और न्यायपूर्ण समाज की नींव रखना ही मेरा इनाम था. इतिहास ने मुझे मौका दिया. जब नोबेल कमिटी ने मुझे सम्मानित करने का फैसला किया, तो मेरे सफर का अकेलापन थोड़ा कम हो गया. मैं दुनियाभर के उन लोगों को शुक्रिया कहना चाहती हूं जिन्होंने मुझ पर भरोसा जताया. जिनके विश्वास ने मुझे हिम्मत दी. जिनकी वजह से शांति पर मेरा यकीन और मजबूत हुआ.
लाखों रोहिंग्या दयनीय स्थितियों में शरणार्थी शिविरों के अंदर रहने को मजबूर हैं...
लाखों रोहिंग्या दयनीय स्थितियों में शरणार्थी शिविरों के अंदर रहने को मजबूर हैं...

दुनिया ने उनको क्या समझा और वो क्या निकलीं उस तारीख को बीते अब 5 साल हो गए हैं. दौर बदल गया है. आंग सान सू की भी बदल गई हैं. बस नाम और चेहरा पुराना है. बाकी सोच बिल्कुल सिर के बल उलट गई है. उनके वतन बर्मा (म्यांमार) में 3 लाख से ज्यादा इंसान बेघर हो गए. हजारों मारे गए. अपनी ही सेना के हाथों कत्ल कर दिए गए. लेकिन आंग सान सू की ने उफ्फ तक नहीं की. सच उनकी जुबां को छू तक नहीं पाया. म्यांमार में लोकतंत्र लाने के लिए अपना जीवन तपाने वाली 'देवी' चुपचाप लोगों को मरते देख रही हैं. जब पूछा जाता है, तो बिफर जाती हैं. कहती हैं ये सब झूठ है. कोई नहीं मर रहा. मरने वाले आतंकवादी हैं.
राहत में बंट रहा सामान लेने के लिए जमा हुए रोहिंग्या मुसलमान...
राहत में बंट रहा सामान लेने के लिए जमा हुए रोहिंग्या मुसलमान...

रोहिंग्या के जनसंहार पर उफ्फ तक नहीं कर रहीं उनकी नजरों में इंसान अलग हैं. रोहिंग्या अलग. रोहिंग्या मानवाधिकारों के उनके संघर्ष की परिधि में नहीं आते. बौद्ध बहुसंख्यक देश में अल्पसंख्यक रोहिंग्या. मुसलमान रोहिंग्या. कई पीढ़ियों से म्यांमार में ही रह रहे हैं. लेकिन फिर भी बाहरी समझे जाते हैं. कहां तो आंग सान सू की ह्यूमन राइट्स को दुनिया के सारे इंसानों का पैदाइशी हक मानती हैं. और कहां उनके ही देश में उन्हें मारा-काटा-जलाया जा रहा है. अब लोगों को लगता है कि सू को समझने में गलती हुई. नोबेल प्राइज नहीं देना चाहिए था! शांति का नोबेल. क्या समझा था, क्या निकलीं!
म्यांमार में सेना ने रोहिंग्या मुसलमानों के कई घरों में आग लगा दी...
म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों का नरसंहार किया जा रहा है. बड़ी तादाद में उनके घरों को आग लगा दी गई है...

कभी गांधी और मंडेला के साथ एक सांस में लिया जाता था नाम एक वक्त था. तब आंग सान सू की का नाम महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला के साथ लिखा जाता था. अब दुनिया उन्हें इंसानियत की सीख दे रही है. लेकिन आंग सान सू की पर कोई असर नहीं. कोई सलाह, कोई निंदा काम नहीं आ रही. उन्हें रोहिंग्या संकट को मिल रही कवरेज में साजिश नजर आ रही है.
आंग सान सू की को रिहा करने के पीछे अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा बनाया गया दबाव अहम साबित हुआ...
आंग सान सू की को रिहा करने के पीछे अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा बनाया गया दबाव अहम साबित हुआ था...

किसी की कथनी और करनी में इतना अंतर कैसे हो सकता है? आंग सान सू का शानदार अतीत उनका पीछा कभी नहीं छोड़ेगा. वो जो कर चुकी हैं, कह चुकी हैं, लिख चुकी हैं और जी चुकी हैं, वो हमेशा उनके साथ चिपका रहेगा. तुलना होती रहेगी. आप पुराने दौर में उनका लिखा पढ़ेंगे और उनके आज को देखेंगे, तो ताज्जुब करेंगे. ज्यादा संवेदनशील हों, तो शायद रो पड़ेंगे. उनके बारे में सोचकर जेहन में कुछ सवाल कौंधेंगे. कि इंसान की कथनी और करनी में इतना अंतर कैसे हो सकता है? कोई इतना नकली और बनावटी कैसे हो सकता है?
25 अगस्त को रोहिंग्या चरमपंथियों ने कुछ पुलिस थानों और मिलिटरी बेस पर हमला किया था. इसके बाद रोहिंग्या समुदाय के खिलाफ हिंसा तेज हो गई...
25 अगस्त को रोहिंग्या चरमपंथियों ने सैन्य बेस पर हमला किया. इसके बाद सेना द्वारा की जा रही हिंसा तेज हो गई...

15 साल नजरबंद रहने के संघर्ष की कुल जमा-पूंजी ये कायरता है! 2010 तक आंग सान सू की के लाखों मुरीद थे. हों भी क्यों न! देश को परिवार से आगे रखा था उन्होंने. लोकतंत्र को अपनी भावनाओं से ऊपर जगह दी थी. नजरबंद रहीं. पति और बच्चों से दूर. पति कैंसर से अकेला लड़ता रहा. फिर भी नहीं झुकीं. पति को खो दिया. एक बार आखिरी विदा भी नहीं कह सकीं. लेकिन आज दुनियाभर में उनकी थू-थू हो रही है. उनके अपने देश में रोहिंग्या मारे जा रहे हैं. लाखों लोग बेघर हो रहे हैं. उनके लिए कोई जगह नहीं. उनका कोई देश नहीं. वो कहीं के नहीं. कोई उनका नहीं.
लाखों रोहिंग्या बांग्लादेश सीमा से पार होकर म्यांमार से भागने की कोशिश कर रहे हैं...
लाखों रोहिंग्या नरसंहार से बचने के लिए बांग्लादेश सीमा से पार होकर म्यांमार से भागने की कोशिश कर रहे हैं...

विरोधाभास के मामले में बेमिसाल हैं आंग सान सू की इस मायने में आंग सान सू की बेमिसाल हैं. उनके सिवा दूसरा कोई ऐसा नाम जेहन में नहीं आता. ऐसा कोई जिसने अर्श से फर्श तक का ऐसा सफर तय किया हो. इतना ऊपर चढ़ा हो और फिर इतना नीचे गिरा हो. जीवन भर जिन मूल्यों की वकालत की हो, उसी को यूं तार-तार कर दिया हो. जिन बातों पर पहचान बनाई, उन्हीं को तज दिया. उनका ये ही विरोधाभास उनके जीवन का सार है.
जान बचाकर भाग रहे निहत्थे रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार की सेना खदेड़कर गोली मार रही है...
जान बचाकर भाग रहे निहत्थे रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार की सेना खदेड़कर गोली मार रही है...

आंग सान सू की रोहिंग्या मुसलमानों के लिए कभी संवेदनशील नहीं रहीं आंग सान सू की रोहिंग्या समुदाय को लेकर कभी सजग नहीं दिखीं. उनकी संवेदनशीलता रोहिंग्या के मसले पर दम तोड़ देती थी. जैसे-जैसे म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर हिंसा बढ़ती गई, आंग सान सू की की आलोचना बढ़ती गई. कुछ लोग इनकी तरफदारी भी करते रहे. कहते थे कि 2015 के चुनाव बहुत मायने रखते हैं. चुनाव जीतने के लिए बौद्धों का वोट चाहिए. तब अनुमान जताया गया कि शायद इसीलिए वे रोहिंग्या की तकलीफों पर चुप हैं. फिर चुनाव भी बीत गए, लेकिन उनकी चुप्पी नहीं टूटी.
खबरों के मुताबिक, म्यांमार की सेना ने बांग्लादेश से सटी सीमा पर बारूदी सुरंगें बिछा दी हैं. भागने की कोशिश कर रहे कई रोहिंग्या मुसलमान इन लैंडमाइन्स के शिकार हुए हैं...
सेना ने बांग्लादेश से सटी सीमा पर बारूदी सुरंगें बिछा दी हैं. कई रोहिंग्या मुसलमान इन लैंडमाइन्स के शिकार हुए...

सत्ता के आगे इंसानियत की कोई कीमत नहीं है क्या? हां, म्यांमार में सेना बहुत मजबूत है. लेकिन आंग सान सू की भी बहुत लोकप्रिय हैं. उनकी पार्टी 'नैशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी' को चुनाव में बड़ी जीत मिली. विदेश से लेकर ऊर्जा मंत्रालय, कई अहम प्रभार उनकी पार्टी के पास गए. बहुत कुछ हासिल किया है उन्होंने. इतना शानदार अतीत साथ लेकर भी वो रोहिंग्या के साथ हो रही बर्बरता पर कायरता दिखा रही हैं. सच से मुंह फेरकर खड़ी हैं. चुनाव चुप्पी का आधार बन जाए, तो नेता बोलेगा कब? कोई भी चुनाव आखिरी नहीं होता. इस चुनाव के लिए चुप रहा. फिर अगले के लिए भी चुप रहेगा. फिर उसके अगले के लिए. मतलब कभी बोलेगा ही नहीं.
जिस सेना की तानाशाही के खिलाफ आंग सान सू की ने इतना लंबा संघर्ष किया, अब उसके ही खिलाफ जाने से कतरा रही हैं...
जिस सेना की तानाशाही के खिलाफ आंग सान सू की ने इतना संघर्ष किया, उसके ही खिलाफ जाने से कतरा रही हैं...

नोबेल पीस प्राइज पर दाग लगाया है आंग सान सू की ने! इंटरनेट पर कई अपीलें आ रही हैं. लोग सिग्नेचर कैंपेन चला रहे हैं. आंग सान सू की से नोबेल वापस लेने की मांग कर रहे हैं. नोबेल कमिटी ने कहा है कि प्राइज वापस नहीं लिया जा सकता. ऐसा कोई नियम ही नहीं. लेकिन अपील हो रही है, इसे कैसे नजरंदाज करे कोई? आंग सान सू की को शर्म नहीं आ रही होगी? वो क्यों चुप हैं, ये तो वो ही जानती होंगी. लेकिन सिवा एक बात के और कोई वजह नजर नहीं आती. ताकत और सत्ता का लालच. राजनैतिक महत्वाकांक्षा.
रोहिंग्या मुसलमानों के साथ हो रही अमानवीयता का बचाव कर आंग सान सू की ने नोबल शांति पुरस्कार की गरिमा पर दाग लगाया है...
रोहिंग्या मुस्लिमों पर हो रही हिंसा का बचाव कर आंग सान सू की ने नोबेल पीस प्राइज की प्रतिष्ठा को शर्मिंदा किया...

सत्ता के लालच में ईमान की बात करना भी भूल गई हैं! रोहिंग्या के साथ जाने पर बौद्ध बहुसंख्यक उनसे छिटक जाएंगे. वो सेना का सपोर्ट भी गंवा देंगी. म्यांमार में चलती अब भी सेना की ही है. लेकिन आंग सान सू की का कद कम नहीं है. उन्होंने अपनी शर्मनाक चुप्पी तोड़ी, तो शायद और ताकत हासिल करने से चूक जाएं. शायद म्यांमार में उनका प्रभाव घट जाए. लेकिन क्या महत्वाकांक्षा इतनी बड़ी चीज है? क्या सत्ता का कद इंसानियत से बड़ा है? आंग सान सू की ने जो भी हासिल किया, संघर्षों की बदौलत ही किया. सत्ता के लालच में सब किए-धरे पर पानी बहा देंगी. क्या बिगाड़ के डर से वो ईमान की बात भी नहीं कहेंगी?
म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जो रहा है, उसे हिंसा कहना गलत होगा. वो बड़े स्तर पर हो रहा नरसंहार है...
म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जो रहा है, उसे हिंसा कहना गलत होगा. वो बड़े स्तर पर हो रहा नरसंहार है...



कौन हैं रोहिंग्या मुसलमान, जिनके लिए धरती पर कोई जगह नहीं है:



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क्या ये जली हुई लाशों की फोटो म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों की है?

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