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इस्लामाबाद के इस हिंदू की चिट्ठी हो रही है वायरल

एक पाकिस्तानी हिंदू ने वहां की बहुसंख्यक अवाम के नाम चिट्ठी लिखी है. खुद पढ़ लो.

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साल 2014 की तस्वीर है. पाकिस्तान के लरखाना में मंदिर पर हमला करके मूर्तियां तोड़ दी गई थीं. इसी साल 27 जुलाई को घोटकी में मंदिर पर हमला किया और एक बच्चे को गोली मार दी. Photo: Reuters
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पंडित असगर
3 अगस्त 2016 (Updated: 3 अगस्त 2016, 09:02 AM IST) कॉमेंट्स
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मुकेश मेघवाड़. FACEBOOK
मुकेश मेघवाड़

वतनपरस्ती किसी एक मजहब की बपौती नहीं हो सकती. लेकिन फिर भी अल्पसंख्यकों की देशभक्ति को शक की निगाह से देखा जाता है. पाकिस्तान की बात कर रहे हैं. इस्लामाबाद में रहने वाले मुकेश मेघवाड़ ने ये चिट्ठी उर्दू में लिखी थी. हम इसे यहां हिंदी में दे रहे हैं. पढ़िए.




मैं नहीं चाहता कि सिर्फ एक खास मजहबी पहचान के साथ इस मुल्क में रहूं. या मुझे सिर्फ एक मजहबी पहचान से जोड़ा जाए. मैं चाहता हूं कि मुझे एक शहरी की नजर से देखा जाए. इस मुल्क में बराबर के शहरी की तरह सलूक किया जाए. जब भी किसी से मजहब के नाम पर नफरत बरती जाती है, तो लगता है कि सब कुछ मेरे साथ हो रहा है.
मुझे बार-बार हिंदू होने की सजा मिलती है. हर रोज मुझे हिंदू होने की वजह से मारा जाता है. मेरे साथ तीसरे दर्जे के शहरी जैसा सुलूक किया जाता है. मेरी बहनें अगवा की जाती हैं. उनके साथ जबरदस्ती की जाती है. किसी का जबरी मजहब बदला जाता है, वो सिर्फ इसलिए, क्योंकि यहां की अक्सरियत (बहुसंख्यक) मुझे खुद से अलग समझती है. क्योंकि वो मुसलमान हैं और मैं हिंदू. वो जन्नती हैं, मैं जहन्नमी हूं. वो समझते हैं कि ये धरती, ये वतन सिर्फ उनका है. मेरा नहीं. मैं किसी और सियारे से आया हूं.
वो समझते हैं हिंदू होने का मतलब इंडियन होना है और मुसलमान होने का मतलब पाकिस्तानी होना है. चाहे फिर वही पाकिस्तानी मुसलमान अपने नाम के साथ लुधियानवी, गुरदासपुरी, देहलवी या जयपुरी लगाए. क्या ये ही तकाजा-ए-वतनपरस्ती है?
अब इन्हें कौन समझाए कि मैं (जिसको वो सिर्फ हिंदू, पाकिस्तान का दुश्मन, इस्लाम का दुश्मन समझते हैं) भी इसी धरती का बेटा हूं. मैं बंटवारे से पहले से यहां का रहने वाला हूं. मेरा जन्म इस मिट्टी पर हुआ है. मेरी रग-रग में वतनपरस्ती बसी हुई है.
ओ भाई! मेरे बाप-दादा ने भी अपने खून से इस धरती को सींचा है. इस धरती, इस वतन के लिए खून तो मेरा भी बहा है. लाहौर से लड़काना, लॉयलपुर से लेकर लक्ष्मीपुर चौक तक मरा तो मैं भी हूं. अपनों के ही हाथों. भगत सिंह से लेकर हेमू कॉलोनी तक, रोपलू कोल्ही से लेकर राजा दाहर तक ये धरती मेरे खून से भी तो लाल है. फिर मैं कैसे तुम से कम वतनपरस्त हो गया. और फिर भी सवाल मेरी पहचान पर, मेरी वफा पर, मेरी देशभक्ति पर.

"जब भी गुलिस्तां को लहू की जरूरत पड़ी, सबसे पहले गर्दन हमारी कटी फिर भी कहते हैं अहले चमन, ये हमारा चमन है तुम्हारा नहीं."

जिस भटाई को तुम मानते हो, उसी भटाई के दामन में मैं दफ्न हूं. मैं उडेरो लाल हूं, जहां तुम भी जाते हो मैं भी जाता हूं. मैं बाबा बुल्ले शाह का पैरोकार हूं, जिसे तुम भी मानते हो, मैं भी मानता हूं. अजान पर दुआ सिर्फ तुम ही नहीं मांगते, दुआएं तो मैं भी उसी रब से मांगता हूं. मैंने हमेशा अपनी मां से ये ही दुआ सुनी है कि ऐ मेरे मालिक हिंदू-मुसलमानों के बच्चों की खैर करना. उसके सदके में मेरे बच्चों को भी अपनी अमान में रखना.
वो बचपन में मुझे सिखाती है कि बेटा जब किसी मुसलमान का रोजा हो, तो उसके सामने कभी कुछ खाना नहीं, भगवान नाराज होता है. और हां, मैंने मोहल्ले की मुसलमान चाची से हमेशा ये सुना है, "तू हिंदू बनेगा, न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा."
क्या तुम्हारा खून लाल, मेरा सफेद है? क्या तुम्हारी पेशानी पर मुसलमान और मेरी पेशानी पर हिंदू लिखा है? क्या फर्क है तुम्हारी जिस्मानी बनावट में और मेरी जिस्मानी बनावट में? जब बनाने वाले ने कोई फर्क नहीं किया तो तुम और मैं कौन होते हैं एक दूसरे को बांटने वाले? फर्क सिर्फ सोच का है, जो यहां फैल गई है.
मेरे भाई, अब बता तू कैसे अलग हो गया मुझसे और मैं कैसे अलग हो गया तुझसे? मेरे घर में आग लगाकर तुम कैसे सुकून से सो सकते हो? हमारे एहसासात तो एक हैं न. खून एक है. धरती एक है. आसमान एक है. ऊपर वाला एक है. लोरी एक है. जबान एक. रंग एक. वतन एक. तहजीब एक. फिर कैसे मैं तुम्हारा दुश्मन बन गया? कैसे मैं वतन फरामोश और गद्दार बन गया? क्या डर है तुम्हें मुझसे? ये फर्क मुझे बार-बार याद दिलाता है कि मैं शायद इस मुल्क में इंसान नहीं, कोई और मखलूक हूं. भाई मेरे मैं इंसान हूं. बस मुझे इंसान रहने दो. मुझे बार-बार इंसान होने की सजा न दो. मुझे बस इस मुल्क का शहरी रहने दो. विनय महाजन की कविता है.

'मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर ने बांट लिया भगवान को धरती बांटी, सागर बांटा, मत बांटो इंसान को.' 

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